देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 

कछुआ

 (काव्य) 
 
रचनाकार:

 स्वरांगी साने

बचपन में कछुए को देखती
तो सोचती थी
क्या देखता होगा
इस तरह हाथ-पैर बाहर निकाल कर
खुले आकाश को
या उस दौड़ को
जिसमें जीता था
कभी उसका पुरखा।

समय के साथ जानने लगी
खतरा न हो तो ही
निकलता है कछुआ
खोल से बाहर।
फिर वो भी हो गई कछुआ
पड़ी रही एक कोने में
कि किसी की निगाह न जाए उस पर
आने-जाने वाले
उसे भी मान लें एक पत्थर।

एक दिन
जाने क्यों
उसे लगा
वो पूरी तरह सुरक्षित है
निकली वो बाहर
बहुत दिनों बाद देखा आसमान
जी भर के ली साँस।

तभी उसे सुनाई देने लगी
खतरों की आहटें
पर
जीने की लालसा में
वो भूल गयी
मरने का भय।

उसे हुआ था पहली बार अहसास
कछुआ नहीं
लड़की है वो
और तभी वो समझ गई यह भी
कि सुरक्षित नहीं है वो
फिर सिमट गई अपने खोल में।

- स्वरांगी साने
  ई-मेल: swaraangisane@gmail.com

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