अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
 

अभिषेक कुमार सिंह की दो ग़ज़लें (काव्य)

Author: अभिषेक कुमार सिंह

दो ग़ज़लें

चाँद के जैसे बहुत दूर नज़र आती है
आजकल जिंदगी मुश्किल से इधर आती है

तेरी खामोशी ही भारी है सभी चीखों पर
ज़ेह्न में सबके वो चुपचाप उतर आती है

कुछ तो अनबन रही होगी निशा से उसकी भी
रात के जाते दबे पांव सहर आती है

मैंने भी ठान हीं रक्खा है यकीं मानो तुम
दफ़्न कर दूंगा तेरी याद अगर आती है

दिल की बेचैनी को हम लाख छुपाएँ लेकिन
चोट लगते हीं सरे राह उभर आती है

- अभिषेक कुमार सिंह

 

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तन्हाई की बस्ती में ख्वाबों का ठिकाना है
क्या हाल है इस दिल का दिलवर को बताना है

इक पल के घरौंदे में इक उम्र छुपाया था
आओ तो ज़रा हमदम वो राज दिखाना है

अंदाज़ निराले हैं दिल फेंक इशारों के
है इश्क नही तो क्या जीने का बहाना है

जिस शख्स के हैं चर्चे हर ओर मुहल्ले में
नादार मुसाफ़िर वो आशिक या दीवाना है

जज्बात के रंगों की तासीर नही मिटती
तुम लाख बचो इनसे पर भीग के जाना है

आवाज़ में हो नरमी लहज़े में नफ़ासत हो
नफ़रत भरी दुनिया से नफ़रत को मिटाना है

- अभिषेक कुमार सिंह

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