प्रत्येक नगर प्रत्येक मोहल्ले में और प्रत्येक गाँव में एक पुस्तकालय होने की आवश्यकता है। - (राजा) कीर्त्यानंद सिंह।
 

महारानी का जीवन

 (कथा-कहानी) 
 
रचनाकार:

 डॉ माधवी श्रीवास्तवा | न्यूज़ीलैंड

राम आज अत्यधिक दुःखी थे। उनका मन आज किसी कार्य में स्थिर नहीं हो रहा था। बार-बार सीता की छवि उन्हें विचलित कर रही थी। वह पुनः पञ्चवटी जाना चाहते थे, कदाचित यह सोच कर कि सीता वहाँ मिल जाये यदि सीता न भी मिली तो सीता की स्मृतियाँ तो वहाँ अवश्य ही होंगी। राज-काम से निवृत्त होकर राम अपने कक्ष में वापस आ जाते हैं। प्रासाद में रहते हुए भी उन्होंने राजमहल के सुखों से अपने आप को वंचित कर रखा था, यह सोचकर कि मेरी सीता भी तो अब अभाव पूर्ण जीवन जी रही होगी। पता नहीं वह क्या खाती होगी...? कहाँ सोती होगी...? इसी चिंता में आज उन्हें भूख भी नहीं लग रही थी। राजसी भोजन का तो परित्याग उन्होंने पहले ही कर दिया था। आज उन्होंने कन्द-मूल भी ग्रहण नहीं किये थे। जिससे माता कौशल्या अत्यंत चिंतित हो गयी थी। वह राम से मिलने उनके कक्ष की ओर जाती हैं, परन्तु मार्ग में ही सिपाही उन्हें रोक देते हैं।

"क्षमा करें माता, महाराज ने किसी से भी मिलने को मना किया है।"

"परंतु मैं उसकी माँ हूँ

सिपाही यह सुनते ही मार्ग दे देता है।

"राम...राम...कपाट खोलो राम...आज तू भोजन कक्ष में नहीं आया। क्या बात है राम? मुझसे बात नहीं करेगा...?"

माँ की ध्वनि सुनकर राम अपने कक्ष के कपाट खोल देते हैं।

राम को देखते ही माता कौशल्या सब समझ जाती है।

"पुत्र तू जब सीता से इतना ही प्रेम करता है, तो उसे क्यों अपने से दूर कर दिया?"

राम कुछ नहीं बोलते। बस माता के गोद में अपना सर रखकर अपने विचलित मन को शांत करने का प्रयास करते हैं।

"पुत्र राम! तू कुछ बोलता क्यों नहीं..? इस प्रकार तू कब तक अपना कष्ट अपने भीतर छिपाए रखे गा...? मैं तुम्हारी माँ हूँ, मैं तुम्हें इस तरह नहीं देख सकती। तू अभी जा और सीता को खोज कर उसे महल वापस ले आ।"

"नहीं माँ, सीता अब कभी वापस नहीं आएगी...मैं उसको जानता हूँ। यदि मैं सीता को ढूंढ भी लूँगा, तो भी मैं अब उसे वापस नहीं ला सकता। अभागी अयोध्या ने उसे सदा के लिए खो दिया है।"

"नहीं मैं नहीं मानती, तू एक बार मुझे सीता से मिला तो...मैं उससे क्षमा मांग लूँगी। वह मेरा वचन कभी अनसुना नहीं कर सकती...।"

राम को माँ की गोद में नींद आ जाती है। राम को सोता देख माता कौशल्या शांत हो जाती हैं और अपने पुत्र के मस्तक को सहलाते हुए, भीगे नेत्रों के साथ वह पशुपति से प्रार्थना करती हैं।

"हे महादेव! मेरे पुत्र का कष्ट कब समाप्त होगा, मुझसे और इसका कष्ट देखा नहीं जाता।"

माँ के आँखों में अश्रु देख कर महादेव भी अपने आप को रोक नहीं पाते वह भी अश्रु पूरित होकर मानो कह रहे हो - "माता मैं स्वयं विवश हूँ। यह सब तो श्री हरि की ही लीला है।"

लंका से वापस आने के पश्चात कुल-गुरु वशिष्ठ के आदेश से राम और सीता का अयोध्या के सिंहासन पर पूरे विधि-विधान के साथ राज्याभिषेक हुआ था। राजपरिवार और प्रजा अपने चहेते राजा और रानी को पाकर प्रसन्न थी। प्रजा अपने गौरवपूर्ण और श्रेष्ठ शासन व्यवस्था से आनंदित थी। चारों ओर शांति और न्याय की स्थापना थी। परंतु यह मृत्युलोक है, यहाँ स्थिति हर समय एक जैसी नहीं होती। सुख के पश्चात दुःख और दुःख के पश्चात सुख यही जीवन का क्रम है और इसी क्रम को जीवन की गतिशीलता कहते हैं।

महाराज राम प्रायः भेष बदल कर अपने राज्य में भ्रमण के लिए जाया करते थे। यह जानने के लिए कि प्रजा को कोई कष्ट तो नहीं है...वह अपने राजा के विषय में क्या विचार रखती है...वह अपने राजा के निर्णयों से प्रसन्न रहती है अथवा नहीं। यही सब जानने के लिए एक रात महाराज राम भेष बदल कर अपनी अयोध्या में विचरण कर रहे थे। तभी उन्होंने एक समूह को कुछ वार्तालाप करते हुए सुना। वह कह रहे थे-

"महाराज राम तो अपनी पत्नी-प्रेम में अंधे हो चुके हैं।"

"हाँ भैया, ठीक कहत हो। अब भला ऐसी स्त्री को कौन अपने घर में स्थान देता है, जो इतने दिनों तक किसी दूसरे राजा के घर रही हो।"

"घर में स्थान तो छोड़ो भैया, उसको तो अयोध्या की महारानी तक बना दियो। यदि हमारी स्त्री होती, तो हम तो कबहुँ उसे अपने घर में घुसने न देते।"

महाराज राम ने जब यह सब सुना तो उन्हें ऐसा लगा जैसे किसी ने उनके प्राण ही हर लिए हो। वह बड़े दुःखी मन से अपने प्रासाद में वापस आ जाते हैं। दूसरे ही दिन वह अपने एक सेवक को भेज कर यह पता लगवाते हैं कि शेष प्रजा अपनी महारानी के विषय में क्या सोचती है। परिणाम नकारात्मक ही थे। लगभग आधी से अधिक जनता सीता के विषय में दोषपूर्ण विचार ही रखती थी। महाराज राम यह सब सुनकर अत्यंत चिंतित हो जाते हैं। उन्हें कुछ समझ में नहीं आता कि वह अब क्या करें। पहले वह सोचते मैं यह राजपद ही त्याग देता हूँ और सीता को लेकर पुनः वन चला जाता हूँ, कदाचित वन का जीवन यहाँ से अधिक श्रेयस्कर होगा...पुनः सोचते, मैं अपने व्यक्तिगत सुख के लिए अपनी प्रजा को अकेले कैसे छोड़ कर जा सकता हूँ...उन्हें कुछ समझ में नहीं आता। उनका मन इस अंतहीन पीड़ा से विदीर्ण हो चुका था। महाराज को सदैव चिंतित देखकर सीता को आभास हो जाता है कि अवश्य ही राम किसी विषय को लेकर चिंताग्रस्त हैं। वह राम से पूछती परंतु वह राज्य का भार कह कर टाल देते थे। राम के पास इतना साहस ही नहीं था कि वह अपनी प्राणप्रिया, निष्कलंक सीता से इस तरह अशोभनीय विषय पर वार्तालाप करें। परंतु सीता को राम का दुःख अब देखा नहीं जा रहा था। वह अपने एक विश्वास प्रिय दासी को अयोध्या का हाल-चाल भेजने के लिए भेजती है।

"प्रियंवदा तुम मेरी विश्वासपात्र परिचारिका हो इसलिए मैं तुम्हें यह कार्य सौंपती हूँ। तुम प्रजा में जाकर पता करो कि ऐसी कौन सी बात है जिसके कारण महाराज राम इतने चिंतित हैं।"

परिचारिका दो-तीन दिन बाद वापस आकर महारानी सीता को अयोध्या में चल रहे अपवाद के विषय में बताती है। सीता को अब समझते देर नहीं लगती कि महाराज के दुःख का क्या कारण है। वह आज भोजन के पश्चात राम से मिलती हैं।

"महाराज...!"

"महाराज...? क्यों सीते इस कक्ष में इस सम्बोधन की क्या आवश्यकता है?"

"आवश्यकता है स्वामी क्योंकि आज मैं जो पूछने जा रही हूँ, उसका संबंध अयोध्या की राजनीति से है।"

"क्या है सीते, कहो न।"

"क्या कोई पदाधिकारी आरोप लगने के पश्चात भी अपने उस पद पर बना रह सकता है।"

"नहीं, उसे तत्काल ही अपना पद छोड़ देना चाहिए। जब तक उसपर लगे आरोपों पर कोई निर्णय नहीं आ जाता।"

"तब महाराज मैं अपना महारानी पद का अभी से त्याग करती हूँ।"

"सीते!!!यह तुम क्या कह रही हो? मैं कुछ समझा नहीं।"

"महाराज आप अच्छी तरह जानते हैं मैं की विषय में बात कर रहीं हूँ। मुझे आपके दुःख का कारण ज्ञात हो गया है।"

राम स्तब्ध होकर सीता को देखते रह जाते हैं। उन्हें पल भर के लिये ऐसा लगता है, जैसे विधाता ने उन्हें कुछ देकर सब कुछ छीन लिया हो।

"सीते अभी तुम गर्भवती हो, इस अवस्था में तुम्हें प्रसन्न रहना चाहिए। तुम प्रजा की चिंता मत करो मैं उनको संभाल लूँगा।"

"नहीं स्वामी, आप मेरे लिए अपने कुल की मर्यादा और राज-धर्म को विस्मृत नहीं कर सकते। एक राजा को यह शोभा नहीं देता कि वह प्रजा के विचारों का सम्मान न करें। यदि प्रजा मुझे महारानी पद के योग्य नहीं समझती है। तो मैं इस पद का अभी परित्याग करती हूँ और जो आरोप मुझ पर लगा है, उसके अनुसार मैं अब इस महल में भी रहने योग्य नहीं हूँ, इसलिए मैंने यह निर्णय लिया है कि मैं महल त्याग कर वन में चालू जाऊँगी।"

"नहींs s s सीते तुम ऐसा नहीं कर सकती।"

