देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 

1857 के आन्दोलन में उत्तर प्रदेश का योगदान (विविध)

Author: जयकिशन परिहार / प्रशांत कक्कड़

देश के स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन के समय उत्तर प्रदेश को संयुक्त प्रांत कहा जाता था। देश के स्वतंत्रता आंदोलन में इस प्रांत की भूमिका काफी अहम मानी जाती है। भौगोलिक स्थिति के अनुसार उत्तर प्रदेश देश का एक मुख्य राज्य है और इसकी देश के स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका रही है। 1857 का विद्रोह हो या गांधीजी के नेतृत्व में चला स्वतंत्रता संग्राम, इन आंदोलनों को प्रदेश में भरपूर समर्थन मिला।

1857 के विद्रोह ने अंग्रेजों के मन में भय पैदा कर दिया था। इस विद्रोह के शुरू होने के कई कारण थे। जैसा कि अंग्रेजों के द्वारा सहायक संधि प्रणाली का आरंभ करना। इस संधि के अंतर्गत राजा को अपने खर्चे पर अंग्रेजों की सेना अपने राज्य में रखनी होती थी। राज्य के दिन-प्रतिदिन के कार्य में भी सेना का हस्तक्षेप होता था। गोद प्रथा की समाप्ति ने निसंतान राजाओं को बच्चा गोद लेने की प्रथा पर रोक लगा दी थी। 1856 में अवध राज्य का धोखे से विलय होने से संबंधित अंग्रेज सरकार के कदम ने आम जनता और अन्य राजघरानों को चिंता में डाल दिया था। अंग्रेजों के द्वारा सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक क्षेत्रों में किए गए कार्यों ने आम जनमानस को व्यथित कर दिया था। जनता इन सब कार्यों को अपनी जिंदगी में हस्तक्षेप मानने लगी। तात्कालिक कारणों में 29 मार्च, 1857 को बैरकपुर में बलिया के सैनिक मंगल पांडे द्वारा किया गया विद्रोह था, जब सैनिक छावनी में इस बात की खबर फैली कि कारतूसों में गाय-सुअर की चर्बी मिली हुई है। इस बात ने वहां उपस्थित सैनिको में रोष उत्पन्न कर दिया। भारतीय सैनिकों ने बैरक में अंग्रेज अधिकारियों को मारकर कब्जा करने की असफल कोशिश की। इसके लिए मंगल पांडे को दोषी मानते हुए उन्हें आठ अप्रैल 1857 को फांसी की सजा दे दी गई। इस घटना ने पूरे देश में रोष उत्पन्न कर दिया। 10 मई 1857 को मेरठ में सैनिकों के विद्रोह ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध जनता के मन में पनप रहे आक्रोश को और अधिक भड़का दिया। जे.सी.विल्सन के शब्दों में " प्राप्त प्रमाणों से मुझे पूर्ण रूप से विश्वास हो चुका है कि एक साथ विद्रोह करने के लिए 31 मई 1857 का दिन चुना गया था, यह संभव है कि कुछ क्षेत्रों में विद्रोह का सूत्रपात निश्चित समय के बाद हुआ हो, किंतु इस आधार पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि 1857 की क्रांति के सूत्रपात के लिए कोई निश्चित समय निर्धारित नहीं किया गया था। उस समय देश में विद्रोह के कई कारक पूरी तरह से मौजूद थे। बैरकपुर की घटना ने उसे चिंगारी का रूप दे दिया, वहीं मेरठ की घटना ने उसे ज्वाला का रूप दिया।

1857 के पूर्व बरेली में 1816 ई. में स्थानीय अंग्रेज अधिकारियों द्वारा चौकीदार को आरोपित करने पर हुई सख्ती ने हिंसक विद्रोह का रूप धारण कर लिया। इस विद्रोह का नेतृत्व मुफ्ती मोहम्मद एवाज ने किया, जो 1817 ई. में आगरा प्रांत के अंतर्गत अलीगढ़ के किसान, जमींदार व सैनिक कम्पनी के प्रशासनिक फेरबदल से क्रोधित थे। इसके साथ ही मालगुजारी बढ़ाने के निर्णय ने विद्रोह का रूप अख्तियार कर लिया। इसके नेतृत्वकर्ता हाथरस के दयाराम और मुरसान के भगवंत सिंह रहे।

