हलीम 'आईना' के दोहे  (काव्य)

Author: हलीम 'आईना'

आज़ादी को लग चुका, घोटालों का रोग।
जिसके जैसे दांत हैं, कर ले वैसा भोग ॥

ख़ाकी में काला मिला, उसमें मिला सफ़ेद।
यही तिरंगी रूप है, लोक-तंत्र का भेद ॥

छत पर मोरा-मोरनी, बैठे आँखें भींच । 
इक अबला का चीर जब, दुष्ट ले गया खींच॥

जीवन भी इक व्यंग्य है, इसको पढ़ ले यार । 
जिसने ख़ुद को पढ़ लिया, उसका बेड़ा पार ॥

माँ है मंदिर का कलश, मस्जिद की मीनार।
ममता माँ का धर्म है, और इबादत प्यार ॥

जब जुगनू के सामने, दीप करे ख़ुद  रास। 
'आईना' तब जान लो, अंत दीप का पास ॥

बेटे-बहुओं को लगे, बूढ़ी अम्मा भार । 
दो रोटी के वास्ते, रोज़  चले तकरार ॥

- हलीम 'आईना' 
[ हँसो भी....हँसाओ भी...., सुबोध पब्लिशिंग  हाउस, कोटा ]

 

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