जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
 

पुत्रमोह | लघुकथा (कथा-कहानी)

Author: मधुदीप

आज दस साल बाद मुझे मेरे लँगोटिया दोस्त का खत मिला है। चौंकिये मत ! समय कभी-कभी बेरहम होकर लँगोटियों के बीच भी दीवार बन जाता है। खैर, इस किस्से को यहीं छोड़कर मैं इस खत को ही आपके सामने रख देता हूँ।

प्रिय भाई राघव !

दस साल के लम्बे अरसे के बाद आपको खत लिख रहा हूँ। समय बहुत बलवान होता है, नहीं तो साठ साल की दोस्ती क्या एक झटके में टूट सकती थी ! आप तो बिलकुल सही थे दोस्त लेकिन मैं ही उस समय पुत्रमोह में अन्धा हो गया था। आपने तो मेरा ही भला चाहा था मगर मैं न जाने कैसे कह गया था कि यदि आपकी भी कोई सन्तान होती तो आप भी वही करते जो मैं कर रहा हूँ। सुनकर आप चुपचाप वहाँ से चले गए थे। उस समय शायद मैं आपकी पीड़ा नहीं समझ सका था लेकिन आज महसूस कर सकता हूँ कि मैंने आपको कितना बड़ा आघात पहुँचाया था। आप चुपचाप उस पीड़ा को सहते रहे लेकिन एक शहर में रहते हुए भी आपने कभी लौटकर मुझे इसका उत्तर नहीं दिया। काश ! आप लौट आते या उसी समय मुझे भला-बुरा कह लेते तो आज मुझे स्वयं पर इतनी ग्लानि न होती।

आपने उस समय सही कहा था मेरे दोस्त ! हमारा भविष्य हमारे अपने हाथ में होता है। काश ! उस समय मैंने आपका कहा मानकर अपना सब-कुछ अपने इकलौते पुत्र के नाम न किया होता तो मैं इस समय आपको यह पत्र शहर के वृद्धाश्रम से न लिख रहा होता। दोस्त ! मैं चाहता हूँ कि आज आप मुझे माफ कर दो और एक बार यहाँ आकर मेरे गले से लग जाओ। आपको हमारी लँगोटिया दोस्ती का वास्ता है मेरे दोस्त !

आपका पुराना अपना, चेतन ।

नीचे वृद्धाश्रम का पता लिखा है। पाठको ! मैं पत्थर दिल नहीं हूँ। मेरी आँखों से अविरल आँसू बह रहे हैं और मेरी कार उस वृद्धाश्रम की ओर जा रही है।

-मधुदीप गुप्ता
ई-मेल: madhudeep01@gmail.com

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