देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 

फीजी के प्रवासी भारतीय साहित्यकार प्रो. बृज लाल की दृष्टि

 (विविध) 
 
रचनाकार:

 सुभाषिनी लता कुमार | फीजी

अकादमिक स्वर्गीय प्रो. बृज लाल का नाम फीजी तथा दक्षिण प्रशान्त महासागर के प्रतिष्ठित साहित्यकारों की अग्रीम श्रेणी में लिया जाता है। उनके पूर्वज गिरमिटिया मजदूर के रूप में सन् 1908 में भारत से लगभग 12000 हजार किलोमीटर दूर फीजी द्वीप आकर बस गए। प्रो. बृजलाल के उत्थान की कहानी फीजी के एक साधारण गाँव के स्कूल ‘ताबिया सनातन धर्म’ से शुरू होती है। उन्होंने अपनी शिक्षा और कड़ी मेहनत के बल पर ऑस्ट्रेलियन राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में प्रशांत और एशियाई इतिहास के एमेरिटस प्रोफेसर का पद संभाला तथा अपने लेखन के माध्यम से प्रवासी भारतीयों के इतिहास को रचनात्मक रूप प्रदान किया है।

प्रो. बृजलाल ने एक इतिहासकार के रूप में अपने पेशेवर करियर की शुरुआत की, लेकिन 1990 के दशक के मध्य से वे आत्मकथा और रचनात्मक लेखन में तेजी से शामिल हो गए। ‘मिस्टर तुलसी स्टोर’, ‘रिटर्न टू बहराइच’, ‘बेन्स फ्यूनरल’ और ‘सनराइज ऑन द गंगा’ , ‘चलो जहाजी’ आदि कृतियों को उन्होंने लिखा। आत्मकथा लेखन- श्री तुलसी के स्टोर में शुरुआती अध्याय ‘तबिया’ है, जो लम्बासा के पास उनका गृह गांव है (लाल 2001: 1-23)। यह गन्ना उत्पादन और सामुदायिक निष्क्रियता के आधार पर संस्थानों और गतिशीलता और एक ग्राम जीवन की व्याख्या करके इसके लिए आवश्यक संदर्भ प्रदान करता है। यह उन अध्यायों में एक प्रमुख विषय का भी पूर्वाभास देता है जो अनुसरण करते हैं – अर्थात्, औपचारिक शिक्षा पर रखा गया मूल्य और उसमें उसका विसर्जन। उनके अनपढ़ दादा-दादी और माता-पिता थे; उनकी मां ने हिंदी में अपना नाम लिखने के लिए पर्याप्त वर्णमाला सीखी, लेकिन वह उनकी साक्षरता की सीमा थी। उनकी रचनाएँ हृदय की गहराइयों में उतरकर वहाँ की दशा का सजीव और मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती हैं | उनका साहित्य अतीत की पृष्ठभूमि में वर्तमान का स्वर्णीम सन्देश है |

19 वीं सदी के अंत व 20 वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में पूर्वी उत्तर प्रदेश के आंचलिक क्षेत्रों से लोग रोजी-रोटी की तलाश में विदेशों में गए। ये लोग गिरमिटिया यानी अनुबंधित श्रमिक के रूप में वहाँ ले जाए गए। लंबी समुद्री यात्रा के दौरान कई लोगों ने अपने प्राण त्याग दिए। इन श्रमिकों ने कड़ी मेहनत के साथ पराए देश के संस्कारों, आचार-व्यवहारों में खुद को जैसे-तैसे ढालकर उन वीरान द्वीपों को आबाद किया। शर्तबंधी प्रथा के बाद कई वहीं बस गए और कुछ वापस भारत लौट आए। फीजी के प्रवासी भारतीयों का इतिहास लगभग 142 वर्ष पुराना है। इन प्रवासी भारतीयों की पाँचवीं पीढ़ी वहाँ रह रही है। अब फीजी को ही वे अपना घर मानते हैं , लेकिन भारत की संस्कारों एवं परंपराओं से इनका जुड़ाव अभी भी बना हुआ है। प्रो. बृजलाल के लेखन में प्रवासियों के अनुभव, इतिहास, संस्कृति, राजनैतिक परिवेश और लोक जीवन के प्रभाव का विश्लेषणात्मक दस्तावेज है।

भारत और भारतीयों की कई छवियों को यूरोपीय अन्वेषणकों ने चित्रित किया है। इन चित्रों मे भारतीयों को फकीरों या धार्मिक प्रतिबंधों द्वारा अपनी मिट्टी से बंधे गरीब मजदूरों के रूप में चित्रित किया गया हैं। सन् 1800 में इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई। ऐसे में ब्रिटेन ने एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, फीजी आदि देशों में उपनिवेशवाद की शुरुआत की। इन देशों के लिए एक बड़ी संख्या में मज़दूरों की ज़रूरत महसूस की गई। इस ज़रूरत को पूरा करने के लिए ब्रिटिश शासक भारत से मेहनती, सस्ते, ईमानदार श्रमिकों को ले जाते थे। बाद में इन्हीं श्रमिकों को ‘गिरमिटिया मज़दूर’ कहा जाने लगा।

प्रशान्त महासागर के दक्षिण में स्थित फीजी गणराज्य ‘प्रशान्त का स्वर्ग’ कहलाता है। भारत से हजारों मील दूर बसे लगभग 9 लाख जन आबादी वाले इस द्वीप देश में भारतीय मूल के निवासियों की संख्या लगभग 37 प्रतिशत है। यहाँ की जन समुदाय दो मुख्य द्वीपों में फैली हुई हैं जिनका नाम विती लेवु और वानुवा लेवु है। छोटे द्वीपों पर मुख्य रूप से ई-तउकइ निवासित हैं। आज फीजी प्रवासी भारतीयों, चीनी, तुवालुअन तथा अन्य प्रशांत द्वीप समूह से आए लोगों व मूल ई-तउकइ फीजियन का घर है। यह अपनी बहुसांस्कृतिक मिश्रण के लिए जाना जाता है। फीजी में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा अंग्रेजी है। अंग्रेजी औपनिवेशिक विरासत से पाई गई प्रशासन की भाषा है। सन् 2013 के संविधान में अंग्रेजी, फीजियन और हिंदी भाषा देश की प्रमुख भाषाओं के रूप में सन्निहित है। तीन भाषाओं के बीच के परस्पर प्रक्रिया को सामाजिक स्थानों और सभाओं में आसानी से देखा जा सकता है।

फीजी के सपूत प्रो. बृज लाल का जन्म 21 अगस्त 1952 को ताबिया, लम्बासा में हुआ। ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में प्रशांत और एशियाई इतिहास के एमेरिटस प्रोफेसर, प्रख्यात फीजी अकादमिक बृज लाल जी का ऑस्ट्रेलिया में उनके घर पर 25 दिसम्बर, 21 को निधन हो गया और फीजी ने अपना एक सच्चा लाल खो दिया। प्रो. लाल ने ‘चलो जहाजी’ में अपने गिरमिटिया दादा के बारे में लिखा, जो 1879 और 1916 के बीच सबसे खराब परिस्थितियों में भारत से फिजी आने वाले 60,000 मजदूरों में से थे। अपने आजा से उन्होंने गिरमिट की कई कहानियाँ सुनी थी जिसका उल्लेख वे अपने लेखों में करते हैं। बृजलाल ने इतिहास से प्रमाण लेकर गिरमिटियों की यातनाओं को दर्ज किया है। जिससे पढ़कर अपने पूर्वजों की स्थित देख आत्मा संवेदनाओं से भावुक हो उठती है, विशेषकर गिरमिटिया महिलाओं की स्थितियों के बारे में पढ़कर। उनकी कृतियाँ गिरमिटिया मजदूरों पर हुए शोध का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज सिद्ध हुआ।

उनकी जीवन यात्रा फीजी के भारतीय डायस्पोरा के बीच बढ़ने और जीवन में अपनी स्थिति को बेहतर बनाने के लिए दृढ़ संकल्प की मात्रा को दर्शाता है। ऐसा भी कह सकते हैं कि यह मानव आत्मा की शक्ति का एक शानदार वसीयतनामा है। प्रो. बृज लाल ने लम्बासा सेकेंडरी स्कूल, जो अब लम्बासा कॉलेज (1967-1970) में शिक्षा हासिल की। फिर वे 1970 में अंग्रेजी और इतिहास के एक हाई स्कूल शिक्षक के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए सरकारी छात्रवृत्ति पर दक्षिण प्रशांत (यूएसपी) के नव स्थापित विश्वविद्यालय में गए। अच्छे ग्रेड और व्याख्याताओं की दयालु रुचि ने अन्य अवसरों को खोल दिया जिसके बाद उन्हें यूएसपी में एक जूनियर अकादमिक के रूप में करियर पर विचार करने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

