जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
दूरी  (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:परमजीत कौर

उस कंपकंपाती रात में वह फटी चादर में सिमट-सिमट कर, सोने का प्रयास कर रही थी ।

मगर आँखों में नींद कहाँ थी ? शरीर ठंड से कांप जो रहा था। एक ही चादर थी, जो ओढ़ी थी, दोनों बहनों ने ! छोटी- सी झोपड़ी में पाँच लोग थे। बाकी के लोग दिन-भर के थके, सर्दी की इस ठिठुरन में भी, नींद के आगोश में जा चुके थे। तभी बाहर से आती मधुर आवाजों से, वह बेचैन हो, खिंचती चली गई। एकाएक, झोपड़ी की बंद खिड़की के सुराख़ से, दो आँखें बाहर झाँकने लगी ।

दूर रोशनी से नहाई ऊँची इमारत से, जैसे परियों की आवाज़ें सुनकर, वह मुस्काई। "तो आज दीवाली है !" वह बुदबुदाई, तभी पीछे से हँसने की आवाज़ आई,"पगली! आज के दिन वहाँ कोई संत आते हैं और बच्चों को उपहार देते हैं।" बड़ी कहती हुई जाकर सोने लगी। "अच्छा।" उसने ख़ुशी से बड़ी का हाथ पकड़ लिया। "क्या मुझे भी उपहार मिलेगा ? मैं भी तो बच्ची हूँ न ?" वह ख़ुशी से छटपटाई......!. "हाँ , तुम भी अपने तकिये के नीचे अपनी इच्छा लिख दो। सुना है ,सबके घर आते हैं।" मुँह फेरकर, बड़ी सो गई, दुबारा वही फटी चादर ओढ़ कर! छोटी मुसकुराई , झोपड़ी में फैले अंधेरे में भी उसकी नज़र इधर-उधर दौड़ते हुए अचानक चमक उठी।

कोने में पड़े एक मुड़े-तुड़े कागज़ को उसने झट से उठा लिया। बहुत पहले से संभाल कर रखी एक छोटी सी पेंसिल से उस कागज़ के टुकड़े पर, आढ़ा-तिरछा लिखा -मुझे भी चाहिए ‘रोशनी' और उस कागज़ के टुकड़े को सर के नीचे रख, बड़ी उम्मीद के साथ, सो गई। उसके चेहरे पर मुस्कान थी और बंद आँखों में अनगिनत सपने !

सुबह उठी, तो देखा, बहन रोज़ की तरह खाना बना रही थी। उनींदी आँखों को मलते हुए, उसकी निगाह अपनी फटी चादर पर पडी। मगर ,फिर भी उम्मीद से इधर -उधर कुछ तलाशती है, कुछ भी तो नया नहीं था। झोपड़ी में वही सीलन, मंद-सी रोशनी! फिर भी, मन में कुछ सोचकर मुसकुराती हुई बहन के पास जा, पूछती है,"संत आए थे क्या ? "

बहन मायूसी से, बाहर की तरफ़ इशारा करती है, "ये दूरी देख रही है ? उस इमारत से झोपड़ी तक !
ये संत भी पार नहीं करते।"

7 वर्ष की छोटी, 11 वर्ष की अपनी बड़ी बहन की ओर प्रश्न भरी आँखों से देख, बुदबुदाती हुई बाहर आकर इमारत को देख , अपने-आप से सवाल करती है, "क्यों है ये दूरी........ ?"

-परमजीत कौर
 ईमेल: aparajitaritu6@gmail.com

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