मुस्लिम शासन में हिंदी फारसी के साथ-साथ चलती रही पर कंपनी सरकार ने एक ओर फारसी पर हाथ साफ किया तो दूसरी ओर हिंदी पर। - चंद्रबली पांडेय।
 

विधाता

 (कथा-कहानी) 
 
रचनाकार:

 विनोदशंकर व्यास

चीनी के खिलौने, पैसे में दो; खेल लो, खिला लो, टूट जाए तो खा लो--पैसे में दो।

सुरीली आवाज में यह कहता हुआ खिलौनेवाला एक छोटी-सी घंटी बजा रहा था।

उसको आवाज सुनते ही त्रिवेणी बोल, उठी-- माँ, पैसा दो, खिलौना लूँगी।

आज पैसा नहीं है, बेटी।

एक पैसा माँ, हाथ जोड़ती हूँ।

नहीं है त्रिवेणी, दूसरे दिन ले लेना।

त्रिवेणी के मुख पर सन्तोष की झलक दिखलाई दी।

उसने खिड़की से पुकारकर कहा--ऐ खिलौनेवाले, आज पैसा नहीं है; कल आना।

चुप रह, ऐसी बात भी कहीं कही जाती है ?--उसकी माँ ने भुनभुनाते हुए कहा। ।

तीन वर्ष की त्रिवेणी की समझ में न आया। किन्तु उसकी माँ अपने जीवन के अभाव का पर्दा दुनिया के सामने खोलने से हिचकती थी। कारण, ऐसा सूखा विषय केवल लोगों के हँसने के लिए ही होता है।

और सचमुच--वह खिलौनेवाला मुस्कुराता हुआ, अपनी घंटी बजाकर, चला गया ।


सन्ध्या हो चली थी।

लज्जावती रसोईघर में भोजन बना रही थी। दफ्तर से उसके पति के लौटने का समय था। आज घर में कोई तरकारी न थी, पैसे भी न थे। विजयकृष्ण को सूखा भोजन ही मिलेगा! लज्जा रोटी बना रही थी और त्रिवेणी अपने बाबूजी की प्रतीक्षा कर रही थी।

माँ, बड़ी तेज भूख लगी है। --कातर वाणी में त्रिवेणी ने कहा।

बाबूजी को आने दो, उन्हीं के साथ भोजन करना, अब आते ही होंगे। --लज्जा ने समझाते हुए कहा। कारण, एक ही थाली में त्रिवेणी और विजयकृष्ण साथ बैठकर नित्य भोजन करते थे और उन दोनों के भोजन कर लेने पर उसी थाली में लज्जावती टुकड़ों पर जीनेवाले अपने पेट की ज्वाला को शान्त करती थी जूठन ही उसका सोहाग था!

लज्जावती ने दीपक जलाया। त्रिवेणी ने आँख बन्द कर दीपक को नमस्कार किया; क्योंकि उसकी माता ने प्रतिदिन उसे ऐसा करना सिखाया था।

द्वार पर खटका हुआ। विजय दिन-भर का थका लौटा था। त्रिवेणी ने उछलते हुए कहा--माँ, बाबूजी आ गये ।

विजय कमरे के कोने में अपना पुराना छाता रखकर खूँटी पर कुरता और टोपी टाँग रहा था।

लज्जा ने पूछा--महीने का वेतन आज मिला न?

नहीं मिला, कल बँटेगा। साहब ने बिल पास कर दिया है।--हताश स्वर में विजयकृष्ण ने कहा।

लज्जावती चिन्तित भाव से थाली परोसने लगी। भोजन करते समय, सूखी रोटी और दाल की कटोरी की ओर देखकर विजय न जाने क्या सोच रहा था। सोचने दो; क्योंकि चिन्ता ही दरिद्रों का जीवन है और आशा ही उनका प्राण।


किसी तरह दिन कट रहे थे। रात्रि का समय था। त्रिवेणी सो गई थी, लज्जा बैठी थी।

देखता हूँ, इस नौकरी का भी कोई ठिकाना नहीं है।--गम्भीर आकृति बनाते हुए विजयकृष्ण ने कहा।

क्यों ! क्या कोई नई बात है ?--लज्जावती ने अपनी झुकी हुई आँखें ऊपर उठाकर, एक बार विजय की ओर देखते हुए, पूछा।

बड़ा साहब मुझसे अप्रसन्न रहता है। मेरे प्रति उसकी आँखें सदैव चढ़ी रहती हैं।

किसलिए?

