अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
 

भारतेन्दु की मुकरियां

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

सब गुरुजन को बुरो बतावै ।
अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।।
भीतर तत्व न झूठी तेजी ।
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी ।।

तीन बुलाए तेरह आवैं ।
निज निज बिपता रोइ सुनावैं ।।
आँखौ फूटे भरा न पेट ।
क्यों सखि सज्जन नहिं ग्रैजुएट ।।

सुंदर बानी कहि समुझावै ।
बिधवागन सों नेह बढ़ावै ।।
दयानिधान परम गुन-आगर ।
सखि सज्जन नहिं विद्यासागर ।।

सीटी देकर पास बुलावै ।
रुपया ले तो निकट बिठावै ।।
ले भागै मोहिं खेलहिं खेल ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि रेल ।।

धन लेकर कछु काम न आव ।
ऊँची नीची राह दिखाव ।।
समय पड़े पर सीधै गुंगी ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि चुंगी ।।

मतलब ही की बोलै बात ।
राखै सदा काम की घात ।।
डोले पहिने सुंदर समला ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि अमला ।।

रूप दिखावत सरबस लूटै ।
फंदे मैं जो पड़ै न छूटै ।।
कपट कटारी जिय मैं हुलिस ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि पुलिस ।।

भीतर भीतर सब रस चूसै ।
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै ।।
जाहिर बातन मैं अति तेज ।
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेज ।।

सतएँ अठएँ मों घर आवै ।
तरह तरह की बात सुनाव ।।
घर बैठा ही जोड़ै तार ।
क्यों सखि सज्जन नहिं अखबार ।।

एक गरभ मैं सौ सौ पूत ।
जनमावै ऐसा मजबूत ।।
करै खटाखट काम सयाना ।
सखि सज्जन नहिं छापाखाना ।।

नई नई नित तान सुनावै ।
अपने जाल मैं जगत फँसावै ।।
नित नित हमैं करै बल-सून ।
क्यों सखि सज्जन नहिं कानून ।।

इनकी उनकी खिदमत करो ।
रुपया देते देते मरो ।।
तब आवै मोहिं करन खराब ।
क्यों सखि सज्जन नहिं खिताब ।।

लंगर छोड़ि खड़ा हो झूमै ।
उलटी गति प्रति कूलहि चूमै ।।
देस देस डोलै सजि साज ।
क्यों सखि सज्जन नहीं जहाज ।।

मुँह जब लागै तब नहिं छूटै ।
जाति मान धन सब कुछ लूटै ।।
पागल करि मोहिं करे खराब ।
क्यों सखि सज्जन नहिं सराब ।।

- भारतेन्दु हरिश्चंद्र

खुसरो की मुकरियां (क्यौं सखि सज्जन ना सखि पंखा) प्रसिद्ध हैं, उस समय इसी प्रकार की मुकरियां चलती थीं लेकिन हरिश्चन्द्र ने उपरोक्त 'नए जमाने की मुकरियां' लिखीं थीं।

[भारतेन्दु ग्रंथावली, नवोदिता हरिश्चंद्र चंद्रिका]

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