साईं बाबा के नाम एक चिट्ठी (विविध)  Click to print this content  
Author:गिरिराज किशोर

बाबा, पांय लागी। जब सत्य साईं बाबा के बारे में कोई कहता था कि वह शिरडी के बाबा के अवतार हैं, तो मुझे यकीन नहीं होता था। उसका कारण था। सच्चाई कुछ भी हो। जो कुछ सुना था, उससे जो चित्र मन ही मन बने थे, उनमें और सत्य साईं बाबा के बीच की कोई निस्बत बैठती ही नहीं थी। बाबा, तुम मुझे एक अलमस्त फकीर लगते थे। थे भी। हाँ, अगर कोई कहता, पाँच सौ साल पहले जन्मे कबीर से तुम्हारा रिश्ता था, तो मैं तुरन्त मान लेता। न मैंने तुम्हें देखा, ना बाबा कबीर को। उनका भी खड्डी चलाते जुलाहे के रूप में चित्र देखा और तुम्हारी भी भिक्षा पात्र लिए तस्वीर देखी। तुम भी सुना मुसलमान थे, कबीर भी। वह निर्गुनिया थे, तुम सगुनिया होकर भी निर्गुनिया ही ज़्यादा लगे। तुम्हारा यह सूत्र वाक्य कि सबका मालिक एक है, मुझे हमेशा कबीर का पद वाक्य याद दिलाता था, मोको कहाँ ढूँढ़े रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।

बाबा, तुम चक्की चलाते थे और रोग-शोक पीस डालते थे। वह खड्डी पर बैठकर ऐसी नायाब चादर बुनता था, जिसे ऋषि-मुनि सबने ओढ़ी, फिर जस की तस धर दीनी चदरिया। तुम चक्की में रोग-शोक पीसकर सबको मुक्त करते थे, पर बाबा कबीर चलती चाकी देख रोते थे। ‘चलती चाकी देख दिया कबीरा रोय’, चक्की में जाकर कोई साबुत नहीं बचता। पर तुम मानते, आटे की तरह बिखरो मत, केन्द्र की तरफ जाओ। न गेहूँ बचता है और न घुन। बाबा, आप दोनों के बीच चक्की जन कल्याण का अद्भुत उपकरण हैं। कैसी विचित्र बात है कि कबीर के चार सौ साल बाद तुमने चक्की को जनकल्याण के सन्देश का माद्यम बनाया और तुम्हारे लगभग पाँच दशक के बाद गाँधी बाबा ने चरखे को परिवर्तन का ज़रिया बनाया। ये जड़ के नीचे भी अगर कोई जड़ हो सकती है, उससे जुड़े थे। ये दोनों आध्यात्मिक और सामाजिक परिवर्तन के प्रभावी माध्यम बन गए। शायद कुछ अंचलों में आज भी हैं। लगता है, आप तीनों ही अपनी-अपनी तरह वैज्ञानिक थे। आध्यात्मिक वैज्ञानिक। तीनों ने परिवर्तन के अपने-अपने यन्त्र ढूँढ़ लिए थे।

बाबा, आपने अध्यात्म को कर्मकाण्ड नहीं बनने दिया, बल्कि जनकल्याण का सेकुलर यन्त्र बना डाला। मन्दिर में सोये और मस्जिद में जगे। लेकिन सौदागरों ने तुम्हें सोने के सिंहासन पर बिठाकर तुम्हारे ज़मीनी अनुयायियों से दूर कर दिया, जो तुम्हारी द्वारका में आकर तुमसे अपना दुख-सुख बाँटते थे, तुमसे शक्ति पाते थे। अब भी क्या उनका तुमसे कोई संवाद बचा है ? नहीं ना। उनका भी अब नया संस्करण आ गया है। वह अपने स्वार्थ को ही पहचानते हैं। आपके दया भाव को फायदा का सौदा मानते हैं। तुम स्वभाववश करते हो, वे स्वार्थवश।

बाबा, मैं जानता हूँ कि तुम्हें सब कुछ मालूम है, लेकिन फिर भी कुछ बातें अर्ज़ करना चाहता हूँ। पिछले दो-तीन साल से हम लोग मुंबई आते हैं। बचपन से मैं और मीरा शिरडी के साईं बाबा, यानी आपके चमत्कारों के बारे में सुनते रहे हैं, इसलिए हर साल सोचते थे कि तुम्हारे दरबार में हाज़िरी दे आएँ। लेकिन हर बार टाल जाता रहा। न पहुँच पाने को, जैसे कि होता है, हमने आपके ऊपर थोप दिया, बाबा ने नहीं बुलाया। बाबा क्या निमन्त्रण देंगे ? हम लोगों की प्रवृत्ति है, अपनी बला दूसरों पर टालने की। लेकिन 22 दिसम्बर की सुबह अपने दामाद की कार से शिरडी की दिशा में बढ़े, तब पता नहीं, हमने यह सोचा या नहीं कि बाबा ने बुलाया है।

लेकिन बाबा, मेरी कुछ पीड़ाएँ हैं। आपके यहाँ तो मजबूर और महकूम ही अपनी अरदास सुनाने आते हैं। बड़े और धनाढ्य तो पिछले दरवाज़े से आए, कुछ तुम्हारे पुजारियों को पूजा, कुछ तुम्हें। वह पूजा भी तुम्हें कितनी पहुँचती होगी, वह तो न्यासी जानते होंगे। वह बेचारे, जिनके बीच तुम रहे या जिनको तुमने अपनी कृपा का नूर बिना भेदभाव के बाँटा, वे लोग तो मूर्ति के सामने मुँह तक नहीं खोल पाते, धकेल दिए जाते हैं। बाबा, कुछ कहते नहीं बनता। तुम्हारे सिवाय किससे कहूँ ? सामान्य आदमी की तरह जाना कितना दुश्वार है ! विशिष्ट आदमी पहले। न्यास में इतना धन आता है लेकिन उस धन का न आपके लिए उपयोग है और न आपके जन के लिए। आपका जन तो मारा-मारा फिरता है। वॉलंटियर्स तक नहीं रहते, जो दर्शन करने में मदद करें। धक्कम-धक्का करते चलते चले जाओ। ऊपर जाकर तुम्हारा सिंहासन। तुम्हारी कृपा है, सब ठीक है। कभी कुछ उल्टा-सीधा हो गया, तेरे जन ही जाएँगे, क्योंकि वहाँ कोई रास्ता बताने वाला तक नहीं होता। यह तक बताने वाला नहीं कि वरिष्ठ नागरिक के जाने का दरवाज़ा किधर है।

वर्दी वाले तक भरमाते हैं। एक नम्बर दरवाज़े पर जाओ, वहाँ से तीन नम्बर पर भेज देंगे। लोगों में सहूलियत से बात करने की सलाहियत तक नहीं। एक विकलांग बच्चो को आपकी प्रतिमा के सामने से धकेल दिया गया। मुझे उन लोगों से करना पड़ा कि साईं बाबा से कहना होगा कि बाबा, इन्हें जो कुछ देना हो दो, पर थोड़ी इन्सानियत भी दो। एक महिला स्वयंसेविका बोली, जा कह दे। वह तुझसे नहीं डरते, न डरें, लिहाज़ तो करें। साईं बाबा के सेवक हैं। वह तो अपने को मालिक समझते हैं। बाबा, आपको इन मालिकों से क्या लेना ? इन्हें तुमसे लेना है, इसलिए तुम्हें इस सिंहासन पर बैठाकर, बाँधकर, तुम्हें अपनों से दूर कर देना चाहते हैं। बाबा, क्या तुम अपनों से दूर रहकर खुश रह सकते हो ?


—तुम्हारा एक कृपाकांक्षी
(‘अमर उजाला’ 19 जनवरी 2009)

साभार - देखो जग बौराना, राजपाल प्रकाशन
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