यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।
प्रेमचन्द | नज़्म (काव्य)  Click to print this content  
Author:नज़ीर बनारसी

बनके टूटे दिलों की सदा प्रेमचन्द।
देश से कर गये है वफा प्रेमचन्द।
जब कि पूरी जवानी प' था साम्राज।
उस ज़माने के है रहनुमा प्रेमचन्द।
           देखने में शिकस्ता-सा एक साज़ है।
           साथ लाखों दुखे दिल की आवाज़ है।

इनके अधरो प' मुस्कान चितवन प' बल।
इनके शब्दों में जान, इनकी भाषा सरल।
इनकी तहरीर गंगा की मोजे-रवाँ।
इनका हर लफ्ज कागज प' जैसे कंवल।
         इनको महबूब हिन्दी भी, उर्दू भी थी।
         इनके हर फूल के साथ खुश्बू भी थी।

मुफ़्लिसी थी तो उसमें भी एक शान थी।
कुछ न था, कुछ न होने प' भी आन थी ।
चोट खाती गयी, चोट करती गयी ।
जिन्दगी किस कदर मर्दे-मैदान थी।
       उनमें मिलती थी पुरखों की बू-बास भी।
       साँस लेता था साथ इनके इतिहास भी।

अब वह जनता की सम्पत है धनपत नहीं।
वह वतन की अमानत है दौलत नहीं।
लाखों दिल एक हो जिससे वह प्रेम है।
दो दिलो की मुहब्बत मुहब्बत नहीं।
       प्रेमचन्द प्रेम का अर्थ समझा गये।
       बनके बादल उठे, जेह्न पर छा गये।

राह मे गिरते-पडते सँभलते हुए।
साम्राजी से तेवर बदलते हुए।
आ गये जिन्दगी के नये मोड़ पर।
मौत के रास्ते से टहलते हुए।
       बनके बादल उठे, देश पर छा गये।
       प्रेमरस सूखे खेतो प' बरसा गये ।

फर्द था फर्द से कारवाँ बन गया।
एक था एक से एक जहाँ बन गया।
शहर वाराणसी! देख तेरा गुबार।
उठके मेमारे हिन्दोस्ताँ बन गया।
     मरनेवाले के जीने का अन्दाज देख।
     देख काशी की मिट्टी का एजाज देख।

- नज़ीर बनारसी
  [गंगोजमन, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, 1966]

Previous Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश