वीरवती की कथा  (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:भारत-दर्शन संकलन

प्राचीन समय में इंद्रप्रस्थ नामक एक शहर में वेद शर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसके सात पुत्र व एक पुत्री थी। पुत्री का नाम वीरवती था। वीरवती का इंद्रप्रस्थ वासी ब्राह्मण देव शर्मा के साथ विवाह हुआ। वीरवती को उसके भाई और भाभियाँ बहुत प्यार करती थीं। शादी के पहले वर्ष करवा चौथ के व्रत पर वह अपने मायके आई। नियमानुसार अपनी भाभियों के साथ 'करवा चौथ' का व्रत रखा। वीरवती की भाभियों ने करवा चौथ का व्रत पूर्ण विधि-विधान से निर्जल रहकर किया, मगर वीरवती सारे दिन की भूख-प्यास सहन न कर पाने से निढाल हो गई।

जब भाइयों को पता लगा कि उनकी प्रिय बहन वीरवती का भूख-प्यास से बुरा हाल हैं और अभी चंद्रमा के कहीं दर्शन नहीं हुए थे और बिना चंद्र दर्शन एवं अर्घ्य दिए वीरवती कुछ ग्रहण नहीं करेगी, इस पर भाइयों से वीरवती की हालत देखी नहीं गई। सांझ का धुंधलका चारों तरफ हो गया था। भाइयों ने योजना बनाई और काफी दूर जाकर बहुत-सी आग जलाई उसके आगे एक कपड़ा तानकर नकली चंद्रमा का आकार बनाकर वीरवती को दिखा दिया। वीरवती को कुछ पता नहीं था, अतः उसने उसी आग को चंद्रमा समझ लिया और अर्घ्य देकर अपना व्रत सम्पन्न कर लिया। व्रत के इस प्रकार खंडित होने से उसी वर्ष उसका पति सख्त बीमार पड़ गया। घर का सारा पैसा इलाज में चला गया और बीमारी ठीक नहीं हुई। घर का अन्न-धन खाली हो गया। पूरा वर्ष व्यतीत होने को आया करवा चौथ का व्रत निकट ही था। एक दिन इंद्रलोक की इंद्राणी ने वीरवती को स्वप्न में दर्शन दिए और उसके करवा चौथ के व्रत के खंडित होने का वृत्तांत सुनाया।

इंद्राणी ने कहा- वीरवती! इस बार तू यह व्रत पूरे विधि-विधान से रखना तेरा पति अवश्य ठीक हो जाएगा। घर में पहले की तरह धन-धान्य होगा। वीरवती ने वैसा ही किया और उसके प्रताप से उसका पति ठीक हो गया।

इच्छित वर घर की कामना हेतु इस व्रत को कुंवारी कन्याएँ भी करती हैं। वे गौरी माँ की पूजा-अर्चना करती हैं। चाँद को अर्घ्य देकर व्रत खोलना सुहागिनों के लिए है जबकि कन्याएँ तारा देखकर ही भोजन कर सकती हैं।

[भारत-दर्शन]

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