प्रत्येक नगर प्रत्येक मोहल्ले में और प्रत्येक गाँव में एक पुस्तकालय होने की आवश्यकता है। - (राजा) कीर्त्यानंद सिंह।
 

उज्ज्वल भविष्य

 (कथा-कहानी) 
 
रचनाकार:

 महेन्द्र चन्द्र विनोद शर्मा | फीजी व न्यूज़ीलैंड

धनई और कन्हई लंगोटिया यार थे और पड़ोसी भी। ऐसा लगता था कि उनके दो शरीर थे परन्तु आत्मा एक ही थी। वे प्रण बांध कर हर दिन कम से कम चार घण्टे एक साथ बिताते थे। आज धनई के घर, कल कन्हई के। कभी-कभी दोनों एक ही थाली से भोजन भी करते थे। एकता दर्शाने के लिए वे अकसर एक ही रंग और एक ही ढंग के कपड़े भी धारण करते थे। एक साथ सूखी तम्बाकू, चना और सुपारी मिलाकर खाते और एक ही साथ यंगोना पीते। जब जोश में आते तब शराब की बोतल भी खाली कर देते थे। उन्हें विवाद करते कभी किसी ने नहीं सुना, झगड़ने का तो सवाल ही नहीं उठता था।

अक्टूबर, 1963 में धनई, उसकी पत्नी मनोरमा और तीनो पुत्रों (सतीश, अतीश और जगदीश) को अमेरिका का ग्रीन कार्ड मिल गया। धीरे-धीरे जाने की तैयारियां होने लगी। दोनों पड़ोसियों को बिछड़ने का दुःख होने लगा। जुदा होने की बात सरल नहीं थी। दोनों देर तक बातें करते रहते थे।

कन्हई ने क्लेश-भरे शब्दों में पूछा - "तो आप मुझे छोड़ कर चले जाएंगे। मैं अकेला कैसे अपना समय काटूंगा यार? जिन्दगी अधूरी रहेगी। किसके साथ सरौते से सुपारी काटूंगा?"

धनई-- "कन्हई भैया, तुम घबराते क्यों हो? मैं यमराज के घर थोड़े जा रहा है। मैं भी तो तुम्हारे बिना समय नहीं गुजार पाऊंगा। क्या करूं इन पुत्रों के भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिए ही जा रहा हूँ। तम अमेरिका आना भाई, यही बहाने एक नया देश घूम लेना। मैं भी फीजी आऊंगा। दिल छोटा मत करो।"

दिसम्बर में धनई पूरे परिवार के साथ अमेरिका चला गया। वह हमेशा कन्हई के पास पत्र भेजा करता था, कन्हई बराबर जवाब देता रहता था। उधर से ‘मेकाडेमिया नट' आता रहता था और इधर से प्रति महीने पांच किलो ‘यांगोना' भेजा जाता था। दोनों ओर से दर्शन देने के निमंत्रण आते-जाते रहते थे।

पन्द्रह वर्ष बाद, 1978 में कन्हई के पुत्रों ने उन्हें तथा अपनी मां (कल्याणी) को अमेरिका भेजा। कन्हई और कल्याणी बहुत बडी आशाएं लेकर तमाम सौगात लिए ‘कोण्टस' वायुयान द्वारा लोस एंजलिस हवाई अड्डे पर उतरे। इमिग्रेशन और कस्टम्स के निरीक्षण के बाद जब वे बाहर पहुंचे तो धनई को अकेले ही फलों के हार लिए उत्सुकता से खड़े हुए देखा। मनोरमा वहां नहीं थी, सतीश, अतीश और जगदीश भी नहीं। अब तो तीनों बहुत बड़े हो चुके होंगे। कन्हई ने अपनी दष्टि चारों ओर दौडाई लेकिन उन्हें कोई नहीं दिखाई पड़ा। बड़ी निराशा हुई, अंखियाँ प्यासी ही रह गई। उन्होंने कल्याणी के कान में फुसफुसाया - "कुछ गड़बड़ है। धनई भाई अकेले आए है, हमें लेने।"

ट्रोलियाँ ठेलते हुए वे बाहर निकले। धनई ने दोनों को ‘ओर्किड' के हार पहनाए। जी भर के गले मिले। छओ आंखें बाढ़ से ग्रस्त हो गई। कल्याणी से रहा न गया। वह पूछ ही बैठी, "मनोरमा बहिनी क्यों नहीं आई, भइया?" बात काटते हुए धनई ने कहा, "कल्याणी बहन, हम पहले क्यों नहीं सामान ‘वेन' में लाद दे तब मैं आप को सम्पूर्ण कहानी बताऊं।"

सामान लद गए, तीनों अन्दर बैठे और ‘मेक्सिकन वेन ड्राइवर' आगे बढा। "हमें घर पहुंचते लगभग आधा घण्टा लगेगा।" धनई ने बताया। "तब तक मैं आप लोगों को पारिवारिक पवाडे सुनाता चलूँगा। सब से पहले मैं यह बताना चाहूंगा कि मैं ने आप लोगों से एक दुखद समाचार छिपा रखा था कि अब मनोरमा इस दुनिया में नहीं है।" धनई फूट कर रोने लगा। कन्हई और कल्याणी ने उसे सांत्वना दी।

धनई साहस इकट्ठा कर के फिर उन्हें बताने लगा-- "भइया, मनोरमा छह महीने पहले चली गई। सब खेल बुरी तरह बिगड़ चुका है। सतीश, अतीश एक धनी परिवार की लडकियों के साथ शादी कर के घर से निकल गए। जगदीश साथ में है परन्तु उसकी पत्नी, पवन ने उसका कान भर कर मुझे मेरे ही घर से निकलवा कर ‘गेराज' में रहने का प्रबंध करवाया है।" इतना बता कर वह फिर विलाप करने लगा।

वे घर पहुंच गए। ड्राइवर ने सामान उतरवा कर ‘गेराज' में रखवा दिया। फिर वह अपना किराया लेकर चला गया।

मनोरमा की अनुपस्थिति के कारण धनई का शरीर आधा गल चुका था। दैनिक कलह से वह बहुत तंग हो चुका था। जो लाडले पुत्र फीजी में एक आज्ञा पर ‘विक्टोरिया पर्वत' खोद कर बहा सकते थे, वे अमेरिका में उसी का गला दबाने लगे। एक-दो बार तो धनई को एक कमरे के अन्दर बन्द कर के रखा जा चुका था। वह चुप्पी साध कर सब कुछ सह लेता था। किससे शिकायत करता?

सामान ‘गेराज' में रख दिया गया तब छोटा पुत्र जगदीश, अपनी पत्नी पवन के साथ बाहर निकला। धनई ने परिचय कराया पर उस वक्त जगदीश जमीन की ओर और पवन आसमान की तरफ देख रहे थे। उन्हें उनसे मिलने में न प्रसन्नता हुई और न ही उन्होंने उसकी ज़रूरत समझी।

धनई ने बेटे से कहा-- "जगदीश, बहू से कहो कुछ चाय-पानी तैयार कर दे। याद है तुम्हें, जब तुम तीन साल के थे तब इन्हीं की गोद में पड़े रहते थे। इन्हीं के घर भोजन करते थे। ये हमारे पड़ोसी थे फीजी में।"

"रहे होंगे, तो मैं क्या करूं? चाय बनाना तो 'इम्पोसिबल' है।

पवन का ‘शौ' शुरू होने वाला है। उसे देर हो रही है।"

"वट डिड द ओल्ड मेन से?" पवन ने पूछा।

"ही वांटस यू टु मेक टी फॉर द विजिटर्स।" जगदीश ने बताया।

"ओल्ड मैन! क्या मैं तुम्हारी नौकरानी हूँ? मैं तुम से ‘ऑर्ड'र क्यों लूं? तुम तो दिन भर घर में बैठा रहता है, तुम क्यों नहीं चाय बनाता? आज तुम ने झाडू भी नहीं लगाया मेरे घर में। सब बरतन मैले सिंक में ही पड़े हैं। अगर फिर ऐसी बदमाशी की तो तुम्हें खाना भी नहीं दूंगी, समझा ?" पवन झाड़ लगाती हुई चली गई। पीछे-पीछे पालतू कुत्ते की भाँति जगदीश (जेक) भी भागा।

"भैया धनई, यह क्या सुन रहा हूँ मैं? यह निगोड़ी कहाँ से आ गई? मैं समझ गया पूरी बात। अच्छा यह बताइए कि यह घर किसका है?" कन्हई ने पूछा।

"घर मेरा है। मालकिन बनी है यह कमीनी। क्या करूँ अपना बेटा भी तो जोरू का गुलाम बन गया है। सतीश और अतीश के निकलते समय मैंने बीस-बीस हजार डॉलर दे दिया था। वे दोनों मेरे लिए समझो मर चुके हैं। अब जगदीश और उसकी हवा से बात करने वाली मेम मेरे पीछे पड़े हुए हैं। अपनी चीज़ें रखने के लिए मुझे एक कमरे से दूसरे में, दूसरे से तीसरे में और तीसरे से ‘गेराज' में ‘ट्रांसफर' कर दिया है। ‘गेराज' से कहाँ जाना है, भगवान ही जाने।" धनई ने बताया।

कन्हई-- "मैं समझ गया भैया कि ‘गेराज' से आप को कहाँ जाना है। मैं उस दिन को नहीं आने दूंगा। अपनी सभी जरूरी चीजे बांधिए। हम मियां-बीबी के लौटने से पहले यहाँ से विदाई ले लें। बुलाइए दो टेक्सियां। सामान लाद कर हम कहीं ‘अपार्टमेंट' ले लें किराए पर। भइया, इस कुलक्षणी की बात मैं बरदाश्त नहीं कर सकूँगा। एक मुक्के से इसका मुंह मैं उत्तर से पश्चिम दिशा की ओर घुमा दूंगा। हाँ, एक बात और। घर सम्बन्धी सभी कागजात साथ ले चलना।"

कल्याणी--"भाई साहब, आप की आज्ञा हो तो मैं ही इस दुराचारिणी की स्वरतंत्री (वोकल कोर्ड) लांछित कर दं? मुझ से भी और सहन नहीं किया जा सकेगा।"

कन्हई और कल्याणी धनई के सामान बैग में भर कर अपने सामान के साथ निकले ‘फ्लैट' ढूंढने । ड्राइवर को मालूम था, उसने उन्हें एक सुन्दर ‘अपार्टमेण्ट' में रहने का बन्दोबस्त करा दिया। नए ‘फ्लैट' में दिन-ही-दिन, बात-की-बात में सब सुविधाएं, भोजन सामग्री आदि सम्पूरित कर दी गई। धनई पुराने दिलदार दोस्त के साथ स्थायी रूप से निवास करने लगा। वर्षों बाद उसने सुख की नींद का आभास किया। उसे मालूम हुआ जैसे भगवान ने उसका रक्षक भेज दिया हो।

स्थानीय हितैषियों ने एक योग्य वकील को बुला कर मकान बेचने के संबंध में विचार-विमर्श करके उसे दो सौ बीस हजार (220,000) डॉलर में बेच दिया। नए मकान-मालिक ने जगदीश और पवन को तुरन्त घर खाली करने की नोटिस दी। दोनों धनई के पास पहुंचे। जगदीश पिता (धनई) के पैर स्पर्श करने के लिए झपटा; पवन ने भी 'नमस्ते, पिता जी' कहा। परन्तु धनई दो कदम पीछे हटकर बोला-- "पैर मत छूना। तुम दोनों इसके काबिल नहीं रह गए। अब बहुत देर हो चुकी है।"

'कल्याणी भी अपनी छाती का बोझ हटाने के लिए उत्सुक थी। उसने कहा, "कलमुंही। अभी तक 'ओल्ड मैन' कहती थी और जब गरज पड़ा तो 'पिताजी' कहती है। तूने भाई साहब को नौकर बना रखा था। झाडू लगवाती थी, बरतन मंजवाती थी। उन्हें उनके ही घर से निकाल कर ‘गेराज' में निवास दिया था। जैसे वे किसी तरह के काठ-कबाड (रबिश) हों। तेरे मुंह से तो 'पिताजी' शब्द ठीक ही नहीं लगता। जब तेरे रहने का मकान नहीं है तब तू उनकी खुशामद करने आई है।"

कन्हई और कल्याणी के साथ रहने से धनई को काफी साहस प्राप्त हो चुका था। उन्होंने बेटे और बहू से साफ शब्दों में कहा- "तुम लोगों ने मुझे पशु समझ रखा था, विशेषकर बहू ने। मेरे ही घर में तुम दोनों मुझे परेशान कर रहे थे। अगर घर तुम्हारा होता तो शायद मुझे कूड़ा-करकट में जिन्दगी बितानी पड़ती। फिर भी, तुम्हें बीस हजार दे रहा हूँ जैसा कि तुम्हारे भाइयों को दिया था। तुम ने मेरे अतिथियों का अनादर किया। जो लोग तुम्हें अपनी गोद से नीचे नहीं उतरने देते थे उन्हें तुम ने जानना नहीं चाहा। एक गिलास पानी न दे सकें उन्हें। मैंने तुम्हारे साथ अपने दिन कैसे काटे, यह मैं ही जानता हूँ। तुम ने अपनी बेहया पत्नी के सिखाने पर अपनी स्वर्ण जैसी माता को नौकरानी बना रखा था। उसी सदमे के कारण वह हमसे जुदा हो गई वरना वह अभी भी जीवित रहती। तुम दोनों उसके हत्यारे हो। लो ये बीस हजार। बेहया बहू, कुलक्षिणी। तुम ने ही मेरे श्रवणकुमार जैसे बेटे को शैतान बना दिया है, दूर हट। ओझल हो जाओ मेरी आँखों के सामने से।" धनई ने यह कहते हुए बीस हजार डॉलर की कुछ गड्डियाँ उनके मुंह पर दे मारी। गड्डियों से नोट खुलकर जमीन पर इधर उधर जा गिरे।

बेशर्म बहू ने लालचवश विनती की-- "मेरे प्यारे पिता जी, बात मानिए आप। मैंने आप के पुत्र को कुछ भी नहीं सिखाया है। आप चलिए न, हमारे साथ। हम दूसरा मकान खरीदकर एक साथ ही रहेंगे। मैं आप की सेवा करूंगी, पैर दबाऊंगी। आप के साथ अच्छा व्यवहार करूंगी। मैं आप की बहू हूँ, आप की पुत्री जैसी, पिताजी।"

"आशीर्वाद तो मैं तुझे अवश्य ही दूंगा। जा उखर पड़। मेरे पुत्र को बहकाकर तूने मेरे साथ जो सलूक किया है, भगवान ऐसा ही तेरे और तेरे पुत्र के मध्य करे। तू दरअसल मुझे नहीं चाहती है। तू चाहती है मेरा दो सौ हजार डॉलर। अगर तुम दोनों मेरे साथ उचित व्यवहार करते तो घर तुम्हारा ही होता लेकिन तुम ने मेरे साथ क्या-क्या नहीं किया। भाग यहां से प्रेतनी।" धनई ने धमकी दी।

जाते-जाते पवन जमीन पर बिखरे हुए नोट उठाने लगी लेकिन कल्याणी ने उसे रोक दिया।

कन्हई ने धनई को कड़ाई से पेश आने के लिए बधाई दी। उसने धनई से कहा, "अभी उस बीस हजार को अपने पास ही रखिए। खूब हैरान कर के देना, अगर देना ही है तब। आप की फीजी वाली ज़मीन अभी बिकाऊ है। लौट कर उसे पुन: खरीद लेना। हम तुम्हें इस दोजख में नहीं रहने देंगे।"

जिस दिन धनई लौट रहा था उस दिन उसके तीनों पुत्र और बहुएं अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उनका अभिनन्दन करने के लिए उपस्थित थे। उन्होंने पिता को बताया कि वे फीजी घूमने आया करेंगे। परन्तु धनई ने उन्हें सावधान करते हुए बताया-- "मुझे देखने के लिए आने की कोई ज़रूरत नहीं है। जब यहां मुझे देखना नहीं चाहते थे तो फीजी क्या देखने आओगे? जो पैसे मेरे पास है उन्हें मैं मरने के बाद किसी परोपकारी संस्था को दान कर दूंगा। पैसे तुम्हारे हाथ नहीं लगेंगे। अगर तुम फीजी कभी आना भी तो मेरी नजरों के सामने मत पड़ना।"
हवाई अड्डे से लौटने के बाद पवन ने जगदीश से कहा- "ओके, गुडबाय जेक। मैं जा रही हूँ।"

जगदीश ने पूछा, " यह क्या बदतमीजी है? कहाँ जा रही हो?"
पवन- "बदतमीजी नहीं है। तुम्हारे पास अब बचा ही क्या है जिसके सहारे मैं तुम्हारे साथ रहूं?"

धन भी क्या 'चुम्बकीय' वस्तु है?

धनई ने फीजी में कन्हई के बगल ही अपना मकान बनाया। लंगोटिया यार फिर एक हो गए। कन्हई और कल्याणी ने अपने ही परिवार की एक बेवा (विडो) के साथ धनई का पाणि-ग्रहण संस्कार करा दिया। दोनों बड़े आराम से जीवन बसर कर रहे हैं। लगता है कि मनोरमा ही वापस आ गई है।

अमेरिका से तीनों पुत्रों का पत्र आया था, साथ में कुछ पैसे भी, परन्तु धनई ने उस लिफाफे पर 'मर गया तुम्हारा बाप' लिखकर उसे दूसरे बड़े लिफाफे में भर कर वापस कर दिया। फिर और चिट्ठियां नहीं आई।

एक दिन कन्हई, धनई, कल्याणी और नयी पत्नी, सुलोचना, बैठ कर ‘यंगोना' पी रहे थे। कन्हई ने मजाक में कहा- "भैया, आप ने तो जरूर अपने पुत्रों का बड़ा ही उज्ज्वल भविष्य बना दिया था अमेरिका में।"

एक प्याली और पी कर धनई ने कहा-- "कन्हई, तुम ने वाकई बना दिया मेरा भविष्य, परन्तु अमेरिका में नहीं, फीजी में ही, जिसे त्याग कर मैं नरक में गिर गया था।"

इतना कह कर धनई ने दो उंगलियां मुंह पर रख कर 'पचाक' से बाहर की ओर थूका। वह थूक लगभग आठ फुट दूर जा गिरा। एक छोटा पोता जो वहां खेल रहा था, थूक के 'गोले' से बाल-बाल बच गया।

--एम.सी. विनोद शर्मा
('अनमोल रत्न' से)

 

Back
 
Post Comment
 
Type a word in English and press SPACE to transliterate.
Press CTRL+G to switch between English and the Hindi language.
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश