डॉ विनायक कृष्ण गोकाक (विविध)  Click to print this content  
Author:भारत-दर्शन

डॉ विनायक कृष्ण गोकाक का जन्म 9 अगस्त, 1909 को उत्तर कर्नाटक के सावानर में हुआ था।  आपको 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित कन्नड़ भाषा के प्रमुख साहित्यकारों में गिना जाता है।

डॉ. गोकाक ने  कविता से लेकर साहित्यिक समालोचना और सौन्दर्यशास्त्र तक कन्नड में पचास से अधिक और अंग्रेज़ी में लगभग पच्चीस पुस्तकें लिखी हैं। 1931 में बम्बई विश्वविद्यालय से विशेष योग्यता सहित स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के पश्चात् आप बाईस वर्ष की आयु में फर्गुसन कॉलेज, पूना में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर हो गए। छः वर्षों तक अध्यापन करने के बाद आप उच्च अध्ययन के लिए ऑक्सफोर्ड चले गये, जहाँ आप पाश्चात्य दर्शन  के सम्पर्क में आए।

इंग्लैण्ड से लौटने के बाद आपने महाराष्ट्र और कर्नाटक के कई महाविद्यालयों में अंग्रेजी के प्रोफेसर और प्राचार्य के रूप में कार्य किया। कछ समय के लिए आप उस्मानिया विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष रहे। 1959 में आप नवगठित 'सेंट्रल इंस्टीच्यूट ऑफ इंग्लिश एंड फॉरन लैंग्वेजेज़' के प्रथम निदेशक नियुक्त हुए। बाद में आप बंगलौर विश्वविद्यालय के कुलपति बने और फिर भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के निदेशक रहे। आपने 'श्री सत्य साई उच्च शिक्षा संस्थान' के कुलपति के रूप में भी सेवा दी। आप 1978 से 1983 तक साहित्य अकादेमी के उपाध्यक्ष रहे और 1983 से 1988 तक इसके अध्यक्ष रहे।

साहित्य क्षेत्र में डॉ. गोकाक की पहली पसंद कविता है। कन्नड में गीतों का पहला संकलन 'पयान' 1936 में प्रकाशित हुआ। अपने कवि-रूप के शुरू के दिनों में आप महान कन्नड कवि दत्तात्रेय रामचन्द्र बेन्द्रे के प्रभाव में आए। आप द्वारा गठित ''गेलेयर गुम्पु' अर्थात् 'मित्र मण्डल' ने तीसरे दशक में कर्नाटक के साहित्यिक पुनर्जागरण में एक अहम् भूमिका अदा की।

बाद में, चौथे दशक में डॉ. गोकाक श्री अरविन्द द्वारा 'डिवाइन लाइफ' में प्रतिपादित जीवन की अखण्ड दृष्टि से प्रभावित हुए। 

बीस कविता-संग्रहों के अलावा अन्य साहित्यिक विधाओं में भी डॉ. गोकाक ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया है, यथा कहानी, नाटक, यात्रावृत्त, साहित्यिक समालोचना और दार्शनिक निबंध लिखे। आपकी एक महत्त्वपूर्ण कृति है: महाकाव्यात्मक उपन्यास समरसवे जीवन। पाँच खण्डों के 1500 पृष्ठों में फैली यह कथा विभिन्न स्तरों-पारिवारिक, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय पर जीवन के विषय में विचार करती है और जीवन के नये मूल्यों को प्रस्तुत करती है। कविता के क्षेत्र में आपकी उपलब्धि है 'भारत-सिन्धु-रश्मि' नामक महाकाव्य, जो मुक्त छंद में 35,000 पंक्तियों में लिखित एक बृहत् कृति है। इसमें भारत के पुराऐतिहासिक काल का वर्णन करते हुए मुनि विश्वामित्र के राजर्षि से ब्रह्मर्षि में आत्मिक रूपांतरण की कथा है, जो प्रतीक के स्तर पर मनुष्य की नियति की एक रहस्यवादी दृष्टि है। इस महाकाव्य के केन्द्र में, जैसा कि उनकी सभी कृतियों में है, जीवन के बारे में एक सकारात्मक दृष्टिकोण है, जो इस अवधारणा पर बल देता है कि मनुष्य में दिव्यता है और उसकी भूमिका पृथ्वी पर ईश्वर के एक सक्रिय दूत की है।

कन्नड में आपका अप्रतिम योगदान मुक्त छंद के प्रवर्तक का है, जिससे आपने कन्नड कविता को छंद के दृढ़ बंधन से मुक्ति दिलायी। इसका उत्कृष्ट रूप समुद्र गीतगल में दृष्टिगत होता है,जो समुद्र के बारे में लिखी गयी कविताओं की एक शृंखला है और यह 1936 में इंग्लैंड-यात्रा के दौरान जहाज़ पर लिखी गयी। आप आधुनिक कन्नड कविता के अगुआ हैं। इसे आपने 1950 में कन्नड साहित्य सम्मेलन के बम्बई अधिवेशन में 'नव्य काव्य' की संज्ञा दी थी और बाद में यही नाम प्रचलित हो गया।

अंग्रेज़ी में साहित्यिक समालोचना की कई कृतियों के अतिरिक्त डॉ. गोकाक के तीन कविता-संकलन प्रकाशित हुए हैं। इन्टीग्रल वियू ऑव पोएट्री, इण्डिया एंड वर्ल्ड कल्चर और द पोएटिक एप्रोच टु लैंग्वेज नामक कृतियाँ सौंदर्यशास्त्र तथा सांस्कृतिक और भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के क्षेत्र में आपका महत्त्वपूर्ण योगदान हैं।

साहित्य और समाज-सेवा के लिए डॉ.गोकाक अनेक बार सम्मानित किए गये। अपने कविता-संकलन द्यावापृथिवी के लिए आपको 1960 का साहित्य अकादेमी प्रस्कार मिला, 1967 में कर्नाटक विश्वविद्यालय से तथा 1970 में पैसिफिक यनिवर्सिटी, कैलिफोर्निया से आपको डी.लिट. की मानद उपाधियाँ प्राप्त हुईं, 1963 में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा ने 'साहित्याचार्य' की उपाधि प्रदान की और 1960 में भारत के राष्ट्रपति ने आपको 'पद्मश्री' से सम्मानित किया।

देश और विदेश में अध्यापक और लेखक के रूप में प्रतिष्ठित, एक संवेदनशील कवि, कन्नड साहित्य और भारतीय अंग्रेज़ी लेखन के उन्नायक एक दृष्टि रखने वाले शिक्षाविद् और सांस्कृतिक व्यक्तित्व वाले डॉ. गोकाक मनीषी साहित्यकारों में से एक हैं।

कन्नड और अंग्रेजी में एक कवि और लेखक के रूप में अपने उत्कर्ष के लिए साहित्य अकादेमी ने डॉ. विनायक कृष्ण गोकाक को अकादेमी का सर्वोच्च सम्मान, महत्तर सदस्यता, प्रदान की थी।

गोकाक ने कन्नड़ कविता को स्वतंत्रता का उपहार दिया, जिससे नए क्षितिज खुले और नई संभावनाओं का जन्म हुआ। प्राच्य और पाश्चात्य, अतीत और वर्तमान, वर्तमान और भविष्य, मानवतावाद और अध्यात्म तथा राष्ट्रीय और वैश्विक के मध्य सामंजस्य की स्थापना में जीवन भर क्रियाशील गोकाक समन्वय के सिद्धांत पर आरूढ़ थे। अपने गुरु श्री अरबिंद की भांति उनकी आस्था थी कि आत्मिक विकास करते-करते मनुण्य विश्व-मानव के रूप मे सिद्ध हो सकता है।

