मुस्लिम शासन में हिंदी फारसी के साथ-साथ चलती रही पर कंपनी सरकार ने एक ओर फारसी पर हाथ साफ किया तो दूसरी ओर हिंदी पर। - चंद्रबली पांडेय।
 
चीन की दीवार (कथा-कहानी)     
Author:फ्रैंज काफ़्का

[ काफ़्का की मृत्यु 1924 में हुई और उनकी प्रख्यात रचना ‘चीन की दीवार' 1931 में प्रकाशित हुई। ‘चीन की दीवार' काफ़्का का एक साहित्यिक दस्तावेज़ है। 'चीन की दीवार' के ऐतिहासिक निर्माण को लेकर काफ़्का ने इस रचना को एक तिब्बती मज़दूर की दृष्टि रचा है। ]

सुदूर उत्तरी सीमा पर जाकर चीन की दीवार का निर्माण कार्य आख़िर पूरा हुआ। दक्षिण-पूर्व और दक्षिण-पश्चिम से दो अलग-अलग हिस्सों में दीवार बढ़ी और इस जगह आकर यह दोनों हिस्से आपस में मिल गए! हिस्सों में बाँटकर निर्माण कार्य चलाने का सिद्धांत, पूर्वी और पश्चिमी मज़दूरों के बड़े-बड़े दलों ने छोटे-छोटे रूपों में ही लागू किया-- अर्थात् लगभग बीस-बीस मज़दूरों की टुकड़ियाँ बना ली गईं और इन्हें एक निश्चित लंबाई की चिनाई पूरा करने का काम दे दिया गया। मान लीजिए, एक टुकड़ी पाँच सौ गज लंबी दीवार चिनेगी तो उससे ला मिलाने के लिए दूसरी टुकड़ी को भी पाँच सौ गज की दीवार उठानी होगी। लेकिन जब दीवार के यह दोनों हिस्से एक जगह आ मिलते थे तो ऐसा नहीं होता था कि इस हजार गज लंबी दीवार के बाद निर्माण कार्य शुरू हो जाए - बल्कि होता यह था कि मज़दूरों के ये दोनों दल निर्माण-कार्य शुरू करने के लिए आस-पास ही किसी और जगह पर भेज दिए जाते थे। काम के इस तरीके से स्वभावतः ही बीच-बीच में बड़ी-बड़ी दरारें छूट जाती थीं जो बाद में धीरे-धीरे भरती रहती थीं। इनमें कुछ दरारें तो दीवार पूरी हो जाने का सरकारी ऐलान हो जाने के बाद तक भी ज्यों-की-त्यों बनी रहीं। लोगों का खयाल तो यहाँ तक है कि कुछ दरारें तो कभी नहीं भरी गईं। खैर ऐसी बातों को अफवाहों में शुमार किया जा सकता है; और इस दीवार के निर्माण को लेकर क्या कुछ कम अफवाहें उस समय फैली थीं? दीवार की तस्वीर ही ऐसी और इतनी लंबी-चौड़ी थी कि अपनी आँखों देखकर इन अफवाहों की पुष्टि कर सकना आदमी के लिए असंभव था।

सुनने के साथ ही मन में खयाल आता है कि अगर दीवार को लगातार एक ही साथ बना दिया जाता तो क्या अधिक अच्छा नहीं रहता? यह न सही तो कम-से-कम दोनों प्रमुख हिस्सों को ही पूरी-पूरी लंबाई में बना दिया जाता। दुनिया भर में ऐलान था और सभी बताते थे कि दीवार का उद्देश्य उत्तरी लोगों के हमलों से रक्षा करना है, मगर जब दीवार में ही दरारें छूट गई हों तो वह रक्षा क्या खाक करेगी? रक्षा-वक्षा इससे क्या होगी, खुद दीवार के लिए हमेशा एक खतरा बना रहेगा। वीरान इलाकों में खड़े हुए दीवार के इन हिस्सों को कबायली लोग हर बार आकर तहस-नहस कर डालेंगे। इस निर्माण अभियान से वे वैसे ही चौकन्ने हो गए थे और टिड्डियों के दल की तरह झपाटे के साथ यहाँ से वहाँ अपने अड्डे बदलते रहते थे। इसलिए शायद हम बनानेवालों के मुकाबले उन्हें दीवार की प्रगति का ज़्यादा अच्छा और पूरा-पूरा ज्ञान था। बहरहाल, निर्माण का इतना भारी कार्य किसी और दूसरे तरीके से हो भी नहीं सकता था। बात को समझने के लिए स्थिति को दूसरे पहलू से देखना होगा। दीवार का उद्देश्य तो सदियों तक रक्षा करना था और इस प्रकार के कार्य में कुछ बातों की आधारभूत रूप से आवश्यकता थी, जैसे बनावट के मामले में अचूक सावधानी, सभी युगों और देशों का स्थापत्य विषयक ज्ञान और कौशल तथा व्यक्तिगत रूप से बनानेवालों में उत्तरदायित्व की सुदृढ़ भावना। यह सही है कि जहाँ-तहाँ सिर्फ़ परिश्रम का काम था, वहाँ पास-पड़ोस की बस्तियों से स्त्री, पुरुष, बच्चे - सभी तरह के मज़दूरों को अच्छी रोजाना मज़दूरी पर लगाया जा सकता था, लेकिन दिहाड़ी पर काम करनेवाले मज़दूरों के ऊपर देखरेख के लिए ऐसे आदमी की सख्त ज़रूरत थी जो चिनाई की कला में माहिर हो, साथ ही इस कार्य की महानता और महत्त्व को तन-मन से महसूस कर सके। जितना भारी यह काम था, उतनी ही ज़्यादा थी जिम्मेदारी। सारे निर्माण कार्य में जितने लोग खप सकते थे, उतने तो नहीं, मगर ऐसे जिम्मेदार आदमियों की सचमुच काफी संख्या में आवश्यकता थी। आखिर इतना बड़ा काम बिना सोचे-समझे तो उठाया नहीं गया था। नींव का पहला पत्थर रखने के पचास साल पहले ही सारे चीन की स्थापत्य कला को, खास तौर से राजगीरी को ही ज्ञान की सबसे महत्त्वपूर्ण शाखा घोषित कर दिया गया था। शेष कलाओं को सिर्फ़ वहीं तक मान्यता प्राप्त थी, जहाँ तक स्थापत्य कला में उनकी ज़रूरत थी। मुझे अभी भी अच्छी तरह याद है-- हम लोग बहुत छोटे-छोटे बच्चे थे और मुश्किल से खड़े हो पाते थे। उन दिनों भी गुरुजी के बगीचे में हमें खड़ा कर दिया जाता और पत्थरों के टुकड़ों और मिट्टी से दीवार बनाने की आज्ञा होती, तभी अपना लबादा लपेटते गुरुजी आते और ऐसी ठोकर मारते कि दीवार गिर जाती, फिर तो हमारी बनाई दीवार के इस कच्चेपन पर ऐसी बुरी लताड़ पड़ती कि हम सब रोते-पीटते अपने माँ-बापों के पास भाग आते। बात ज़रा-सी है, लेकिन समय की नब्ज़ पहचानने के लिए महत्त्वपूर्ण है।