हो सकता है, मेरी निरीहता हो इसका कारण हो।

लज्जा चुप थी।

पन्द्रह रुपये मासिक पर दिन-भर परिश्रम करना पड़ता है। इतने पर भी----।

ओह, बड़ा भयानक समय आ गया है!-- लज्जावती ने दुःख की एक लम्बी साँस खींचते हुए कहा।

मकानवाले का दो मास का किराया बाकी है, इस बार वह नहीं मानेगा।

इस बार न मिलने से वह बड़ी आफत मचायेगा।--लज्जा ने भयभीत होकर कहा।

क्या करूँ ? जान देकर भी इस जीवन से छुटकारा होता----।

ऐसा सोचना व्यर्थ है। घबड़ाने से क्या लाभ? कभी दिन फिरंगे ही।

कल रविवार है, छुट्टी का दिन है, एक जगह दूकान पर चिट्ठी-पत्री लिखने का काम है। पाँच रुपये महीना देने को कहता था। घन्टे-दो-घन्टे उसका काम करना पड़ेगा। मैं आठ माँगता
था। अब सोचता हैं, कल उससे मिलकर स्वीकार कर लूँ। दफ्तर से लौटने पर उसके यहाँ जाया करूँगा,--कहते हुए विजयकृष्ण के हृदय में उत्साह की एक हल्की रेखा दौड़ पड़ी।

जैसा ठीक समझो।--कहकर लज्जा विचार में पड़ गई। वह जानती थी कि विजय का स्वास्थ्य परिश्रम करने से दिन-दिन खराब होता जा रहा है। मगर रोटी का प्रश्न था!


दिन, सप्ताह और महीने उलझते चले गये।

विजय प्रतिदिन दफ्तर जाता। वह किसी से बहुत कम बोलता । उसकी इस नीरसता पर प्रायः दफ्तर के अन्य कर्मचारी उससे व्यंग करते।

उसका पीला चेहरा और धँसी हुई आँखें लोगों को विनोद करने के लिए उन्साहित करती थीं। लेकिन वह चुपचाप ऐसी बातों को अनसुनी कर जाता, कभी उत्तर न देता। इसपर भी सब उससे असन्तुष्ट रहते थे।

विजय के जीवन में आज एक अनहोनी घटना हुई। वह कुछ समझ न सका। मार्ग में उसके पैर आगे न बढ़ते। उसको आँखों के सामने चिनगारियाँ झलमलाने लगीं। मुझसे क्या अपराध हुआ?--कई बार उसने मन ही में प्रश्न किये।

घर से दफ्तर जाते समय बिल्ली ने रास्ता काटा था। आगे चलकर खाली घड़ा दिखाई पड़ा था। इसीलिए तो सब अपशकुनों ने मिलकर आज उसके भाग्य का फैसला कर दिया था!

साहब बड़ा अत्याचारी है। क्या गरीबों का पेट काटने के लिए ही पूँजीपतियों का आविष्कार हुआ है? नाश हो इनका---वह कौन-सा दिन होगा जब रुपयों का अस्तित्व संसार से मिट जाएगा? भूखा मनुष्य दूसरे के सामने हाथ न फैला सकेगा?--सोचते हुए विजय का माथा घूमने लगा। वह मार्ग में गिरते-गिरते सम्हल गया।

सहसा उसने आँखें उठाकर देखा, वह अपने घर के सामने आ गया था; बड़ी कठिनाई से वह घर में घुसा। कमरे में आकर धम्म से बैठ गया।

लज्जावती ने घबराकर पूछा--तबीयत कैसी है?

जो कहा था वही हुआ।

क्या हुआ?

नौकरी छूट गई। साहब ने जवाब दे दिया।--कहते-कहते उसकी आँखें छलछला गईं।

विजय की दशा पर लज्जा को रुलाई आ गई। उसकी आँखें बरस पड़ीं। उन दोनों को रोते देखकर त्रिवेणी भी सिसकने लगी।

संध्या की मलिन छाया में तीनों बैठकर रोते थे।

इसके बाद शान्त होकर विजय ने अपनी आँखें पोंछीं; लज्जावती ने अपनी और त्रिवेणी की--

क्योंकि संसार में एक और बड़ी शक्ति है, जो इन सब शासन करनेवाली चीजों से कहीं ऊँची है--जिसके भरोसे बैठा हुआ मनुष्य आँख फाड़कर अपने भाग्य की रेखा को देखा करता है।

--विनोदशंकर व्यास
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