जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
 

माँ की ममता जग से न्यारी !

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 डॉ शम्भुनाथ तिवारी

माँ की ममता जग से न्यारी !

अगर कभी मैं रूठ गया तो,
माँ ने बहुत स्नेह से सींचा ।
कितनी बड़ी शरारत पर भी,
जिसने कान कभी ना खीँचा ।
उसके मधुर स्नेह से महकी,
मेरे जीवन की फुलवारी ।
माँ की ममता जग से न्यारी !

बिस्तर-बिना सदा जो सोई,
मेरी खातिर नरम बिछौना ।
मुझे बचाया सभी बला से,
बाँध करधनी लगा डिठौना ।
सारे जग से जीत गई पर,
मेरी जिद के आगे हारी ।
माँ की ममता जग से न्यारी !

माँ, तेरी प्यारी बोली का,
दुनिया भर में मोल, नहीं है ।
तेरी समता करनेवाला,
हीरा भी अनमोल,नहीं है ।
तेरी गोद स्वर्ग से सुंदर,
तू सारी दुन्या से प्यारी ।
माँ की ममता जग से न्यारी !

चाहे कितनी मजबूरी हो,
माँ, बच्चे को नहीं सतातीष
अपना दर्द छुपाए दिल में,
उस पर सारा प्यार लुटाती ।
तन-मन न्योछावर कर देती,
सुनते ही शिशु की किलकारी ।
माँ की ममता जग से न्यारी !

भले कोई माँ के कदमों में,
जीवन भर भी शीश झुकाए।
मगर कभी क्या मुमकिन भी है,
कि वह माँ का कर्ज चुकाए ?
माँ की एक साँस भी शायद,
पूरे जीवन पर है भारी ।
माँ की ममता जग से न्यारी !


- डॉ. शम्भुनाथ तिवारी
  प्रोफेसर
  हिंदी विभाग,
  अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी,
  अलीगढ़(भारत)
  संपर्क-09457436464
  ई-मेल: sn.tiwari09@gmail.com

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