तीस वर्ष की उम्र में जैसे ही मैंने प्रारंभिक स्कूल का आखिरी इम्तिहान पास किया, सौभाग्य से दीवार का बनना शुरू हो गया। सौभाग्य इसलिए कि मुझसे पहले जाने कितनों ने ऊँची-से-ऊँची डिग्रियाँ इकट्ठी की थीं और दिमाग में एक से एक शानदार स्थापत्य की योजनाएँ लिए दर-दर की ठोकरें खाते मारे-मारे फिरते थे। आख़िर उनकी हिम्मत जवाब दे जाती थी। लेकिन उन्हें अंतिम रूप से सबसे निचले पद वाले निरीक्षकों के रूप में चुना गया, वे लोग सचमुच इस महान कार्य के ही लायक थे। अक्सर इन लोगों में वे राज-मज़दूर थे, जिन्होंने दीवार की नींव के पहले पत्थर के समय से ही अपने को उसका एक अंग समझना शुरू कर दिया था। इन्होंने दीवार को लेकर सोचा- विचारा था और अभी भी सोचते - विचारते थे। इन राज लोगों की कामना सिर्फ़ इतनी ही नहीं थी कि वह अपने काम को निहायत कौशल और कलात्मकता के साथ पूरा कर लें, बल्कि वे लोग तो उतावली से उस दिन की राह देखा करते थे जब पूरी की पूरी दीवार बनकर तैयार हो जाएगी। रोजाना मज़दूरों को कोई ऐसी उतावली नहीं थी उन्हें तो अपनी मज़दूरी से ही मतलब था । उधर लोगों के मन में साहस, आस्था और उत्साह भरने के लिए सबसे ऊँचे या बीच के ओहदेवाले निरीक्षक इस चौमुखे निर्माण की देखरेख के काम में ही व्यस्त रहते थे। लेकिन सबसे निचले निरीक्षकों का उत्साह बनाए रखने के लिए दूसरे और तरीकों की ज़रूरत थी। देखने में भले ही उनका काम निहायत साधारण लगे, वास्तव में बौद्धिक रूप से यह बहुत ही बड़ा था। सिर्फ़ यही तो उनका काम नहीं था कि घर-बार से सैकड़ों मील दूर बियावान पहाड़ी इलाकों में पड़े वे महीनों, कभी-कभी तो वर्षों, एक के ऊपर दूसरा पत्थर चिनते रहें। एक तो काम ही ऐसा कि आदमी की लंबी-से-लंबी जिंदगी में पूरा न हो, फिर हाड़-तोड़ मेहनत, जिसका कोई नतीजा अपने सामने आने वाला न हो। स्वभावतः ही उनकी हिम्मत टूट जाने का डर था। और सबसे बड़ा डर यही कि जहाँ एक बार मज़दूर की हिम्मत टूटी, वह काम की दृष्टि से बेकार हुआ । इसलिए यह तय हुआ कि निर्माण कार्य हिस्सों में बाँटकर किया जाए। पाँच सौ गज लंबी दीवार पाँचेक वर्षों में पूरी हो जाती और तब तक अनिवार्यतः निरीक्षक थककर चूर-चूर हो चुकते। उनको न तो अपने आपमें विश्वास रह जाता, न दीवार में, न दुनिया में । इसलिए जब हज़ार गज लम्बी दीवार के पूरी होने की ख़ुशी और नाच-गाने भरे जश्नों में ये लोग होश- हवास भूले रहते, तभी उन्हें बाकायदा किसी बहुत दूर के इलाके में भेज दिया जाता। रास्ते में इन्हें जहाँ-तहाँ खड़े, दीवार के पूरे किए हुए टुकड़े मिलते, सबसे ऊँचे अधिकारियों के निवास स्थान मिलते और यहाँ इन्हें पुरस्कार-पदक दिए जाते, देश के जाने किन-किन कोनों से आती मज़दूरों की नई-नई टोलियाँ आनंद भरी चहल-पहल के साथ गुजरती दिखाई देतीं। दीवार के टेक तथा मचानों के लिए जंगल के जंगल कटते दीखते। बड़े-बड़े पहाड़ काटकर दीवार के लिए चौकोर पत्थर कटता हुआ दिखाई पड़ता और दीवार पूरी होने के लिए प्रार्थना करते संत-महंतों के मंत्रोच्चार रास्तों के मंदिरों से आ-आकर इनके कानों में पड़ते। और यह सब इनके मन की उद्विग्नता और थकान पर शीतलता का लेप कर जाता। थोड़े दिन घर जाकर ये लोग आराम करते, तो वहाँ का शांत जीवन मन में नई शक्ति भर देता। जिस सरल, श्रद्धा भाव से इनके बनाए ब्योरे सुने जाते और जिस निष्ठा से गाँव का सीधा-सादा किसान एक दिन दीवार के पूरी हो जाने की बात को गले उतार लेता, उस सबसे उनकी आत्मा की ढीली डोरियाँ कस उठतीं । इनके मन में इस राष्ट्रीय दीवार पर फिर से जी-जान से जुट जाने की इच्छा इस अदम्य भाव से उठती कि अनंत अटूट आशावान बच्चों की तरह वे घर से दुबारा विदा ले लेते। लौटने के समय से पहले ही वे निकल पड़ते, आधा गाँव उन्हें दूर तक छोड़ने साथ जाता। झंडे और दुपट्टे फहराते इन लोगों के दल-के-दल सड़कों पर चलते दिखाई देते-कितना महानू, सुंदर, संपन्न और प्यारा है उनका देश - इस बात को मानो वे पहली बार अनुभव करते। देश का हर व्यक्ति भाई था और उसकी सुरक्षा के लिए दूसरा भी दीवार बना रहा था। इसके लिए वह मन-वचन-कर्म से आजीवन उसका आभार मानेगा। एका! एका! कंधे से कंधा मिलाए भाइयों के जत्थे! ख़ून का एक प्रवाह था जो शरीर की संकीर्ण सीमाओं में ही नहीं बँधा था, वरन् चीन के अंतहीन योजनों में, यहाँ से वहाँ तक किलकारियाँ मारता हुआ चक्कर काट रहा था।

इस प्रकार यह बात अच्छी तरह समझ में आती है कि क्यों काम को हिस्सों में बाँटकर किया जा रहा था। मगर साथ-साथ कुछ और भी कारण थे। पहली बार देखने में भले ही समस्या ऐसी न लगे, लेकिन सारी दीवार के निर्माण में इसका बड़ा महत्त्व है। इसलिए इस सवाल पर इतनी देर अटकने में किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अगर मुझे तत्कालीन भावनाओं और विचारों को सरलतम रूप से प्रस्तुत ही करना हो तो, इस सवाल के सिवाय, गहरे उतरने का मेरे सामने कोई रास्ता नहीं है।

सबसे पहली बात तो यह है कि उन दिनों बैबेल की मीनार ( वह मीनार जिसमें एक-एक खंड पर सब देशों के भाषाभाषी इसलिए रखे गए थे कि मानवीय सहयोग का एक नया अध्याय बनेगा, पर वे अलग-अलग राष्ट्रीयता के लोग आपस में सहयोग के स्थान पर लड़ मरे थे) से छोटी चीज बना डालने की बात किसी के दिमाग में नहीं आती थी, हालाँकि लोगों का यह भी पक्का विश्वास था कि बैबेल की मीनार को वैसा कोई दैवी आशीर्वाद प्राप्त नहीं था, जैसा उनके प्रयत्न को है। मेरी बात का एक ठोस आधार है : जिन दिनों निर्माण कार्य शुरू ही हुआ था तभी किसी विद्वान ने एक पुस्तक लिखी थी और उसमें बैबेल की मीनार और प्रस्तुत दीवार - दोनों की विस्तार से तुलना की थी। उसने यह सिद्ध कर दिखा दिया था कि बैबेल की मीनार के अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर सकने के पीछे क्या कारण थे। असफलता के ये कारण वे नहीं हैं जो सारी दुनिया को बताए जाते हैं । उनमें असली महत्त्वपूर्ण कारण ही गायब हैं। अपने प्रमाण उस विद्वान ने सिर्फ़ लिखे-लिखाए कागजों और दस्तावेजों से ही इकट्ठे नहीं कर लिए थे, बल्कि उसका दावा था कि उसने खुद मौक़े पर जाकर जाँच की है और पाया है कि मीनार की असफलता का एकमात्र कारण, अनिवार्य कारण, नींव का मजबूत न होना था। इस लिहाज से हमारा युग उस प्राचीन युग से मीलों आगे था । हमारे युग का प्रायः हर शिक्षित आदमी पेशे से राज था और नींव रखने के मामले में तो उससे कभी किसी तरह की चूक होने का सवाल ही नहीं उठ सकता था। बहरहाल, उक्त विद्वान को ये सब सिद्ध करने की उतनी चिंता थी भी नहीं, उसकी मूल स्थापना तो यह थी कि मानव जाति के इतिहास में पहली बार यह विराट दीवार ही बैबेल की मीनार के लिए स्थायी नींव का सूत्रपात कर रही है। पहले दीवार होगी तभी तो बाद में मीनार बन सकेगी। उस ज़माने में तो जिसे देखो यही किताब लिए घूमता था, लेकिन सच्चाई यही है कि आज तक मेरी समझ में नहीं आया कि आखिर कैसी मीनार की कल्पना उसके मन में थी । यह दीवार तो पूरा एक घेरा भी नहीं बनाती थी और आधे या चौथाई घेरे में ही समाप्त होने को थी। तो फिर कैसे उसने इसे मीनार का आधार मान लिया। स्पष्ट ही यह बात किसी आध्यात्मिक आशय से ही कही गई होगी, मगर जब ऐसा ही था तो सचमुच की ठोस दीवार बनाने की क्या ज़रूरत थी ऐसी दीवार जिसका एक जीता-जागता आकार था और जो हजारों लोगों के आजीवन परिश्रम का फल थी? और जब साक्षात दीवार को ही बनाना था तो उस पुस्तक में मीनार के नक्शे तथा उस विराट कार्य के लिए लोगों की शक्तियों को सामूहिक रूप से तैयार करने के लंबे-चौड़े सुझाव किस आशय से दिए गए थे? बेशक, मीनार के ये नक्शे एक हद तक हवाई और निराधार थे।

उक्त विद्वान की प्रस्तुत पुस्तक सिर्फ़ एक उदाहरण की तरह है, वरना क्या-क्या खुराफातें उस ज़माने में लोगों के दिमागों में नहीं आती थीं? कारण शायद यह रहा हो कि जाने कितने लोग इस एकमात्र उद्देश्य की सिद्धि में भरसक अपना-अपना योगदान देना चाहते थे। मनुष्य का स्वभाव ही परिवर्तनशील और धूल की तरह चंचल है, वह कोई बंधन, कोई अंकुश नहीं सहता, अगर कहीं बँधा भी तो देखते-देखते उन्मत्त की तरह हर रस्से को काट फेंकता है। दीवार या कोई और बंधन उसे रोक नहीं पाते, यहाँ तक कि वह खुद अपने आपको तोड़-फोड़कर तहस-नहस करने पर उतारू हो जाता है।

जब काम को टुकड़ों में बाँटकर करने का निश्चय किया गया, उस समय हो सकता है यह लक्ष्य भी नज़रअंदाज न किया गया हो, क्योंकि मनुष्य स्वभाव की यह कमज़ोरी तो मूलतः किसी भी प्रकार की दीवार बनाने के ख़िलाफ़ पड़ती है। हमें खुद (और यहाँ मैं अपने जैसे बहुत से लोगों की बात कहता हूँ) इन बातों की असलियत का ज्ञान नहीं था। वह तो जैसे - जैसे इस सर्वोच्च सत्ता के आदेशों का अत्यंत बारीकी से अध्ययन करते गए, यह बात हमारे भेजे में उतरती गई। तभी यह पता भी चला कि इस विराट और संपूर्ण कार्य में हमने जो अपना विनम्र श्रम अर्पित किया है - इसके मूल में भी यही सर्वोच्च सत्ता है, वरना किताबी ज्ञान और मनुष्य की सीमित समझ से क्या हाथ लगना था । निश्चय ही इस सर्वोच्च सत्ता के कार्यालय में सारे मानवीय विचार, सारे मानवीय स्वप्न निरंतर चक्कर काटते रहते होंगे और उनके उत्तर के लिए वहाँ सारे मानवीय लक्ष्य और उपलब्धियाँ पहले से ही प्रस्तुत होंगी। जिससे भी मैंने पूछा किसी को भी यह नहीं पता - अभी तक पता नहीं है कि सर्वोच्च सत्ता का यह कार्यालय है कहाँ और इसमें कौन बैठता है। हाँ, जो नेता लोग बैठे-बैठे अपने नक्शे योजनाएँ बनाया करते थे, उनके हाथों पर ज़रूर सपने के स्वर्गीय संसार भरे उस कार्यालय की खिड़की से भव्य प्रकाश-बिंब उतर आते थे। 

इस सबको देखते हुए निश्चयी और ईमानदार प्रेक्षक को एक बात माननी पड़ती है: सर्वोच्च सत्ता ने अगर सचमुच इस कार्य को गंभीरतापूर्वक उठाया था, तो दीवार के काम में आड़े आनेवाली सारी संभावित कठिनाइयों को पहले ही हल कर लिया होगा, अस्तु! अब तो यह स्वीकार कर लेने के सिवाय कोई रास्ता ही नहीं बचता कि सर्वोच्च सत्ता ने हिस्सों में चिनाई का यह तरीका खूब सोच-समझकर ही चुना था - मगर यह तरीका था तो मूलतः कामचलाऊ ही । अतः परिस्थिति के हिसाब से बहुत उपयुक्त भी नहीं था, अर्थात् सर्वोच्च सत्ता की मूल इच्छा वस्तुतः स्थायी और उपयुक्त तरीके को काम में लाने की रही होगी। अजीब नतीजा है न? मगर एक तरह से देखें तो इस पर भी काफी कुछ कहा जा सकता है। शायद यहाँ आकर इस प्रश्न पर कुछ जमकर बातचीत की जा सकती है। उन दिनों न जाने कितने लोगों में - और इनमें अच्छे से अच्छे लोग शामिल थे-- यह गूढ़ सूक्ति बेहद प्रचलित हो गई थी कि 'जितना भी बन पड़े सर्वोच्च सत्ता के आदेशों को हृदयंगम करने की कोशिश करो, लेकिन एक सीमा तक ही इसके आगे चिंतन-मनन से बचो।' बड़ी विद्वत्तापूर्ण सूक्ति थी, इसे और आगे बढ़ाकर एक दृष्टांत के रूप में फैला दिया गया था और अक्सर बाद में सुनाया जाता था : चिंतन-मनन से इसलिए मत बचो कि इससे कोई नुकसान हो सकता है, बल्कि नुकसान ही हो, इसका क्या ठीक। क्या नुकसानदेह है, क्या नहीं है, यह प्रश्न ही व्यर्थ है। उद्गम निर्झर को लो - काफी शक्ति संचय करने तक यह झरना निरंतर बढ़ता रहता है और जब शक्तिशाली हो जाता है, तो अपने दोनों ओर विस्तार से फैली तटवर्ती धरती को जी खोलकर सींचता, समृद्ध करता चलता है; लेकिन बिना डगमगाए समुद्र में जा मिलने का रास्ता नहीं छोड़ता। ऐसे सशक्त प्रवाह को पाकर सागर भी धन्य हो उठता है, क्योंकि अब उसे साथ मिलने का कुछ लाभ भी है। इतनी दूर तो सर्वोच्च सत्ता के आदेशों पर चिंतन की रासें ढीली छोड़ दो, लेकिन इसके बाद ? किनारे तोड़कर नदी बाहर फैलने लगती है। तब न उसकी रूपरेखा रह जाती है और न शक्ल-सूरत, प्रवाह की गति अवरुद्ध पड़ जाती है और नदी अपने चरम लक्ष्य की ओर से आँखें मूँद लेती है, धरती पर ही छोटे-छोटे सागर बन जाते हैं। खेत-खलिहानों का नुकसान होता और मजे की बात यह है कि अपने इस लंबे-चौड़े विस्तार को कायम रख पाना खुद नदी के हाथ में नहीं रह जाता। मजबूर होकर उसे फिर उन्हीं दो पाटों के बीच लौट आना पड़ता है। इतना ही क्यों, शीघ्र ही आनेवाली गर्मी में सूखकर बेचारी बेहाल हो जाती है। सर्वोच्च सत्ता के आदेशों पर इतनी दूर जाकर दिमाग खपाने की ज़रूरत आपको नहीं है।

जिन दिनों दीवार बन रही थी, उन दिनों हो सकता है इस दृष्टांत कथा को असाधारण अर्थ और शक्तिशाली माना जाता रहा हो, लेकिन मेरी प्रस्तुत रचना में तो यह बहुत ही सीमित संदर्भ में आई है। मेरी जिज्ञासा वस्तुतः शुद्ध ऐतिहासिक है। इसीलिए मैं हिस्सों में होनेवाले काम के पीछे के कारण को खोजने में इतना परिश्रम कर रहा हूँ। कारण केवल इतना ही नहीं हो सकता जितना तत्कालीन लोगों के संतोष के लिए काफी माना जाता था। मानता हूँ कि विचार-सामर्थ्य की मेरी सीमाएँ बहुत ही सँकरी हैं, लेकिन इस सिलसिले में जिस प्रांत का सर्वेक्षण मुझे करना है उसकी तो कोई सीमा ही नहीं। आखिर इस दीवार के जरिए किससे बचाव करना था? उत्तर के लोगों से? मैं दक्षिण-पूर्वी चीन का रहनेवाला हूँ। कोई उत्तरी आदमी हमारा बालबाँका नहीं कर सकता। हाँ, पुरखों की किताबों में हमने उनके बारे में ज़रूर पढ़ा है। अपने सहज स्वभाव के अनुरूप जो-जो निर्दय अत्याचार ये उत्तरी लोग करते हैं, उन्हें सुन-सुनकर ही हम अपने पेड़ों की शीतल शांत छाया में गहरी साँसें ले उठते हैं। वास्तविकता को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करनेवाले कलाकार की कूची ही हमें बताती है कि देखने में ये बिल्कुल राक्षसों जैसे हैं, कैसे मुँह फाड़े फाड़े रहते हैं, कैसे इनके जबड़ों के बड़े-बड़े नुकीले दाँत चमकते हैं। इन भयानक जबड़ों से फाड़ खाने के लिए शिकार की खोज में बेचैन आँखें कैसे आधी-आधी मुँदी रहती हैं। जब हमारे बच्चे बहुत शैतानी करते हैं, तो हम उन्हें ये तस्वीरें दिखाते हैं। देखते ही वे रोते हुए आकर हमारी छाती से चिपक जाते हैं। बस इसके आगे इन उत्तरी लोगों के बारे में हम कुछ भी नहीं जानते । इन्हें हमने खुद कभी नहीं देखा और अगर हम अपने गाँव में ही बने रहे, तो कभी देख भी नहीं पाएँगे। दुर्गांत घोड़ों पर सवार होकर अगर ये सीधे हमारी दिशा में अंधाधुंध दौड़ना शुरू कर दें, तब भी हमें इनके दर्शन नहीं होंगे। यह देश ही इतना लंबा-चौड़ा है कि उन्हें हम तक पहुँचने ही नहीं देगा। उनका रास्ता बीच हवा में ही कहीं खत्म हो जाएगा।

यहाँ एक सवाल उठता है। अगर बात यही है तो क्यों आखिर हम लोगों ने इसी दूरदराज शहर में आकर काम सीखने के लिए अपना घर-बार छोड़ा, क्यों पुलों वाली नदी छोड़ी, क्यों माँ-बाप, रोती-बिलखती पत्नियाँ और बच्चे छोड़े? उन्हें तो इन दिनों हमारी देखभाल की ज़रूरत थी। हमने ऐसा क्यों किया? जहाँ तक हमारे विचारों का प्रश्न है वे तो दीवार के पार सुदूर उत्तर के चक्कर मारते रहते थे, हम खुद तो वहाँ नहीं गए? सवाल का जवाब सर्वोच्च सत्ता को देना है।

हमें अपने नेताओं पर भरोसा है। वे सब कुछ जानते हैं। अपनी भारी-भारी चिंताओं, फिक्रों-जिक्रों में डूबे हुए ये नेता हमारे बारे में सारी जानकारी रखते हैं। हमारे छोटे-से-छोटे व्यापार और व्यवसायों को जानते हैं। हमें टूटी-फूटी झोंपड़ियों में इकट्ठे बैठे हुए देखते हैं, परिवार के बीच बैठकर घर के बड़े-बूढ़ों को सांध्य प्रार्थना करते हुए देखकर ये लोग है खुद ख़ुश और नाख़ुश होते हैं। मगर इसके साथ ही आता सर्वोच्च सत्ता का सवाल सो अगर उसके बारे में विचार प्रकट करने की इजाजत हो, तो मेरा खयाल है कि यह सर्वोच्च सत्ता जाने किस ज़माने से रहती चली आई है। इसका संघटन इस तरह नहीं हुआ जैसे कुछ सरपंच आकर एक जगह जुट गए हों। सरपंचों की इस तरह की मंडली का क्या ठिकाना? कहीं किसी ने कोई सपना देखा । अफरातफरी में पंचों की बैठक बुला ली गई। जो भी हुआ, शाम को उसकी मुनादी करवाने का निर्णय लेकर सभा विसर्जित हो गई। निर्णय में कुछ और न किया तो पिछली रात इन मुखिया लोगों पर सपने में कृपा करने वाले देवता के स्वागत में रोशनी ही करा दी - फिर भले ही रोशनी के बुझते न बुझते इन पंच लोगों को ठोकपीट कर एक अँधेरे कोने में जा बिठाया जाए... नहीं, सर्वोच्च सत्ता का संघटन ऐसा नहीं था। मेरा तो दावा यहाँ तक है कि यह सर्वोच्च सत्ता अनादि काल से रही है और अनादि काल से ही रहा है दीवार खड़ी करने का यह निश्चय । कैसे भोले हैं उत्तर के ये लोग जो समझते हैं कि दीवार उन्हीं के कारण से बनी है, और कैसे भोले निश्छल हृदय हैं हमारे सम्राट जिनका खयाल है कि दीवार के बनने में उनका आदेश था। दीवार बनानेवाले तो हम लोग हैं। हमें पता है कि असलियत क्या है? इसीलिए जबान नहीं खोलते।

जिन दिनों दीवार खड़ी हो रही थी तब से लेकर आज तक मैं एकाग्रभाव से विभिन्न जातियों की आपस में तुलना तथा उनके इतिहास का अध्ययन करने में लगा रहा हूँ। कुछ सवाल ऐसे हैं, जिनकी जड़ तक पहुँचने के लिए यही एक मात्र तरीका है। इसमें मैंने पाया है कि हम चीनियों में कुछ व्यक्ति और संघ तो अपनी स्पष्टता और निर्भ्रान्ति में अद्वितीय हैं, लेकिन कुछ ऐसे रहस्य और हैं गूढ़ कि उनका गोरख धंधा ही समझ में नहीं आता। क्यों कुछ ही व्यक्ति या संघ ऐसे रहस्य और स्पष्टता के शिकार हैं, इसका कारण खोज निकालने की तड़प ने मुझे हमेशा परेशान किया है-आज भी परेशान किए है। दीवार बनने में भी यही समस्याएँ अनिवार्यतः गुँथी हुई हैं।

उदाहरण के लिए इन संघों या संस्थाओं में सबसे अधिक गूढ़ और रहस्यमय खुद 'साम्राज्य' नाम का संघ है। पीकिंग के शाही दरबार में ज़रूर इस बात को लेकर कुछ स्पष्टता पाई जा सकती है - हालाँकि यह स्पष्टता और सच्चाई कम, छलना और धोखा ही अधिक है। उच्च विद्यालयों में रहनेवाले राजनीतिक विज्ञान के इतिहास के शिक्षक भी इन सारी बातों की जानकारी नाकाफी समझकर शंकाएँ करते हैं, लेकिन जैसे-जैसे आप निचली कोटि के विद्यालयों में उतरते जाएँगे, स्वभावतः ही शिक्षक और शिक्षार्थी- दोनों के मन में अपने ज्ञान को लेकर शंका और जिज्ञासा कम होती चली जाएगी। हाँ, कुछ धर्मादेशों को आधार बनाकर आसमान को छूती सतही संस्कृति का तानाबाना वहाँ ज़रूर छाया मिलेगा। क्योंकि यही आदेश शताब्दियों से लगातार लोगों के दिल-दिमाग में ठूंस दिए गए हैं। यों देखें तो इन आदेशों में कहे गए शाश्वत सत्यों का भी अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा, मगर उलझन और कुहासे के जाल - जंजाल से बाहर निकलना हरगिज हरगिज उनके बस का नहीं है।

मगर मेरा ख्याल है कि साम्राज्य - विषयक इस विशेष सवाल का जवाब जनता को ही देना होगा। साम्राज्य की मूलभूत आधारशिला तो जनता है। यहाँ मैं स्वीकार करता हूँ कि इस विषय में भी मुझे सिर्फ़ अपने जन्म-स्थान की ही बात मालूम है। हम लोगों का परिचय या तो सूर्य-चाँद जैसे प्रकृति-देवताओं और उनके पूजा-उत्सवों से है या फिर सम्राट से । प्रकृति-देवताओं के यह उत्सव एक के बाद एक हमारे सारे साल को अपने खूबसूरत सिलसिले से रंगीन बनाए रखते हैं। इसलिए हम उनसे परिचित हैं। लेकिन 'सम्राट' नाम को हम भले ही जानते हों, 'सम्राट' जैसे किसी विशिष्ट और वर्तमान व्यक्ति को हम नहीं जानते। काश हमें इतना ही पता हो कि सम्राट कौन है, कैसा होता है, तो शायद इस वर्तमान सम्राट के बारे में भी सोचें। अक्सर ही उत्कट जिज्ञासा से हमारा मन बेचैन रहता है, और तब हम सम्राट को लेकर तरह-तरह के कुलाबे भिड़ाया करते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि घाट-घाट का पानी पिए हुए तीरथिए हों, या हमारे आस-पास के गाँव में रहनेवाले, इस विषय में किसी से रत्ती भर जानकारी नहीं मिलती।

कितना बड़ा यह हमारा देश है! क्या किसी भी उपमा से इसकी लंबाई-चौड़ाई के साथ न्याय किया जा सकता है? इसे नाप सकना आसमान और आसमानी ताकतों के वश का भी नहीं है। बीजिंग की इसमें बिसात क्या है। एक बूँद बराबर भी नहीं है - फिर बीजिंग का राजमहल बूँद से भी छोटा है। अच्छा, मान भी लीजिए कि जहाँ-जहाँ महतशाही है, वहाँ-वहाँ सम्राट भी हैं और वही सर्वशक्तिमान हैं ! लेकिन इस समय जो सम्राट जीवित हैं, वे होंगे तो हमारे जैसे जीते-जागते आदमी ही। हो सकता है, बहुत ही बड़े पलंग पर सोते हों, या यह भी हो सकता है कि यह पलंग भी उन्हें छोटा ही पड़ता हो । वे जब बहुत थक जाते होंगे, तो हमारी ही तरह अँगड़ाई लेते होंगे - सुकुमार-सुडौल मुँह फाड़कर हमारी ही तरह जमुहाई लेते होंगे। लेकिन यहाँ तिब्बती पठारों के सीमा प्रदेश पर रहनेवाले हम यह सब जानें तो जानें कैसे? अलावा इसके कोई भी हलचल, कोई भी उथल-पुथल अगर हम तक आई भी हो तो उसे हम तक आते-ही-आते इतना समय बीत चुका होता है कि, तब तक बात ही ठंडी हो गई होती है। एक धारणा यह भी है कि सम्राट अत्यंत बुद्धिमान, मगर जाने किन-किन अजीबोगरीब किस्म के सरदारों और दरबारियों की भीड़ से हमेशा घिरे रहते हैं। सेवकों और शुभेच्छुओं के वेश में द्वेष और शत्रुता उनके चारों ओर मँडराती रहती है। और मानो शाही ताकत का पलड़ा बराबर बनाए रखने के लिए ये लोग हाथों में जहर बुझे तीर लिए हुए हुकूमत का तख्ता उलटने की तिकड़मों में रात-दिन खून-पसीना एक किए रहते हैं। साम्राज्य अमर हो सकता है, लेकिन सम्राट तो सिंहासन से लुढ़कते और गिरते ही हैं। यही क्यों, सारे के सारे राजवंश देखते-देखते दम तोड़कर सदा के लिए आँखें मूँद लेते हैं। लेकिन इन सारे भीतरी संघर्षों और यातनाओं को जनता कभी नहीं जान पाती। आँखें चुराए, थके-पस्त अनजान आदमी की तरह जनता किसी भीड़भाड़ में धक्कमधक्का करती, किनारे की गली में खड़ी खड़ी साथ लाए चने चबेने को चभर-भर खाती रहती है, और इसी सड़क पर आगे जाकर यानी शहर के बीचोंबीच बाज़ारवाले चौराहे पर उनके सम्राट को फाँसी पर लटकाए जाने की तैयारियाँ हो रही होती हैं।

ठीक ऐसे ही आशा भरे और आशाहीन मन से हमारी जनता सम्राट को लेकर कुछ कल्पना करती है। पता उसे यह भी नहीं होता कि किस सम्राट का शासन है और राजवंश के नाम को लेकर तो उसमें हमेशा सिर- फुटौवल होती रहती है। विश्वविद्यालयों में राजवंशों और 'किसके बाद कौन राजा आया' को लेकर काफी कुछ पढ़ाया जाता है, लेकिन इस बारे में घपला कुछ ऐसा सार्वभौमिक है कि बड़े से बड़ा विद्वान चौकड़ी भूल जाता है। जाने कब-कब के मरे-खपे सम्राट हमारे गाँव में पुनर्जीवित होकर राज्याभिषेक पा जाते हैं। अभी कुछ दिनों पहले ही पुरोहितजी ने वेदी को साक्षी बनाकर एक घोषणा-पत्र पढ़ा था, मजा यह कि प्राचीन लोक-गीतों को छोड़कर इस सम्राट का कोई नाम निशान नहीं जानता। इतिहास की पुरानी लड़ाइयों सूचना हमारे लिए एकदम ताजी ख़बर की तरह आती है किसी भी क्षण कोई पड़ोसी बच्चों जैसे उत्साह से दमकता चेहरा लिए, इस प्रकार की ख़बर लिए दौड़ा चला आ सकता है। लाड़-प्यार में बिगड़ी घमंड में दुहरी सम्राटों की रानियाँ अपने देश-विदेश के नित नए कारनामे करती हमारे यहाँ हर वक्त ही घूमती रहती हैं। कोई कुटिल दरबारियों के चक्कर में संभ्रान्त पथ छोड़कर गलत राहों में पड़ गई है तो किसी की महत्त्वाकांक्षा बेकरार हो उठी है, किसी के भीतर लालच का साँप फुफकार रहा है, तो कोई वासना में मतवाली अपने-पराए का ज्ञान भूल गई है। समय की कब्र में जितनी गहरी वह दफन होती जाती हैं उनकी करतूतों पर उतना ही पानी चढ़ता जाता है। हजारों साल पहले कैसे किसी सम्राज्ञी ने लंबे-लंबे घूँट भरकर अपने स्वामी का खून पिया था, इस कहानी को सुनकर आज भी हमारा गाँव दर्द से कराह उठता है।

ठीक इसी तरह, हमारी जनता पर न तो क्रांतियों का ही असर पड़ता है न सामयिक लड़ाइयों का। लड़कपन की एक घटना याद आती है। पड़ोस के, लेकिन काफी दूर-दराज प्रांत में एक बार विद्रोह उठ खड़ा हुआ। कारण क्या था, आज याद नहीं। उसका महत्त्व भी नहीं है। लोगों का क्या है, यों ही बात-बेबात भड़क जाते हैं। विद्रोह का कोई भी बहाना निकालने में देर ही कितनी लगती है। हाँ, तो हमारे प्रांत से गुजरता हुआ एक भिखारी, विद्रोहियों द्वारा प्रकाशित पर्चा बापू के पास दे गया। संयोग से उसी दिन हमारे यहाँ दावत थी और सारे कमरे मेहमानों से भरे थे। पुरोहितजी बीच में आसन लगाए बैठे थे। उन्होंने पर्चे को ध्यान से पढ़ा।

अचानक लोगों में जो हँसी-मजाक का दौर शुरू हुआ तो उसी छीना-झपटी में पर्चा फट गया। भिखारी को भीख पहले ही मिल चुकी थी, लेकिन इस पर्चे को पढ़ने के बाद उस पर जो लात-घूंसे पड़ने शुरू हुए हैं कि बिचारे को भागते ही बना। उसके जाते ही उस सुहाने दिन मौज मनाने के लिए मेहमान छूट गए। क्यों? क्योंकि उस पड़ोसी प्रांत की जबान हमारी जबान से एकदम अलग है, और लेखन में भी कुछ ऐसी तोड़-मरोड़ होती है कि अलगाव बना ही रहता है। हमारे लिए तो ये अक्षर गोले-गोले से लगते हैं। इसीलिए पुरोहितजी ने दो पंक्तियाँ भी नहीं पढ़ी होंगी कि हमने अपने फैसले कर लिए। ऐसी जाने कितनी बातें पुराने इतिहासों में कही गई थीं। और उनका दुःख-दर्द सब खत्म हो चुका था। आज याद करते हुए मुझे लगता है कि वर्तमान विभीषिका को कैसे अकाट्य रूप में वह भिखारी हमारे दरवाजे पर लाया था, लेकिन हमने सिर झटककर एक शब्द तक सुनने से इंकार कर दिया, वर्तमान को मार भगाने के लिए हमारी जनता ऐसी उधार खाए बैठी रहती है...

इस सबको देखकर अगर नतीजा यह निकले कि यहाँ सम्राट जैसी कोई भी चीज नहीं है तो झूठ नहीं होगा, मगर फिर-फिर याद रखने की बात यह भी है कि सम्राट के नाम पर जान देनेवाले दक्षिण में हम ही हैं। खुद सम्राट को हमारी इस भक्ति का पता हो या न हो। इसके लिए हम जिम्मेदार हैं भी नहीं। यह सही है कि गाँव के सिरेवाले छोटे से खंभे पर जो अजगर देवता बैठे हैं न, वे आज भी वहीं हैं और जब से मनुष्य की स्मृति का अस्तित्व है तभी से बीजिंग की ओर मुँह किए श्रद्धांजलि के रूप में अग्निल फुंफकारें छोड़ते हैं। मगर हमारे गाँववाले हैं कि जिन्हें यही नहीं पता कि बीजिंग किस चिड़िया का नाम है, वह इसी लोक में है या दूसरे लोक में। अपने गाँव की पहाड़ी पर चढ़कर जिधर निगाह दौड़ाओ, मैदान में कोसों तक घर ही घर फैले हों और इन मकानों के बीच रात-दिन लोगों की धक्कमधक्का भीड़ बनी रहती हो क्या ऐसा भी सचमुच कोई गाँव हो सकता है ? ऐसे किसी भी शहर की तस्वीर हमारे दिमाग में नहीं समा पाती। हाँ, यह विश्वास हम ज़रूर कर लेते हैं कि बीजिंग और सम्राट दोनों एक ही हैं और यह सूर्य की छाँव में शांत-भाव से युग-युगांतरों के प्रवाह में निरंतर बहते चले आ रहे हैं।

इस प्रकार की धारणाएँ पालने के पीछे वस्तुतः जिंदगी का संपूर्ण रूप है जिस पर न कोई दबाव है न बाधा ! इस जिंदगी पर वर्तमान का कोई कानून नहीं लागू होता। बस पुराने ज़माने से चली आती ज़बरदस्ती वसूली और ऐलानों के ही दर्शन अक्सर होते रहते हैं। मैं सभी को एक लाठी से हाँकने के ख़िलाफ़ हूँ, अतः चीन के पाँच सौ प्रांतों की बात नहीं कह सकता। यह भी नहीं कह सकता कि मेरे प्रांत के ही सारे गाँव, हमारे गाँव जैसे हैं। मगर इस दीवार में चूँकि दुनिया-भर के लोगों का योगदान रहा है, हर प्रांत से लोग आए हैं- इससे समझदार आदमी को कमोबेश हर प्रांत की आत्मा के सर्वेक्षण का एक अवसर ज़रूर हाथ आता है। इस आधार तथा अपने व्यक्तिगत निरीक्षण, और इस विषय में पढ़ी अनेक पुस्तकों के आधार पर एक बात शायद मैं ज़रूर कह सकता हूँ। सम्राट के प्रति जो भी कुछ धारणा हमारे गाँव की है, उसमें शर्तिया कुछ-न-कुछ ऐसा है, जो सार्वभौमिक और सर्वव्यापी है, और सभी जगह समान रूप से प्रचलित है। मेरा मंतव्य कतई जनता के इस रवैए को गुण के रूप में प्रस्तुत करना नहीं है। बल्कि बात उल्टी है। वस्तुतः उसकी मूलभूत जिम्मेदारी तो सरकार की ही है। संसार के प्राचीनतम साम्राज्य होने के बावजूद क्यों यह सरकार साम्राज्य व्यवस्था को ऐसा पक्का निर्दोष और अचूक रूप दे सकने में असमर्थ रही या उस ओर से आँखें मूँदे रही कि सुदूरतम सीमाओं के प्रांतों में भी उसका कार्य सुचारु - सीधे और अनवरत ढंग से चलता रहे? उधर दूसरी तरफ़ देखें तो यह जनता की अपनी कल्पना शक्ति और आस्था की ही कमज़ोरी लगती है कि वे बीजिंग को इस अवरोध और सड़ाँध से बाहर निकालकर खड़ा नहीं कर पाती - उसे साक्षात सजीव यथार्थ मानकर, बाँहें फैलाकर, अपनी छाती से नहीं लगा पाती। साम्राज्य की तो अभी भी सचमुच एकमात्र इच्छा है कि प्राण त्यागने से पहले एक बार तो जनता के इस स्पर्श को महसूस कर ले...

अस्तु, जनता का यह रवैया गुण तो निश्चय ही नहीं है। मगर कितना बड़ा मज़ाक़ है कि हमारी सारी जनता को एक करनेवाला तत्त्व ही कमज़ोर है । कहें तो कह सकते हैं कि यही वह धरती है जिस पर हम लोगों की जिंदगी चलती है। एक आधारभूत बुराई को बाकायदा स्थापित करने लगने का अर्थ अपनी आत्मा और चेतना की जड़ें खोदना ही नहीं, बल्कि खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है। यह बात तो और भी बुरी है । अतः इसी कारण अपनी जिज्ञासा को अब मैं इन प्रश्नों की दिशा में बढ़ने से रोकता हूँ।

- फ्रैंज काफ्का

Previous Page   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश