देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 

देसियों के विदेशी बुखार

 (विविध) 
 
रचनाकार:

 रीता कौशल | ऑस्ट्रेलिया

जैसे ही दिवाली आने वाली होती है सोशल मीडिया पर एक पोस्ट तैरने लगती है कि चीन की बनी इलेक्ट्रिक झालर मत खरीदो, अपने यहाँ के कुम्हारों के बने दीये खरीद कर दिवाली पर जलाओ। ऐसा ही रक्षाबंधन के आसपास राखी के धागों को लेकर होता है पर क्या आज ग्लोबलाइजेशन के दौर में विदेशी सामान की खरीद से बचना इतना आसान है? इन फेसबुक पोस्ट को देख कर लगता है कि हम भारतीयों की देशभक्ति एक मौसमी बुखार की तरह है जो कुछ खास मौसम में ही जोर मारती है।

हमारे देश में नेताओं के बच्चों की दो श्रेणियाँ है -एक तो वह जिनका पढ़ने-लिखने से कोई संबंध ही नहीं है, दूसरे वे जो साधारण से साधारण कोर्सेज की पढ़ाई के लिये भी विदेशों की तरफ भागते हैं अब ऐसे में आम जनता से उम्मीद करना कि वह राखी के धागे और दिवाली की लड़ियाँ 'मेड इन चायना' न लें की उम्मीद रखना पूरी तरह नहीं तो काफी हद तक बेमानी है।

अगर मुद्रा के बहाव को विदेशों की तरफ जाने से रोकना है तो यह मुहिम हर स्तर पर चलानी होगी केवल राखी के धागे और दिवाली के दीयों तक सीमित नहीं रखी जा सकती है। सरकार और समाज को बहुत सी दूसरी समस्याओं के अलावा निम्न मुद्दों की तरफ भी ध्यान देना होगा।

विदेशी पर्यटन : जैसे-जैसे भारत में मध्यमवर्गीय तबका आगे बढ़ा है वैसे-वैसे कम से कम साल में एक बार छुट्टियों पर जाने का दौर शुरू हो गया है। शुरुआत में ये गंतव्य स्थल राष्ट्रीय थे। अब ये अंतरराष्ट्रीय हो चुके हैं। जाहिर है इसका सीधा दुष्प्रभाव देश के पर्यटन व्यापार पर पड़ेगा। एक तो वैसे ही हमारे देश में पर्यटन से कुछ खास आमदनी नहीं होती थी ऊपर से इस तथाकथित मॉडर्न सोसाइटी के लोगों के विदेशी पर्यटन स्थलों की तरफ लपकने से यों भी उसका बहाव विदेशी कोषों की तरफ हो गया है। भारत में ऐतिहासिक धरोहरों की भरमार है, भौगोलिक विभिन्नता और खूबसूरती की भी कोई कमी नहीं है फिर ऐसा क्यों है कि लोगों का रुझान विदेशी गंतव्यों की तरफ झुकने लगा है। काफी हद तक इसके पीछे विदेशों में मिलने वाली सुविधाएं हैं। कोई भी पैसा खर्चा करने के बाद मुसीबतों से जूझना नहीं चाहता। लोग छुट्टियों पर जाते हैं जीवन की आपधापी से बचने के लिए, किंतु अगर उन्हें छुट्टियों के दौरान भी मुसीबतें ही झेलनी पड़ें तो ऐसी छुट्टियों पर जाने का मतलब तो अपना पैसा पानी में फेंकने जैसा होता है। सरकार को चाहिये कि वह इस दिशा में कार्य करे।

विदेश में छुट्टियाँ मनाने के पीछे काफी हद तक हमारे समाज की दिखावे की संस्कृति व सदियों तक झेली गयी गुलामी की मानसिकता भी है। लोगों को यह बताने में ज्यादा फक्र होता है कि वे फ्रांस के कैथेडरल देखकर आये अपेक्षाकृत यह कहने में कि वह अमरावती के मंदिर घूम कर आ रहे हैं।

वहीं विकसित देशों से भारत आने वाले पर्यटकों की संख्या बहुत कम होती है और जो आते हैं वह बहुत अच्छे स्तर के पर्यटक नहीं होते अर्थात भारत आने वाले विदेशी पर्यटकों में से बहुत ही कम पर्यटक 'फैमिली होली डे' पर आते हैं। ज्यादातर पर्यटक सिंगल बैकपैकर होते हैं जो बहुत कम बजट में अपनी छुट्टियाँ करना चाहते हैं। कुल मिला कर हमारे देश से पर्यटन और छुट्टियों के नाम पर मुद्रा का 'आउट फ्लो' होता है 'इन फ्लो' नहीं।

प्रतिभा पलायन : अमेरिका में एशियन देशों से आने वाले वैज्ञानिकों, इंजीनियरों में भारतीय सबसे ज्यादा हैं। आई आई एम और आई आई टी जैसे संस्थान के विद्यार्थी अपने कोर्स के अंतिम वर्ष में आते ही ऊँचे पैकेजस पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा चयनित कर लिये जाते हैं। कमाल की बात है कि हमारे इन दोनों संस्थानों को आज तक दुनिया के शीर्ष 100 संस्थानों के बीच कभी कोई रेकिंग नहीं मिली पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ यहाँ के डिग्रीधारियों को नियुक्त करने के लिये तत्पर रहती हैं।
इन संस्थानों के एक स्नातक को तैयार करने में भारत सरकार अच्छा-खासा व्यय करती है। त्रासदी ये है कि वह छात्र अपने सपनों को पूरा करने के लिये देश छोड़ कर परदेस जा कर वहाँ का उपयोगी मानव संसाधन बन जाता है।

विदेशी उच्च शिक्षा : स्टूडेंट वीसा कराने वाले एजेंटस छात्रों को विकसित देशों में उज्जवल भविष्य के सपने दिखाते हैं। वे बड़ी ही खूबसूरती से उन्हें ये विश्वास दिला देते हैं कि वहाँ से डिग्री या डिप्लोमा करते ही उन्हें वहीं शानदार रोजगार मिल जाएगा और उस रोजगार के आधार पर उन्हें वहाँ का वर्क परमिट या परमानेंट रेसीडेंसी मिल जायेगी। असलियत ये है कि बाहर से आये हुए लोगों के लिये वहाँ काम की संभावनायें न के बराबर होती हैं। हाँ, अगर कोई असाधारण प्रतिभा का धनी है तो बात अलग है अन्यथा अधिकांश छात्र पढ़ाई के दौरान और पढ़ाई खत्म करने के बाद पेट्रोल पंप, रेस्टोरेंट व सुपरमार्केट में छोटे-छोटे काम करने में ही फंस कर रह जाते हैं।

शिक्षा विकसित देशों के लिये विलियन डॉलर इंडस्ट्री है। अमेरिका जैसे विकसित देशों की यूनिवर्सटीज वहाँ पढ़ने आये एशियनस छात्रों की वजह से खूब पनपती रही हैं। एक इंटरनेशनल स्टुडेंट से लोकल स्टुडेंट की तुलना में कई गुना फीस चार्ज की जाती है। इसके अलावा इन छात्रों के रहने खाने के खर्चे से भी इन देशों की इकोनोमी में अच्छी खासी मुद्रा पंप होती है। इसके पहले अंग्रेजी योग्यता आई.ई.एल.टी.एस. आदि की परीक्षा के नाम पर भी काफी रकम झटक ली जाती है। यह बड़ी हास्यास्पद बात है कि इन परीक्षाओं की प्रमाणिकता केवल दो साल के लिये ही मान्य है। सार ये है कि नब्बे प्रतिशत छात्र इस पूरी प्रकिया में बहुत कुछ गँवा कर बैरंग वापस भारत लौट आते हैं।

अगर हमें मुद्रा के प्रवाह को विदेशों की तरफ जाने से रोकना है तो हम देसियों को विदेशी बुखार जो कि हमें ब्रिटिश इंडिया के जमाने से चढ़ा हुआ है, का इलाज करके उससे छुटकारा पाना होगा। सभी भारतीयों को चाहिये कि इस बुखार का इलाज केवल राखी के धागे और दिवाली के दीयों तक में सीमित न करें बल्कि बड़े स्तर पर ढूँढें ।

-रीता कौशल, ऑस्ट्रेलिया

Copyright (C) Author: Rita Kaushal
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