"नहीं स्वामी, अब समय की यही अनिवार्यता है। आप भावनावों में बह कर अपने राज-धर्म से विचलित न हों। यह समय भावनाओं का नहीं है अपितु एक राजा की भांति कठोर निर्णय लेने का है...नहीं तो आने वाली पीढ़ी क्या सोचेगी कि इक्ष्वाकु वंश में एक ऐसा राजा भी हुआ था जो अपने व्यक्तिगत प्रेम के कारण अपने राज-धर्म से विमुख हो गया था। आप को अपने वंश को कलंकित करने का कोई अधिकार नहीं है।"

"सीते तुम क्या कह रही हो।"

राम अब बिल्कुल टूट चुके थे, वह अब समझ चुके थे कि उनकी प्राणप्रिया सीता अब उनसे सदा के लिए विलग होने वाली है। नियति इतनी निष्ठुर क्यों होती है...यह राज-धर्म इतना कठोर क्यों है...? महाराज राम एक साधारण पुरुष की भाँति विलाप करने लगते हैं।

"सीते, यह मनुष्य जीवन इतना कष्टकारी क्यों है...सीते मुझे क्षमा कर देना, मैं तुम्हें एक पति के रूप में कोई सुख और सुरक्षा न दे सका।"

"ऐसा न कहें स्वामी मेरा हृदय जानता है कि आप मुझसे कितना प्रेम करते हैं। मैं अपना शेष जीवन आपका नाम जप कर काट लूँगी।"

"सीते... मेरी प्रिया...।"

रात्रि के समय जब सारा संसार सो चुका था, तब राम लक्ष्मण को बुलावा भेजते हैं।

"क्या बात है भैया...? अचानक ऐसी क्या विपदा आ गयी...? राज्य में सब ठीक है न...?"

"हाँ लक्ष्मण अयोध्या सुरक्षित है, वह असुरक्षित हो भी कैसे सकती है...? जब उनके पास सीता जैसी महारानी और तुम्हारे जैसा प्रहरी हो।"

"मैं कुछ समझा नहीं भैया?"

"लक्ष्मण सीता कुछ दिन वन में रहना चाहती हैं। तुम उनको वन में छोड़ आओ।"

"क्यों भैया...?"

"वह मैं नहीं जानता।"

"लेकिन भैया, भाभी अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि वह वन में रहें।"

जब लक्ष्मण इस बात के लिए सहमत नहीं हुए, तब महाराज राम लक्ष्मण को सारी सच्चाई बता देते हैं।

"भैया आप भाभी के साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं? और आप मुझसे यह सब करने को कह रहे हैं जिसने जीवन भर भाभी और आपकी सेवा और रक्षा का प्रण लिया हो। आप मुझसे ही कह रहे हैं कि मैं भाभी को वन में ऐसे ही असुरक्षित छोड़ दूँ वह भी ऐसी अवस्था में। मुझसे नहीं होगा, मैं नहीं करूँगा। यह काम तो आपका कोई भी सेवक कर सकता है, आप उससे कह दें, मैं भाभी को अकेले वन में नहीं छोड़ सकता।"

"लक्ष्मण यह एक भाई का निवेदन नहीं है वरन् एक राजा का आदेश है। तुमको इसका पालन करना ही होगा।"

अब लक्ष्मण के पास कहने को कुछ नहीं था,वह विवश था।

"ठीक है महाराज, जैसी आपकी आज्ञा।"

रात्रि के अंतिम प्रहर के समय जब सारी प्रजा निश्चिंत होकर सो रही थी। लक्ष्मण अपने भाभी के कक्ष में पहुँचते हैं। सीता भी तैयार थी। बस वह अंतिम समय अपने राम से मिलना चाहती थी। वह राम के कक्ष की ओर जाती हैं परंतु राम के किवाड़ तो अब सदा के लिए बंद हो चुके थे। वह बाहर से ही अपने पति का आशीर्वाद ग्रहण करती हैं और राम अंदर से ही भीगे हुए नेत्रों के साथ सीता के निःस्वार्थ और त्यागपूर्ण प्रेम से गौरवान्वित होते हैं। धन्य हो तुम सीता, अयोध्या की यह धरती और यह इक्ष्वाकु वंश तुम जैसी स्त्री को महारानी के रूप में पाकर धन्य हो गई।


[II]

 

राम आज प्रातः ही अपने कुछ सेवकों के साथ वन में प्रवेश करते हैं। पञ्चवटी निकट देख कर वह अपने सिपाहियों को वहीं रुकने का आदेश देते हैं। राम अपने रथ से उतर कर पैदल ही उन मार्गों पर चल पड़ते हैं। वह पेड़ों, लताओं, पुष्पों और मार्ग पर बिछी हुई घासों को ऐसे देख रहे हैं मानो वह सब सीता के ही रूप हो। वह कभी पुष्पों को हाथों में लेकर ऐसे निहारते जैसे वह पुष्प ही हैं जो उनको सीता तक पहुँचा सकते हैं। कभी भूमि पर बैठ कर नर्म घासों में सीता के पदों के आहट को सुनने का प्रयास करते। कभी डाल पर बैठी चिड़िया को अपने हाथों में लेकर उससे बाते करने लगते। राम कुटिया में प्रवेश करते हैं, जो लक्ष्मण ने वन प्रवास के समय निर्मित किया था। प्रवेश करते ही जैसे उनके हृदय की गति अचानक रुक जाता है क्यों कि उस कुटिया में सीता की मधुर स्मृति आज भी जीवित थी। वहाँ अभी भी सीता के पायलों की ध्वनि गूँज रही थी। सीता अपने गृहकार्यों में व्यस्त रहती थीं...उनके पायलों की ध्वनि, वन के पक्षियों की ध्वनि के साथ मिल कर एक मधुर संगीत का निर्माण किया करती थीं। राम यूँ ही घूमते हुए सीता की रसोई में जाते हैं, जहाँ सीता भोजन बनाया करती थीं। वहाँ अभी भी सीता की ध्वनि उसी तरह हवाओं में गूँज रही है-

"लक्ष्मण आओ भोजन कर लो।"

राम को यह सारी ध्वनियाँ और भी विचलित कर देती है। वह रोते हुए कुटिया से बाहर आ जाते हैं।

"सीते! मुझे क्षमा कर दो, मैं तुम्हारा अपराधी हूँ। तुम मुझे जो भी दंड दोगी, मुझे स्वीकार है...पर एक बार मुझे दर्शन तो दे दो।"

राम कदम्ब के नीचे बड़े पत्थर पर बैठ कर विलाप करने लगते हैं। तभी वहाँ गुरुकुल के बालकों का समूह उधर से निकलता है। वह सभी बालक एक सुंदर श्लोक का गान कर रहे थे।

"शाश्वत, शांत अप्रमेय अनघ पाप को दूर करने वाले हैं।

शांति मोक्ष, निर्वाण को देने वाले है।

समस्त पाप और ताप को चूर करने वाले हैं।

मेरे प्रभु राम शाश्वत और सर्वत्र हैं।"

ऐसी मधुर ध्वनि सुनकर राम उन बालकों को अपने पास बुलाते हैं।

"बालकों तुम लोग कौन हो और तुम लोग किसकी रचना का गान कर रहे हो? जिसे सुनकर मेरा विचलित हृदय शांत हो गया।"

सभी बालक राम को बड़े ध्यान से देखते हैं। उनमें से एक बालक जो बुद्धि में प्रखर था...जिसके कन्धों पर तूरीण और हाथों में धनुष ऐसे शोभायमान हो रहे थे जैसे राजा राम ने पुनः बालक रूप धारण कर लिया हो। उसका चेहरा सांध्य समय की लालिमा युक्त प्रकाश में मणि की भांति चमक रहा था...घुँघराले केश उसके मस्तक पर ऐसे लहरा रहे थे जैसे स्वयं तक्षक मस्तक पर विराजमान होकर उस मणि की रक्षा कर रहे हों। वह राम को ध्यान से देखता है।

"आप कौन हैं मान्यवर? वेश-भूषा से तो आप कहीं के राजा प्रतीत होते हैं।"

"हाँ बालक, तुमने ठीक ही कहा, मैं अयोध्या नरेश राम हूँ।"

राम का नाम सुनते ही सभी बालक भूमि पर झुक कर प्रणाम करते हैं।

"तुमने बताया नहीं कि तुम लोग कौन हो और यह किसकी रचना गा रहे थे?"

"हम सब महर्षि वाल्मीकि के गुरुकुल में रहते हैं। मेरा नाम लव और यह मेरा भाई कुश है। हम सब अपने गुरु द्वारा रचित 'रामायण' की पंक्ति का गान कर रहे थे। जिसे हमारे गुरु ने स्वयं लिखा है।"

"ओह धन्य है! तुम्हारे गुरु जिन्होंने इतनी सुंदर रचना की है और धन्य है! तुम शिष्य गण जो अपनी मनोहर ध्वनि से इसका सुंदर गान कर रहे हो, जो मन को हरने वाला है।"

"क्या आप वही राजा हैं जिन्होंने अपने प्रजा के सुख के लिए अपनी पत्नी का परित्याग कर दिया था?"

राम कुछ सकुचाते हुए कहते हैं।

"हाँ, मैं वही अभागा हूँ। जो अपनी पत्नी के साथ न्याय न कर सका।"

"लेकिन मेरे गुरु जी कहते हैं कि आप बहुत महान है, जिन्होंने अपने परिवार के दायित्व को एक राजा के दायित्व के आगे तुच्छ समझा और अपने वैयक्तिक सुख की बलि चढ़ा दी।"

राम कुछ नहीं बोलते...वह तो बस उन बालकों को यूँ ही निहार रह थे...और मन ही मन सोचते हैं यदि मेरा बालक जीवित होगा तो वह निश्चय ही इतना ही बड़ा होगा।

"ठीक है राजन्! अब हम लोग चलते हैं, नहीं तो हमारी माता चिंता करेंगी"

"अच्छा, तुम्हारी माता का क्या नाम है?"

"वनदेवी।"

नाम सुनकर राम पुनः दुःखी हो जाते हैं और सोचते है काश! इनकी माता का नाम सीता होता... और यह हमारा ही पुत्र होता।

सभी बालकों का समूह पुनः गान करते हुए वहाँ से चला जाता है। राम भी अपने नगर वापस आ जाते हैं।

 

[III]

 

लव-कुश आश्रम पहुँच कर राम से भेंट का समाचार अपनी माँ को सुनाते हैं।

 

"माता आज जानती हो वन में कौन मिला था?"

"कौन मिला था? मेरे लाल।"

"आज वन में अयोध्या नरेश राम से भेंट हुई थी।"

सीता अयोध्या नरेश का नाम सुनते ही चौंक जाती हैं।

"अच्छा!! तो तुम दोनों ने उनको प्रणाम किया?"

