कुछ देर अजब पानी बरसा । बिजली तड़पी, कौंधा लपका । फिर घुटा-घुटा सा, घिरा-घिरा हो गया गगन का उत्तर-पूरब तरफ़ सिरा ।
बादल जब पानी बरसाए, तो दिखते हैं जो, वे सारे के सारे दृश्य नज़र आए । छप्-छप्,लप्-लप्, टिप्-टिप्, दिप्-दिप्,- ये भी क्या ध्वनियां होती हैं !! सड़कों पर जमा हुए पानी में यहाँ-वहाँ बिजली के बल्बों की रोशनियाँ झाँक-झाँक सौ-सौ खंडों में टूट-फूटकर रोती हैं।
यह बहुत देर तक हुआ किया ...
फिर चुपके से मौसम बदला। तब धीरे से सबने देखा- हर चीज़ धुली, हर बात खुली-सी लगती है जैसे ही पानी निकल गया !
यह जो आया है वर्ष नया !- वह इसी तरह से खुला हुआ, वह इसी तरह का धुला हुआ बनकर छाए सबके मन में , लहराए सबके जीवन में!
दे सकते हो ? -दो यही दुआ !
- अजितकुमार
[ अकेले कंठ की पुकार, राजकमल प्रकाशन ]
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