यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।
परिवार की लाड़ली | लघु-कथा (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:माधव नागदा

एक साथ तीन पीढ़ियां गांव के बस स्टेण्ड पर बस का इंतजार कर कही थीं| दादी,मां,पिता, बेटा और उसकी नई-नवेली बहू| बस स्टेण्ड हाइवे के किनारे था हालांकि यातायात की कमी नहीं थी लेकिन लोकल बसों की कमी थी| फलस्वरूप लोगों को घंटों इंतजार करना पड़ता था|

समय गुजारने के लिये बेटे ने एक तरीका ढूंढ निकाला| वह आते-जाते ट्रकों के पीछे की लिखावटों को पढ़ने लगा |जरा जोर से ताकि सब सुन लें| कोई रोमांटिक सी बात होती तो बहू की ओर देख कर और जोर से बोलता| बहू घूंघट कुछ ऊपर उठाती नीचे का ओंठ दांतों तले दबाती और सबकी नजरें बचाते हुए पति की ओर आंखें तरेरती| पति को पत्नी के चेहरे की यह लिखावट ट्रक की लिखावट से भी ज्यादा रोमांचित कर देती| उसे इंतजार में भी अनोखा आनंद आने लगा|

अभी-अभी मार्बल से लदा एक ट्रक गुजरा था| ओवरलोड| धीमी रफ्तार| दर्द से कराहता हुआ सा, लिखा था, ‘परिवार की लाडली।' बेटे ने कहा, वो देखो परिवार की लाडली जा रही है और बड़े लाड़ से पत्नी को निहारा|

"हुंह, इतना तो बोझा लाद रखा है और परिवार की लाड़ली!" पत्नी ने व्यंग्य किया|

सासूजी सुन रही थी| उन्होंने तिरछी निगाहों से अपने पति व सास की तरफ देखा, फिर बोली,"इतना बोझा लाद रखा है तभी तो परिवार की लाड़ली है| वरना.....|" बहू ने महसूस किया कि सासूजी की आवाज घुट कर रह गई है|

- माधव नागदा
ई-मेल: madhav123nagda@gmail.com

 

Previous Page  |  Index Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश