अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

मृदुला गर्ग | Mridula Garg

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हम सताए, खीजे, उकताए, गड्ढों-खड्ढों, गंदे परनालों से बचते, दिल्ली की सड़क पर नीचे ज़्यादा, ऊपर कम देखते चले जा रहे थे, हर दिल्लीवासी की तरह, रह-रहकर सोचते कि हम इस नामुराद शहर में रहते क्यों हैं ? फिर करिश्मा ! एक नज़र सड़क से हट दाएँ क्या गई, ठगे रह गए। दाएँ रूख फलाँ-फलाँ राष्ट्रीय बैंक था। नाम के नीचे पट्ट पर लिखा था, यहाँ क्षण मिलता है। वाह ! बहिश्त उतर ज़मी पर आ लिया। यह कैसा बैंक है जो रोकड़ा लेने-देने के बदले क्षण यानी जीवन देता है? क्षण-क्षण करके दिन बनता है, दिन-दिन करके बरसों-बरस यानी ज़िंदगी। आह, किसी तरह एक क्षण और मिल जाए जीने को।

बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तप-जप कर माँगते रहे, एक क्षण फालतू न मिला। जो ईश्वर देने को राज़ी न हुआ, बैंक देता है, वह भी शहर दिल्ली में, जहाँ किसी को रोक, रास्ता पूछो तो यूँ भगा लेता है जैसे बम फटने वाला हो। फटता भी रहता है।

किस किस्म के क्षण देता होगा बैंक ? बचकाने, जवान या अधेड़ ? हम कैसे भी लेकर खुश थे। कितने तक देता होगा ? दस-बीस, सौ, हज़ार कितने ? जितने मिलें, हम लेने को तैयार थे। पर मुफ्त देने से रहा। दाम लेता होगा। फी क्षण कीमत बाहर लिखी नहीं थी। पर भला कीमत, वज़न, माप, सब दुकान के बाहर थोड़ा लिखा रहता है। जो जाएँ भीतर, पूछें, किस दर बेचते हो क्षण ?

मन में जितना उछाह था, उतना असमंजस। धड़ल्ले से जा घुसने से कतरा रहे थे। दिल काँप-काँप उठता है, सपना न हो कहीं। आँखें बंद कर लेते हैं और खोलने से कतराते हैं कि हरियाली, वीरानी या कचरे का ढेर न निकले।

अब भी आँखें बंद कर, दोबारा खोलीं। पट्ट पर वही लिखा दिखा। यहाँ क्षण मिलता है। हमने जेब टटोली। फिर क्षण के तसव्वुर में ऐसे खोए कि बीच सड़क ठाड़े, जेब के मुसे-तुसे नोट गिनने लगे। जितने खरीद पाएँगे, खरीद लेंगे। पैसे का क्या है, हाथ का मैल है। जुगाड़ बिठा, दोबारा हाथ गंदे कर लेंगे। दिल्ली शहर में मैल की क्या कमी ?

तभी पीछे से आकर तिपहिया, सीधा कमर से टकराया। हम दिल्ली की सड़क मानिंद, दुहरे-तिहरे मोड़ खा, वापस इकहरे हुए और काल्पनिक बहिश्त से निकल असलियत में आ लिए। कमर को हाथों से दबा, खतरनाक सड़क छोड़, बैंक की चौखट पर जा टिके। तसव्वुर में क्षण पाने का खयाल इस कदर दिलकश था कि उसे छोड़ हकीकत से रू-ब-रू होने से कतराते रहे। जन्नत बख्शते पट्ट के सामने इंची-भर जगह में खुदी को समाए, दम साधे उस मिल्कियत को मन ही मन भोगते रहे, जो क्षण-भर बाद हाथ में होनी थी। साथ ही क्षण के जितने पर्याय थे, उनका स्वाद भी चखते गए।

एक होता है, छोटे से छोटा क्षण। निमिष। उस नाम से बनारस में मिठाई भी मिला करती है। लब और ज़बान पर रहे निमिष-भर, जैसे दूध का बुलबुला। हम पता नहीं कितने पल, निमिष चखते खड़े रहते, अगर बैंक के दरवाज़े पर ख़ड़ा मुछंदर दरबान चीखकर हमें चौंका न देता, ‘‘एइ, इधर खड़ा-खड़ा क्या करता है, आगे बढ़ो।''

यह भी दिल्ली शहर की खासियत है। दरबान रखे जाते हैं, फूहड़ ज़बान में आने-जाने वालों को भिखमंदा मसूस करवा, चलता करने के लिए। क्षण पाने के खयाल से कुप्पा हुए हम, कमर सीधी कर अकड़ लिए। तमककर बोले, ‘‘बैंक के भीतर काम है, आगे क्यों जाएँ ?'' उसे कौन पता होनी थी, अपनी जेब की औकात कि बमुश्किल दो-चार क्षण खरीद पाएँ शायद।

‘‘तो घुसो भीतर, बाहर क्यों खड़े हो ?'' वह गरजा। इसे कहते हैं, चित्त भी तेरी, पट भी तेरी।

सुखद काल्पनिक क्षणों का भोग और ऊहापोह छोड़, आखिर हम बैंक के भीतर घुस गए। कई काउंटर दिखे। एक कोने से दूसरे कोने तक निगाह दौड़ाई। नकदी भुगतान, बचत खाता जमा, पासबुक आदि के काउंटर दीखे, पर क्षण का न दिखा।

सोचा, ठीक भी है। जैसे पूँजी निवेश करने या कर्ज़ लेने के लिए मैनेजर के हाथ में दरख्वास्त देनी होती है, वैसे ही क्षण प्राप्त करने के लिए, उस हस्ती के पास जाना होगा। आलतू-फालतू काउंटर पर थोड़ा ऐसी नायब वस्तु मिलेगी।

आदत न थी, इसलिए सकुचाते, झिझकते मैनेजर के कक्ष में दाखिल हुए। भीतर हुए तो मैनेजर मैनेजरी अदा से हमे घूरकर बोला, ‘‘येस ?''

हिकारत से सनी नज़र और अंग्रेज़ियत से सना ‘येस' क्या सुना, हम हिंदी भूल, क्षण का अंग्रेजी पर्याय तलाश उठे। बोले, ‘‘यहाँ मोमेंट मिलता है ?''

‘‘मोमेंट ?'' वह बोला, ‘‘ओ यू मीन मोमेंटो। येस, पंद्रह लाख डिपॉजिट होने से बैंक मोमेंटो देता है। आपका है ?''

‘‘मोमेंटो नहीं जी,'' पंद्रह लाख की रकम सुन हम गश खा गए, पर किसी तरह बाहोश रह, हकलाए, ‘‘मोमेंट। बाहर लिखा है, यहाँ क्षण मिलता है।''

‘‘ओ लोन,'' वह बोला, ‘‘ऐसा बोलो न। हाँ, लोन मिलता है, कौन-सा चाहिए काल लोन, होम लोन या पर्सनल लोन। सालाना इनकम, एज, प्रॉपर्टी कितनी ?''

‘‘रुकिए हुज़ूर, लोन नहीं, बाहर क्षण लिखा है।''

‘‘सरकारी रूलिंग है, हिंदी में लिखो, तो लिखना पड़ता है। उससे क्या ?''
‘‘पर क्षण क्यों लिखा है ?''

‘‘अरे बाबा, क्या फर्क पड़ता है। आपको जो कहना हो कहिए, लोन, क्षण, कर्ज, बात वही रहेगी। बतलाइए, कौन-सा लोन चाहिए...''

‘‘चुप !'' हम तमीज़-तहज़ीब भूल चीख दिए, ‘‘लोन को हिंदी में क्षण नहीं कहते।''
‘‘तो क्या कहते हैं ?''

‘‘ऋण।''

‘‘वही तो लिखा है, जो आप बोला रिन, शन, एज इन लोन।''

‘‘क्षण होता है मोमेंट, ऋण होता है लोन।''

‘‘क्या फर्क पड़ता है, सरकारी रूलिंग है, हिंदी में लिखो, तो लिख देते हैं। श हो या रि, है तो हिंदी न ? लेने वाले जो लेंगे, वह होगा लोन। अ रोज़ बाइ एनी अदर नेम वगैरह,'' कह वह आत्ममुग्ध मुस्कान मुस्कराया। फिर सख्त पड़ बोला, ‘‘आपको चाहिए तो कहिए वरना...दरबान !''

हम दरबान के आने से पहले ही गश खाकर गिर पड़े।

-मृदुला गर्ग


साभार - खेद नहीं है [ मृदुला गर्ग के कटाक्ष]
किताबघर प्रकाशन

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