प्रवासी की माँ

 (कथा-कहानी) 
 
रचनाकार:

 रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

(1)

"जिंदगी की राहों में रंज-ओ-ग़म के मेले है
भीड़ है क़यामत की और हम अकेले है----"

रेडियो पर गीत बज रहा है और बूढ़ी हो चली भागवन्ती जैसे किसी सोच में डूबी हुई है। तीन-तीन बेटों वाली इस ‘माँ' को भला कौनसी चिंता सता रही है?

भागवन्ती के तीन बेटे हैं। बड़का, मझला और छुटका । बड़का तो शादी होते ही जैसे ससुरालवालों का हो चुका था। उसे माँ की सुध ही कहाँ थी! मझला कई वर्षों से विदेश में बस गया है। छुटका घर में है लेकिन उसकी 'लिवइन रिलेशनशिप' चल रही है। वह होते हुए भी जैसे नहीं है, उसके लिए।
भागवन्ती जब भी उदास होती छुटका अगर देख लेता तो पूछता, "क्या बात है, माँ?"

"कुछ नहीं! बस यूंही मझले की याद आ गई थी।" अपने अकेलेपन की बात भागवन्ती छुपा जाती।

"थोड़े दिन मझले भैया के पास बाहर घूम आओ।"

"इत्ती दूर ! अकेले? ना भैया, ना !"

"कहो तो इस बार भइया से बोल दूँ?"

भागवन्ती मुसकुरा दी, मुँह से कुछ न बोली। न ‘हाँ' कहा, न ‘ना'।

 

(2)

इस बार मझले का फोन आया तो छुटके ने कह ही दिया, "भैया, माँ आपको बहुत ‘मिस' करती है।"

"सच में? हम तो खुद सोच रहे थे कि माँ यहाँ आ जाए?

पिछली बार पूछा तो कहने लगी कि छुटके की शादी के बाद देखती हूँ। लाओ, माँ को फोन दो। पूछूं!" मझले ने कहा।

"माँ, तो मंदिर गई है लेकिन मैंने माँ से पूछ लिया है।"

"तो क्या कहा माँ ने? मुझे तो तुम्हारी शादी की कह रही थी..."

"अरे छोड़ो न भैया! मैं अभी शादी नहीं करने वाला। माँ बेशक आपके पास चक्कर लगा आए।"

"पक्का?"

"हाँ भैया, आ'यम 100% श्योर।"

"ओके, छुटके। थैंक यू। मैं जल्दी ही अरेंज करता हूँ।"

(3)

मझले ने तुरंत माँ को अपने यहाँ बुलाने का प्रबंध कर लिया।
भागवन्ती जब से न्यूज़ीलैंड आई थी, बेटा-बहू हर रोज कभी यहाँ तो कभी वहाँ घुमाने ले जाते थे। ‘वीकेंड' में तो शहर से बाहर जाने का प्रोग्राम रहता ही था। यहाँ किसी चीज़ की कमी नहीं थी। बहू भी खूब पूछ करती थी। अब तो उसका मन था कि यहीं बस जाए। खूब भ्रमण हो रहा था। न्यूज़ीलैंड के सभी मुख्य नगरों में घूम चुके थे - औकलैंड, हैमिल्टन, वेलिंग्टन, पिक्टन, क्राइस्टचर्च और क्वीन्सटाउन के बाद बस उत्तर का ऊपरी भाग जिसे ‘अपनोर्थ' कहा जाता था, रह गया था। मझला कह रहा था, अब ‘लॉन्ग वीकेंड' में वहीं का ‘प्रोग्राम' है।

शुक्रवार को भागवन्ती ने बहू के आने से पहले ही खूब सारे आलू उबाल लिए थे। मझला कह रहा था, इस बार इंडिया की तरह घर से आलू-पूरी बनाकर ले चलेंगे। पूरियों के लिए आटा भी गूँथ लिया था। बस बहू के आने का इंतज़ार था, वह कहेगी तो रात को ही सब बनाकर ‘पैक' कर लेंगे या सुबह-सुबह बना लेंगे।

घड़ी देखी तो अभी दोपहर के 2 ही बजे थे। बहू तो काम से लगभग 5 बजे घर पहुँचती थी। उबले हुए आलू काफी थे और परसों के उबले हुए चने भी फ्रिज में रखे थे। भागवन्ती ने शाम के लिए टिक्की-छोले बनाने की सोची। टिक्की-छोले बहू बेटे दोनों को पसंद थे। मझला तो जब ‘इंडिया' में था तो पड़ोस वाले पांडेजी की दुकान से हर सप्ताह काम से आते हुए टिक्की-छोले ज़रूर लाता था। पांडेजी के टिक्की-छोले थे भी पूरे शहर में मशहूर। भागवन्ती ने सब तैयार करके टेबल पर रख दिया था।

थोड़ी देर सुस्ता भी ली थी। दरवाजे की घंटी बजी तो भागवन्ती ने झट से दरवाजा खोला। बहू ही थी।

"अरे माँजी, बहुत खुशबू आ रही है! कुछ तला लगता है।"
"नहीं!' मैंने तो कुछ नहीं तला।" माँ ने शरारत से मुसकुराते हुए कहा।

टेबल पर रखे सामान का ढक्कन उठाया तो बहू चहक उठी, "टिक्की-छोले!"

"अच्छा किया, माँजी!"

"जल्दी से कुछ खा लेते हैं। आज शाम को पास वाले ‘राम मंदिर' में भजन संध्या है। ‘इंडिया' से गायक आए हुए हैं। वहीं चलेंगे। रात का खाना भी वहीं होगा। उनका खाना भी बहुत स्वाद होता है। ये कह रहे थे, इन्हें कुछ काम है पर हम दोनों चले चलेंगे। फिर कल तो ‘अप नॉर्थ' जाना है।"

"कल के लिए पूरिए व सब्जी तो सुबह जल्दी उठ कर बना लेंगे।

"अच्छा ठीक है। तेरे लिए खाना निकाल दूँ।"

"नहीं, आप बैठिए।" उसने भागवन्ती के कंधों को धीरे से सहलाते हुए उसे कुर्सी पर बिठा दिया।

"लो माँजी, चाय!" चाय के साथ ही बहू दोनों के लिए टिक्की-छोले' भी डाल लाई थी।

(4)
शाम को मंदिर पहुँच गए।
"अरे इतना, सुंदर मंदिर! वाह।"
शाम की भजन संध्या का तो जवाब ही नहीं। मजा आ गया। लगता ही नहीं था कि भारत से कहीं बाहर हैं।

"अरी बहू, वो जो चटनी थी। वो मैंने पहली बार खाई है।"

"हाँ माँजी। वो फीज़ी वालों की चटनी है। अच्छी लगी न, आपको? मुझे भी बहुत अच्छी लगती है। लता भाभी है न, जो पिछले ‘वीक' आई थी - वो भी फीज़ी से ही है।"
"अच्छा!"

"हाँ, ये कह रहे थे कि क्रिसमस की ब्रेक में यदि संभव हुआ तो आपको ऑस्ट्रेलिया और फीज़ी भी घुमायेंगे।" बहू खुश थी।
"अच्छा, फीज़ी तो छोटा सा टापू है, न? उसे ‘छोटा भारत' कहा जाता है। मैं जब स्कूल में पढ़ाती थी तब हमारे पाठ्यक्रम में एक पाठ ‘फीज़ी' पर भी था।"
"ओह, अच्छा।"
"पिछली बार मझला एक कहानियों की किताब दे गया था उसमें एक-दो फीज़ी के कहानीकारों की कहानियाँ भी थीं। बातें करते-करते दोनों सास-बहू घर पहुँच गईं।
मझला घर पर ही था।
"लो प्रसाद ले लो।"
"हाँ माँ। एक मिनट, मैं हाथ धो लूँ।"
मझले ने प्रसाद खाया। फिर इधर-उधर की कुछ बातें हुईं और सब सोने चल दिए। सुबह जल्दी जो उठना था।


(5)

अगली सुबह खूब मस्ती करते हुए ‘अप नॉर्थ' की सैर की। ‘मोटेल' पहले ही बुक करवा रखा था। बहुत रोमांचक यात्रा रही। यहाँ की ‘बीच' भी बहुत सुंदर थीं। पानी तो इतना साफ कि पहले कभी इतना साफ पानी देखा ही नहीं।

अक्तूबर मास से यहाँ बसंत और इसके बाद गर्मी शुरू हो जाती है। भारतवंशियों की गतिविधियां अपने चरम पर होती हैं। कभी भारतीय मंदिर व महात्मा गांधी सेंटर में ‘गरबा और डांडिया' देखने गए, तो कभी हरे कृष्णा टैम्पल में विजयदशमी पर रावण का पुतला जलता देखा। बाद के दिनों में तो यहाँ न्यूज़ीलैंड में अनेक स्थानों पर दीवाली के आयोजन भी देखे।
"माँ, कल सुबह टाउन में जाएंगे और खाना भी वहीं खाएँगे। इस वीकेंड ऑकलैंड में दीवाली मेला है।"

अगले दिन सचमुच यहाँ का दीवाली मेला देखा तो हैरानी हुई। इतना भव्य आयोजन!

"बहू, सचमुच तुम तो स्वर्ग में रहते हो। इतनी अच्छी आबो-हवा और उसपर इतने अच्छे आयोजन।"

"हाँ माँजी, कल हिन्दी मूवी देखने भी जाना है।" बहू मुसकुरा दी।

फिल्में देखने का शौक हो तो यहाँ लगभग हर सप्ताह एक से एक नयी हिन्दी फिल्में लगती हैं और अब तो दूसरी भारतीय भाषाओं की फिल्में भी लगने लगी हैं।

भई, यहाँ तो पूरे मजे आ रहे हैं। ---लेकिन सभी लोग सुखी हों, ऐसी बात भी नहीं। कुछ दिन पहले ही तो श्रीमती वर्मा के साथ ‘सीनियर सिटीजेन्स' के एक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला था। वहीं पता चला कि यहाँ भारतीय वृद्धों के लिए भी अलग से आवास की व्यवस्था है, जिसका प्रबंध भारतीय संस्थाएँ ही करती हैं!

"अरे, यहाँ इतनी खुली जगह है और बड़े-बड़े घर हैं तो ये वृद्ध क्यों इन ‘ओल्ड एज होम' में रहने लगे?"

"बहनजी, जो दिखता है वैसा होता नहीं और जो होता है वो दिखता नहीं!" मिसेज़ वर्मा ने उदासी जताई।

"तो यहाँ भी...."

"हाँ, बहन जी! सास-बहू वाला धारावाहिक तो अंतरराष्ट्रीय है। इसका प्रभाव कहीं कम, कहीं ज्यादा है।"

"तो ये लोग वापिस भारत क्यों नहीं चले जाते?"

"दो चार ने यह भी किया। लेकिन सुनती हूँ भारत में तो पारिवारिक संकट और अधिक विकट है।"

बात तो सच थी। यहाँ वृद्धों को कम से कम सुख-सुविधाएं तो पूरी मिलती हैं!

"बहू अच्छी मिलना भी भाग्य की बात है, बहनजी!"

मिसेज़ वर्मा की इस बात ने भागवन्ती को चिंता में डाल दिया था। ‘अभी छुटके वाली राम जाने कैसी निकलेगी?" भागवन्ती की आँखें सजल हो उठी थीं।


(6)

साढ़े पाँच महीने कैसे कट गए, पता ही नहीं चला। सुख के दिन भी जैसे घड़ियों में पंख लगाकर उड़ जाते हैं और दुःख-दर्द की दो घड़ियाँ भी बहुत लंबी जान पड़ती हैं। भागवन्ती के प्रवास की भी यही कहानी थी।

"अरे, ये इतना बड़ा सूटकेस किसलिए ले आया?" मझले के हाथ में नया सूटकेस देखकर भागवन्ती ने पूछा।

-आपके लिए माँ।

-मुझे क्या करना है, इसका?

‘सामान के लिए, माँजी।‘ --बहू ने कहा।

-लेकिन कमरे में इत्ती बड़ी-बड़ी अलमारियाँ तो हैं। इसकी क्या जरूरत?

-माँ, आपका वीजा छह महीने का ही था। बस दो हफ़्ते बाकी रह गए हैं।

"ओह---!" उसे याद आया, उसे लौटना है।

"क्या हुआ, माँ? आप रो क्यों रही हैं?" मझले ने उसके गालों पर लुढ़क आए आँसुओं को अपने हाथ से पोंछते हुए पूछा।

"कुछ नहीं, यूंही तेरे बाबूजी की याद आ गई थी। आज वे होते तो----"

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

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