भारत की परंपरागत राष्ट्रभाषा हिंदी है। - नलिनविलोचन शर्मा।
आज़ादी (काव्य)  Click to print this content  
Author:हफ़ीज़ जालंधरी

शेरों को आज़ादी है, आज़ादी के पाबंद रहें,
जिसको चाहें चीरें-फाड़ें, खाएं-पीएं आनंद रहें।

साँपों को आज़ादी है, हर बसते घर में बसने की,
उनके सर में ज़हर भी है, और आदत भी है डसने की।

शाहीं को आज़ादी है, आज़ादी से परवाज़ करें,
नन्‍ही-मुन्‍नी चिड़ियों पर जब चाहे मश्‍क़े-नाज़ करें।

पानी में आज़ादी है घड़ियालों और निहंगों को,
जैसे चाहें पालें-पोसें अपनी तुंद उमंगों को।

इंसां ने भी शोख़ी सीखी वहशत के इन रंगों से,
शेरों, साँपों, शाहीनों, घड़ियालों और निहंगों से।

इंसान भी कुछ शेर हैं, बाकी भेड़ों की आबादी है,
भेड़ें सब पाबंद हैं लेकिन शेरों को आज़ादी है।

शेर के आगे भेड़ें क्‍या हैं, इक मनभाता खाजा है,
बाकी सारी दुनिया परजा, शेर अकेला राजा है।

भेड़ें लातादाद हैं लेकिन सबको जान के लाले हैं,
इनको यह तालीम मिली है, भेड़िये ताक़त वाले हैं।

मास भी खाएं, खाल भी नोचें, हरदम लागू जानों के,
भेड़ें काटें दौरे-ग़ुलामी बल पर गल्‍लाबानों के।

भेडि़यों से गोया क़ायम अमन है इस आबादी का,
भेड़ें जब तक शेर न बन लें, नाम न लें आज़ादी का।

इंसानों में साँप बहुत हैं, क़ातिल भी, ज़हरीले भी
इनसे बचना मुश्किल है, आज़ाद भी हैं, फुर्तीले भी।

साँप तो बनना मुश्किल है उस ख़सलत से माज़ूर हैं हम,
मंतर जानने वालों की मुहताजी पर मजबूर हैं हम।

शाहीं भी हैं, चिड़ियाँ भी हैं, इंसानों की बस्‍ती में,
वह नाज़ा हैं रिफ़अत पर, यह नालां अपनी पस्‍ती में।

शाहीं को तादीब करो या चिड़ियों को शाहीन करो,
यों इस बाग़े-आलम में आज़ादी की तल्क़ीन करो।

बहरे-जहां में ज़ाहिर-ओ-पिन्हां इंसानी घड़ियाल भी हैं,
तालिबे-जानो-जिस्‍म भी हैं, शैदा-ए-जाहो-माल भी हैं।

ये इंसानी हस्‍ती को सोने की मछली जानते हैं,
मछली में भी जान है लेकिन ज़ालिम कब गरदानते हैं।

सरमाए का जि़क्र करो, मज़दूर की इनको फ़िक्र नहीं,
मुख्‍तारी पर मरते हैं, मजबूर की इनको फ़िक्र नहीं।

आज यह किसका मुंह है आए, मुँह सरमायादारों के,
इनके मुंह में दांत नहीं, फल हैं ख़ूनी तलवारों के।

खा जाने का कौन सा गुर है जो इन सबको याद नहीं,
जब तक इनको आज़ादी है, कोई भी आज़ाद नहीं।

ज़र का बंदा अक्ल-ओ-ख़िरद पर जितना चाहे नाज़ करे,
ज़ेरे-ज़मीं धंस जाए या बाला-ए-फ़लक परवाज़ करे।

उसकी आज़ादी की बातें, सारी झूठी बातें हैं,
मज़दूरों को, मजबूरों को खा जाने की घातें हैं।

जब तक चोरों, राहज़नों का डर दुनिया पर ग़ालिब है,
पहले मुझसे बात करे, जो आज़ादी का तालिब है।

#

- हफ़ीज़ जालंधरी
साभार - आज़ादी की लड़ाई के ज़ब्तशुदा तराने

 

Posted By manmohan pal   on Tuesday, 19-Jul-2016-09:18
 
ये साइट मुझे पहले क्यों नहीं मिली इस की वजह से मुझे कितनी नयी चीजों का ज्ञान मिला है। Thanks for this site.
 
 
Previous Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश