जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
 

खिड़की बन्द कर दो

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 गोपालदास ‘नीरज’

खिड़की बन्द कर दो
अब सही जाती नहीं यह निर्दयी बरसात-खिड़की बन्द कर दो।

यह खड़ी बौछार, यह ठंडी हवाओं के झकोरे,
बादलों के हाथ में यह बिजलियों के हाथ गोरे
कह न दें फिर प्राण से कोई पुरानी बात - खिड़की बन्द कर दो।

वो अकेलापन कि अपनी साँस लगती फाँस जैसी,
काँपती पीली शिखा दिखती दिये की लाश जैसी,
जान पड़ता है न होगा इस निशा का प्राप्त - खिड़की बन्द कर दो।

था यही वह वक्त मेरे वक्ष में जब सिर छिपाकर,
था कहा तुमने तुम्हारी प्रीति है मेरी महावर,
बन गई कालिख तुम्हें पर अब वही सौगात - खिड़की बन्द कर दो।

अब न तुम वह , अब न मैं वह, वे न मन में कामनायें,
आँसुओं में घुल गई अनमोल सारी भावनायें,
किसलिए चाहूँ चढ़े फिर उम्र की बारात - खिड़की बन्द कर दो।

रो न मेरे मन, न गीला आसुओं से कर बिछौना,
हाथ मत फैला पकड़ने को लड़कपन का खिलौना,
मेंह-पानी में निभाता कौन किसका साथ - खिड़की बन्द कर दो।

- गोपालदास 'नीरज'

 

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