देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 

पूर्णाहुति

 (कथा-कहानी) 
 
रचनाकार:

 स्वामी विवेकानंद

पवहारी बाबा अधिकतर अपनी गुफा में रहते थे। अपने अंतिम समय में उन्होंने लोगों से मिलना-जुलना बंद कर दिया था। जब वे गुफा से बाहर आते, तब लोगों से बातचीत करते लेकिन बीच का दरवाज़ा बंद रखकर। उनके गुफा से बाहर निकलने का पता उनके ऊपरवाले कमरे में से होम के धुएँ के निकलने से अथवा पूजा की सामग्री ठीक करने की आवाज़ से चलता था।

लोग उनके दरवाज़े के पीछे कुछ आलू और थोड़ा सा मक्खन रख देते थे। रात को किसी समय जब वे समाधि में न होकर अपने ऊपर वाले कमरे में होते थे तो इन चीज़ों को ले लेते थे। पर जब बे गुफा के भीतर चले जाते थे, तब उन्हें इन चीजों की भी आवश्यकता नहीं रह जाती थी । इस प्रकार वे मौन योग-साधना में लीन रहते थे ।

हम पहले ही कह चुके हैं कि बाहर से धुआँ दीख पड़ने से ही मालूम हो जाता था कि वे समाधि से उठे हैं । एक दिन उस धुएँ में जलते हुए मांस की दुर्गन्ध आने लगी । आसपास के लोग इसके सम्बन्ध में कुछ अनुमान न कर सके कि क्या हो रहा है । अंत में जब वह दुर्गन्ध असह्य हो उठी और धुआँ भी अत्यधिक मात्रा में ऊपर उठता हुआ दिखायी देने लगा, तब लोगों ने दरवाज़ा तोड़ डाला और देखा कि उस महायोगी ने स्वयं को पूर्णाहुति के रूप में उस होमाग्नि को समर्पित कर दिया है । थोड़े ही समय में उनका वह शरीर भस्म की राशि में परिणत हो गया ।

स्वामी विवेकानंद पवहारी बाबा के आत्माहुति को किस प्रकार देखते हैं? वे इस बारे में लिखते हैं:

यहाँ पर हमें कालिदास की ये पंक्तियाँ याद आती हैं :

अलोकसामान्यमचिन्त्यहेतुकम् ।
निन्दन्ति मन्दाश्चरितं महात्मनाम्।।'

अर्थात् मन्दबुद्धि व्यक्ति महात्माओं के कार्यों 'की निन्दा करते हैं, क्योंकि ये कार्य असाधारण होते हैं तथा उनके कारण भी सर्वसाधारण व्यक्तियों की विचार-शक्ति से परे होते हैं ।

परन्तु उनके (पवहारी बाबा) साथ हमारा यह परिचय होने के कारण उनके उक्त कार्य के सम्बन्ध में हम एक अनुमान लगाने का साहस कर सकते हैं कि उन्होंने यह जान लिया था कि उनके जीवन का अन्तिम क्षण समीप आ गया है और उनकी मृत्यु के पश्चात् भी किसी को कोई कष्ट न हो, इसीलिए उन्होंने पूर्ण स्वस्थ शरीर तथा मन से आर्यों का यह अन्तिम यज्ञ भी सम्पन्न कर डाला।

विवेकानंद लिखते हैं, 'प्रस्तुत लेखक इस परलोकगत सत के प्रति परम ऋणी है । इस लेखक ने जिन श्रेष्ठतम आचार्यो से प्रेम किया है तथा जिनकी सेवा की है, उनमें से वे एक हैं । उनकी पवित्र स्मृति में मैं ये पंक्तियां चाहे जैसी भी अयोग्य हो, समर्पित करता हूँ ।'

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