यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।
 

लोग क्या से क्या न जाने हो गए | ग़ज़ल

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 डॉ शम्भुनाथ तिवारी

लोग क्या से क्या न जाने हो गए
आजकल अपने बेगाने हो गए

बेसबब ही रहगुज़र में छोड़ना
दोस्ती के आज माने हो गए

आदमी टुकडों में इतने बँट चुका
सोचिए कितने घराने हो गए

वक्त ने की किसकदर तब्दीलियाँ
जो हकीकत थे फसाने हो गए

प्यार-सच्चाई-शराफत कुछ नहीं
आजकल केवल बहाने हो गए

जो कभी इस दौर के थे रहनुमा
अब वही गुज़रे ज़माने हो गए

आज फिर खाली परिंदा आ गया
किसकदर मुहताज़ दाने हो गए

थे कभी दिल का मुकम्मल आइना
अब वही चेहरे सयाने हो गए

जब हुआ दिल आसना ग़म से मेरा
दर्द के बेहतर ठिकाने हो गए


- डॉ. शम्भुनाथ तिवारी
  प्रोफेसर
  हिंदी विभाग,
  अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी,
  अलीगढ़(भारत)
  ई-मेल: sn.tiwari09@gmail.com

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