अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
 
पंद्रह अगस्त, स्वतंत्रता दिवस पर कविताएं  (काव्य)     
Author:भारत-दर्शन संकलन

26 जनवरी, 15 अगस्त

किसकी है जनवरी,
किसका अगस्त है?
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है?

सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियाँ भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला
जहाँ भी टिकट मिला

शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसी का पन्द्रह अगस्त है
बाक़ी सब दुखी है, बाक़ी सब पस्त है.....

कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलन्द आज, कौन आज मस्त है?
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलन्द है, कुली-मजूर पस्त है
सेठ यहाँ सुखी है, सेठ यहाँ मस्त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है

पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्र‍िज है, सोफ़ा है, बिजली का झाड़ है
फै़शन की ओट है, सब कुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो जी, गिन लो
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
देख लो जी, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट पर पहाड़ है!

मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ़्रि‍ज है, सोफ़ा है, बिजली का झाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
ग़रीबों की बस्ती में

उखाड़ है, पछाड़ है
धत तेरी, धत तेरी, कुच्छो नहीं! कुच्‍छो नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं

पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं.....
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मन्त्री ही सुखी है, मन्त्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है!

-नागार्जुन


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पंद्रह अगस्त

आज जीत की रात
पहरुए, सावधान रहना!
खुले देश के द्वार
अचल दीपक समान रहना।

प्रथम चरण है नए स्‍वर्ग का
है मंज़िल का छोर
इस जन-मन्‍थन से उठ आई
पहली रत्‍न हिलोर
अभी शेष है पूरी होना
जीवन मुक्‍ता डोर
क्‍योंकि नहीं मिट पाई दुख की
विगत साँवली कोर

ले युग की पतवार
बने अम्‍बुधि महान रहना
पहरुए, सावधान रहना!

विषम श्रृंखलाएँ टूटी हैं
खुली समस्‍त दिशाएँ
आज प्रभंजन बन कर चलतीं
युग बन्दिनी हवाएँ
प्रश्‍नचिह्न बन खड़ी हो गईं
यह सिमटी सीमाएँ
आज पुराने सिंहासन की
टूट रही प्रतिमाएँ

उठता है तूफान इन्‍दु तुम
दीप्तिमान रहना
पहरुए, सावधान रहना

ऊँची हुई मशाल हमारी
आगे कठिन डगर है
शत्रु हट गया, लेकिन
उसकी छायाओं का डर है
शोषण से मृत है समाज
कमजोर हमारा घर है
किन्‍तु आ रही नई जि़न्‍दगी
यह विश्‍वास अमर है

जन गंगा में ज्‍वार
लहर तुम प्रवहमान रहना
पहरुए, सावधान रहना!

- गिरिजा कुमार माथुर

 

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पंद्रह अगस्त
[15 अगस्त 1947]

चिर प्रणम्य यह पुष्य अहन, जय गाओ सुरगण,
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन !
नवभारत, फिर चीर युगों का तिमिर-आवरण,
तरुण अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन !
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन,
आज खुले भारत के संग भू के जड़-बंधन !
शान्त हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण,
मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण !
आम्र-मौर लाओ हे, कदली स्तम्भ बनाओ,
पावन गंगा जल भर मंगल-कलश सजाओ !
नव अशोक पल्लव के बंदनवार बँधाओ,
जय भारत गाओ, स्वतन्त्र जय भारत गाओ !
उन्नत लगता चन्द्रकला-स्मित आज हिमाचल,
चिर समाधि से जाग उठे हों शम्भु तपोज्ज्वल !
लहर-लहर पर इन्द्रधनुष-ध्वज फहरा चंचल
जय-निनाद करता, उठ सागर, सुख से विह्वल !

धन्य आज का मुक्ति-दिवस, गाओ जन-मंगल,
भारत-लक्ष्मी से शोभित फिर भारत-शतदल !
तुमुल जयध्वनि करो महात्मा गांधी की जय,
नव भारत के सुज्ञ सारथी वह नि:संशय !
राष्ट्र-नायकों का हे, पुन: करो अभिवादन,
जीर्ण जाति में भरा जिन्होंने नूतन जीवन !
स्वर्ण-शस्य बाँधो भू वेणी में युवती जन,
बनो वज्र प्राचीर राष्ट्र की, वीर युवकगण !

लोह-संगठित बने लोक भारत का जीवन,
हों शिक्षित सम्पन्न क्षुधातुर नग्न-भग्न जन !
मुक्ति नहीं पलती दृग-जल से हो अभिसिंचित,
संयम तप के रक्त-स्वेद से होती पोषित !
मुक्ति माँगती कर्म वचन मन प्राण समर्पण,
वृद्ध राष्ट्र को, वीर युवकगण, दो निज यौवन !
नव स्वतंत्र भारत, हो जगहित ज्योति जागरण,
नवप्रभात में स्वर्ण-स्नात हो भू का प्रांगण !

