अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
गिरिधर कविराय की कुंडलिया (काव्य)  Click to print this content  
Author:गिरिधर कविराय

गुन के गाहक सहस नर, बिनु गुन लहै न कोय
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन
दोऊ को इक रंग, काग सब भये अपावन
कह गिरिधर कविराय, सुनो हो ठाकुर मन के
बिनु गुन लहै न कोय, सहस नर गाहका गुन के

बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेय
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देय
ताही में चित देय, बात जोई बनि आवै
दुर्जन हँसे न कोइ, चित में खता न पावै
कह गिरिधर कविराय, यहै करु मन परतीती
आगे को सुख समुझि, होई बीती सो बीती

साँईं अपने भ्रात को, कबहु न दीजै त्रास
पलक दूर नहिं कीजिये, सदा राखिये पास
सदा राखिये पास, त्रास कबहूँ नहिं दीजै
त्रास दियो लंकेश, ताहि की गति सुन लीजै
कह गिरिधर कविराय, राम सों मिलयो जाईं
पाय विभीषण राज, लंकपति बाज्यो साईं

पानी बाढ़ो नाव में, घर में बाढ़ो दाम
दोऊ हाथ उलीचिये, यही सयानो काम
यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै
परस्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै
कह गिरिधर कविराय, बड़ेन की याही बानी
चलिये चाल सुचाल, राखिये अपनो पानी

- गिरिधर कविराय

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