कुम्भ - समुद्र मंथन की कहानी  (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:भारत-दर्शन संकलन

कश्यप ऋषि का विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्रियों दिति और अदिति के साथ हुआ था। अदिति से देवों की उत्पत्ति हुई तथा दिति से दैत्य पैदा हुए। एक ही पिता की सन्तान होने के कारण दोनों ने एक बार संकल्प लिया कि वे समुद्र में छिपी हुई बहुत-सी विभूतियों एवं संपत्ति को प्राप्तकर उसका उपभोग करें। इस प्रकार समुद्र मंथन एक मात्र उपाय था।

समुद्र मंथनोपरान्त चौदह रत्न प्राप्त हुए जिनमें से एक अमृत कलश भी था। इस अमृतकलश को प्राप्त करने के लिए देवताओं और दैत्यों के बीच युद्ध छिड़ गया, क्योंकि उसे पीकर दोनों अमरत्व की प्राप्ति करना चाह रहे थे। स्थिति बिगड़ते देख देवराज इंद्र ने अपने पुत्र जयंत को संकेत किया और जयंत अमृत कलश लेकर भाग चला। इस पर दैत्यों ने उसका पीछा किया। पीछा करने पर देवताओं और दैत्यों के बीच बारह दिनों तक भयंकर संघर्ष हुआ।

संघर्ष के दौरान अमृत कुम्भ को सुरक्षित रखने में वृहस्पति, सूर्य और चंद्रमा ने बड़ी सहायता की। वृहस्पति ने दैत्यों के हाथों में जाने से कुम्भ को बचाया। सूर्य ने कुम्भ की फूटने से रक्षा की और चंद्रमा ने अमृत छलकने नहीं दिया। फिर भी, संग्राम के दौरान मची उथल-पुथल से अमृत कुम्भ से चार बूंदें छलक ही गईं। ये चार स्थानों पर गिरीं। इनमें से एक गंगा तट हरिद्वार में, दूसरी त्रिवेणी संगम प्रयागराज में, तीसरी क्षिप्रा तट उज्जैन में और चौथी गोदावरी तट नासिक में। इस प्रकार इन चार स्थानों पर अमृत-प्राप्ति की कामना से कुम्भ पर्व मनाया जाने लगा।

[भारत-दर्शन संकलन]

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