जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
 
सच्ची पूजा (कथा-कहानी)     
Author:डॉ. ज्ञान प्रकाश

"उठो! अरे, उठो भी! जाना नहीं है क्या?"

सुबह-सुबह पत्नी के मुख से जाने की बात सुन, मैं कुछ सकपका सा गया।

"आज तो छुट्टी है, फिर कहाँ?' प्रश्नवाचक निगाहों से, मैंने उनकी तरफ देखा।"

"आप भी न भूल जाते हो, कल ही तो बोला था कि आज मंदिर चलेंगे, शिवरात्रि है ना आज।"

"ओह! मैं भी ना, उम्र के इस पड़ाव पर आकर, शायद कुछ भुलक्कड़ सा हो गया हूँ।"

"छुट्टी के चक्कर में, भूल ही गया कि छुट्टी है किसलिए आज।"

पत्नी कह कर जा चुकी थी। मैं जल्दी से उठा और तैयारी में लग गया। इधर पत्नी भी तैयार हो गई थी। हम दोनों ही पूजा का सामान ले, मंदिर की तरफ निकल पड़े। काफी दूर निकल आए तो पत्नी ने अचानक रुकते हुए पूछा, "भूल आए न!"

मैं विस्मित नजरों से उन्हें देखते हुए पूछा, "अब क्या भूल गया मैं?"

उन्होंने कहा, "टेबल पर दूध रखा था... वो कहाँ है? कहाँ ध्यान रहता है आप का!"

"मुझसे बोला था क्या लेने को?" मैंने धीमी आवाज़ में कहा। मगर, उत्तर के लिए, पत्नी की तरफ देखने की हिम्मत नहीं हुई।

हम मंदिर के पास पहुँच चुके थे। सहसा, सामने की एक दुकान की ओर संकेत करते हुए मैं पत्नी से बोला, "दूध सामने की दुकान से ले आता हूँ।"

"दो पैकेट ले लेना।"

"दो पैकेट...!" पुन: कुछ न बोल, दूध लेने आगे चला गया।

दूध ले आने पर हम मंदिर की ओर चल पड़े।

मंदिर के प्रांगण से मंदिर प्रवेश तक श्रद्धालुओं की एक लम्बी कतार थी। लोग अपनी बारी की प्रतीक्षा में थे। हम दोनों भी लाइन में लग गए और भगवन के दर्शन की कामना में प्रतीक्षा करने लगे। लाइन में बढते-बढते देखा, आगे एक कूड़ादान था जिसके पास एक आदमी शायद कुछ तलाश रहा था।

मैं जिज्ञासावश उस ओर ध्यान से देखने लगा। उस आदमी ने कूड़ेदान से एक डिब्बा निकला, जो शायद खाने के कुछ सामान का रहा होगा, और उसे किसी ने फेंक दिया होगा।

उस आदमी के होंठों पर हलकी सी मुस्कान आ गयी। शायद वह काफी भूखा था। उसने वो डिब्बा लिया और वहीं एक किनारे बैठकर उसे खोलने लगा।

मुझे जाने क्या हुआ। मैं आगे खड़ी पत्नी से बोला, "मैं अभी आया।"

मेरी पत्नी शायद पूछना चाह रही थी कि मैं यूं लाइन छोड़कर कहाँ जा रहा हूँ लेकिन तब तक मैं लाइन से बाहर हो आगे निकल चुका था।

मैं उस व्यक्ति के समीप जाकर उससे बोला, "बाबा इसे मत खाओ। ख़राब हो गया है।" वह कातर नज़रों से एकटक मुझे देख रहा था। मानो कह रहा हो, इतनी मुश्किल से मिला खाना भी न खाऊँ!"

मैंने दूध के दोनों पैकेट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, "लो, ये पी लो।"

उसे जैसे सहज विश्वास ही नहीं हो रहा था, मेरे पुन: आग्रह करने पर उसने वे पैकेट पकड़ लिए। अपना एक हाथ धीरे से उठाकर जैसे उसने मुझे आशीर्वाद दिया हो।

सामने से सूरज की किरणें पड़ रही थी जिनकी चमक से मेरी आंखों में पानी आ रहा था। उसी बीच मैंने महसूस किया शायद आसमान से भी किसी ने अपने हाथ आशीर्वाद के लिए उठाए हों।

मैं धीरे से लाइन में आ लगा था। मेरी पत्नी दूर से मुझे देख रही थी। उनकी आँखें भी नम थी।

पूजा-अर्चना के बाद पत्नी सिर्फ इतना ही बोली, "सच्ची पूजा तो आपने की आज!"

डॉ. ज्ञान प्रकाश
सहायक आचार्य (संखिय्की)
मोती लाल नेहरु मेडिकल कॉलेज
इलाहाबाद, भारत

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