जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
 

मृत्यु-जीवन (काव्य)

Author: हरिशंकर शर्मा

फूल फबीला झूम-झूमकर डाली पर इतराता था,
सौरभ-सुधा लुटा वसुधा पर फूला नहीं समाता था,
हरी-हरी पत्तियाँ प्रेम से, स्वागत कर सुख पाती थीं,
ओस-धूप दोनों हिलमिलकर भली भाँति नहलाती थीं,

क्रूर काल के कुटिल करों ने सुंदर सुमन मरोड़ दिया!
हरी पत्तियाँ हाय! सुखा दी तरुवर का तन तोड़ दिया।
पर क्या दृश्य देखकर ऐसा, पुष्पों को कुछ त्रास हुआ ?
सौरभ-सुषमा त्याग भला क्या कोई कभी उदास हुआ ?

कर्मवीर के लिये मृत्यु का भय कब बाधक होता है।
कर्महीन ही कायरता से 'काल-काल' कह रोता है!
शैशव, यौवन और बुढ़ापा, देह-दशा-परिवर्तन है,
इसी प्रकार मृत्यु, जीवन का बस अचूक आवर्तन है।

मरने की परवाह नहीं है, मरनेवाला मरता है,
जीते-जी जीवित रह जग में कर्म विवेकी करता है।

-हरिशंकर शर्मा

 

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