यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।
 

तुम्हारे जिस्म जब-जब | ग़ज़ल

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 कुँअर बेचैन

तुम्हारे जिस्म जब-जब धूप में काले पड़े होंगे
हमारी भी ग़ज़ल के पाँव में छाले पड़े होंगे

अगर आँखों पे गहरी नींद के ताले पड़े होंगे
तो कुछ ख़्वाबों को अपनी जान के लाले पड़े होंगे

कि जिन की साज़िशों से अब हमारी जेब ख़ाली है
वो अपने हाथ जेबों में कहीं डाले पड़े होंगे

हमारी उम्र मकड़ी है हमें इतना बताने को
बदन पर झुर्रियों की शक्ल में जाले पड़े होंगे

पहुँच पाएँ न क्यूँ नज़रें कहीं मायूस चेहरों तक
'कुँवर' राहों में उन की केश घुँघराले पड़े होंगे

-कुँवर बेचैन

 

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