1857 के विद्रोह में मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में विद्रोह आरंभ हुआ। जफर के अत्याधिक वृद्ध होने पर उनके सैन्य दल का नेतृत्व बरेली के बख्त खां ने किया। बख्त खां के नेतृत्व वाला 10 सदस्यीय दल सार्वजनिक मुद्दों पर सम्राट के नाम से सुनवाई करता था।

कानपुर के अंतिम पेशवा बाजी राव द्वितीय के दत्तक पुत्र धोंधू पंत, जो कि नाना साहब के नाम से प्रसिद्ध थे, ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर भारत के सम्राट बहादुर शाह जफर को गर्वनर के रूप में मान्यता दी। नाना साहब ने अंग्रेजों का बखूबी सामना किया। बाद में वे पराजित होकर नेपाल चले गए और वहां से आजीवन वो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते रहे। नाना साहब ने अंग्रेजों को चुनौती देते हुए कहा "कि जबतक मेरे शरीर में प्राण है, मेरे और अंग्रेजों के बीच जंग जारी रहेगी। चाहे मुझे मार दिया जाए, या फिर कैद कर लिया जाए, या फांसी पर लटका दिया जाए, पर मैं हर बात का जवाब तलवार से दूंगा''।

लखनऊ में बेगम हजरत महल ने विद्रोह को अपना नेतृत्व प्रदान किया और लखनऊ में ब्रिटिश रेजीडेंसी पर आक्रमण किया। बाद में वे पराजित होकर नेपाल चली गई, जहां गुमनामी में उनका इंतकाल हो गया।

झांसी में रानी लक्ष्मीबाई ने 4 जून, 1857 को विद्रोह प्रारंभ किया, जहां वे अपने राज्य के पतन तक लड़ती रही। जहां से वह ग्वालियर चली गई और तात्या टोपे के साथ विद्रोह को नेतृत्व प्रदान किया। अनेक युद्धों को जीतने के बाद 17 जून 1858 को जनरल ह्यूरोज से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गई। खुद जनरल ह्यूज ने लक्ष्मीबाई के बारे में कहा "कि भारतीय क्रांतिकारियों में यह सोयी हुई औरत अकेली मर्द है''।

फैजाबाद में मौलवी अहमदुल्ला ने विद्रोह का झंडा बुलंद किया और आह्वान किया "कि सारे लोग अंग्रेज काफिर के विरुद्ध खड़े हो जाओ और उसे भारत से बाहर खदेड़ दो''। उनकी गतिविधियों से परेशान होकर अंग्रेज सरकार ने उन पर 50 हजार रुपए का इनाम घोषित कर दिया था। उन्हें पांच जून 1858 को पोवायां (रुहेलखंड) में गोली मार दी गई। अंग्रेजों ने मौलवी अहमदुल्ला के बारे में कहा "कि अहमदुल्ला साहस से परिपूर्ण और दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति तथा विद्रोहियों में सर्वोत्तम सैनिक है''।

रुहेलखंड में खान बहादुर खान ने विद्रोह को नेतृत्व प्रदान किया। मुगल सम्राट, बहादुर शाह जफर ने इन्हें सूबेदार नियुक्त किया। इलाहाबाद में लियाकत अली, गोरखपुर में गजाधर सिंह, फर्रूखाबाद में तफज्जल हुसैन, सुल्तानपुर में शहीद हसन, मथुरा में देवी सिंह और मेरठ में कदम सिंह सहित अन्य कई लोगों ने विद्रोह को गति प्रदान की।

हालांकि यह विद्रोह अपने मंतव्य में सफल नहीं रहा, क्योंकि इसमें एकता, संगठन की कमी, उपर्युक्त सैन्य नेतृत्व का अभाव इत्यादि था। लेकिन 1857 के विद्रोह ने लोगों में देश प्रेम की भावना को बल प्रदान किया और लोगों में यह विश्वास उत्पन्न कर दिया कि वे भी अंग्रेजों से टक्कर ले सकते हैं। 90 साल बाद 1947 में अंग्रेजों की भारत से विदाई के लिए इस कारक को बड़ा अहम माना जाता है।

-जयकिशन परिहार/प्रशांत कक्कड़
[लेखक द्वय, पसूका]

 

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