जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
 
महामूर्ख | लघु कथा (कथा-कहानी)     
Author:अलोक मरावी

"अरे तिवारी जी, आपको पता है ...वो जो विश्वकर्मा जी है न ....वो जो P.W.D में काम करते हैं... " शर्मा जी बोले।

"कौन...विश्वकर्मा जी?"

"अरे वही जो पिछले मोहल्ले के आखिर में रहते हैं....!" शर्मा जी तपाक से बोले।

"हाँ, हाँ, अच्छा ....याद आया .....हाँ, तो क्या हुआ उन्हें?" तिवारी जी ने पूछा।

"अरे भाई साहब, क्या बताऊँ...... बहुत ही बेवकूफ है...!"

"क्यूँ भाई, ऐसा क्या किया उन्होंने?"  तिवारीजी को आश्चर्य हुआ।

"अरे, उनके बड़े लड़के की शादी तय हो गयी है। सुना है, लड़की वाले बड़े संपन्न हैं।" शर्माजी ने बताया।

"ये तो अच्छी बात है कि उनके लड़के की शादी हो गई है और लड़की भी संपन्न घर की है। बड़ी ख़ुशी की बात है।" तिवारी जी ने अचरज से शर्माजी की ओर देखा।

"क्या ख़ाक अच्छा है! आपको पता है .......उन्होंने लड़की वालों से साफ कह दिया है कि वो एक पैसे का भी दहेज़ नहीं लेंगे।" शर्मा जी मुँह सिकोड़े हुए बोले।

"... तो इसमें .....?"

बात काटते हुए, शर्मा जी फिर बोले, "तो...तो क्या? कितना बेवकूफ आदमी है! दुनिया में महामूर्खों की कमी थोड़े ही है!!"

- अलोक मरावी
  जबलपुर {म.प्र}
  ई-मेल: aloksingh4th@gmail.com

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