अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
 

मातृ-वंदना

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 डॉ रमेश पोखरियाल निशंक

कंठ तेरे हैं अनेकों, स्वर तुम्हारा एक है,
स्वर तुम्हारे पूज्यपादों में भी मेरा एक है।
कंठ सारे एक होकर, गान तेरा ही करें,
भू-जगत् की पूज्यमाता, कष्ट-दुख सब ही हरें।
माँ तुम्हारे शीश अगणित, एक सिर मेरा भी है,
चरण-कमलों में तेरे माँ, एक यह चेहरा भी है।
सैकड़ों मस्तक चढ़े माँ, मैं भी उनमें एकहूँ,
चाहता हूँ वंद्य माँ मैं, क्षण व कण प्रत्येक दूँ।
एक लय में गीत तेरे, सब पुकारें माँ तुम्हें,
सुरभि अमृतरस सभी, बाँट दो माता हमें।
हाथ अनगिन कर रहे हैं, वंदना माँ की अभी
हाथ हैं उनमें भी मेरे, पुत्र तेरे जो सभी।
कोटि चरणों से सुशोभित, पूत तेरे बढ़ रहे,
वत्सले! मन के हमारे, दीप सारे चढ़ रहे।
पुत्र मैं हूँ माँ तुम्हारा, तुम मुझे स्वीकार लो,
पूर्ण अर्पित बाल तेरा, माँ मुझे अब तार दो।

-रमेश पोखरियाल ‘निशंक'
    [मातृभूमि के लिए]

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