"हाँ माता, अंततः हम लोग शिष्टाचार कैसे भूल सकते हैं...? आपने ही तो हमें सिखाया है।"

"अच्छा, समझ गयी अब तुम सयाने हो गए हो। अच्छा यह बताओ क्या-क्या बातें हुई?"

"यही, तुम्हारे गुरुदेव का क्या नाम है? माता का क्या नाम है?"

"अच्छा ठीक है, तुम लोग संध्या वंदन के लिए तैयार हो जाओ गुरुदेव प्रतीक्षा कर रहे होंगे।"

पुत्रों के जाने के बाद सीता चिंतित हो जाती है और दुःखी भी। वह सोचती है "कितने अभागे हैं मेरे पुत्र पिता के पास होकर भी उन्हें पिता नहीं कह सके। नियति की कैसी विडंबना है...? एक पिता अपने सामने खड़े पुत्र को गले भी न लगा सका।"

रात्रि का समय है सीता कुटिया के बाहर चिंता मग्न टहल रही हैं। तभी ऋषि वाल्मीकि वहाँ आते हैं।

"क्या बात है सीता तुम कुछ विचलित सी लग रही हो?"

हाँ, गुरुदेव आज एक विचित्र सी घटना घटी।"

"हाँ, मैं जानता हूँ। बच्चों ने मुझे भी बताया है। तो इसमें चिंता वाली क्या बात है।"

"मैं सोच रही हूँ कि बच्चे एक न एक दिन जान ही जायेंगे कि उनकी माता कौन है?"

"तुम उसकी चिंता न करो, समय आने पर सब ठीक हो जाएगा। मैं बच्चों को समझाने का प्रयास करूँगा। अब तुम जाकर सो जाओ रात्रि गहन हो गयी है।"

"ठीक है गुरुदेव।"

सीता ऋषि वाल्मीकि को प्रणाम कर अपनी कुटिया में चली जाती हैं और मन ही मन अपने पति श्री राम को प्रणाम कर सोने का प्रयास करती हैं।

इधर राम को भी अपने कक्ष में नींद नहीं आ रही, वह जैसे ही अपने नेत्र बन्द करते लव-कुश का चेहरा उनके नेत्रों के सामने उपस्थित हो जाता है। वह परेशान होकर शय्या से उठ खड़े होते हैं और वातायन से बाहर आकाश में चमक रहे चाँद की ओर देखते हैं।

"सीते तुम कहाँ हो...? यह दो बालक मेरे मन को विचलित क्यों कर रहे। काश! तुम मेरे पास ही होती... काश! नियति इतनी निष्ठुर न होती...काश! मैं अपने बच्चों के बाल्यकाल का साक्षी बन पाता।

इधर सीता के नेत्रों में भी नींद कहाँ...? वह भी चाँद को निहारते हुए सोचती हैं- "आर्य! मेरे पुत्र कितने अभागे हैं, जो पिता के निकट होते हुए भी उन्हें पिता कह कर गले भी न लगा सके।

तभी बाहर से किसी के आने की ध्वनि सुनाई देती है।

"माता! माता!। माता! मैं आपका पुत्र हनुमान।"

सीता शीघ्र ही उठ कर बाहर आ जाती हैं।

"अरे पुत्र हनुमान! तुम! इस समय...?"

"माता, मुझे आप दोनों का दुःख देखा नहीं जा रहा।"

"तुम परेशान न हो पुत्र, जो प्रारब्ध में लिखा होगा वह तो होकर ही रहेगा, इसलिए चिंता न करो। प्रभु श्री राम का ध्यान करो, वही सब सुगम करेंगे।"

"अच्छा माता जैसी आपकी आज्ञा।"

श्री हनुमान माता सीता को प्रणाम कर जंगलों में वापस चले जाते हैं और श्री राम के ध्यान में स्थिर हो जाते हैं।

 


[IV]


ब्रह्म मुहूर्त का समय आकाश अपना सितारों भरा आँचल समेटने की तैयारी में हैं और उषा की किरणों ने मानो सिंदूरी रंग से पूर्व दिशा को रंग दिया हो। प्रातः बेला में सरयू नदी शांत और स्थिर होकर ऐसे बह रही है जैसे वह राम के ध्यान में मग्न हो। राम सरयू नदी में स्नान करते है और सूर्य को अर्घ्य देते हैं। लक्ष्मण भी राम का अनुसरण करते हैं और पूजा के लिए दोनों शिवालय की ओर बढ़ते हैं। मार्ग में एक बूढ़ी स्त्री मिलती है, जिसकी कमर झुकी हुई है और डंडे का सहारा लेकर राम का नाम लेते हुए नदी की ओर ही आ रही है। तभी मार्ग में ठोकर खा कर वह गिर पड़ती है। राम उसको देख लेते है और उसे उठाने के लिए उसके ओर बढ़ते हैं।

"माता तुम्हें चोट तो नहीं लगी।"

नहीं पुत्र। बूढ़ी हो गयी हूँ न...मुझे ठीक से दिखाई नहीं देता।"

तभी वह ध्यान से राम को देखने का प्रयास करती है।

"अरे तुम तो मेरे राम हो। मैं कितनी भाग्यशाली हूँ कि आज मुझे राम के दर्शन हुए। क्षमा करना राजन् मैंने तुम्हें पहचाना नहीं।"

"नहीं माता इसमें क्षमा की कोई आवश्यकता नहीं। तुम्हारी सेवा करना तो मेरा कर्तव्य है।"

"सेवा!!! हाँ... सेवा, इसी सेवा ने ही तो तुम्हें राजा राम से प्रभु राम बनाया है। तुम्हारे जैसा राजा न कभी अयोध्या को मिला था और न आगे कभी मिलेगा। अरे! यह तो अयोध्या वासियों का दुर्भाग्य है कि वह अपनी लक्ष्मी जैसी महारानी को पहचान नहीं सकी। अयोध्या वासी यह भूल गए कि महारानी तो प्रजा की माँ होती है और एक माँ पर लांछन लगाना सर्वथा अनुचित है। जब तक यहाँ की प्रजा इस बात को समझेगी तब तक बहुत विलंब हो चुका होगा।"

इतना कहते ही उस बूढ़ी माँ के आँखों से अश्रु निकल पड़ते हैं।

राम भी दुःखी हो कर वहाँ से पूजा के लिए निकल पड़ते हैं। शिव आराधना के बाद वह राज-सभा में उपस्थित होते हैं। राम के दक्षिण भाग में लक्ष्मण, भरत और सुमंत विराजमान हैं तो दूसरी ओर गुरु वसिष्ठ।

"राजन्! आज सभा प्रारम्भ करने से पहले मैं आप से एक निवेदन करना चाहता हूँ।"

"आज्ञा करें गुरु श्रेष्ठ।"

"राजन्! मेरा सुझाव है कि अब आप को अश्वमेध यज्ञ कर लेना चाहिए, जिससे इस आर्यवर्त प्रदेश में एक अखण्ड राष्ट्र की स्थापना की जा सके और सर्वत्र शांति स्थापित हो सके।"

तभी लक्ष्मण भी अपनी सहमति देते हुए बोलते हैं।

"हाँ गुरुदेव! आपने उचित ही कहा है, वास्तव में मेरी भी यही इच्छा है।

राम यह सब सुनकर चिंतामग्न हो जाते हैं।

"क्या हुआ राम तुम किस सोच में डूब गए।"

"कुछ नहीं गुरुवर, मैं सोच रहा था कि सीता की अनुपस्थिति में यह यज्ञ कैसे संभव हो सकता है?"

तभी सुमंत मध्य में हस्तक्षेप करते हुए कहते हैं।

"क्षमा करें राजन्, मेरे विचार से अब आपको दूसरा विवाह कर लेना चाहिये। धर्म भी इसकी आज्ञा देता है। वैसे भी एक राजा अपने देश की भलाई के लिए एक से अधिक विवाह कर सकता है।"

लक्ष्मण को यह सुझाव बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता और वह राज सभा से उठ कर चले जाते हैं। यह सुनकर भरत भी अपनी असहमति प्रकट करते हुए वहाँ से प्रस्थान करते हैं। इन दोनों के जाने के पश्चात राम गुरु वशिष्ठ से कहते हैं।

"गुरुवर मैंने सीता के सामने आजीवन एक पत्नी-व्रत रहने की प्रतिज्ञा की थी। मैं इस प्रतिज्ञा को कैसे भंग कर सकता हूँ?"

"तुम सर्वथा उचित ही कह रहे हो राम। मुझे कुछ दिन का समय दो। मैं इस विषय पर विचार करता हूँ।"

गुरु वशिष्ठ भी राज सभा के कार्यों से मुक्त होकर अपने आश्रम वापस आ जाते हैं।

 

[V]

 

आज ऋषि वाल्मीकि लव-कुश को धनुर्विद्या के कुछ नए गुण सिखाते हैं।

"देखो लव-कुश, एक क्षत्रिय शस्त्र का प्रयोग सदैव धर्म की रक्षा के लिए ही करता है। इस शस्त्र का प्रयोग तुम अपने स्वार्थ-पूर्ण इच्छाओं या निःसहायों के ऊपर नहीं कर सकते। शस्त्र तभी उठाया जाता है जब वह अंतिम विकल्प के रूप में हो। बिना सोचे-समझे शस्त्र उठाने से व्यक्ति और समाज दोनों ही का विनाश हो जाता है और इस तरह वह व्यक्ति अपयश का भागी बनता है।"

"जी गुरुदेव हम लोग अच्छी तरह से समझ गए।"

"अच्छा ठीक है, अब भिक्षाटन का समय हो गया है, तुम लोग नगर के लिए प्रस्थान करो।"

"जैसी आज्ञा गुरुदेव।"

माता सीता भी दिनचर्या में व्यस्त हैं वह अपनी कुटिया की मिट्टी से लेप और भूमि को गोबर से लेपने के पश्चात कुएँ से पानी लेने जाती हैं। बालकों के कपड़े धोने के बाद वह आश्रम में हो रहे यज्ञ समारोह में भाग लेती हैं। सीता वहीं एक स्थान पर बैठ जाती हैं। यज्ञ से उठने वाला धुआँ समग्र आकाश को आच्छादित कर रहा है। यज्ञ वेदी से उठने वाली अग्नि उस काले धुएँ के बीच एक ज्ञान रूपी लव की भांति ऊर्धगामी हो रही है। सीता भी वहीं बैठी पुन: राम की स्मृतियों में ध्यानस्थ हो जाती हैं। उन्हें आज भी वह दिन स्मरण है जब पञ्चवटी में गृह-प्रवेश के समय ऐसी ही यज्ञ की अग्नि पूरे पञ्चवटी को अपने तपिश में निमग्न कर रही थी। राम बार-बार मेरी ओर देख रहे थे और अपने अम्बर से मेरे मुख पर निकलने वाली स्वेद बिन्दुओं को पोंछ रहे थे। कितने अच्छे दिन थे वह...वन में रहते हुए भी हम लोग कितने प्रसन्न थे। यह सोचते हुए एक निश्छल-सी हँसी उसके अधरों पर फैल जाती हैं। वाल्मीकि भी सीता की इस खोई ही स्थिति को देखकर मन ही मन प्रसन्न होते हैं और प्रार्थना करते हैं कि माता गौरी दोनों की भेंट शीघ्र कराएं।

लव-कुश दोनों रामायण के श्लोक गा-गा कर भिक्षा एकत्र करते हैं। वह जहाँ भी जाते चारों ओर भीड़ एकत्र हो जाती। उनके संगीत में इतना आकर्षण था कि जिस किसी के भी कानों में उनकी ध्वनि जाती वह बरबस ही उनकी ओर खींचा चला आता था।

"कितने सुंदर बालक हैं, अवश्य ही ऊँचे कुल के होंगे।"

"कितना तेज है, इन ब्रह्मचारियों में...।

"हाँ, ऋषि वाल्मीकि के आश्रम से हैं। अवश्य ही ये उनके शिष्य होंगे, अध्यापन कार्य के लिए उनके गुरुकुल में रहते होंगे।"

"इनकी ध्वनि में कितनी पीड़ा है। राम-वनवास की कथा सुनकर वह पुरानी स्मृतियाँ पुनः वर्तमानस्थ हो गयी हैं।"

"हाँ, तुम सच कह रहे हो।"

यह कहते हुए वह अपने आँखों से निकलने वाले अश्रुओं को रोक नहीं पाते।

 

[VI]

 

आज कार्तिक मास की अमावस्या है। राम को वनवास से लौटे हुए आज पूरे बारह वर्ष बीत गए। प्रजा आज भी उन सुंदर स्मृतियों को समारोह के रूप में मनाती है। प्रातः काल से ही प्रासाद में राम के दर्शन पाने के लिए लोगों की भीड़ लगी हुई है। थोड़े ही देर में राम उपस्थित होते हैं और सबको दर्शन देते हैं। सभी लोग झुक कर राम को प्रणाम करते हैं।

"राजा राम की... जय!!!"

पूरा आकाश राम नाम के उद्घोष से गूँज उठता है। कुछ लोग राम से सीता को वापस लाने का आग्रह करते हैं तो कुछ लोग अभी भी मौन हैं।

राजन् महारानी के बिना पूरी नगरी की स्थिति ऐसी हो गयी है जैसे बिन माँ के बालक की होती है।"

"हाँ, राजन् हम सब यही चाहते हैं कि रानी सीता पुनः महारानी पद को सुशोभित करें।"

"हाँ, महाराज! आप चंद लोगों की चिंता न करें।"

"मुझे प्रसन्नता है कि आप लोग ऐसा सोचते हैं, परन्तु जब तक अयोध्या का प्रत्येक नागरिक ऐसा नहीं चाहेगा, तब तक मैं सीता को वापस नहीं ला सकता। मेरे लिए प्रजा की इच्छा ही सर्वप्रथम है। मैं नहीं चाहता कि मेरे किसी भी निर्णय से किसी भी व्यक्ति की भावनाओं को ठेस पहुँचे।"

यह वचन सुनकर सारी प्रजा राम की जय-जयकार करती है।

संध्या समय पूरी अयोध्या दुल्हन की तरह सज जाती है। पूरा नगर दियों के प्रकाश से चमक उठता है। चारों ओर नृत्य-संगीत की ध्वनि सुनाई पड़ती है।

गुरुकुल में भी राम के वनागमन के वर्षगाँठ का उत्सव मनाया जाता है। लक्ष्मी और गणेश की पूजा की जाती है तत्पश्चात यज्ञ-हवन के द्वारा महाराज और महारानी के स्वास्थ्य और उनके उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना की जाती है साथ ही अयोध्या के सुंदर भविष्य की भी प्रार्थना की जाती है। सारे आश्रम को दीपकों से सजाया जाता है। माता सीता और लव-कुश दोनों आश्रम को सुसज्जित करते हैं और पूजा में सम्मिलित होते हैं।

"माता हम लोग आज उत्सव क्यों मना रहें हैं?"

सीता मुस्कुराते हुए कुश से कहती है_

"पुत्र! आज ही के दिन महाराज राम, सीता और लक्ष्मण अपना वनवास समाप्त कर पुष्पक विमान से अयोध्या वापस आये थे।"

लव मध्य में ही बोल उठता है-

"हाँ, माता मैंने गुरुदेव की रामायण पढ़ी है। पर माँ... हनुमान जी कहाँ हैं? क्या वह भी राम के साथ अयोध्या आये थे?"

"इस प्रश्न का उत्तर तो तुम्हें गुरुदेव ही देंगे। उन्हीं से पूछो।"

दोनों दौड़ते हुए गुरुदेव को ढूँढ़ते हैं परंतु ऋषि वाल्मीकि कहीं दृष्टिगत नहीं होते।

तभी एक डमरू बजाता हुआ शिव-शिव की धुनी रमाता हुआ, नृत्य करता हुआ एक युवक उधर से निकलता है। वह आश्रम में नया था, बालकों ने पहले कभी उसे यहाँ नहीं देखा था।

"तुम कौन हो?"

"तुमको पहले तो कभी यहां नहीं देखा।"

"मैं तो रंगोपजीवी हूँ। स्थान-स्थान पर रुक कर नाटक प्रस्तुत करता हूँ।"

"अच्छा तो यहाँ क्या कर रहें?"

"मैं तो यहाँ ऋषि वाल्मीकि से मिलने आया हूँ। मैंने सुना है, उन्होंने रामायण की रचना की है। उसी संबंध में मैं उनसे मिलना चाहता हूँ।

"ठीक है, तुम्हारा नाम क्या है?

"मेरा नाम केसरी नंदन है।"

"चलिए, मैं आपको अपने गुरुदेव से मिलवा देता हूँ।"

लव-कुश दोनों केसरी को लेकर ऋषि वाल्मीकि को ढूँढते हुए उपस्थित होते हैं।

"प्रणाम गुरुदेव! गुरुदेव, यह केसरी नंदन आप से मिलना चाहता है।"

ऋषि वाल्मीकि केसरी नंदन को देखते ही पहचान जाते हैं। दोनों ही मन-ही-मन एक दूसरे को प्रणाम करते हैं।

"प्रणाम ऋषि-वर।"

"आशीर्वाद, कहो यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?

"ऋषि-वर! मैं एक रंगोपजीवी हूँ। नाटक मंचन के द्वारा अपना जीविकोपार्जन करता हूँ। मैंने सुना है, आपने "रामायण" नामक सुंदर महाकाव्य के द्वारा राजा राम के जीवन की अद्भुत गाथा लिखी है। वह कथा मैं सुनना चाहता हूँ ताकि मैं उसका सजीव मंचन कर सकूँ।"

"अरे! यह कौन सी बड़ी बात है। महाराज राम की जीवन-गाथा तो यहाँ का प्रत्येक बच्चा जानता है।"

"तुम लव-कुश से ही क्यों नहीं पूछ लेते...? इन्हें तो पूरी रामायण अक्षरशः कंठस्थ है। लव-कुश तुम केसरी नंदन की सहायता करोगे न?"

"अवश्य गुरुदेव।"

तभी माता सीता भी लव-कुश को ढूँढते हुए वहाँ आ जाती हैं।

"अरे कुश-लव चलो पुत्र बहुत रात हो गयी। शयन का समय हो गया है।"

"माता इनसे मिलो, यह केसरी नंदन है। कल से हम इन्हें रामायण सुनाएंगे।"

माता सीता केसरी नंदन को देखती हैं और समझ जाती हैं कि यह तो उनका प्रथम पुत्र हनुमान है। हनुमान सिर झुका कर माता को प्रणाम करते हैं और मन ही मन पुत्रों की संगति की आज्ञा माँगते है।

"ठीक है पुत्रों, अभी तो रात हो गयी, कल से तुम केसरी नंदन को महाराज की जीवन-गाथा सुनाना।"

केसरी नंदन बहुत खुश होता है और सबको प्रणाम कर के वहाँ से चला जाता है।

 

[VII]

 

दूसरे दिन राज-गुरु वशिष्ठ सभा में उपस्थित होते हैं।

"राजन! अश्वमेध यज्ञ संभव हो सकता है।"

"वह कैसे गुरुदेव?" राम उत्सुकता से पूछते हैं।

"राजन! पत्नी के उपस्थित न होने पर हम उसकी कोई वस्तु जैसे वस्त्र या उसका चित्र या मूर्ति बना कर हम धार्मिक कार्य सम्पन्न कर सकते हैं।"

लक्ष्मण बहुत प्रसन्न होते है।

"भैया यह तो उचित है, मैं अभी राज-मूर्तिकार से मिलता हूँ और उसे भाभी की स्वर्ण मूर्ति बनवाने का आदेश देता हूँ।"

"ठीक है लक्ष्मण, तुम जैसा उचित समझो।"

लक्ष्मण मूर्तिकार विष्णु से मिलते है।

"विष्णु, महाराज अश्वमेध यज्ञ करना चाहते हैं, परन्तु एक समस्या है।

"वह क्या कुमार?"

"समस्या यह है कि महारानी यहाँ नहीं है अतः महाराज चाहते है कि तुम महारानी सीता की बैठी हुई स्वर्णमयी मूर्ति का निर्माण करो। जो यज्ञ के समय महाराज के वाम भाग में विराजित होगी।"

"ठीक है कुमार, जैसी महाराज की आज्ञा, परन्तु कुमार एक समस्या है।"

"वह क्या?"

"वह यह कि मैंने महारानी को कभी इतने निकट से नहीं देखा कि मुझे उनका मुख मंडल स्मरण हो।"

लक्ष्मण भी सोच में पड़ जाते हैं क्योंकि उन्होंने ने भी सदैव भाभी के सामने सिर झुका कर के ही भेंट की है। कुछ देर सोचने के बाद वह विष्णु से कहते हैं।

"तुम चिंता न करो, तुम कल प्रासाद आ जाना, उर्मिला तुम्हारी सहायता करेंगी।"

दूसरे दिन विष्णु लक्ष्मण से मिलता है और उर्मिला की सहायता से एक पत्र पर सीता की छवि बनाने का प्रयास करता है। देवी उर्मिला कहती हैं-

"दीदी का सौंदर्य अप्रतिम है, मुख पर सूर्य का तेज है और व्यवहार चन्द्रमा की तरह शीलवान है। पहाड़ों की तरह उन्नत उनका मस्तक है। समुन्द्र की गहराइयों से भी गहरे उनके नेत्र, कमल दल के समान लालिमा युक्त कपोल और उनके अधरोष्ठ रक्त पाटल की समान रक्तिम और मृद्धिका के समान रसीले हैं। उनके नेत्रों में सदा ममता, दया और करुणा विराजमान रहती है। इतना कहते ही उर्मिला अपने आप को रोक नहीं पाती और रोने लगती हैं। उर्मिला को देख कर लक्ष्मण भी भावुक हो उठते हैं और उर्मिला को सांत्वना देते है। विष्णु भी स्वयं को संयत करते हुए कहता है।

"देवी! मैंने आप के कहे अनुसार यह रूपरेखा तैयार कर ली है। यदि आप इसकी पुष्टि कर दे, तो मैं इसी के अनुसार मूर्ति बना दूँगा।"

उर्मिला चित्र देख कर और भी भावुक हो जाती है।

"मान्यवर! आपने सीता की छवि को बहुत ही अच्छी तरह से चित्रित किया है। हाँ, मेरी दीदी सीता ऐसे ही दिखती है।"

"ठीक है कुमार, अब मूर्ति बनने में कोई कठिनाई नहीं आएगी। देवी उर्मिला ने इस चित्रण की पुष्टि कर दी है, मैं शीघ्र ही इस कार्य को पूर्ण करने का प्रयास करता हूँ।"

"ठीक है विष्णु, मुझे तुम पर पूरा विश्वास है। तुम एक सर्वश्रेष्ठ मूर्तिकार हो।

विष्णु वहाँ से चला जाता है। उर्मिला को समझ में नहीं आता की अचानक दीदी की मूर्ति बनवाने की क्या आवश्यकता पड़ गयी?

वह लक्ष्मण से पूछती हैं-

"स्वामी, दीदी की मूर्ति बनवाने का क्या प्रयोजन है?"

"प्रिये! महाराज अश्वमेध यज्ञ करना चाहते हैं परन्तु यह भाभी के बिना संभव नहीं है इसलिए उनके स्थान पर उनकी प्रतिमा रख कर पूजा-कार्य सम्पन्न होगा।"

 

[VIII]

 

आज प्रातः ही केसरी नंदन आश्रम में उपस्थित हो जाते हैं। ऋषि वाल्मीकि भी केसरी नंदन को देख कर बहुत प्रसन्न होते हैं।

"आ गये केसरी, लव-कुश भी तैयार है। वह भिक्षा माँगने नगर की ओर ही जा रहे हैं। तुम भी उनके साथ चले जाओ। प्रायः वह रामायण के श्लोक गाते हुए ही भिक्षा माँगते हैं। इस तरह तुम राजा राम के विषय में भी जान सकोगे और उनके मधुर संगीत का आनंद भी उठा सकोगे।"

"जैसी आज्ञा ऋषि-वर।"

लव-कुश केसरी नंदन को देखकर बहुत प्रसन्न होते हैं और तीनों नगर की ओर चल पड़ते हैं। लव कुश एक-तारा के साथ गाते हुए निकलते हैं, केसरी नंदन भी मगन होकर उनके राग में राग मिलाते हैं-

"अयोध्या नगरी में एक राजा हुए, नाम था उनका दशरथ।

थी उनकी तीन रानियाँ कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा।

ऋषि ऋंगी ने किया पुत्र कामेष्टि यज्ञ।

प्रकट हुए अग्नि देव लेकर हविष्य पात्र।

किया पान तीनों रानियों ने

कर ईश्वर का ध्यान।

राम हुए कौशल्या गर्भ से

कैकेयी गर्भ से भरत।

लक्ष्मण, शत्रुघ्न हुए सुमित्रा के गर्भ से...।"


इधर, विष्णु सीता की मूर्ति बनाने में मगन है, मूर्ति लगभग पूरी ही होने वाली है। अचानक उसे कुछ अनुभव होता है, उसे लगता है कि...जैसे मूर्ति बिल्कुल सजीव हो उठी हो। उसे आभास होता है...मानो सीता माता उसे लक्ष्मी के रूप में दर्शन दे रही हैं परंतु अगले ही पल वह दृश्य दृष्टि से ओझल हो जाती है। विष्णु थोड़े देर के लिए स्तब्ध रह जाता है, वह सोचता है, शायद यह उसके दृष्टि का भ्रम हो। वह मन ही मन माता लक्ष्मी को प्रणाम करता है और पुनः अपने कार्य में संलग्न हो जाता है।

राम अपने राजकीय कार्य में व्यस्त हैं तभी उन्हें बालकों की ध्वनि सुनाई देती है। वह मन ही मन सोचते हैं _"यह तो उन्हीं दो बालकों की ध्वनि है, जो मुझे वन में मिले थे।" वह बाहर आना चाहते थे...परन्तु कार्य व्यस्तता के कारण निकल न सके।

देखते ही देखते पौष मास कब आ गया पता भी न चला। शीतल हवावों ने अपना स्थान बना लिया था। रात्रि अब शीघ्र ही गहरी और लंबी होने लगी थी। रात्रि व्यतीत करना राम के लिए अत्यंत कठिन होता था। दिन तो कार्यों की व्यस्तता के कारण बीत जाता था परंतु रात्रि अत्यधिक पीड़ादायक होती थी...सीता की स्मृति उन्हें पुनः घेर लेती थी। राम उन दिनों को स्मरण कर आनंदित होते हैं जब सीता से प्रथम भेंट जनक पुरी में पुष्पवाटिका में हुई थी। कुमारी सीता अपने सखियों के साथ पुष्पवाटिका में पुष्पों का चयन कर रही थीं। उस समय उनका मुखमंडल सद्य: खिले हुए कमलिनी की भांति कोमल और मृदु था, उनके स्कन्धों पर लहराते हुए लंबे केश ऐसे लग रहे थे मानो गंगा-यमुना सदृश अनेकों नदियाँ कल-कल सी बह रही हों। उनके माथे पर बिंदिया सूरज की भांति चमक रही थी। उन दिनों को स्मरण करते हुए राम के नेत्रों से अश्रु निकलने पड़ते हैं।


[IX]

 

अगले दिन ऋषि अगस्त्य अपने शिष्यों के साथ अयोध्या में प्रवेश करते हैं। द्वारपाल महाराज को सूचना देता है।

"महर्षि अगस्त्य पधारें हैं।"

"उन्हें आदर पूर्वक अंदर ले आओ।"

राजा राम अपने सिंहासन से उठ कर उनका स्वागत करते हैं।

"कैसे आना हुआ ऋषि-वर।"

"बस, तुमसे मिलने की इच्छा हुई तो चला आया। अपितु, मैं तुमको धन्यवाद देना चाहता था कि तुमने पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दिया है। अब चारों ओर शांति है, सज्जन-गण और साधु-गण सभी निश्चिंत हो कर जीवन-यापन कर रहे।"

"सब आप जैसे ऋषियों और गुरुओं के आशीर्वाद से ही सम्भव हो सका, श्रेष्ठ-वर।"

"राम, तुमने रावण को मार कर धरती को धन्य कर दिया। तुमने प्रहस्त, विकट, विरुपाक्ष, महोदर और अकम्पन, कुम्भकरण, त्रिशरा, अतिकाय, देवान्तक, नरान्तक, और इंद्रजीत जैसे महाबलशाली योद्धाओं को मार कर धरा को सदैव के लिए भय मुक्त कर दिया है, जिसके लिए यह धरती सदैव तुम्हारी ऋणी रहेगी।"

"मैंने तो बस गुरु के द्वारा दिखाये गए मार्गों का अनुसरण ही किया है, ऋषि-वर।

ऋषि अगस्त्य राम से मिलने के पश्चात गुरु वसिष्ठ से भी भेंट करते हैं और कुछ दिन निवास के पश्चात रुद्र-प्रयाग चले जाते हैं।

इधर वाल्मीकि आश्रम में केसरी नंदन प्रतिदिन गुरु की सेवा करता है और लव-कुश से रामायण के छन्दों का रसास्वादन भी करता। आज उसको कथा सुनते हुए कई दिन बीत गए। रामायण के छः काण्डों -बालकाण्ड, अयोध्या-काण्ड, अरण्य-काण्ड, किष्किंधा-काण्ड, सुंदर-कांड और युद्ध-कांड का श्रवण कर लिया था।

"गुरुदेव क्या यह "रामायण" समाप्त हो गयी है?"

"पहले मैं यही सोचता था कि युद्ध-कांड के पश्चात राम के अयोध्या के सिंहासन पर आरूढ़ होने के साथ ही मेरा ग्रंथ सम्पूर्ण हो गया है। परंतु दुर्भाग्य पूर्ण ऐसा नहीं हुआ।"

"तो क्या अभी भी लिखना शेष हैं?"

"हाँ केसरी नंदन, जब राम को अयोध्या के कुछ नागरिकों के कहने पर अपनी प्रिया का त्याग करना पड़ा, तो मैं समझ गया कि मेरी रचना अभी पूर्ण नहीं हुई है।"

"तो अब आप की रामायण का शीर्षक क्या है?"

"उत्तर-रामायण।"

 

[X]

 

सीता की मूर्ति बन कर तैयार हो जाती है और तीनों भाई अश्वमेध यज्ञ की तैयारी में लग जाते हैं। यज्ञ आरम्भ हो जाता है, सीता की मूर्ति राम के वाम भाग में रख दी जाती है और यज्ञ संबंधी कार्य पूर्ण कर लिया जाता है और इसके साथ ही एक सुसज्जित अश्व छोड़ दिया जाता है। जिस पर लिखा होता है-कि यह घोड़ा जहां भी जाये गा उसको प्रभु श्री राम की प्रभुता स्वीकार करनी होगी। यदि कोई इसका विरोध करता है तो उसको श्री राम की सेना से युद्ध करना होगा।

यज्ञ के पश्चात घोड़ा छोड़ दिया जाता है। वह जिस भी राज्य की सीमा के अंदर प्रवेश करता, वहाँ के शासक सिर झुका कर राम की प्रभुसत्ता स्वीकार कर लेते। इस तरह राम अब चक्रवर्ती सम्राट हो गए थे। लौटते समय घोड़ा ऋषि वाल्मीकि के आश्रम की सीमा में प्रवेश कर जाता है। वहाँ पर लव-कुश अपने सहपाठियों के साथ खेल रहे थे। उन्होंने जब यह सुसज्जित घोड़ा देखा तो कौतूहल-वश उसको पकड़ लेते हैं।

"भैया देखो यह कितना सुंदर घोड़ा है।"

"हाँ कुश, सचमुच! यह तो बहुत सुंदर है। अवश्य ही यह राजा का घोड़ा होगा।"

"भैया देखो इसके ऊपर कुछ लिखा हुआ है।"

"इसमें तो युद्ध के लिए ललकारा गया है। गुरुदेव ने कहा है क्षत्रियों को यदि कोई युद्ध के लिए ललकारे तो उसे अवश्य स्वीकार कर लेना चाहिये।"

"परंतु भैया यह घोड़ा तो राजा राम का है।"

"तो क्या हुआ? अब इसने हमारी सीमा में प्रवेश किया है, अब यह हमारा है।"

"यदि राम के सैनिकों में साहस है तो यह घोड़ा जीत कर ले जाये। वैसे भी गुरुदेव ने जाते समय आश्रम की सुरक्षा का दायित्व मुझे सौंपा था।"

थोड़ी देर में महाराज राम के सैनिक अश्व को ढूँढते हुए वहाँ पहुँच जाते हैं।

राम के सैनिकों ने लव-कुश से बहुत कहा कि यह बालकों की खेलने की वस्तु नहीं है। अंत: घोड़ा छोड़ दें। पर लव-कुश कहाँ सुनने वाले थे। महाराज के पास सूचना पहुँचा दी जाती है कि दो बालकों ने अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ लिया है और वह उसे छोड़ने को तैयार नहीं है। राम लक्ष्मण को स्थिति समझने के लिए भेजते हैं। लक्ष्मण गुरु वाल्मीकि के आश्रम की सीमा में प्रवेश करते हैं। प्रवेश करते ही उन्हें कुछ विचित्र सी सुगंध का आभास होता है, बिल्कुल वैसा ही सुगंध जब चित्रकूट में रहते हुए माता सीता की रसोई के आसपास से आती थी। एक पल के लिए उन्हें लगा जैसे माता सीता यहीं आसपास हैं। उन्होंने मन ही मन माता सीता को प्रणाम किया और उनसे क्षमा माँगी। "माता मुझे क्षमा कर देना। इस अभागे को राजा की आज्ञा का पालन करना पड़ा और इस तरह अकेले आपको वन में छोड़ दिया। माता विश्वास करो तब-से मुझे आज तक नींद नहीं आयी। मैं हर पल यही सोचता हूँ कि जो मेघों की गरज से भी डर जाया करती थीं वह भला जंगली पशुओं से भरे इस वन में अकेले कैसे निवास करती होंगी...? मैं कितना अभागा हूँ, जिसने पूरा जीवन आपकी सुरक्षा का वचन लिया था, उसी को यह राजाज्ञा मिली कि वह आपको वन में छोड़ आए। मुझे क्षमा कर देना भाभी, मुझे क्षमा कर देना। मैं आपका अपराधी हूँ, प्रकृति इसका दण्ड मुझे अवश्य देगी।" इतना सोचते हुए लक्ष्मण के चक्षु नम हो जाते हैं। तभी सारथी कहता है -"कुमार वह देखिए हमारा अश्व"। लक्ष्मण ने देखा दो छोटे बालकों ने उस अश्व को पकड़ रखा है। पहले तो यह दृश्य देखकर उन्होंने ममता-वश मुसकुराया और अपने सारथी से रथ रोकने को कहा।

"अच्छा, तो तुम्ही वह बालक हो जिसने यह अश्व पकड़ रखा है।"

"पहले आप अपना परिचय दीजिये, आप कौन हैं?"

"मैं राजा राम का अनुज लक्ष्मण हूँ। तुमने यह घोड़ा क्यों पकड़ा है? इसे छोड़ दो। यह साधारण घोड़ा नहीं है। इसको जो पकड़ता है, उसे युद्ध करना पड़ता है।"

"तो...युद्ध से कौन डरता है? क्षत्रिय कभी युद्ध से नहीं डरता।"

"लेकिन बालकों मैं एक बालक से युद्ध नहीं कर सकता।"

"हम लोग बालक नहीं है। हमारे गुरु ने हमें शस्त्र विद्या का पूरा ज्ञान दिया है।"

बहुत समझाने के बाद भी लव-कुश अपने वचन से हिले नहीं। अंत में लक्ष्मण को क्रोध आ जाता है और वह बालकों से युद्ध करने को तत्पर हो जाते हैं। बहुत शीघ्र ही वह बालकों से हार कर अयोध्या वापस चले जाते हैं। अगले दिन भरत बालकों को मनाने के लिए आते हैं, परन्तु वह भी पराजित होकर वापस चले जाते हैं। हनुमान जी को यह सब देखा नहीं जाता क्योंकि उन्हें पता था कि लव-कुश कौन हैं। वह भी बालकों को मनाने का बहुत प्रयत्न करते हैं-

"तुम कौन हो?"

"मैं हनुमान हूँ। राम का सेवक।"

"अच्छा...तो तुम्हीं हनुमान हो जिसने लंका को अपनी पूँछ से जला दिया था।"

"हाँ, मैं वही हनुमान हूँ।"

"आप से मिलकर हम धन्य हुए।"

दोनों बालक हनुमान को प्रणाम करते हैं।

"देखो बालक तुम नहीं जानते कि प्रभु राम कौन है?"

"जो भी हो, हम बस इतना जानते हैं कि हम क्षत्रिय है और क्षत्रिय का धर्म होता है कि वह चुनौती स्वीकार करें।"

तभी कुश कहता है-

"हाँ, हनुमान जी, यदि राजा राम अपना घोड़ा छुड़ाना चाहते हैं, तो उन्हें अवश्य ही हमसे युद्ध करना होगा। क्या आप भी महाराज की ओर से हमसे युद्ध करने आये हैं।"

"नहीं बालकों, मैं तुमसे युद्ध नहीं करना चाहता। मैं तो मात्र निवेदन ही कर सकता हूँ, मैं तो प्रभु राम का सेवक हूँ।"

"परन्तु भैया यह शत्रु पक्ष से हैं, हम इन्हें इस तरह खुला नहीं छोड़ सकते।"

"ठीक है, हम इन्हें पेड़ के साथ बाँध देते हैं।"

"हाँ, तुम ठीक कहते हो।"

दोनों मिलकर रस्सियों से हनुमान जी को बाँध देते हैं। हनुमान बालकों के द्वारा इस तरह बंध कर आनन्दित होते हैं और श्री सीता राम का जाप करने लगते हैं।

एक सैनिक महाराज राम के पास सूचना पहुँचाता है कि हनुमान जी को उन बालकों ने बंदी बना लिया है। यह सुन कर राम को क्रोध से आ जाता है।

"उन बालकों का इतना साहस कि वह हनुमान को बंदी बनाये। तनिक मैं भी तो देखूँ कि वह बालक कौन है? कदाचित वह बालक अत्यंत ही असभ्य हैं, जो इतना समझाने के पश्चात भी अपना हठ नहीं छोड़ा। प्रतीत होता है, उन्हें दण्ड देने का समय आ गया है।"

इधर ऋषि वाल्मीकि जो किसी कार्य से बाहर गए हुए थे। उन्हें इस अनिष्ट का भान हो जाता है। वह ध्यान योग के द्वारा माता सीता को सजग कराते हैं। सीता अत्यंत परेशान हो उठती है और तुरंत ही वहाँ पहुंचती है। वहाँ अपने प्रथम पुत्र हनुमान को इस तरह बँधा देखकर अत्यंत व्याकुल हो उठती हैं।

"अरे पुत्रों तुम लोगों ने यह क्या कर दिया? तुम नहीं जानते यह कौन हैं?"

"हम अच्छी तरह जानते हैं कि यह कौन हैं...यह वही हनुमान हैं, जिन्होंने लंका जलाई थी।" लव बड़े विश्वास के साथ बोलते हैं।

"परन्तु इस समय यह हमारे शत्रु हैं।" कुश ने कहा।

"शत्रु!!! नहीं... नहीं, यह तुम्हारे शत्रु नहीं हैं। सीता रोते हुए हनुमान को बंधन से स्वतंत्र कराती हैं।"

माता को रोते देख कर लव-कुश विचलित हो जाते हैं। तभी राम भी वहीं पहुँच जाते हैं। राम को देखकर सीता शीघ्र ही पेड़ों के पीछे छुप जाती हैं। राम हनुमान को सुरक्षित देखकर निश्चिंत हो जाते हैं।

"मैंने सुना है तुम लोग बड़े हठी बालक हो और बलात् ही इस अश्व को पकड़ रखा है।"

"महाराज हम लोग हठी नहीं हैं। वह तो इस घोड़े पर ही लिखा हुआ है कि जो कोई इस घोड़े को पकड़ेगा, उसे युद्ध करना होगा।" लव ने कहा।

"तो महाराज! हम दोनों ने यह घोड़ा पकड़ लिया और आपके सभी सेना नायकों को हमने परास्त कर दिया।" आज से यह घोड़ा हमारा हुआ।" कुश ने कहा।

"लेकिन बालकों यह घोड़ा कोई खेलने की वस्तु नहीं है। यह अश्वमेध का घोड़ा है।"

"तो हमने कब कहा कि यह खेलने का घोड़ा है। यदि आप भी इसे पाना चाहते हैं, तो आपको हमारे साथ युद्ध करना होगा।"

"प्रतीत होता है, तुम बालक ऐसे नहीं मानो गे। तुमको युद्ध में हराना ही होगा।"

"तो चलिए प्रारम्भ करते हैं, यहाँ कौन युद्ध से डरता है...?" लव ने कहा।

जैसे ही राम अपने तुरीण से बाण निकालते है। सीता बाहर आ जाती है।

"नहीं स्वामी...नहीं, आप अपने ही पुत्रों पर संधान नहीं कर सकते।"

"सीता तुम!!!और यह तुम क्या कह रही हो...? कौन पुत्र...?"

"स्वामी ये दोनों आपके ही पुत्र हैं, मुझे क्षमा करें मुझसे पालने में कोई त्रुटि हो गई। जिन्होंने एक राजा का आदर करना नहीं सीखा।"

लव-कुश स्तब्ध रह जाते हैं।

"यह तुम क्या कह रही हो माता...? क्या राजा राम ही हमारे पिता हैं और तुम सीता हो...? तुमने अपना वास्तविक रूप हमसे क्यों छुपाया माँ...?"

