अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
कुछ नहीं (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:आरती शर्मा

मिन्नी और मुन्ना दोनों भाई-बहन घर के दालान में खेल रहे थे। पापा भी पास में कुर्सी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे।

किसी बात को लेकर मुन्ना ने मिन्नी को दो-चार घूसे जमा दिए। बड़ी होने पर भी उसने मुन्ना को कुछ नहीं कहा और 'मम्मी-मम्मी' करती हुई भाग खड़ी हुई। मुन्ना अब भी उसके पीछे घूसा ताने भाग रहा था।

"क्या बात है, मिन्नी?"

"कुछ नहीं, पापा!" मिन्नी का भ्रातृ प्रेम-प्रेम जाग चुका था।

"मुन्ना, ऐसे नहीं करते! वो तुम्हारी बड़ी बहन है। लड़कियों को मारते नहीं।" पापा ने मुन्ना को हाथ से पकड़ कर भागने से रोकते हुए समझाया।
"पर पापा, आप भी तो मम्मी को....!"

तड़ाक...! "चुप्प, बहुत जुबान लड़ाने लगा है...!

अब मुन्ना भी रोने लगा था । दोनों बच्चों के रोने की आवाज सुनकर 'बच्चों की माँ' बाहर आ गई।

"क्या हुआ, जी?"

"कुछ नहीं।" पति ने अखबार पढ़ते-पढ़ते अनमना-सा उत्तर दिया।

"क्या हुआ, बेटा?" उसने दोनों सुबकते बच्चों को बांहों में भरते हुए पूछा।

"कुछ नहीं, माँ!" सहमें हुए बच्चे माँ के आँचल में दुबकते हुए सुबकाए। अचानक माँ के नीले पड़े चेहरे को देख दोनों बच्चों ने अपने नन्हे हाथों से माँ का चेहरा छूते हुए पूछा, "यह क्या हुआ?"

नन्हे हाथों का दुखते चेहरे पर स्पर्श मानो मरहम बन गया था । माँ अपना दर्द भुलते हुए बोली, "कुछ नहीं।"

-आरती शर्मा, न्यूज़ीलैंड

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