प्रो. लाल वर्ष 1976 में जूनियर लेक्चरर के रूप में यूएसपी में पढ़ाने लगे और अपने अकादमिक करियर को विकसित करने के लिए पीएचडी की ओर कदस बढ़ाया। अगस्त 1977 में, उन्हें ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रीय विश्वविद्यालय (एएनयू) में अध्ययन करने के लिए एक शोध छात्रवृत्ति की पेशकश की गई, जहां उन्होंने फिजी के भारतीय गिरमिटिया प्रवासियों की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि पर 1980 में पीएचडी पूरी की। 1980 में, वे फीजी लौट आए और अगस्त 1983 तक यूएसपी में पढ़ाया जब उन्हें होनोलूलू में हवाई विश्वविद्यालय में विश्व और प्रशांत इतिहास के सहायक प्रोफेसर नियुक्त किया गया। उन्होंने इस अवधि के बारे में कहा: “यह मेरे लिए एक बहुत ही संतोषजनक समय था। हमारे बेटे का जन्म वहीं हुआ और पद्मा ने संसाधन और पर्यावरण प्रबंधन में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। फिर 1990 में, लाल अपने परिवार के साथ ऑस्ट्रेलिया लौट गए जहाँ वे ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे।

1990 के दशक के मध्य में, बृज लाल ने सर पॉल रीव्स की अध्यक्षता में फीजी की संवैधानिक समीक्षा आयोग के महत्वपूर्ण सदस्यों में थे। इस तरह व्यापक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परामर्श पर आधारित 1990 के संविधान की उनकी समीक्षा के परिणामस्वरूप रिपोर्ट और सिफारिशें हुईं जो अंततः 1997 के संविधान की ओर ले गईं। अफसोस की बात है कि सन् 2009 में बृज लाल और उनकी पत्नी, पद्मा को फीजी से फ्रैंक बैनीमारामा की सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था, जिसके बाद वे ऑस्ट्रेलिया चले गए, जहां वे शिक्षाविदों, सामुदायिक नेताओं और अन्य समूहों द्वारा प्रतिबंध हटाने के लिए कई अपीलों के बावजूद निर्वासन में रहे।

फीजी में अंग्रेजी साहित्य सृजन में प्रो. बृज वी. लाल की अतुलनीय भूमिका रही है। प्रो. बृज वी. लाल एक प्रसिद्ध अकादमिक और इतिहासकार हैं। प्रो. बृज लाल प्रशांत के इतिहासकारों के बीच अपने लेखन के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने फीजी का समकालीन इतिहास और संविधान समीक्षा आयोग की रिपोर्ट में सक्रिय भूमिका निभाई है। फीजी में राजनीतिक तख्तापलट का विश्लेषण, बीसवीं शताब्दी का राजनीतिक इतिहास, फीजी में संवैधानिकता, महान भारतीय नेता ए. डी. पटेल की जीवनी आदि पर उनके लेख शामिल हैं। उनकी आत्मकथा, Mr. Tulsi’s Store: A Fijian Journey (2001) को सन् 2002 में किरियामा पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। उनके उपन्यास ‘चलो जहाजी’ (2000) इंडो-फ़िजियन समुदाय के परीक्षण और विजय का इतिहास है। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं: Bittersweet: The Indo-Fijian Experience (2004), Power and Prejudice: The Making of the Fiji Crisis, Broken Waves: A history of the Fiji Islands in the 20th century, A Vision for Change: AD Patel and the Politics of Fiji, Chalo Jahaji: On a Journey of Indenture through Fiji (2000), Pacific Islands: An Encyclopedia (ed), Pacific Places, Pacific Histories (ed) । उनकी पुस्तकें Girmitiyas: The Origins of the Fiji Indians (2004) and The Encyclopedia of Indian Diaspora(ed.) भारतीयों के दस्तावेजीकरण और इतिहास का महत्वपूर्ण आधार ग्रंथ हैं।

एक इतिहासकार के रूप में अपने दृष्टिकोण का वर्णन करते हुए, वे स्पष्ट कहते हैं कि लोगों में अपने अतीत के प्रति जुड़ाव की भावना की होनी चाहिए । उन्होंने फीजी के समकालीन इतिहास लेखन में उनके प्रयासों का जिम्मा उठाया और अपने पूर्वजों और भारतीय समाज के बारे में खुलकर लिखा है। वह शुरू में परेशान थे कि 1987 में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को उखाड़ फेंका गया, एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी के रूप में, प्रो. बृज को लगता था कि चुप्पी कोई विकल्प नहीं है बल्कि वह सत्ता से सच बोलने के लिए कर्तव्यबद्ध थे और ऐसे समाज की कल्पना करते थे जिसमें नागरिक खुलकर राज्य की नीतियों की आलोचना कर सके।

आज प्रो. बृजलाल हमारे बीच नहीं हैं पर उनका विपुल साहित्य फीजी के प्रवासी भारतीयों के इतिहास की अमूल्य धरोवर है जो वर्षों तक हमारा मार्गदर्शन तथा साहित्य सृजन की प्रेरणा देती रहेगी। यह आलेख प्रो. बृज लाल जैसे भारतीय डायस्पोरा के विकास की गाथा है।

-डॉ॰ सुभाषिनी लता

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