अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
आर्शीवाद (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:देवेन्द्र सत्यार्थी

एक क्षण ऐसा भी आता है, जब अतीत और वर्तमान एकाकार हो जाते हैं, बल्कि इसमें भविष्य की शुभ कामना का भी समावेश हो जाता है।

ऐसा ही एक क्षण था, जब शान्तिनिकेतन में गुरुदेव के हाथों में किसी अज्ञात हिन्दी लेखक द्वारा भेजी हुई पाण्डुलिपि पहुंची, इस निवेदन के साथ कि गुरुदेव इस पर आशीर्वाद के दो शब्द लिख दें।

"बुलाओ पण्डित को।" गुरुदेव ने अपने किसी सहायक से कहा।

उनका संकेत पण्डित हजारीप्रसाद द्विवेदी की ओर था।

पण्डितजी आये तो गुरुदेव ने वह पाण्डुलिपि उन्हें दिखाई।

पण्डितजी ने इधर-उधर से पाण्डुलिपि के पन्ने पलटकर कुछ ऐसी भंगिमा से गुरुदेव की ओर देखा, जिसका भाव था कि इस कच्ची रचना पर कुछ भी लिखना गुरुदेव को शोभा नहीं देगा।

गुरुदेव समझ गए।

उन्होंने बड़ी विनम्रता से बचपन का किस्सा सुनाया कि बंकिमबाबू और विद्यासागर सरीखे महापुरुष जब भी जोड़ासांखों वाले उनके घर में उनके पिताजी से मिलने आते, उनका आशीर्वाद बाल-लेखक के रुप में उन्हें भी मिल जाता।

जब वे उभरकर लेखक के रुप में बंगला भाषा के पाठकों के सामने आ गये तो अक्सर दूसरे लेखकों का यह स्वर उनके कानों में पहुंचता रहता:
"ए होलो बड़ी लोकेदर छेले। ए की लिखते पारे।"

अर्थात यह ठहरा बड़े लोगों का बेटा। क्या यह कुछ लिख सकता है?

गुरुदेव ने बताया कि आधी सदी से ऊपर समय बीत जाने पर भी वह कटाक्ष उनके कानों में बराबर गूंजता रहता है।

पण्डित हजारी प्रसाद भौंचक्के से सुनते रहे।

गुरुदेव ने उन्हें समझाया कि "जब जोर की आंधी चलती है तो ऐसा आदमी कोई बौडमबसन्त ही होगा, जो बरगद का तना थामकर यह अभिनय करे कि वह बरगद को गिरने से बचा रहा है।"

फिर वे बोले- "देखो, पण्डित। गमले के पौधे की देखरेख बहुत जरुरी है। अब बोलो, मैं इस पाण्डुलिपि पर चार शब्द लिखू या नहीं?"

पण्डितजी को यही कहना पड़ा - "गुरुदेव! आपका आशीर्वाद तो इसे मिलना ही चाहिए।"

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रबीन्द्रनाथ ठाकुर/रबीन्द्रनाथ टैगोर

साभार - बड़ों की बड़ी बाते
सस्ता साहित्य मंडल

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