जब जब भारत पर भीर पड़ी, असुरों का अत्याचार बढ़ा; मानवता का अपमान हुआ, दानवता का परिवार बढ़ा। तब तब हो करुणा से प्लावित करुणाकर ने अवतार लिया; बनकर असहायों के सहाय दानव दल का संहार किया।
दुख के बादल हट गए, ज्ञान का चारों ओर प्रकाश दिखा; कवि के उर में कविता जागी, ऋषि-मुनियों ने इतिहास लिखा। जन-जन में जागा भक्ति-भाव, दिशि-दिशि में गूंजा यशो गान; मन-मन में पावन प्रीति जगी, घर-घर में थे सब पुण्यवान।
सतयुग बीता, त्रेता बीता--यश-सुरभि राम की फैलाता; द्वापर भी आया, गया--कृष्ण की नीति-कुशलता दरशाता। कलियुग आया--जाते-जाते उसके गांधी का युग आया; गांधी की महिमा फैल गयी, जग ने गांधी का गुण गाया।
कवि गद्गद् हो अपनी अपनी श्रद्धांजलियां भर भर लाए; 'रोमा रोलां', रवि ठाकुर ने उल्लसित गीत यश के गाए। इस समारोह में रज-कण-सी मैं क्या गाऊँ? कैसे गाऊँ? इतनी विभूतियों के सम्मुख घबराती हूँ कैसे जाऊँ?
दुनिया की सब आवाज़ों से जो ऊपर उठ उठ जाती है; लोहे से लोहा बजने की आवाज़ उस तरफ आती है। विज्ञान, ज्ञान की परिधि आज अब नहीं किसी बन्धन में है; सब ओर एक ही बात एक ही चर्चा यह जन-जन में है।
कैसे लोहे में धार करें? कैसे लोहे की मार करे? मानव दानव बन किस प्रकार आपस में घोर प्रहार करे? चल जाए तोप जल जाए विश्व, बम लेकर निकले वायुयान, लोहे के गोले बरस पड़े वर्षा की बूंदों के समान। यह लोहे के युग की महिमा--श्मशान बन गए ग्राम ग्राम; यह लोहे के युग की क्षमता मिट गए धरा के धाम धाम। इस लौह-पान ने क्या न किया--जीवित ग्रामो को गेड़ा दिया; इस लौह-ज्ञान ने क्या न किया--गिरजे से गिरजा लडा दिया।
उस ओर साधना है ऐसी इस ओर अशिक्षित ओ अजान; फावड़ा कुदाली वाले ये--मज़दूर और भोले किसान।
आशा करते हैं एक रोज वह अवतारी फिर आवेगा; आसुरी कृत्य करके समाप्त फिर दुनिया नई बसावेगा। पर किसे ज्ञात था जग में वह अवतरित हो चुका है ज्ञानी; जिसके तप-बल से फुके सभी दुनिया के ज्ञानी विज्ञानी।
वह कौन? एक मुट्ठी भर का अध-नंगा सा बूढ़ा फकीर जिसके माथे पर सत्य-तेज, जिसकी आँखों में विश्व-पीर। जिसकी वाणी में शक्ति, भेद जो कुलिश-कपाटों को जाती। जिसके अन्तर का प्रेम देख असि-धारा कुंठित हो जाती।
वह गॉधी हम सबका 'बापू' वह अखिल विश्व का प्यारा है; वह उनमें ही से एक जिन्होंने आकर विश्व उबारा है। हैं बुद्ध सुखी, उनमें अपने ही परम-धर्म का ज्ञान देख; हैं ईसा खुश बलिदान देख पैग़म्बर खुश ईमान देख।
बह चली तोप, गल चले टैंक, बन्दूकें पिघली जाती हैं; सुनते ही मंत्र अहिंसा का अपने में आप समाती है। पाषाण-हृदय जो थे देखो वे आज पिघल कर मोम हुए; मै 'राम' बनू इस आशय से, 'रावण' के घर में होम हुए।
है यही आदि गॉधी-युग का, जो बापू ने विस्तारा है; हैं यहीं अन्त लोहे के दिन, जिनका विज्ञान सहारा है। विज्ञानी की है परम सिद्धि जग को लोहे से भर देना; है हँसी-खेल तुमको बापू! लोहे को पानी कर देना।
इस तुकबन्दी में सार नहीं पर पूजा की दो बूंद लो; इन वेदों मे छोटा-सा कण उन पावन बूदों का भर दो। जो आगा खॉ के महलों में छल छल करती, थी छलक पड़ीं; उन दो विभूतियों की स्मृति में बरबस आँखों से ढलक पडी।
-सुभद्राकुमारी चौहान |