अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
 

हम स्वेदश के प्राण

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 गयाप्रसाद शुक्ल सनेही

प्रिय स्वदेश है प्राण हमारा,
हम स्वदेश के प्राण।

आँखों में प्रतिपल रहता है,
ह्रदयों में अविचल रहता है
यह है सबल, सबल हैं हम भी
इसके बल से बल रहता है,

और सबल इसको करना है,
करके नव निर्माण।
हम स्वदेश के प्राण।

यहीं हमें जीना मरना है,
हर दम इसका दम भरना है,
सम्मुख अगर काल भी आये
चार हाथ उससे करना है,

इसकी रक्षा धर्म हमारा,
यही हमारा त्राण।
हम स्वदेश के प्राण।

- गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

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