नव-जीवन का वैभव जाग्रत हो जनगण में,
आत्मा का ऐश्वर्य अवतरित मानव मन में !
रक्त-सिक्त धरणी का हो दु:स्वप्न समापन,
शान्ति-प्रीति-सुख का भू-स्वर्ग उठे सुर मोहन !
भारत का दासत्व दासता थी भू-मन की,
विकसित आज हुई सीमाएँ जग-जीवन की !
धन्य आज का स्वर्ण-दिवस, नव लोक-जागरण,
नव संस्कृति आलोक करे जन भारत वितरण !

नव-जीवन की ज्वाला से दीपित हों दिशि क्षण,
नव मानवता में मुकुलित धरती का जीवन !

- सुमित्रानंदन पंत


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पंद्रह अगस्त की पुकार

पंद्रह अगस्त का दिन कहता -
आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी है,
रावी की शपथ न पूरी है।।

जिनकी लाशों पर पग धर कर
आज़ादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश
ग़म की काली बदली छाई।।

कलकत्ते के फुटपाथों पर
जो आँधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के
बारे में क्या कहते हैं।।

हिंदू के नाते उनका दु:ख
सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो
सभ्यता जहाँ कुचली जाती।।

इंसान जहाँ बेचा जाता,
ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,
डालर मन में मुस्काता है।।

भूखों को गोली नंगों को
हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कंठों से जेहादी
नारे लगवाए जाते हैं।।

लाहौर, कराची, ढाका पर
मातम की है काली छाया।
पख्तूनों पर, गिलगित पर है
ग़मगीन गुलामी का साया।।

बस इसीलिए तो कहता हूँ
आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं?
थोड़े दिन की मजबूरी है।।

दिन दूर नहीं खंडित भारत को
पुन: अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक
आज़ादी पर्व मनाएँगे।।

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से
कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ,
जो खोया उसका ध्यान करें।।

- अटल बिहारी वाजपेयी
  [मेरी इक्यावन कविताएं]

 

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15 अगस्त, 1947


पंद्रह अगस्त है पुण्य पर्व
पंद्रह अगस्त है दिन महान
पंद्रह अगस्त है विजय गर्व,
गौरवगाथा से दीप्तिमान।

सन् सैंतालिस चौदह अगस्त
सब अस्त-व्यस्त
हम दुखी-त्रस्त,
पश्चिम में सूरज हुआ अस्त,
अगले दिन था पंद्रह अगस्त
पूरब में सूरज अरुण, मस्त
आया, लाया स्वर्णिम विहान।
उन्मुक्त गगन, ऊंची उड़ान
उन्मुक्त कंठ, उन्मुक्त गान
पंद्रह अगस्त है पुण्य पर्व
पंद्रह अगस्त है दिन महान।
पंद्रह अगस्त है विजय गर्व,
गौरवगाथा से दीप्तिमान। .

है उचित कि अब होकर कृतज्ञ
जय बोलें सभी शहीदों की
जिनके अनर्घ बलिदान
उभरते आज बने देशाभिमान,
भारत भू से है जिनका
युग युग का नाता,
हर भारतीय जिनको
नतमस्तक हो जाता,
मिट्टी जिनके बलिदानों से
गरिमामय है, ज़र्रा ज़र्रा
जिनकी गाथा को दुहराता।

आओ मिलकर जय बोलें
उन्हीं जवानों की
आज़ादी पर मिटने वाले परवानों की
तोपों से भी जो नहीं हटे
जय बोलें उन चट्टानों की
लेकर झंडा जो रहे डटे
जय बोलें उन दीवानों की
भारत मां की संतानों की
जिनके बल पर
हमने देखा यह पुण्य पर्व
कर रहे गर्व
गा रहे झूम हम विजय गान
पंद्रह अगस्त है पुण्य पर्व
पंद्रह अगस्त है दिन महान।
पंद्रह अगस्त है विजय गर्व,
गौरवगाथा से दीप्तिमान।

इससे पहले
जब मिली नहीं आज़ादी थी
सोचो कैसी बरबादी थी
सोचो था वह कैसा आलम
कैसी दारुण थीं वे घड़ियां
राखी लेकर थी बहन खड़ी
बीरन ने पहनी हथकड़ियां
उफ् ! देखो फौलादी पंजा
है मसल रहा मासूम फूल
वह फौजी ठोकर उड़ा रही
उस दलित सुमन पर शुष्क धूल
कैसा सावन, झूले कैसे
कैसे ठिक, क्या त्योहार
और मेले कैसे !
ऐसी दारुण घड़ियों के
अनगिन वर्षों के
पिसती-कराहती
जनता के संघर्षों के
परिणामरूप
पाया हमने पंद्रह अगस्त
हम हुए मुक्त, आश्वस्त
हमारा पथ प्रशस्त।
है दिवस बंधु यह
सहनशीलता का प्रमाण ।
भारत की अजर-अमर रहने वाली
स्वतंत्रता का निशान।
पंद्रह अगस्त है पुण्य पर्व
पंद्रह अगस्त है दिन महान।
पंद्रह अगस्त है विजय गर्व,
गौरवगाथा से दीप्तिमान।

- राधेश्याम प्रगल्भ
[राष्ट्रीय कविताएं]

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