कबिरा आप ठगाइए...

 (विविध) 
 
रचनाकार:

 हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

मनुष्य का जीवन यों बहुत दुखमय है, पर इसमें कभी-कभी सुख के क्षण आते रहते हैं। एक क्षण सुख का वह होता है, जब हमारी खोटी चवन्नी चल जाती है या हम बगैर टिकट बाबू से बचकर निकल जाते हैं। एक सुख का क्षण वह होता है, जब मोहल्ले की लड़की किसी के साथ भाग जाती है और एक सुख का क्षण वह भी होता है, जब 'बॉस' के घर छठवीं लड़की होती है।

इनमें कुछ सुख वे होते हैं, जिन्हें हम कमाते नहीं हैं, वे हमारे लिए हमारी कोशिश के बिना जाते हैं, जैसे 'बॉस' के घर छठवीं लड़की का जन्म। मगर कुछ सुख हम कमाते हैं, जैसे खोटा सिक्का चला देना। जब से नए सिक्के चले हैं, खोटी चवन्नी चलाने का सुख जाता रहा है। अब उसकी स्मृति ही शेष है। हम जेब में हाथ डालकर अंगुलियों से टटोलकर खोटी चवन्नी निकालते थे। उसे बेपरवाही से पान वाले की तरफ बढ़ाते थे। भीतर धड़कन होती थी मगर चेहरे पर हम शांति बनाए रखते थे। जब पान वाला उसे अपनी चिल्लर में डाल लेता, तब हमें परम आनंद की उपलब्धि होती थी।

यह ठगने का सुख है। इसे ही ब्रह्मानंद कहा गया है। ब्रह्मानंद तब प्राप्त होता है, जब साधक परमात्मा को ठग लेता है। कई तपस्वी ब्रह्मानंद की प्राप्ति के लिए पूरी जिंदगी साधना में बरबाद कर देते हैं। वे अगर स्थानीय पान वाले के पास एक खोटी चवन्नी चला देते, तो उन्हें सहज ही ब्रह्मानंद प्राप्त हो जाता।

ठगते देवता भी हैं। विष्णु ने तो एक सुंदर स्त्री का रूप धारण करके अपने साथी और मित्र शंकर को ही ठग लिया था- जैसे कोई प्रोफेसर दूसरे प्रोफेसर का पेपर आउट कर दे। घटने की ‘क्लासिक' घटना वह है जब विष्णु चिर एकाकी, विगत यौवन, भयंकर विवाहेच्छु नारद को स्वयंवर में जाने से पहले बंदर का चेहरा दे देते हैं। जिंदगी भर बेचारा मुनि एकतारे पर ‘नारायण-नारायण' बोलता रहा और नारायण ने उसे ठग लिया। इंद्र ने तो तपस्वियों को ठगने के लिए अप्सराओं की एक पलटन ही रखी थी और कई मुनि इसी आशा से तपस्या करते थे कि तपस्या भंग करने के लिए इंद्र कोई अप्सरा भेजेंगे। पर कोई-कोई इसमें भी ठगा जाते थे- वे जिंदगी भर तपस्या करते और कोई अप्सरा नहीं आती थी। आत्मा पुकारती- देवराज, अप्सरा भेजो! हम तपस्या कर रहे हैं। और इंद्र जवाब देते अभी कोई स्पेयर (खाली) नहीं है। कृष्ण तो रोज ही किसी को ठगते थे!

कबीरदास कहते हैं ठगाने में भी सुख है। कहा है-

कबिरा आप ठगाइये और न ठगिए कोय।
आप ठगे सुख होत है और ठगे दुख होय।।

यह बात मेरे गले नहीं उतरती। मैं तो पिछले महीने ही बड़ी सफाई से ठगा गया, मगर मुझे सुख नहीं हुआ।

मैं, दिल्ली स्टेशन पर अपने मित्र के साथ पठानकोट एक्सप्रेस में चढ़ा। खिड़की के पास बैठे एक सज्जन ने (जिन्हें आगे मैं सज्जन नहीं कह सका) दस का नोट दिखाते हुए मुझसे पूछा, ‘दस छोटे नोट होंगे?' मैंने झट से जेब में हाथ डाला और नोट निकालकर गिनने लगा। कुल नौ नोट थे। वे बोले, ‘कोई बात नहीं। एक बाद में ले लूंगा। मुझे नौकर को दो रुपए देना है।' मैंने उन्हें नौ नोट दे दिए। वे झट खिड़की की तरफ मुड़े और नौकर को पुकारा, रंगनाथ, ये ले।' उसे दो रुपए दे दिए। मैंने सोचा- दस का नोट बाद में ले लूंगा। यह साथ ही तो सफर कर रहा है।

मैं अपने मित्र से विदा लेने लगा। गाड़ी चल दी। मैंने खिड़की की तरफ देखा, तो वह आदमी गायब था। (यहां से मैं उसे सज्जन नहीं, सिर्फ आदमी कहूंगा) मैंने आसपास के लोगों से पूछा तो उन्होंने कहा कि वेे यहां बैठे जरूर थे, पर अभी कहीं चले गए। मुझे ठीक से शक्ल भी याद नहीं थी। मैं उन्हें खोजने लगा, नौकर रंगनाथ के नाम से खोजने लगा। लोगों से पूछने लगा, क्या आपने रंगनाथ को दो रुपए दिए।

मेरे दोस्त और वे तीन-चार यात्री मेरी बैचेनी देख रहे थे। उन्होंने पूछा ‘आप उन्हें क्यों खोज रहे हैं? क्या दस का नोट नहीं लिया?'

मैंने सोचा, अगर कह दूंगा कि मैंने नोट नहीं लिया तो ये सब मुझे महामूर्ख समझेंगे। इतना लंबा सफर इनके साथ करना है। दिल्ली में सारा पैसा और उधार लेकर भी खर्च कर चुके थे। मेरे पास कुछ चिल्लर ही अब बची थी और दोस्त के पास 4-6 रुपए पड़े थे।

मैं झूठ बोल गया। मैंने कहा, ‘नहीं, मुझे उन्हें एक रुपया देना है।' उन्हें लगा कि इस धरती पर ऐसा भी कोई है, जो पैसे लेने वाले को ढूँढ रहा है। वे लोग बोले, ‘तो आप क्यों परेशान हैं? वह खुद आपको ढूंढ़ लेगा।'

हारकर मैं सो गया। झांसी में जब सुबह हुई तो मैंने देखा कि सामने से ऊपर की बर्थ से उतरकर एक आदमी मेरे पास आया। मैंने पहचान लिया। वही था। मैंने कहा, ‘अरे आप कहां गायब हो गए थे?' उसने कहा, ‘मैं थका हुआ था, इसलिए सो गया था।' मेरे दोस्त ने कहा, ‘ये तो आपको बहुत खोजते रहे।‘ उसने सहज भाव से कहा, ‘आप क्यों परेशान हुए साहब? एक ही रुपए की तो बात थी। मिल जाता।'

मैं ठगा गया। चाय नाश्ता मेरे मित्र ने करा दिया। वे आगे उसी गाड़ी में बढ़ गए और मैं दूसरी गाड़ी में जबलपुर तक भूखा बैठा रहा।

कबीर के दोहे पर विचार करता रहा। मुझे सूझा कि कबीरदास ने यह नहीं बताया कि किससे ठगने से सुख होता है। कबीर के इस दोहे का बाकी अर्थ भी मेरे सामने उघड़ गया। दूसरी पंक्ति में कहा है-‘आप ठगे सुख होत है और ठगे दुख होय'- यानी आप अगर किसी को ठगेंगे तो आपको सुख होगा। कोई आैर उसे ठग लेगा तो आपको दुख होगा कि हम उसे नहीं ठग पाए। मैं सोचता हूं कि जब ठगा गया हूँ तो एक बार किसी को ठगकर देखूं। अगर अब भी माया ठगने नहीं आई तो रंगनाथ के मालिक को ढूंढ़कर ठगूंगा।

- हरिशंकर परसाई

[साभार - बेईमानी की परत]

Back
 
Post Comment
 
Type a word in English and press SPACE to transliterate.
Press CTRL+G to switch between English and the Hindi language.
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश