अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
 

हिंदी मातु हमारी - प्रो. मनोरंजन

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 भारत-दर्शन संकलन | Collections

प्रो. मनोरंजन जी, एम. ए, काशी विश्वविद्यालय की यह रचना लाहौर से प्रकाशित 'खरी बात' में 1935 में प्रकाशित हुई थी।

कह दो पुकार कर, सुन ले दुनिया सारी।
हम हिंद-तनय हैं, हिंदी मातु हमारी।।

भाषा हम सबकी एक मात्र हिंदी है।
आशा हम सबकी एक मात्र हिंदी है।।
शुभ सदगुण-गण की खान यही हिंदी है।
भारत की तो बस प्राण यही हिंदी है।।

हिंदी जिस पर निर्भर है उन्नति सारी।
हम हिंद-तनय हैं, हिंदी मातु हमारी।।

कविराज चंद ने इसको गोद खेलाया।
तुलसी, केशव ने इसका मान बढ़ाया।।
रसखान आदि ने इसको ही अपनाया।
गाना इसमें ही सूरदास ने गाया।।

गांधी जी इस मंदिर के हुए पुजारी।
हम हिंद-तनय हैं, हिंदी मातु हमारी।।

भारत ने अब इसके पद को पहचाना।
अपनी भाषा बस इसको ही है माना।।
इसका महत्व अब सब प्रांतों ने जाना।
दक्षिण भारत, पंजाब, राजपूताना।।

सब मिलकर गाते गीत यही सुखकारी।
हम हिंद-तनय हैं, हिंदी मातु हमारी।।

सदियों से हमने भेद भाव त्यागे हैं।
पा नवयुग का संदेश पुन: जागे हैं।।
अब देखेगा संसार कि हम आगे हैं।
जगकर हम रण से कभी नहीं भागे हैं।।

फिर आई है, हे जगत, हमारी बारी।
हम हिंद-तनय हैं, हिंदी मातु हमारी।।

(साभार- राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली)

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