अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
दीवाली - राजा बलि की कथा (विविध)  Click to print this content  
Author:भारत-दर्शन संकलन

पुरातन युग में दैत्यों के राजा बलि ने अपने जीवन में दान देने का वचन लिया था। कोई याचक उससे जो वस्तु माँगता राजा उसे वह वस्तु देता था। उसके राज्य में जीव-हिंसा, मद्यपान, वेश्यागमन, चोरी और विश्वासघात उन पाँच महापातकों का अभाव था।

चहुँओर दया, दान अहिंसा, सत्य और ब्रह्मचर्य का बोलबाला था। आलस्य, मलिनता, रोग और निर्धनता उसके राज्य से कोसों दूर थीं। लोग पारस्परिक स्नेह के साथ रहते थे। द्वेष और असूया को रोकने का भरसक प्रयास किया जाता था। अतः इतने अच्छे राज्य का रक्षण करने के लिए भगवान विष्णु ने भी राजा बलि का द्वारपाल बनना स्वीकार कर लिया था। उन्होंने राजा की धर्मनिष्ठा स्मृति को बनाए रखने के लिए तीन दिन अहोरात्रि महोत्सव का निश्चय किया था। यही महोत्सव आज दीपमालिका के नाम से प्रसिद्ध है।

 

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