अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
वो चुप रहने को कहते हैं | नज़्म (काव्य)  Click to print this content  
Author:राम प्रसाद 'बिस्मिल'

इलाही ख़ैर वो हर दम नई बेदाद करते हैं।
हमें तुहमत लगाते हैं जो हम फ़र्याद करते हैं॥
कभी आज़ार देते हैं कभी बेदाद करते हैं।
मगर इस पर भी सौ जी से हम उनको याद करते हैं॥
असीराने कफ़स से काश ये सैयाद कह देता।
रहो आज़ाद होकर हम तुम्हें आज़ाद करते हैं॥
रहा करता है अहले ग़म को क्या-क्या इंतिज़ार उसका।
के देखें वो दिले नाशाद को कब शाद करते हैं॥
यह कह-कह कर बसर की उम्र हमने क़ैदे उल्फ़त में।
वो अब आज़ाद करते हैं, वो अब आज़ाद करते हैं॥
सितम ऐसा नहीं देखा, जफ़ा ऐसी नहीं देखी।
वो चुप रहने को कहते हैं जो हम फ़र्याद करते हैं॥
यह बात अच्छी नहीं होती यह बात अच्छी नहीं करते।
हमें बेकस समझ कर आप क्यों बरबाद करते हैं॥
कोई बिस्मिल बनाता है जो मक़तल में हमें 'बिस्मिल'।
तो हम डर कर दबी आवाज़ से फ़र्याद करते हैं॥

-राम प्रसाद 'बिस्मिल'
[प्रतिबंधित साहित्य]

शब्दार्थ
बेदाद = अत्याचार, आज़ार = सताना, असीराने कफ़स = पिंजरे के बंदी, सैयाद = शिकारी, नाशाद = अप्रसन्न, क़ैदे उल्फ़त = मुहब्बत को क़ैद, सितम = अत्याचार, जफ़ा = अत्याचार, बिस्मिल = आहात, मक़तल = हत्यास्थल

 

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