अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
आदमी कहीं का (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:रोहित कुमार ‘हैप्पी'

Adami Kahi Ka

'भौं...भौ...' की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी। 

आज काम में ऐसा व्यस्त हुआ कि ना अपनी सुध रही और न उन दो पिल्लों की, जिनके खान-पान का दायित्व कुछ दिनों के लिए मेरी पड़ोसन मुझे सौंप गई थी। मैं जल्दी से उठा और दोनों पिल्लों के लिए अंदर से उनका खाना ले आया। 

मैंने दोनों को पुचकारते हुए, उनका खाना डाल दिया। वे दोनों पूँछ हिलाते हुए जल्दी-जल्दी खाने लगे। एक पिल्ले ने बड़ी शीघ्रता से अपने सब बिस्कुट खा लिए और लपक कर दूसरे का भी एक बिस्कुट खा लिया। दूसरा पिल्ला उसके इस व्यवहार पर बुरी तरह गुर्राया, मानो कह रहा हो, 'आदमी कहीं का!' 


रोहित कुमार ‘हैप्पी'
न्यूज़ीलैंड

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