"पुत्र अपने पिता को प्रणाम करो।"

दोनों झुक कर अपने पिता को प्रणाम करते हैं। तब तक ऋषि वाल्मीकि भी वहाँ आ जाते हैं।

"पुत्रों! हनुमान जी को भी प्रणाम करो यह तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता हैं।"

लव-कुश हनुमान को प्रणाम करते हैं। हनुमान दोनों को अपने गले लगा लेते हैं।

"सीते मुझे क्षमा कर दो। मैं अपने ही पुत्रों को पहचान नहीं सका।"

"नहीं स्वामी आप क्यों क्षमा माँगते हैं, दोष तो इन बालकों का है, जो राजकीय कार्य में व्यवधान डाल रहे थे।"

तभी ऋषि वाल्मीकि कहते हैं "राम यह तो नियति थी। प्रकृति ने तुम लोगों का मिलन ऐसे ही निर्धारित किया था।"

राम ऋषि वाल्मीकि को प्रणाम करते हैं और हनुमान भी ऋषि वाल्मीकि को प्रणाम करते हैं और कहते हैं-

"ऋषिवर? क्या अब प्रभु राम अपने पुत्रों और माता सीता को अयोध्या ले जा सकते हैं।"

"नहीं हनुमान...अभी उसका समय नहीं आया है। जब तक अयोध्या की प्रजा को अपने दोष का अनुभव नहीं हो जाता... जब-तक वह स्वयं आकर अपनी महारानी सीता से क्षमा नहीं माँग लेती तब तक सीता यहीं रहेगी।

राम स्नेहपूर्वक अपने पुत्रों और सीता को देखते हैं और दुःखी मन से वहाँ से प्रस्थान करते हैं।

"गुरुदेव क्या हमारी माता ही सीता है?"

"हाँ, बच्चों सीता ही तुम्हारी माता है और महाराज राम तुम्हारे पिता।"

"परंतु इतना बड़ा सच हम लोगों से क्यों छुपाया गया...?"

"समय की यही माँग थी।"

लव-कुश एकदम शांत हो जाते हैं। आज उन्हें अपने वास्तविक परिचय का ज्ञान हुआ था। वह माता सीता से भी ठीक तरह से बात नहीं कर रहे। उनका इस तरह से मौन हो जाना सीता के लिए अत्यंत कष्टदायी हो गया था। जो बालक एक पल के लिए भी शांत नहीं बैठते थे, वह आज अचानक से मौन हो गए थे। सीता ऋषि वाल्मीकि के पास जाती हैं-

"ऋषिवर! प्रतीत होता है, बालकों को अधिक आघात पहुँचा है। वह मुझसे ठीक से बात भी नहीं कर रहे।"

"तुम परेशान मत हो पुत्री, उन्हें कुछ समय दो। समय के साथ सब कुछ ठीक हो जाये गा। मैं कल प्रातः उनसे बात करूँगा। तुम निश्चिंत रहो।"

 

[XI]


इधर प्रासाद में महाराज राम सीता और अपने बच्चों को देखने के बाद और भी अधिक विचलित हो उठते हैं। माता कौशल्या को युद्ध का सारा समाचार मिल चुका था। जब उन्हें पता चलता है कि वह तेजस्वी बालक लव-कुश उन्हीं के पौत्र हैं तो वह अपने आप को रोक नहीं पाती। वह राम से मिलने उनके कक्ष में आती हैं।

"पुत्र सुना है वन में तुम्हारी सीता से भेंट हुई थी।"

"हाँ माँ"। राम एक लंबी श्वास के साथ कहते हैं। इसके आगे वह कुछ नहीं बोलते बस माता के गोद में चुप-चाप सर रख कर सो जाते हैं। कौशल्या समझ जाती है कि इस विषय में बात करना व्यर्थ ही है, होगा वही जो इस कुल और राज्य के लिए उचित है। सीता रघु-कुल की मान और सम्मान के भेंट चढ़ चुकी थी। वह राजा के पद को कलंकित नहीं करना चाहती थी। वह नहीं चाहती थी कि एक राजा एक स्त्री के लिए अपना राज-धर्म विस्मृत कर दे।

प्रातः होते ही ऋषि वाल्मीकि लव-कुश को अपने पास बुलाते हैं।

"पुत्र लव अब तो तुम जान ही गए हो कि तुम कौन हो?"

लव-कुश अभी भी क्रोध में ही थे।

"हम कौन हैं गुरुवर...? एक कलंकित और त्यागी हुई स्त्री के पुत्र या रघु कुल के राजकुँअर...? हम कौन है...?

ऋषि वाल्मीकि को लव के इस प्रश्न से थोड़ा आघात अवश्य पहुँचता हैं परंतु अपने आप को संयत करते हुए, वह लव से कहते हैं।

"देखो पुत्र, अब तुम्हारे ऊपर एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। तुम्हें अपने माँ के ऊपर लगे इस झूठे कलंक को मिटाना है और अयोध्या वासियों को यह बताना है कि वह कितने अभागे हैं, जो उन्होंने अपनी लक्ष्मी जैसी महारानी की पवित्रता पर संदेह किया।"

"वह हम कैसे करेंगे गुरुवर?"

"तुम्हें अयोध्या जाकर उन्हें स्मरण कराना होगा कि किस तरह सीता हर सुख और दुःख में अपने पति के साथ थी। वह किस प्रकार इस धरती पर प्रकट हुई, जब मिथिला पुरी अनावृष्टि के कारण पूरी तरह सूख गई थी, तब सीता के जन्म के साथ ही वह पुनः हरी-भरी हो गई थी। जिसके पिता स्वयं जनक हो, उनके द्वारा पालित-पोषित पुत्री अपवित्र कैसे हो सकती है। यदि हम सीता पर संदेह करते हैं तो हमें जनक पर भी संदेह करना होगा। क्या उन अयोध्या वासियों को जनक पर भी सन्देह है?"

ऋषि वाल्मीकि आगे कहते हैं।

"तुम उन्हें स्मरण कराना कि राम को वनवास मिलने पर सीता कैसे सहर्ष राम के साथ जाने के लिए तैयार हो गयी और एक राज कन्या होकर वह वन के कंकड़ीले भूमि पर राम की ही समान नंगे पैर चली। अपहरण होने के पश्चात भी वह रावण के महल में रहने के लिए तैयार नहीं हुई, इसीलिए रावण ने सीता को अशोक वाटिका में स्थान दिया था। रावण चाह कर भी उनके समीप न जा सका क्यों कि सीता का सतीत्व तेज उसको निकट आने से रोकता था।"

यह सब सुनकर लव-कुश के आंखों से अश्रु निकल पड़ते हैं।

"तुम उनको बताना जब उन्हें प्रजा की इस मानो-दशा का भान हुआ कि वह उन्हें महारानी के रूप में स्वीकार नहीं कर रहें तो उन्होंने ही महाराज राम से यह आग्रह किया कि वह अपने राज-धर्म को निभाते हुए अपने कुल की रक्षा करें।"

ऋषिवर आगे कहते है।

"तुम अयोध्या वासियों को बताना की सीता जैसी महारानी का परित्याग करके उन्होंने स्वयं अपने ऊपर एक अभागी और अपने ही राजा के परिवार का सम्मान न करने का कलंक लगा लिया है। आने वाला समय उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा। तुम इस तरह से कहो कि उन्हें अपने किये का पछतावा हो और वह स्वयं सीता से क्षमा मांगने के लिए अग्रसर हो।"

लव-कुश यह सब सुनकर अत्यंत दुःखी हो जाते हैं और ऋषि वाल्मीकि से लिपट कर रोने लगता हैं।

"हम अवश्य ही अयोध्या जाएंगे। अयोध्या वासियों को अपने कार्यों पर पछतावा अवश्य होगा और उन्हें माता सीता से क्षमा माँगनी ही होगी।"

वह दोनों दौड़ते हुए माता सीता के पास जाते हैं और क्षमा माँगते हैं।

"मुझे क्षमा कर दो माँ। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ, यह अयोध्या नगरी अपने किये पर अवश्य पश्चाताप करेगी।"

सीता अपने पुत्रों को गले से लगा लेती है।

 

[XII]


दूसरे ही दिन लव-कुश अपने गुरु का आशीर्वाद लेकर नगर के लिए निकल पड़ते हैं। माता सीता रास्ते के लिए कुछ दाने उनके पोटली में बाँध देती है और वह बालक अपना एक-तारा ले कर निकल पड़ते हैं। वह अयोध्या पहुँच कर अपने सुरीले राग-रागिनी से सीता का पूरा चरित्र का व्याख्यान करते हैं। वह जहाँ भी जाते लोग उनको घेर लेते और उनके गानों को सुनकर रोने लगते। उन्हें धीरे-धीरे यह आभास होने लगता है कि उन्होंने जो किया है वह बहुत ही निंदनीय था। उन्हें लगने लगता है कि उन्होंने महारानी सीता के साथ उचित नहीं किया। सभी प्रजा मिलकर यह निर्णय लेती है कि वह राजा राम से महारानी सीता को वापस लाने का आग्रह करेंगे।

दूसरे दिन सारी प्रजा राम के प्रासाद में एकत्रित होती है। राम के पास संदेश जाता है कि प्रजा-जन आपसे मिलना चाहते है। राम प्रासाद से बाहर आते हैं। उनके बाहर निकलते ही प्रजा जोर-जोर से जय घोष करने लगती है।

"राजा राम की जय!

महारानी सीता की जय!"

महाराज राम प्रजा के मुख से सीता की जयकार सुनकर अत्यंत प्रसन्न होते हैं।

"प्रजा जनों आपके इस तरह यहाँ एकत्रित होने का क्या प्रयोजन है?"

उनमें से एक आदमी बाहर आता है और कहता है।

"महाराज! हम लोगों से बहुत बड़ा अपराध हो गया, हम सभी दण्ड के अधिकारी हैं। हमें दण्ड चाहिये।

सभी लोग बोलने लगते हैं-

"हाँ... हाँ हम सब अपराधी हैं, हमें दण्ड चाहिए।"

"परन्तु किस बात का दण्ड...?" राम आश्चर्य के साथ पूछते हैं।

सीता जैसी महान नारी पर संदेह करने का दण्ड...उन्हें आप से विलग करने का दंड...अपने राजकुमारों को एक वनवासी जैसा जीवन जीने के लिए विवश करने का दण्ड...हम सब अपराधी हैं महाराज, हमें दण्ड अवश्य मिलना चाहिए।

सभी कहने लगते हैं-

हाँ, हम सब अपराधी हैं...हमें दण्ड अवश्य मिलना चाहिए। हम महारानी सीता को पुनः अयोध्या के सिंहासन पर देखना चाहते हैं।

राम यह सब सुनकर और देख कर मन ही मन अत्यंत प्रसन्न होते हैं। "ठीक है, जैसी प्रजा जनों की इच्छा।"

"महाराज! हम सब भी आप के साथ चलेंगे।"

"हाँ, हम सब साथ चलेंगे और महारानी सीता से क्षमा मांगेंगे।"

राम अपने प्रासाद में वापस चले जाते हैं और गुरु वसिष्ठ से विचार-विमर्श करने के पश्चात लक्ष्मण से महर्षि वाल्मीकि के आश्रम पहुँचने का प्रबंध करने को कहते हैं। सभी माताएं बड़ी प्रसन्न होती हैं। माता कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी राम के पास आती हैं।

"राम...राम ...यह मैं क्या सुन रही हूँ...क्या तुम सीता को लेने जा रहे हो?" कौशल्या बड़ी सहर्षता के साथ कहती हैं।

"हाँ माता, प्रजा को अपनी भूल का ज्ञान हो गया है। वह सभी सीता से क्षमा माँगना चाहते हैं।"

"सच!!! यह तो वास्तव में बड़ी ही प्रसन्नता का विषय है।" माता कैकेयी कहती है।

तभी सुमित्रा माता भी बोल पड़ती हैं।

"तो हम सब भी तुम्हारे साथ चलेंगे। हम सब भी सीता से क्षमा मांगेंगे और उसका उत्सव के साथ स्वागत करेंगे।"

"हाँ माँ, ऐसा ही होगा।"

लव-कुश जो उस समय वहीं नगर में ही थे। प्रजा की प्रतिक्रिया देखकर प्रसन्नता से रो पड़ते हैं।

"चलो लव शीघ्र ही गुरुदेव को सूचना देते हैं।"

"हाँ भैया चलो।"

ऋषि वाल्मीकि यह समाचार सुनकर लंबी श्वास लेते हैं और कहते हैं-

"चलो मेरी "रामायण" का सुखद अंत तो हो गया। अब यह पूर्ण हो जाएगी।"

 

[XIII]


प्रातः महाराज राम पूरी प्रजा के साथ आश्रम के लिए प्रस्थान करते हैं। आश्रम पहुँच कर राम प्रजा को यहीं रुकने का आदेश देते हैं और वहाँ से वह आश्रम में प्रवेश करते हैं। आज उनका मन अनेक आशंकाओं से भरा हुआ था। वह यही सोच रहे थे क्या सीता साथ चलने को तैयार हो जाएगी...? कहीं सीता ने चलने से मना कर दिया, तो मैं उसे कैसे समझाऊँगा...? माताएं भी उनके पीछे-पीछे चल रही थीं। कौशल्या सोच रहीं थी- सीता अब कैसी दिखती होगी... मेरे लव-कुश कैसे दिखते होगे...? कैकेयी सोचती हैं- उसके इस बलिदान की मैं कैसे सराहना करूँगी? तभी ऋषि वाल्मीकि अपने कुटिया से बाहर निकलते है।

"आओ राम, हम सभी तुम्हारा ही प्रतीक्षा कर रहे थे।"

"प्रणाम गुरुदेव"।
"यशस्वी भव।"

माताएं भी गुरुदेव को प्रणाम करती हैं। तभी कौशल्या कहती हैं-

"सीता कहा हैं गुरुदेव?"

"हाँ गुरुदेव, अब और प्रतीक्षा नहीं होती। कैकेयी अश्रु पूरित नेत्रों से कहती हैं।"

धैर्य धारण करें राजमाता, सीता अभी आती ही होगी।"

तभी सीता अपने दोनों पुत्रों लव-कुश के साथ अपनी कुटिया से बाहर निकलती हैं।

राम सीता और अपने दोनों पुत्रों को देख कर विचलित हो उठते हैं, परन्तु किसी को उनकी हृदय स्थिति का भान न हो इसलिए वह शांत और गंभीर अवस्था में ही रहते हैं। सीता माताओं को देखकर उनको प्रणाम करती हैं और लव-कुश से कहती हैं।

"पुत्रों यह तुम्हारी पितामही हैं, इन्हें प्रणाम करो।"

लव-कुश अपने दादी के चरणों का स्पर्श करते हैं। दादी अपने पौत्रों को देखते ही उन्हें अपने गले से लगा लेती हैं।

"तुम लोगों से मिलने के लिए, कब से मेरी आँखें तरस रही थीं। मैं कितनी अभागी दादी हूँ, जो अपने पौत्रों की तोतली वाणी भी न सुन सकी और न ही उनका पालन-पोषण ही कर सकी।" कौशल्या अपने पौत्रों के सिरों को सहलाती हुए कहती हैं।

सीता चुप-चाप मौन धारण किये हुए धरती की ओर ही देख रही हैं। तभी प्रजा-गण भी तीनों भाइयों के साथ प्रवेश करते हैं। ऋषि वाल्मीकि अवसर देखकर कहते हैं-

"राम सीता नित्य शुद्ध है। उसने तन-मन और आत्मा से केवल तुम्हारा ही स्मरण किया है। वह यज्ञ से उठने वाले अग्नि के समान पवित्र है। वह धरती पर बहने वाले सभी तीर्थ जलों से श्रेष्ठ है। सीता पर संदेह करना अपनी आत्मा को मलिन करने के समान है। मैंने आज तक कभी असत्य भाषण नहीं किया है, आज मैं यह घोषणा करता हूँ कि यदि सीता का मन क्षण भर के लिए भी राम से विरक्त हुआ हो तो आज तक मैंने अपने तपोबल से जो कुछ भी पुण्य अर्जित किया है, वह नष्ट हो जाय।"

ऋषि वाल्मीकि के वचनों को सुनकर प्रजा विलाप करने लगती है और महारानी सीता से क्षमा माँगने लगती है।

"महारानी हमें क्षमा कर दे। हम सब अपराधी हैं। हम सब अपना दण्ड भुगतने के लिए तैयार है। बस एक बार हम लोगों को क्षमा कर दें और पुनः अयोध्या के महारानी पद को सुशोभित करें।"

राम चुप-चाप सबके वचन सुनते हैं, परन्तु स्वयं सीता से बात करने का साहस नहीं जुटा पाते। ऋषि वाल्मीकि स्थिति समझ कर सीता से कहते है-

"पुत्री, वह समय आ चुका है जब तुम पुनः अपने पति के साथ निवास कर सकती हो। प्रतीक्षा की घड़ी अब समाप्त हो चुकी है।"

सीता धरती की ओर ही देखते हुए कहती हैं-

नहीं गुरुदेव, अब बहुत देर हो चुकी है। अब मेरा वापस जाना संभव नहीं।"

सीता का यह वचन सुनते ही राम को ऐसा लगा जैसे किसी ने अनेकों बाणों से उनके हृदय पर आघात किया हो और यह पीड़ा इतनी असह्य है कि मुख से ध्वनि भी नहीं निकल रही।

गुरुदेव चिंतित हो उठते हैं-

"सीता, तुम यह क्या कह रही हो...?"

"जी गुरुदेव, मैं समझती हूँ कि मैं अपने सम्पूर्ण दायित्वों से पूर्ण हो चुकी हूँ। मैं अब वापस अयोध्या नहीं जाना चाहती।"

अब राम का धैर्य समाप्त हो चुका था। उन्हें इस बात का पूरा अनुमान था कि सीता अब कभी वापस नहीं आएगी। फिर भी वह साहस जुटा कर सीता से कहते हैं।

"अब तो प्रजा ने अपनी भूल स्वीकार कर ली है, सीते। अब तुम्हारे बलिदान का समय पूरा हो चुका है।"

"नहीं स्वामी, अब मैं अयोध्या नहीं आऊँगी।"

"क्यों सीते...?"

"मेरा आपका साथ बस यहीं तक था। मैं एक पत्नी और महारानी दोनों के दायित्व से निवृत्त हो चुकी हूँ।"

"नहीं सीते, ऐसा मत कहो।"

"आज से लव-कुश को मैं आपको सौंपती हूँ और मुझे आज्ञा दीजिये। माता पृथिवी मुझे बुला रही हैं।"

"नहीं सीते ऐसा मत कहो। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।"

"नहीं महाराज, एक बार अयोध्या से निकलने के पश्चात मैं पुनः वहाँ नहीं जाना चाहती। मैं ऐसे संसार में नहीं रहना चाहती जहाँ स्त्रियों का सम्मान न होता हो। मुझे प्रजा से कोई शिकायत नहीं है, प्रजा तो पुत्र के समान होती है और एक माता अपने पुत्रों से कभी रुष्ट नहीं होती। मेरा जीवन-काल बस यहीं तक था। अब मुझे आज्ञा दें।"

लव-कुश विचलित हो जाते हैं। उन्हें समझ में नहीं आता कि माता यह क्या कह रही?

"नहीं माता तुम हम लोगों को अकेले छोड़ कर नहीं जा सकती।"

"नहीं पुत्रों, मुझे जाना ही होगा। तुम अपने पिता के साथ रहते हुए उनका सदैव आदर करना और अपने परिवार और पूर्वजों का नाम सदैव ऊँचा रखना।"

माता सीता पृथिवी का आह्वान करती हैं-

"हे धरती माता! अब मुझे अपने पास वापस बुला लो। यह संसार स्त्रियों के रहने योग्य नहीं है। मेरा धैर्य समाप्त हो चुका है। मैं अब और कलंक नहीं सह सकती। मुझे अपने पास बुला लो माँ...।

तभी थोड़ी देर में धरती फट जाती है। सबकी आंखों के सामने सीता धरती में प्रवेश कर जाती हैं। राम पुकारते रहे, "सीते...मुझे इस तरह छोड़ कर मत जाओ।" परंतु सीता अपना निर्णय ले चुकी थी। राम का हृदय भी उस धरती के समान ही फट जाता है और वह फूट-फूट कर रोने लगते है। वहाँ उपस्थित सभी के आंखों में अश्रु थे। सीता तो चली गई थी परंतु अपने पीछे अनेकों प्रश्न छोड़ गयी थी।

महर्षि वाल्मीकि की रामायण तो पूर्ण हो गयी थी परंतु उन्हें इस बात का दुःख था कि वह इसका अंत सुखद न लिख सके यद्यपि इसके लिए उन्होंने पूर्ण प्रयास किया था। राम अपने पुत्रों को लेकर अयोध्या वापस आ जाते हैं। अयोध्या वासियों को अपने अपराध का दंड मिल चुका था। वह अपनी महारानी को सदैव के लिए खो चुके थे।

--डॉ माधवी श्रीवास्तवा 
  ऑकलैंड, न्यूज़ीलैंड 

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