देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 

मूर्ति

 (कथा-कहानी) 
 
रचनाकार:

 खलील जिब्रान

दूर पर्वत की तलहटी में एक आदमी रहता था। उसके पास प्राचीन कलाकारों की बनाई हुई एक मूर्ति थी, जो उसके द्वार पर औंधी पड़ी रहती थी। उसे उसका कोई गुण मालूम न था।

एक दिन एक शहरी इधर आ निकला । वह एक पढ़ा-लिखा विद्वान् था। उसने उस मूर्ति को देखकर उसके मालिक से पूछा, "क्या आप इसे बेचेंगे?"

यह सुनकर वह हॅंस दिया और कहने लगा, "इस पत्थर को कोई क्यों मोल लेगा?"

शहरी बोला, "एक रुपया तो मैं लगाता हूँ।"

ग्रामीण इस सौदे पर चकित था। परन्तु उसे क्या? वह तो रुपये को अपनी गांठ में बांध चुका था। शहरी मूर्ति को हाथी की पीठ पर उठवाकर शहर में ले गया।

कई महीनों के पश्चात् वह ग्रामीण शहर गया, तो बाजार में फिरते-फिराते एक जगह भीड़ लगी देखकर वह भी वहां रुक गया।
एक आदमी ऊंची आवाज में पुकार रहा था, "आओ! एक अनूठी नवीनतम वस्तु देखो, यह एक अमूल्य मूर्ति है, जिसके जोड़ की मूर्ति दुनिया भर में कहीं न होगी। शिल्पकला के इस अद्वितीय नमूने को देखने के लिए केवल दो रुपए, केवल दो रुपए।"

ग्रामीण ने भी दो रुपए देकर उस निराली मूर्ति को देखने के लिए अन्दर प्रवेश किया, जिसे उसने स्वयं एक रुपए के बदले बेचा था।

- खलील जिब्रान

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