चौथे दशक के आरंभ मे काव्य की ओर उन्मुख युवक गोकाक दत्तात्रेय रामचन्द्र बेंद्रे के प्रभाव में आए और उनके नेतृत्व में काव्य के एक नए युग का सूत्रपात करने में संलग्न कवि मंडली के एक सदस्य के रूप मे गोकाक ने स्वप्नों और आदर्शों, आध्यात्यिक अभिलाषाओं और काव्यगत प्रेरणाओं की स्वच्छंदवादी कविता का सृजन किया, 'कलोपासक' (1934) में नई पंरपराओं के गीत संकलित हैं। 'समुद्र गीतेगळु' (1940) की कविताएँ एक नई ताज़गी देती हैं और उनमें गोकाक की वह वाणी मुखर हुई है, जिसमें सहज अभिव्यंजना और फक्कड़पन के साथ गीतात्मकता है। स्वातंत्र्योत्तर भारत की नई प्रवृतियों की पूर्ति उन्होंने एक अभिनव काव्य-शैली के सूत्रपात द्वारा की, इस कविता को उन्होंने इलियट,पाउंड और फ़्राँसीसी प्रतीकवादियों के अनुसरण में 'नव्य' कविता कहा। नए विषयों, नई कल्पनाओं, नई कल्पनाओं, नई लयों, नई वक्रोक्तियों और व्यंग्यों के प्रयोगों से भरपूर 'नव्य कवितेगळु' (1950) ने कन्नड़ कविता में एक 'नव्य युग' का सूत्रपात किया।

विनायक कृष्ण गोकाक के नाटकों में 'जननायक' (1939) और 'युगांतर' (1947) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उन्हें कन्नड़ भाषा में आधुनिक समालोचना का जनक कहा जाता है। उनकी आरंभिक आलोचनात्मक रचनाओं पर पश्चिम की गहरी छाप है, किंतु उन्होंने शीघ्र ही कॉलरिज, अरबिंद और भारतीय काव्यशास्त्र को मिला कर अपना-अपना अलग सिद्धांत ढाल लिया, जिसे वह साहित्य का समन्वयकारी रूप कहते थे।

गोकाक की सर्वोत्कृष्ट रचना उनका महाकाव्य 'भारत सिधुं रश्म' है, जो उनकी 1972 से 1978 तक की निरंतर साहित्य साधना का प्रतिफल है। एक ओर इस महाकाव्य में विश्वामित्र का आख्यान है, जो क्षत्रिय राजकुमार होकर भी ऋषि बन गए। दूसरी ओर इसमें आर्य और द्रविड़ समस्याओं के सामरस्य और 'भारतवर्ष' के आविर्भाव की कथा है। इसका दूसरा सूत्रधार राजा सुदास जातियों की समरसता का प्रतीक है, और विश्वामित्र वर्णों की समरसता का। अध्यात्म के उदात्त स्तर पर विश्वामित्र का आख्यान जिस बात का प्रतीक है, उसे अरविंद ने 'ईश्वरत्व की ओर मनुष्य का सफल अभियन' कहा है। त्रिशंकु आज के आदमी का प्रतीक है, जिसने स्मृति, मति और कल्पना पर तो विजय प्राप्त कर ली है, किंतु अभी उसे यह जानना है, कि अंत प्रज्ञा ही सिद्धि का एकमात्र साधन है। विश्वामित्र के अतिमानवीय प्रयन्नों के बावजूद त्रिशंकु स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर पाता, तो अंत में यह अनुभव करके कि मुक्ति केवल अंत:प्रज्ञा से ही संभव है, वह एक नक्षत्र बन जाता है। इस महाकाव्य में वैदिक संस्कृति और उसके परिवर्तनशील मूल्यों की ऐसी पुन.प्रस्तुति है, कि वे वर्तमान और भविष्य के लिए प्रांसगिंक बन गए है।

प्रमुख कृतियाँ:

काव्य
'कलोपासक' (1934)
'समुद्र-गीतेतळु' (1940)
'त्रिविक्रमर आकाशगंगे' (1945)
'अभ्युदय' (1946)
'द्यावा पृथिवी' (1957)
'कोनेय दिन' (1970)
'भारत सिंधु रश्मि' (1982)
कथा साहित्य
'समरसवे जीवन' (1956)
'नव्य भारत प्रवादि नरहरि' (1976)
नाटक
'जन-नायक' (1939)
'युगांतर' (1947)
'मूनिदुर मारि' (1970)
समालोचना
'कवि काव्य महोंनति' (1935)
'नव्यते' (1975)
'कलेय नेले' (1978)
यात्रा वृतांत
'समुद्रदीचेयिंद पोयम्स' (1960)
'इंदिल्ल नाले' (1965)

निधन: 28 अप्रैल, 1992 को आपका निधन हो गया।

[भारत-दर्शन ]

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