बेच डाला जिस्म... (काव्य)

Author: गिरीश पंकज

बेच डाला जिस्म और ईमान रोटी के लिए,
क्या से क्या होता गया इंसान रोटी के लिए।

एक ही जैसे हैं सब अपना-पराया कुछ नहीं,
बन गया है आदमी शैतान रोटी के लिए। 

जिदगी के वास्ते रोटी जरूरी है मगर,
कर रहा है आदमी विषपान रोटी के लिए। 

था बड़ा ख़ुद्दार लेकिन वक़्त कुछ ऐसा पड़ा,
बेच डाला उसने हर सम्मान रोटी के लिए।

भूख से पागल हुआ तो ले रहा है देखिए 
आदमी ही आदमी की जान रोटी के लिए।

भूख  से तो मर गया ‘पंकज' मगर वह कह गया,
क्यों भला बेचूँ अरे सम्मान रोटी के लिए।

-गिरीश पंकज 
[साभार-हरिगंधा, मई 2018 ]

 

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश