देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
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Literature Under This Category
 
परिहासिनी  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की लघु हास्य-व्यंग्य से भरपूर - परिहासिनी।

 
भोला राम का जीव  - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

ऐसा कभी नहीं हुआ था।

 
न्यूज़ीलैंड के दो द्वीप  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

न्यूज़ीलैंड दो द्वीपों में बंटा है - उत्तरी द्वीप व दक्षिण द्वीप। एक द्वीप से दूसरे द्वीप जाने के लिए हवाई यात्रा करें या समुद्री यात्रा - दोनों के बीच समुद्र होने के कारण थल-मार्ग नहीं है।

 
न्यूज़ीलैंड की हिंदी पत्रकारिता | FAQ  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

न्यूज़ीलैंड हिंदी पत्रकारिता - बारम्बार पूछे  जाने वाले प्रश्न | FAQ 

 
साक्षात्कार | इनसे मिलिए  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

रोहित कुमार हैप्पी द्वारा विभिन्न व्यक्तित्वों से साक्षात्कारों का संकलन।

 
निर्मला | उपन्यास - भाग दो  - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand

भाग दो

 
निर्मला | उपन्यास - भाग तीन  - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand

भाग तीन

 
निर्मला | उपन्यास - भाग एक  - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand

 

 
अमेरिका में हिंदी सर्वाधिक बोले जाने वाली भारतीय भाषा  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

अमेरिका जनगणना ब्यूरो ने अमरीका में बोली जाने वाली सभी भाषाओं के आंकड़े जारी किए हैं।

 
निर्मला | उपन्यास - भाग दो  - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand

 

 
पर्दे के पीछे -5  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

भाग - 5

 
आपसी प्रेम एवं एकता का प्रतीक है होली  - डा. जगदीश गांधी

'होली' भारतीय समाज का एक प्रमुख त्यौहार
भारत संस्कृति में त्योहारों एवं उत्सवों का आदि काल से ही काफी महत्व रहा है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहाँ पर मनाये जाने वाले सभी त्यौहार समाज में मानवीय गुणों को स्थापित करके लोगों में प्रेम, एकता एवं सद्भावना को बढ़ाते हैं। भारत में त्योहारों एवं उत्सवों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है। यहाँ मनाये जाने वाले सभी त्योहारों के पीछे की भावना मानवीय गरिमा को समृद्धि प्रदान करना होता है। यही कारण है कि भारत में मनाये जाने वाले त्योहारों एवं उत्सवों में सभी धर्मों के लोग आदर के साथ मिलजुल कर मनाते हैं। होली भारतीय समाज का एक प्रमुख त्यौहार है, जिसकी लोग बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं।

 
लालबहादुर शास्त्री  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को मुगलसराय, उत्तर प्रदेश के एक सामान्य निम्नवर्गीय परिवार में हुआ था। आपका वास्तविक नाम लाल बहादुर श्रीवास्तव था। शास्त्री जी के पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव एक शिक्षक थे व बाद में उन्होंने भारत सरकार के राजस्व विभाग में क्लर्क के पद पर कार्य किया।

 
अपनी-अपनी बीमारी  - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

हम उनके पास चंदा माँगने गए थे। चंदे के पुराने अभ्यासी का चेहरा बोलता है। वे हमें भाँप गए। हम भी उन्हें भाँप गए। चंदा माँगनेवाले और देनेवाले एक-दूसरे के शरीर की गंध बखूबी पहचानते हैं। लेनेवाला गंध से जान लेता है कि यह देगा या नहीं। देनेवाला भी माँगनेवाले के शरीर की गंध से समझ लेता है कि यह बिना लिए टल जाएगा या नहीं। हमें बैठते ही समझ में आ गया कि ये नहीं देंगे। वे भी शायद समझ गए कि ये टल जाएँगे। फिर भी हम दोनों पक्षों को अपना कर्तव्य तो निभाना ही था। हमने प्रार्थना की तो वे बोले-आपको चंदे की पड़ी है, हम तो टैक्सों के मारे मर रहे हैं।

 
मीना कुमारी की शायरी  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

दायरा, बैजू बावरा, दो बीघा ज़मीन, परिणीता, साहब बीबी और गुलाम तथा पाक़ीज़ा जैसी सुपरहिट फिल्में देने वाली अभिनेत्री मीना कुमारी को उनके अभिनय के लिए जाना जाता है। मीना कुमारी ने दशकों तक अपने अभिनय का सिक्का जमाए रखा था। 'मीना कुमारी लिखती भी थीं' इस बात का पता मुझे 80 के दशक में शायद 'सारिका' पत्रिका के माध्यम से चला था।

 
जहां रावण पूजा जाता है  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

विजयादशमी पर भारतवर्ष में रावण के पुतले जलाने के प्रचलन से तो सभी परिचित हैं।  वहीं कुछ स्थान ऐसे भी हैं जहां रावण पूजनीय है। विदिशा से करीब 45 किमी दूर रावण गांव में  रावण की 12 फीट लंबी पत्थर की प्रतिमा स्थापित है और यहाँ सदियों से रावण की पूजा-अर्चना होती आ रही है। इस परंपरा का आज भी निर्वाह हो रहा है। दशहरे के अवसर पर तो आसपास के लोग भी इस गांव में आते हैैं। यहाँ रावण को 'रावण' संबोधित न कहकर 'रावण बाबा' पुकारा जाता है।

 
समाज के वास्तविक शिल्पकार होते हैं शिक्षक  - डा. जगदीश गांधी

सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन का जन्मदिवस 5 सितम्बर के अवसर पर विशेष लेख

 
शिक्षक एक न्यायपूर्ण राष्ट्र व विश्व के निर्माता हैं!  - डा. जगदीश गांधी

शिक्षक दिवस (5 सितम्बर) पर विशेष लेख


(1) सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन एवं शिक्षक दिवस:-

 
गांधी जी के बारे में कुछ तथ्य  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

गांधी जी के बारे में कुछ तथ्य:

  • 12 जनवरी 1918 को गांधी द्वारा लिखे एक पत्र में रबीन्द्रनाथ टैगोर को ‘‘गुरुदेव'' संबोधित किया गया था।
  • टैगोर ने 12 अप्रैल 1919 को लिखे अपने एक पत्र में पहली बार गांधी को ‘महात्मा' संबोधित किया था।
  • पहली बार नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने रेडियो सिंगापुर से 6 जुलाई, 1944 को प्रसारित अपने भाषण में राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया था। वैसे ऐसा भी कहा जाता है कि नेताजी ने इससे पहले भी आजाद हिंद रेडियो रंगून से प्रसारित अपने एक संदेश में 4 जून 1944 को गांधीजी को "देश के पिता" कहकर संबोधित किया था।
  • गांधीजी के मृत्यु पर पंडित नेहरु जी ने रेडियो द्वारा राष्ट्र को संबोधित किया और कहा "राष्ट्रपिता अब नहीं रहे"।
 

 
वैलेन्टाइन दिवस  - डा. जगदीश गांधी

संत वैलेन्टाइन को सच्ची श्रद्धाजंली देने के लिए 14 फरवरी
‘वैलेन्टाइन दिवस' को ‘पारिवारिक एकता दिवस' के रूप में मनायें!

 
क्या महात्मा गांधी ने भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों को बचाने का प्रयास किया था?  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

क्या महात्मा गांधी ने भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों को बचाने का प्रयास किया था? उपरोक्त प्रश्न प्राय: समय-समय पर उठता रहा है। बहुत से लोगों का आक्रोश रहता है कि गांधी ने भगत सिंह को बचाने का प्रयास नहीं किया।

 
गांधीजी के जीवन के विशेष घटनाक्रम  - महात्मा गांधी

(2 अक्तूबर, 1869 - 30 जनवरी, 1948)

 
The Collected Work of Mahatma Gandhi - Vol 45 - Page 333  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

The Collected Works of Mahatma Gandhi 
Vol 45 - Page 333

 
गाँधीवाद तो अमर है - डा अरूण गाँधी  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

Rohit Kumar with Dr Arun Gandhi

 
गाँधी राष्ट्र-पिता...?  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

कुछ समय से यह मुद्दा बड़ा चर्चा में है, 'गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि किसने दी?

 
बच्चों को ‘विश्व बंधुत्व’ की शिक्षा  - डा. जगदीश गांधी

(1) विश्व में वास्तविक शांति की स्थापना के लिए बच्चे ही सबसे सशक्त माध्यम:-

 
नेक बर्ताव  - शिवपूजन सहाय

यह समझाने की जरूरत नहीं है कि भले बर्ताव से पराया भी अपना सगा बन जाता है और बुरे बर्ताव से अपना सगा भी पराया और दुश्मन बन जाता है। यह सब लोग जानते हैं कि चिड़िया और जानवर भी अपने हमदर्दो को पहचानते हैं, आदमी की तो कोई बात ही नहीं। सरकसों में तो बड़े-बड़े डरावने जानवर भी प्यार और पुचकार से अजीब करामात कर दिखाते हैं।

 
ठिठुरता हुआ गणतंत्र  - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

चार बार मैं गणतंत्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र-समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूँदाबाँदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डॉलर, पौंड, रुपया, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा-कोष या भारत सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं।

 
हिन्दी भाषा की समृद्धता  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

यदि हिन्दी अदालती भाषा हो जाए, तो सम्मन पढ़वाने के लिए दो-चार आने कौन देगा, और साधारण-सी अर्जी लिखवाने के लिए कोई रुपया-आठ आने क्यों देगा। तब पढ़ने वाले को यह अवसर कहाँ मिलेगा कि गवाही के सम्मन को गिरफ्तारी का वारण्ट बता दें।

 
पहले हम खुद ईमानदार बनें  - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik

दिल्ली सरकार बधाई की पात्र है कि उसने नागरिक अधिकार क़ानून को अब पहले से भी अधिक मजबूत बना दिया है। अब दिल्लीवासियों को 96 प्रकार के सरकारी कामों को निश्चित समय में पूरा करके दिया जाएगा। दिल्ली सरकार के 22 विभागों में फैली इन 96 प्रकार की सेवाओं से लाखों दिल्लीवासियों का रोज पाला पड़ता है। हर दिल्लीवासी की हैसियत ऐसी नहीं कि वह मुख्यमंत्री, मंत्री या सांसद-विधायक तक पहुंच सके। सरकारी कर्मचारी जान-बूझकर मामलों को लटकाए रखते हैं। आम आदमी रिश्वत देने को मजबूर हो जाता है। उसके सही काम भी सही समय पर नहीं होते। अब प्रावधान यह है कि अमुक काम अमुक समय में पूरा करके नागरिकों को देना होगा। यदि कर्मचारी उसे पूरा नहीं करेंगे तो उनके वेतन में से प्रतिदिन के हिसाब से कुछ न कुछ राशि काट ली जाएगी। 10-20 रू की राशि बहुत छोटी मालूम पड़ती है लेकिन वेतन-कटौती अपने आप में बड़ी सज़ा है। वह कर्मचारी के आचरण पर कलंक की तरह चिपक जाएगी। आशा की जानी चाहिए कि इस प्रावधान से आम लोगों को काफी राहत मिलेगी।

लेकिन जब तक नागरिक लोग खुद पहल नहीं करेंगे, सरकार के इस कदम का कोई ठोस लाभ उन्हें नहीं मिलेगा। अपनी अर्जीयों के साथ वे यदि समयबद्धता की शर्त दर्ज नहीं कराएंगे तो कुछ भी नहीं होगा। उन्हें दृढ़ता दिखानी होगी। रिश्वतख़ोर और आलसी कर्मचारियों के विरूद्ध उनको काररवाई करनी होगी। तभी ठोस नतीजे सामने आएंगे। पिछले दो सौ साल से मौज-मस्ती छान रही नौकरशाही सिर्फ नियम-क़ायदों से पटरी पर नहीं आने वाली है। जनता को उसे अपना नौकर मानकर उसके साथ सख्ती से पेश आना होगा। इसके लिए यह भी जरूरी है कि लोग अपने आप को साफ-सुथरा रखें। गलत काम न करें। यदि जनता सही रास्ते पर चलेगी तो ही वह अफसरों से काम ले सकेगी। वरना समयावधि तय होने के बावजूद रिश्वत चलती रहेगी। हमारे अफसरों को बेईमानी की लत इसीलिए पड़ी है कि हमारे लोग पूरी तरह ईमानदार नहीं हैं। जरूरी है कि पहले हम खुद ईमानदार बनें।

फरवरी 2012

- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

 
जनता की सरकार  - जगन्नाथ प्रसाद चौबे वनमाली

एक तिनका सड़क के किनारे पड़ा हुआ दो आदमियों की बातचीत सुन रहा था।

 
यहाँ क्षण मिलता है  - मृदुला गर्ग | Mridula Garg

हम सताए, खीजे, उकताए, गड्ढों-खड्ढों, गंदे परनालों से बचते, दिल्ली की सड़क पर नीचे ज़्यादा, ऊपर कम देखते चले जा रहे थे, हर दिल्लीवासी की तरह, रह-रहकर सोचते कि हम इस नामुराद शहर में रहते क्यों हैं ? फिर करिश्मा ! एक नज़र सड़क से हट दाएँ क्या गई, ठगे रह गए। दाएँ रूख फलाँ-फलाँ राष्ट्रीय बैंक था। नाम के नीचे पट्ट पर लिखा था, यहाँ क्षण मिलता है। वाह ! बहिश्त उतर ज़मी पर आ लिया। यह कैसा बैंक है जो रोकड़ा लेने-देने के बदले क्षण यानी जीवन देता है? क्षण-क्षण करके दिन बनता है, दिन-दिन करके बरसों-बरस यानी ज़िंदगी। आह, किसी तरह एक क्षण और मिल जाए जीने को।

 
अगली सदी का शोधपत्र  - सूर्यबाला | Suryabala

एक समय की बात है, हिन्दुस्तान में एक भाषा हुआ करे थी। उसका नाम था हिंदी। हिन्दुस्तान के लोग उस भाषा को दिलोजान से प्यार करते थे। बहुत सँभालकर रखते थे। कभी भूलकर भी उसका इस्तेमाल बोलचाल या लिखने-पढ़ने में नहीं करते थे। सिर्फ कुछ विशेष अवसरों पर ही वह लिखी-पढ़ी या बोली जाती थी। यहाँ तक कि साल में एक दिन, हफ्ता या पखवारा तय कर दिया जाता था। अपनी-अपनी फुरसत के हिसाब से और सबको खबर कर दी जाती थी कि इस दिन इतने बजकर इतने मिनट पर हिंदी पढ़ी-बोली और सुनी-समझी (?) जाएगी। निश्चित दिन, निश्चित समय पर बड़े सम्मान से हिंदी झाड़-पोंछकर तहखाने से निकाली जाती थी और सबको बोलकर सुनाई जाती थी।

 
न्यूजीलैंड : जहाँ सबसे पहले मनता है नया-वर्ष  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

अंतर्राष्ट्रीय दिनांक रेखा के करीब अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण, न्यूजीलैंड नए साल का स्वागत करने वाले दुनिया के पहले देशों में से एक है। अंत: न्यूजीलैंड में नया वर्ष दूसरे देशों से पहले मनाया जाता है। न्यूजीलैंड में नव-वर्ष और उससे अगले दिन सार्वजनिक अवकाश रहता है।

 
गिर जाये मतभेद की हर दीवार ‘होली’ में!  - डा. जगदीश गांधी

 

 
प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन, नागपुर, भारत  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

पहला विश्व हिंदी सम्मेलन 10-12 जनवरी, 1975 को नागपुर, भारत में आयोजित किया गया था।

• संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए।
• वर्धा में विश्व हिंदी विद्यापीठ की स्थापना हो।
• विश्व हिंदी सम्मेलनों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए ठोस योजना बनाई जाए।

 
स्वामी रामदेव  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

स्वामी रामदेव से भारत-दर्शन के संपादक रोहित कुमार 'हैप्पी' से हुई बातचीत के मुख्य अंशः

 
आज कबीर जी जैसे युग प्रवर्तक की आवश्यकता है  - डा. जगदीश गांधी

(1) आज कबीर जी जैसे युग प्रवर्तक की आवश्यकता है -

आज समाज, देश और विश्व के देशों में बढ़ती हुई भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी, स्वार्थलोलुपता, अनेकता आदि समस्याओं से सारी मानवजाति चिंतित है। वास्तव में ये ऐसी मूलभूत समस्यायें हैं जिनसे निकल कर ही हत्या, लूट, मार-काट, आतंकवाद, धार्मिक विद्वेष, युद्धों की विभीषिका आदि समस्याओं ने जन्म लिया है। इस प्रकार आज इन समस्याओं ने पूरे विश्व की मानवजाति को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। ऐसी भयावह परिस्थिति में समाज को सही राह दिखाने के लिए आज कबीर दास जी जैसे युग प्रवर्तक की आवश्यकता है। कबीरदास जी ने समाज में व्याप्त भेदभाव को समाप्त करने पर बल देते हुए कहा था कि ‘‘वही महादेव वही मुहम्मद ब्रह्मा आदम कहिए। कोई हिंदू कोई तुर्क कहांव एक जमीं पर रहिए।'' कबीरदास जी एक महान समाज सुधारक थे। उन्होंने अपने युग में व्याप्त सामाजिक अंधविश्वासों, कुरीतियों और रूढ़िवादिता का विरोध किया। उनका उद्देश्य विषमताग्रस्त समाज में जागृति पैदा कर लोगों को भक्ति का नया मार्ग दिखाना था, जिसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए। कबीर दास जी ने कहा था कि ‘‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो हितय ढूंढो आपनो, मुझसा बुरा न कोय।।''


(2) मनुष्य जीवन तो अनमोल है -


कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य जीवन तो अनमोल है इसलिए हमें अपने मानव जीवन को भोग-विलास में व्यतीत नहीं करना चाहिए बल्कि हमें अपने अच्छे कर्मों के द्वारा अपने जीवन को उद्देश्यमय बनाना चाहिए। कबीर दास जी कहते हैं कि ‘‘रात गंवाई सोय कर, दिवस गवायों खाय। हीरा जनम अनमोल था, कौड़ी बदले जाये।। अर्थात् मानव जीवन तो अनमोल होता है किन्तु मनुष्य ने सारी रात तो सोने में गंवा दी और सारा दिन खाने-पीने में बिता दिया। इस प्रकार अज्ञानता में मनुष्य अपने अनमोल जीवन को भोग-विलास में गंवा कर कौड़ी के भाव खत्म कर लेता है। कबीर दास जी कहते हैं कि ‘‘पानी मेरा बुदबुदा, इस मानुष की जात। देखत ही छिप जायेंगे, ज्यौं तारा परभात।।'' अर्थात् मनुष्य का जीवन पानी के बुलबुले के समान है, जो थोड़ी सी हवा लगते ही फूट जाता है। जैसे सुबह होते ही रात में निकलने वाले तारे छिप जाते हैं, वैसे ही मृत्यु के आगमन पर परमात्मा द्वारा दिया गया यह जीवन समाप्त हो जाता है। इसलिए हमें अपने मानव जीवन के उद्देश्य को जानकर उनको पूरा करने का हरसंभव प्रयत्न करना चाहिए।

 

(3) इस नश्वर शरीर को एक दिन मिट्टी में ही मिल जाना है -


आज भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्'' का मूल मंत्र संसार से लुप्त होता जा रहा है। कहीं हिंदू, कहीं मुसलमान, कहीं ईसाई, कहीं पारसी और न जाने कितनी कौमों के लबादे ओढ़े आदमी की शक्ल के लाखों, करोड़ों लोगों की भीड़ दिखाई दे रही है। गौर से देखने पर ऐसा लगता है कि जैसे इस भीड़ में आदमी तो नजर आ रहे हैं पर आदमियत कहीं खो गई है। शक्ल सूरत तो इंसान जैसी है, मगर कारनामे शैतान जैसे होते जा रहे हैं, जबकि मानव शरीर तो नश्वर है इसे एक न एक दिन मिट्टी में मिल ही जाना है। इसलिए हमें अपने शरीर पर कभी अभिमान नहीं करना चाहिए। कबीर दास जी कहते हैं कि ‘‘माटी कहै कुम्हार को, क्या तू रौंदे मोहि। एक दिन ऐसा होयगा, मैं रौंदूंगी तोहि।'' अर्थात् मिट्टी कुम्हार से कहती है कि समय परिवर्तनशील है और एक दिन ऐसा भी आयेगा जब तेरी मृत्यु के पश्चात् मैं तुझे रौंदूगी। इसलिए हमें परमपिता परमात्मा द्वारा दिये गये शरीर पर अभिमान न करते हुए इस जगत् में रहते हुए मानव हित का अधिक से अधिक काम करना चाहिए।

 

(4) आजीवन भेदभाव रहित समाज की स्थापना के लिए प्रयासरत् रहें -


कबीर तो सच्चे अर्थों में मानवतावादी थे। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के बीच मानवता का सेतु बांधा। जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। कबीरदास ने हिन्दू-मुसलमान का भेद मिटाकर हिन्दू भक्तों तथा मुसलमान फकीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयांगम कर लिया। कबीरदास जी एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। वे भेदभाव रहित समाज की स्थापनाा करना चाहते थे। उन्होंने ब्रह्म के निराकार रूप में विश्वास प्रकट किया। वे हर स्तर पर सामाजिक विसंगतियों के विरूद्ध लड़ते रहे और सभी धर्मों के खिलाफ बोलते भी रहे। जैसे उन्होंने मूर्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए कहा कि ‘‘पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजौं पहार। या ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।।'' इसी प्रकार उन्होंने मुसलमानों से कहा- ‘‘कंकड़ पत्थर जोरि के, मस्जिद लयी बनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।''


(5) सभी धर्मों का लक्ष्य एक ही है -


एकेश्वरवाद के समर्थक कबीरदास जी का मानना था कि ईश्वर एक है। उन्होंने व्यंग्यात्मक दोहों और सीधे-सादे शब्दों में अपने विचार को व्यक्त किया। फलतः बड़ी संख्या में सभी धर्म एवं जाति के लोग उनके अनुयायी हुए। संत कबीर का कहना था कि सभी धर्मों का लक्ष्य एक ही है। सिर्फ उनके कर्मकांड अलग-अलग होते हैं। उनका कहना था कि ‘‘माला फेरत जुग गया, मिटा न मनका फेर। कर का मनका डारि के, मन का मनका फेर।'' अर्थात् मनुष्य ईश्वर को पाने की चाह में माला के मोती को फिरता रहता है परन्तु इससे उसके मन का दोष दूर नहीं होता है। कबीर जी कहते हैं कि हमें हाथ की माला को छोड़ देना चाहिए क्योंकि इससे हमें कोई लाभ नहीं होने वाला है। हमें तो केवल अपने मन को एकाग्र करके भीतर की बुराइयों को दूर करना चाहिए। कबीर दास जी का कहना है कि ‘‘मन मक्का दिल द्वारिका, काया काशी जान। दस द्वारे का देहरा, तामें जोति पिछान।'' अर्थात् यह पवित्र मन ही मक्का, हृदय द्वारिका और सम्पूर्ण शरीर ही काशी है।


(6) काल करे जो आज कर, आज करे सो अब -


मानव आलस्य के कारण आज का काम कल पर टालने का प्रयास करता है। कबीर दास जी कहते हैं कि हमें आज का काम कल पर न टाल कर उसे तुरन्त पूरा कर लेना चाहिए। कबीर जी काम को टालते रहने की आदत के बहुत विरोधी थे। वे इस तथ्य को जानते थे कि मनुष्य का जीवन छोटा होता है जबकि उसे ढेर सारे कामों को इसी जीवन में रहते हुए करना है। आज से छः सौ वर्ष पूर्व भी समय के सदुपयोग के महत्व को समझते हुए कबीर दास जी ने कहा कि ‘‘काल करे जो आज कर, आज करे सो अब। पल में परलय होयगी, बहुरी करोगे कब।'' इस दोहे में कबीर जी ने समय के महत्व को थोड़े शब्दों में ही समझा दिया है। उनका कहना था कि मनुष्य जीवन की उपयोग की बात तो करते हैं किन्तु उन क्षणों एवं समय पर, जो कि जीवन की इकाई है, कोई ध्यान नहीं देते हैं। इस प्रकार समय को गवांकर वास्तव में हम अपने अनमोल जीवन को गंवाने का काम करते हैं। आज मानव जीवन में पाये जाने वाले तनाव का भी सबसे बड़ा कारण ‘समय का दुरुपयोग' ही है। जब हम किसी काम को तुरन्त न करके आगे के लिए टाल देते हैं तो यही काम हमें बहुधा आपात स्थिति में ला देता है, जिससे मनुष्य में तनाव की समस्या उत्पन्न हो जाती है।


(7) कबीर दास जी एक सच्चे विश्व-प्रेमी -

कबीरदास जी जिस युग में आये वह युग भारतीय इतिहास में आधुनिकता के उदय का समय था। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और उसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है। लोककल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर दास जी एक सच्चे विश्व-प्रेमी थे। कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि साधना के क्षेत्र में वे युग-युग के गुरू थे, उन्होंने संत काव्य का पथ प्रदर्शन कर क्षेत्र में नव-निर्माण किया था। कबीरदास जी अपने जीवन में प्राप्त की गयी स्वयं की अनुभूतियों को ही काव्यरूप में ढाल देते थे। उनका स्वयं का कहना था ‘‘मैं कहता आंखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी।'' इस प्रकार उनके काव्य का आधार स्वानुभूति या यर्थाथ ही है। इसलिए अब वह समय आ गया है जबकि हम वर्तमान समाज में व्याप्त धर्म, जाति, रंग एवं देश के आधार पर बढ़ते हुए भेदभाव जैसी बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेकें और संसार की समस्त मानवजाति में इंसानियत एवं मानवता की स्थापना के लिए कार्य करें।

- डा. जगदीश गांधी, प्रख्यात शिक्षाविद् एवं
संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ

 
अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस (21 जून)  - डा. जगदीश गांधी

स्कूलों में बच्चों को ‘यौन शिक्षा' के स्थान पर ‘योग' एवं ‘आध्यात्म' की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाये!

-डॉ. जगदीश गाँधी

(1) 21 जून ‘अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस' के रूप में घोषित:-

27 सितंबर, 2014 को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में प्रस्ताव पेश किया था कि संयुक्त राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की शुरुआत करनी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने पहले भाषण में मोदी ने कहा था कि ‘‘भारत के लिए प्रकृति का सम्मान अध्यात्म का अनिवार्य हिस्सा है। भारतीय प्रकृति को पवित्र मानते हैं।'' उन्होंने कहा था कि ‘‘योग हमारी प्राचीन परंपरा का अमूल्य उपहार है।'' यूएन में प्रस्ताव रखते वक्त मोदी ने योग की अहमियत बताते हुए कहा था, ‘‘योग मन और शरीर को, विचार और काम को, बाधा और सिद्धि को ठोस आकार देता है। यह व्यक्ति और प्रकृति के बीच तालमेल बनाता है। यह स्वास्थ्य को अखंड स्वरूप देता है। इसमें केवल व्यायाम नहीं है, बल्कि यह प्रकृति और मनुष्य के बीच की कड़ी है। यह जलवायु परिवर्ततन से लड़ने में हमारी मदद करता है।'' संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 जून, 2014 को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने को मंजूरी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव के मात्र तीन महीने के अंदर दे दी। इसी के साथ भारत की सेहत से भरपूर प्राचीन विद्या योग को वैश्विक मान्यता मिल गई थी। भारत में वैदिक काल से मौजूद योग विद्या एक जीवन शैली है जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने नया मुकाम दिलाया।

(2) प्रस्ताव रिकार्ड समय और समर्थन से पारित :-

संयुक्त राष्ट्र महासभा के 69वें सत्र में इस आशय के प्रस्ताव को लगभग सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया था। भारत के साथ रिकार्ड 177 सदस्य देश न केवल इस प्रस्ताव के समर्थक बने बल्कि इसके सह-प्रस्तावक भी बने। इस मौके पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा था कि, ‘‘इस क्रिया से शांति और विकास में योगदान मिल सकता है। यह मनुष्य को तनाव से राहत दिलाता है।'' बान की मून ने सदस्य देशों से अपील की कि वे योग को प्रोत्साहित करने में मदद करें। यहाँ उल्लेखनीय है कि भारत में इससे पहले 2011 में हुए एक योग सम्मेलन में 21 जून को विश्व योग दिवस के तौर पर घोषित किया गया था। इस दिन को इसलिए चुना गया क्योंकि 21 जून साल का सबसे लंबा दिन होता है और समझा जाता है कि इस दिन सूरज, रोशनी और प्रकृति का धरती से विशेष संबंध होता है। इस दिन को किसी व्यक्ति विशेष को ध्यान में रख कर नहीं, बल्कि प्रकृति को ध्यान में रख कर चुना गया है। संयुक्त राष्ट्र में भारत के लिए पिछले सात सालों में यह इस तरह का दूसरा सम्मान है। इससे पहले यूपीए सरकार की पहल पर 2007 में संयुक्त राष्ट्र ने महात्मा गांधी के जन्मदिन यानि 2 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के तौर पर घोषित किया था।

 
कौनसा हिंदी सम्मेलन?  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

आजकल दो हिंदी सम्मेलनों का आयोजन होता है। एक है विश्व हिंदी सम्मेलन (World Hindi Conference) और दूसरा है अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन (International Hindi Conference)।

अब आप कहेंगे भई, यह दो सम्मेलनों का औचित्य क्या है? यह तो भ्रामक है! आइए, इनके बारे में और अधिक जानकारी ले लें।

 
जीवन सार  - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand

मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं गढ़े तो हैं, पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खण्डहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें तो यहाँ निराशा ही होगी। मेरा जन्म सम्वत् १९६७ में हुआ। पिता डाकखाने में क्लर्क थे, माता मरीज। एक बड़ी बहिन भी थी। उस समय पिताजी शायद २० रुपये पाते थे। ४० रुपये तक पहुँचते-पहुँचते उनकी मृत्यु हो गयी। यों वह बड़े ही विचारशील, जीवन-पथ पर आँखें खोलकर चलने वाले आदमी थे; लेकिन आखिरी दिनों में एक ठोकर खा ही गये और खुद तो गिरे ही थे, उसी धक्के में मुझे भी गिरा दिया। पन्द्रह साल की अवस्था में उन्होंने मेरा विवाह कर दिया और विवाह करने के साल ही भर बाद परलोक सिधारे। उस समय मैं नवें दरजे में पढ़ता था। घर में मेरी स्त्री थी, विमाता थी, उनके दो बालक थे, और आमदनी एक पैसे की नहीं। घर में जो कुछ लेई-पूँजी थी, वह पिताजी की छ: महीने की बीमारी और क्रिया-कर्म में खर्च हो चुकी थी। और मुझे अरमान था, वकील बनने का और एम०ए० पास करने का। नौकरी उस जमाने में भी इतनी ही दुष्प्राप्य थी, जितनी अब है। दौड़-धूप करके शायद दस-बारह की कोई जगह पा जाता; पर यहाँ तो आगे पढ़ने की धुन थी-पाँव में लोहे की नहीं अष्टधातु की बेडिय़ाँ थीं और मैं चढऩा चाहता था पहाड़ पर!

 
प्रेमचंद के आलेख व निबंध  - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand

प्रेमचंद के साहित्य व भाषा संबंधित निबंध व भाषण 'कुछ विचार' नामक संग्रह में संकलित हैं। इसके अतिरिक्त 'साहित्य' का उद्देश्य में प्रेमचंद की अधिकांश सम्पादकीय टिप्पणियां संकलित हैं।

 
प्रेमचंद ने कहा था  - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand

  • बनी हुई बात को निभाना मुश्किल नहीं है, बिगड़ी हुई बात को बनाना मुश्किल है। [रंगभूमि]
  • क्रिया के पश्चात् प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है। [ मानसरोवर - सवासेर गेहूँ]
  • रूखी रोटियाँ चाँदी के थाल में भी परोसी जायें तो वे पूरियाँ न हो जायेंगी। [सेवासदन]
  • कड़वी दवा को ख़रीद कर लाने, उनका काढ़ा बनाने और उसे उठाकर पीने में बड़ा अन्तर है। [सेवासदन]
  • चोर को पकड़ने के लिए विरले ही निकलते हैं, पकड़े गए चोर पर पंचलत्तिया़ जमाने के लिए सभी पहुँच जाते हैं। [रंगभूमि]
  • जिनके लिए अपनी ज़िन्दगानी ख़राब कर दो, वे भी गाढ़े समय पर मुँह फेर लेते हैं। [रंगभूमि]
  • मुलम्मे की जरूरत सोने को नहीं होती। [कायाकल्प]
  • सूरज जलता भी है, रोशनी भी देता है। [कायाकल्प]
  • सीधे का मुँह कुत्ता चाटता है। [कायाकल्प]
  • उत्सव आपस में प्रीति बढ़ाने के लिए मनाए जाते है। जब प्रीति के बदले द्वेष बढ़े, तो उनका न मनाना ही अच्छा है। [कायाकल्प]
  • पारस को छूकर लोहा सोना होे जाता है, पारस लोहा नहीं हो सकता। [ मानसरोवर - मंदिर]
  • बिना तप के सिद्धि नहीं मिलती। [मानसरोवर - बहिष्कार]
  • अपने रोने से छुट्टी ही नहीं मिलती, दूसरों के लिए कोई क्योकर रोये? [मानसरोवर -जेल]
  • मर्द लज्जित करता है तो हमें क्रोध आता है। स्त्रियाँ लज्जित करती हैं तो ग्लानि उत्पन्न होती है। [मानसरोवर - जलूस]
  • अगर माँस खाना अच्छा समझते हो तो खुलकर खाओ। बुरा समझते हो तो मत खाओ; लेकिन अच्छा समझना और छिपकर खाना यह मेरी समझ में नहीं आता। मैं तो इसे कायरता भी कहता हूँ और धूर्तता भी, जो वास्तव में एक है।
 
भोपाल  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

भोपाल की स्थापना परमार राजा भोज ने की थी। राजा भोज ने 1010 से 1055 तक मालवा पर शासन किया था। उन्होंने भोजपाल की स्थापना की जिसे कालान्तर में 'भोपाल' के नाम से जाना जाता है।

 
कुछ मीठे, कुछ खट्टे अनुभव : 10वां विश्व हिंदी सम्मेलन  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

विश्व हिंदी सम्मेलन भव्य था। इसकी सराहना भी हुई, विरोध भी, आलोचना भी और जैसा कि होता आया है यह विवादों से परे भी नहीं था।

 
विश्व हिंदी सम्मेलन : आदि से अंत  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन 10-12 सितंबर 2015 तक भोपाल में आयोजित किया गया। यह सम्मेलन 32 वर्ष पश्चात् भारत में आयोजित किया गया था।

 
हमारी इंटरनेट और न्यू मीडिया समझ  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

हमारी इंटरनेट और न्यू मीडिया समझ पर संकलित आलेख।

 
हमारे हिंदी पत्र समूहों की इंटरनेट समझ  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

दैनिक भास्कर (जून 16, 2015) में एक समाचार प्रकाशित हुआ, "EXCLUSIVE: भारत की साख पर GOOGLE का 'फन'

पहली बात तो यह है कि शीर्षक में जो 'अंग्रेज़ी-हिंदी' की खिचड़ी पकाई है वह किस तरह की भाषा के स्तर का प्रतिनिधित्व करती है? क्या हिंदी शब्दकोश इतना दिवालिया हो गया है कि दैनिक भास्कर वाले एक शीर्षक हिंदी में ठीक तरह नहीं लिख सकते?

आगे लिखा है, "गूगल पर इंडिया सर्च करते ही फटी साड़ी में कोई महिला दिखाई देगी, रोता-बिलखता कोई बुजुर्ग प्रकट होगा। क्या भारत या हिंदुस्तान की छवि ये है? आखिर गूगल हमारी छवि इस तरह खराब क्यों कर रहा है?" 

समाचार भ्रामक और हास्यास्पद है।

यह जानने की आवश्यकता है कि सर्च इंजन कैसे काम करते हैं!  गूगल छायाचित्र अपलोड नहीं करता लोग करते हैं। आप जिस भी छायाचित्र की बात कर रहे हैं उसपर अपना 'माउस ओवर' करते ही आप उस वेब साइट का पता देख सकते हैं। वे सब ब्लाग व अन्य वेब पृष्ठों से आए हैं न कि गूगल से। थोड़ी सी जानकारी रखने वाला यह बात जानता है। आपका आलेख भ्रमित कर रहा है।

इन छाया चित्रों में गलत क्या दिखाया गया है? क्या यह वास्तविकता नहीं है?  क्या दैनिक भास्कर ने बस-रेलगाड़ी की ऐसी हालत नहीं देखी? आप सामान्य बस से गांव-देहात में जाकर देखिए। आप समस्या के निदान के स्थान पर कैमरे की आँख फोड़ने का सुझाव दे रहे हैं?

दैनिक भास्कर लिखता है, "मामले को dainikbhaskar.com के 10 हजार रीडर्स ने कमेंट कर मांग की है कि सरकार या तो पूरी दुनिया से ये आपत्तिजनक हटवाए या गूगल को देश में बैन कर दे।"

क्या 10 हज़ार प्रतिक्रियाओं में किसी ने भी आपको यह नहीं बताया कि गूगल की इस सारे प्रकरण में कोई भूमिका नहीं है।

दैनिक भास्कर का वक्तव्य यह प्रमाणित करता है कि किस तरह भोली-भाली जनता तथ्यों को जाने बिना मीडिया से सहमत जाती है। जनता भोली है और  पत्रकार अनभिज्ञ!

सभी विकसित देशों में किसी भी समाचार के दो संस्करणों (प्रिंट और डिजिटल/ऑनलाइन) का संपादक व पत्रकार दो भिन्न दल होते हैं। ऑनलाइन समाचार लेखन वाले पत्रकार पत्रकारिता के अतिरिक्त इंटरनेट इंवेस्टिगेशन, ग्राफिक्स, मल्टीमीडिया, सर्च इंजिन की बेहतर समझ रखने वाले होते हैं लेकिन हमारे 'हिंदी समाचारपत्रों व पत्रकारों' में ऐसा प्रदर्शन/समझ दिखाई नहीं पड़ती।

 
जाने भी दो....चाँद में भी दाग होता है  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

कौन मेक्ग्रेगर, कौन वरान्निकोव?

 
भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

आज बड़े आनंद का दिन है कि छोटे से नगर बलिया में हम इतने मनुष्यों को एक बड़े उत्साह से एक स्थान पर देखते हैं। इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाए वही बहुत है। बनारस ऐसे-ऐसे बड़े नगरों में जब कुछ नहीं होता तो हम यह न कहेंगे कि बलिया में जो कुछ हमने देखा वह बहुत ही प्रशंसा के योग्य है। इस उत्साह का मूल कारण जो हमने खोजा तो प्रगट हो गया कि इस देश के भाग्य से आजकल यहाँ सारा समाज ही एकत्र है। राबर्ट साहब बहादुर ऐसे कलेक्टर जहाँ हो वहाँ क्यों न ऐसा समाज हो। जिस देश और काल में ईश्वर ने अकबर को उत्पन्न किया था उसी में अबुलफजल, बीरबल,टोडरमल को भी उत्पन्न किया। यहाँ राबर्ट साहब अकबर हैं जो मुंशी चतुर्भुज सहाय, मुंशी बिहारीलाल साहब आदि अबुलफजल और टोडरमल हैं। हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी है। यद्यपि फर्स्ट क्लास, सैकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी है पर बिना इंजिन सब नहीं चल सकती वैसी ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह दीजिए 'का चुप साधि रहा बलवाना' फिर देखिए हनुमानजी को अपना बल कैसा याद आता है। सो बल कौन याद दिलावे। हिंदुस्तानी राजे-महाराजे, नवाब, रईस या हाकिम। राजे-महाराजों को अपनी पूजा, भोजन, झूठी गप से छुट्टी नहीं। हाकिमों को कुछ तो सरकारी काम घेरे रहता है कुछ बाल-घुड़दौड़, थियेटर में समय लगा। कुछ समय बचा भी तो उनको क्या गरह है कि हम गरीब, गंदे, काले आदमियों से मिल कर अपना अनमोल समय खोवें। बस यही मसल रही -

 
कहानी कला - 2 | आलेख  - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand

एक आलोचक ने लिखा है कि इतिहास में सब कुछ यथार्थ होते हुए भी वह असत्य है, और कथा-साहित्य में सब कुछ काल्पनिक होते हुए भी वह सत्य है। 

 
स्वामी विवेकानन्द का विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में दिया गया भाषण  - स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। विवेकानंद का जब भी जि़क्र आता है उनके इस भाषण की चर्चा जरूर होती है। पढ़ें विवेकानंद का यह भाषण...

 
स्वामी विवेकानन्द के अनमोल वचन  - स्वामी विवेकानंद

  • "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।" अर्थात् उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत।
  • मैं सिर्फ और सिर्फ प्रेम की शिक्षा देता हूं और मेरी सारी शिक्षा वेदों के उन महान सत्यों पर आधारित है जो हमें समानता और आत्मा की सर्वत्रता का ज्ञान देती है।
  • सफलता के तीन आवश्यक अंग हैं-शुद्धता,धैर्य और दृढ़ता। लेकिन, इन सबसे बढ़कर जो आवश्यक है वह है प्रेम।
  • हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जिससे चरित्र निर्माण हो। मानसिक शक्ति का विकास हो। ज्ञान का विस्तार हो और जिससे हम खुद के पैरों पर खड़े होने में सक्षम बन जाएं।
  • खुद को समझाएं, दूसरों को समझाएं। सोई हुई आत्मा को आवाज दें और देखें कि यह कैसे जागृत होती है। सोई हुई आत्मा के का जागृत होने पर ताकत, उन्नति, अच्छाई, सब कुछ आ जाएगा।
  • मेरे आदर्श को सिर्फ इन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता हैः मानव जाति देवत्व की सीख का इस्तेमाल अपने जीवन में हर कदम पर करे।
  • शक्ति की वजह से ही हम जीवन में ज्यादा पाने की चेष्टा करते हैं। इसी की वजह से हम पाप कर बैठते हैं और दुख को आमंत्रित करते हैं। पाप और दुख का कारण कमजोरी होता है। कमजोरी से अज्ञानता आती है और अज्ञानता से दुख।
  • अगर आपको तैतीस करोड़ देवी-देवताओं पर भरोसा है लेकिन खुद पर नहीं तो आप को मुक्ति नहीं मिल सकती। खुद पर भरोसा रखें, अडिग रहें और मजबूत बनें। हमें इसकी ही जरूरत है।
 

 
भारतीय संविधान विश्व में अनूठा  - डा. जगदीश गांधी

भारतीय संविधान सारे विश्व में "विश्व एकता" की प्रतिबद्धता
के कारण अनूठा है!

 
गांधी जी का अंतिम दिन  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

गांधीजी के अंतिम दिन का कई लेखकों ने विवरण लिखा है। यहाँ हम सभी उपलब्ध विवरणों को संकलित करेंगे। इन विवरणों में प्यारेलाल, स्टीफन मर्फी, वी कल्याणम के विवरण सम्मिलित किए गए हैं।

गांधीजी का अंतिम दिन - स्टीफन मर्फी
बापू का अंतिम दिन - प्यारे लाल
महात्मा गांधी के जीवन के अंतिम 48 घंटों की झलकियां -वी कल्याणम
गांधी को श्रद्धांजलि

 
गांधीजी का अंतिम दिन - स्टीफन मर्फी  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

30 जनवरी 1948 का दिन गांधीजी के लिए हमेशा की तरह व्यस्तता से भरा था। प्रात: 3.30 को उठकर उन्होंने अपने साथियों मनु बेन, आभा बेन और बृजकृष्ण को उठाया। दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर 3.45 बजे प्रार्थना में लीन हुए। घने अंधकार और कँपकँपाने वाली ठंड के बीच उन्होंने कार्य शुरू किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दस्तावेज को पुन: पढ़कर उसमें उचित संशोधन कर कार्य पूर्ण किया।

 
फीजी में हिंदी  - विवेकानंद शर्मा | फीजी

फीजी के पूर्व युवा तथा क्रीडा मंत्री, संसद सदस्य विवेकानंद शर्मा का हिंदी के प्रति गहरा लगाव था । फीजी में हिंदी के विकास के लिए वह निरंतर प्रयत्नशील रहे।

 
कहानी गिरमिट की  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

फीज़ी में अनुबंधित श्रम 

 
होली से मिलते जुलते त्योहार  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

Holi Indian Festival

 
स्वतंत्रता दिवस भाषण  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

स्वतंत्रता दिवस भाषणों का संकलन।

 
हिंदी पत्रकारिता में भाषा की शुद्धता  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

पत्रकारिता में भाषा की पकड़, शब्दों का चयन व प्रस्तुति बहुत महत्वपूर्ण है। पत्रकारिता में निःसंदेह समाचार की समझ, भाषा की शुद्धता व वाक्य विन्यास आवश्यक तत्व हैं।

 
हिंदी के बारे में कुछ तथ्य  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

  • सरहपाद को अपभ्रंश का पहला आदि कवि कहा जा सकता है। खुसरो से कहीं पहले सरहपाद का अस्तित्व सामने आता है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार अपभ्रंश की पहली कृति 'सरह के दोहों' के रूप में उपलब्ध है। [ राहुल सांकृत्यायन कृत दोहा-कोश से]
  • 1283 खुसरो की पहेली व मुकरी प्रकाश में आईं जो आज भी प्रचलित हैं।
  • हिंदी की पहली ग़ज़ल संभवत: कबीर की ग़ज़ल है।
  • 1805 में लल्लू लाल की हिंदी पुस्तक 'प्रेम सागर' फोर्ट विलियम कॉलेज, कोलकाता के लिए पहली हिंदी प्रकाशित पुस्तक थी।
  • हिन्दी का पहला साप्ताहिक समाचारपत्र उदन्त मार्तण्ड पं जुगलकिशोर शुक्ल के संपादन में मई 1826 में कोलकाता से आरम्भ हुआ था।
  • पं० जामनराव पेठे को राष्ट्रभाषा का प्रस्ताव उठाने वाला पहला व्यक्ति कहा जाता है। उन्होंने सबसे पहले भारत की कोई राष्ट्रभाषा हो के मुद्दे को उठाया। 'भारतमित्र' का इस विषय में मतभेद था। 'भारतमित्र' ने 'बंकिम बाबू' को इसका श्रेय दिया है।
  • 1833 में गुजराती कवि नर्मद ने भारत की राष्‍ट्रभाषा के रूप में हिंदी का नाम प्रस्तावित किया ।
  • 1877 में श्रद्धाराम फुल्लौरी ने 'भाग्यवती' नामक उपन्यास रचा। फल्लौरी 'औम जय जगदीश हरे' आरती के भी रचयिता हैं।
  • 1893 में बनारस (वाराणसी) में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई ।
  • 1900 में द्विवेदी युग का आरंभ हुआ जिसमें राष्ट्र-धारा का साहित्य सामने आया।
  • 1918 में गाँधी जी ने 'दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा' की स्थापना की ।
  • 1929 में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के 'हिंदी साहित्य का इतिहास' का प्रकाशन हुआ ।
  • 1931 में हिंदी की पहली बोलती फिल्म "आलम आरा" पर्दे पर आई।
  • 1996-97 में न्यूजीलैंड से प्रकाशित हिंदी पत्रिका 'भारत-दर्शन' इंटरनेट पर विश्व का पहला हिंदी प्रकाशन है। 
        संकलन: रोहित कुमार 'हैप्पी'

 
प्रधानमंत्री का दशहरा भाषण  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

लखनऊ के ऐशबाग रामलीला मैदान में दशहरा महोत्सव (11-10-2016) में प्रधानमंत्री द्वारा दिए गया भाषण:

 
नया साल  - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

साधो, बीता साल गुजर गया और नया साल शुरू हो गया। नए साल के शुरू में शुभकामना देने की परंपरा है। मैं तुम्हें शुभकामना देने में हिचकता हूँ। बात यह है साधो कि कोई शुभकामना अब कारगर नहीं होती। मान लो कि मैं कहूँ कि ईश्वर नया वर्ष तुम्हारे लिए सुखदायी करें तो तुम्हें दुख देनेवाले ईश्वर से ही लड़ने लगेंगे। ये कहेंगे, देखते हैं, तुम्हें ईश्वर कैसे सुख देता है। साधो, कुछ लोग ईश्वर से भी बड़े हो गए हैं। ईश्वर तुम्हें सुख देने की योजना बनाता है, तो ये लोग उसे काटकर दुख देने की योजना बना लेते हैं।

 
माई लार्ड  - बालमुकुन्द गुप्त

माई लार्ड! लड़कपन में इस बूढ़े भंगड़ को बुलबुल का बड़ा चाव था। गांव में कितने ही शौकीन बुलबुलबाज थे। वह बुलबुलें पकड़ते थे, पालते थे और लड़ाते थे, बालक शिवशम्भु शर्मा बुलबुलें लड़ाने का चाव नहीं रखता था। केवल एक बुलबुल को हाथ पर बिठाकर ही प्रसन्न होना चाहता था। पर ब्राह्मणकुमार को बुलबुल कैसे मिले? पिता को यह भय कि बालक को बुलबुल दी तो वह मार देगा, हत्या होगी। अथवा उसके हाथ से बिल्ली छीन लेगी तो पाप होगा। बहुत अनुरोध से यदि पिता ने किसी मित्र की बुलबुल किसी दिन ला भी दी तो वह एक घण्टे से अधिक नहीं रहने पाती थी। वह भी पिता की निगरानी में।

 
निंदा रस  - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

‘क' कई महीने बाद आए थे। सुबह चाय पीकर अखबार देख रहा था कि वे तूफान की तरह कमरे में घुसे, साइक्लोन जैसा मुझे भुजाओं में जकड़ लिया। मुझे धृतराष्ट्र की भुजाओं में जकड़े भीम के पुतले की याद गई। जब धृतराष्ट्र की पकड़ में भीम का पुतला गया तो उन्होंने प्राणघाती स्नेह से उसे जकड़कर चूर कर डाला।
‘क' से क्या मैं गले मिला? हरगिज नहीं। मैंने शरीर से मन को चुपचाप खिसका दिया। पुतला उसकी भुजाओं में सौंप दिया। मुझे मालूम था कि मैं धृतराष्ट्र से मिल रहा हूं। पिछली रात को एक मित्र ने बताया कि ‘क' अपनी ससुराल आया है और ‘ग' के साथ बैठकर शाम को दो-तीन घंटे तुम्हारी निंदा करता रहा। छल का धृतराष्ट्र जब आलिंगन करे, तो पुतला ही आगे बढ़ाना चाहिए।

 
मुगलों ने सल्तनत बख्श दी  - भगवतीचरण वर्मा

हीरोजी को आप नहीं जानते, और यह दुर्भाग्‍य की बात है। इसका यह अर्थ नहीं कि केवल आपका दुर्भाग्‍य है, दुर्भाग्‍य हीरोजी का भी है। कारण, वह बड़ा सीधा-सादा है। यदि आपका हीरोजी से परिचय हो जाए, तो आप निश्‍चय समझ लें कि आपका संसार के एक बहुत बड़े विद्वान से परिचय हो गया। हीरोजी को जाननेवालों में अधिकांश का मत है कि हीरोजी पहले जन्‍म में विक्रमादित्‍य के नव-रत्‍नों में एक अवश्‍य रहे होंगे और अपने किसी पाप के कारण उनको इस जन्‍म में हीरोजी की योनि प्राप्‍त हुई। अगर हीरोजी का आपसे परिचय हो जाए, तो आप यह समझ लीजिए कि उन्‍हें एक मनुष्‍य अधिक मिल गया, जो उन्‍हें अपने शौक में प्रसन्‍नतापूर्वक एक हिस्‍सा दे सके।

 
हिन्दी का स्थान  - राहुल सांकृत्यायन | Rahul Sankrityayan

प्रान्तों में हिन्दी

 
हिंदी वेब मीडिया | Web Hindi Journalism  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

क्या आप जानते हैं - वेब पर हिन्दी प्रकाशन और पत्रकारिता का आरंभ कब और कहाँ से हुआ? इंटरनेट पर हिंदी का पहला प्रकाशन कौनसा था? 

  • इंटरनेट की पहली हिंदी पत्रिका न्यूज़ीलैंड से प्रकाशित 'भारत-दर्शन' थी जिसका वेब संस्करण 1997 में उपलब्ध करवाया गया, इसके साथ ही पत्रिका को 'इंटरनेट पर विश्व का पहला हिन्दी प्रकाशन होने का गौरव प्राप्त हुआ। 
  • इसके बाद दूसरी 'बोलोजी' जिसमें कुछ पृष्ठ हिंदी के होते थे, 1999 में अमरीका से प्रकाशित हुई। राजेन्द्र कृष्ण इसका प्रकाशन करते थे। 
  • पूर्णिमा जी ने 2000 में ‘अभिव्यक्ति' का प्रकाशन शारजहा से आरम्भ किया।
 
विंग कमांडर अभिनंदन  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान (Wg Cdr V Abhinandan) भारतीय वायुसेना के पायलट हैं। आपका जन्म-दिवस 21 जून को होता है।

 
सियासत की सराब, जनता की हवा खराब  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

मार्च, 2019 चल रहा है। इन दिनों भारत में चुनाव प्रचार की धूम मची हुई है। सभी राजनैतिक दल अपनी पूरी शक्ति व सामर्थ्य से चुनाव प्रकार में लगी हुई है। 

 
चन्द्रदेव से मेरी बातें | निबंध  - बंग महिला राजेन्द्रबाला घोष

बंग महिला (राजेन्द्रबाला घोष) का यह निबंध 1904 में सरस्वती में प्रकाशित हुआ था।  बाद में कई पत्र-पत्रिकाओं ने इसे 'कहानी' के रूप में प्रस्तुत किया है लेकिन यह एक रोचक निबंध है।   

 
आपने मेरी रचना पढ़ी?  - हजारीप्रसाद द्विवेदी

हमारे साहित्यिकों की भारी विशेषता यह है कि जिसे देखो वहीं गम्भीर बना है, गम्भीर तत्ववाद पर बहस कर रहा है और जो कुछ भी वह लिखता है, उसके विषय में निश्चित धारणा बनाये बैठा है कि वह एक क्रान्तिकारी लेख है। जब आये दिन ऐसे ख्यात-अख्यात साहित्यिक मिल जाते हैं, जो छूटते ही पूछ बैठते हैं, 'आपने मेरी अमुक रचना तो पढ़ी होगी?' तो उनकी नीरस प्रवृत्ति या विनोद-प्रियता का अभाव बुरी तरह प्रकट हो जाता है। एक फिलासफर ने कहा है कि विनोद का प्रभाव कुछ रासायनिक-सा होता है। आप दुर्दान्त डाकू के दिल में विनोद-प्रियता भर दीजिए, वह लोकतंत्र का लीडर हो जायगा, आप समाज सुधार के उत्साही कार्यकर्ता के हृदय में किसी प्रकार विनोद का इंजेक्शन दे दीजिए, वह अखबार-नवीस हो जायेगा और यद्यपि कठिन है, फिर भी किसी युक्ति से उदीयमान छायावादी कवि की नाड़ी में थोड़ा विनोद भर दीजिए, वह किसी फिल्म कम्पनी का अभिनेता हो जायेगा।

 
न्यूज़ीलैंड की भारतीय पत्रकारिता  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

Bharat-Darshan 1996

 
गांधीजी का जंतर  - महात्मा गांधी

Gandhi ji Ka Jantar

 
न्यूज़ीलैंड में उपनगर और स्थलों के भारतीय नाम  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

'वैलिंगटन के नागरिक और आगंतुक न्यूयॉर्क शहर की तुलना में प्रति व्यक्ति अधिक कैफे, बार और रेस्तरां का आनंद उठाते हैं। 2017 के वैलिंगटन सिटी काउंसिल के आंकड़े पुष्टि करते हैं कि शहर में लगभग 200,000 निवासियों के लिए 850 रेस्तरां, बार और कैफे हैं यानि प्रत्येक 240 लोगों के लिए एक। न्यूयॉर्क शहर में प्रति व्यक्ति दर 340 है।‘ यह तथ्य शायद आप जानते हों लेकिन वैलिंगटन के कई स्थानों के नाम आपको हतप्रभ कर देंगे। राजधानी वैलिंगटन का एक उपनगर है खंडाला। इस उपनगर की गलियों के नाम देखिए - दिल्ली क्रेसेंट, शिमला क्रेसेंट, आगरा क्रेसेंट, मद्रास स्ट्रीट, अमृतसर स्ट्रीट, पूना स्ट्रीट, गोरखा क्रेसेंट, बॉम्बे स्ट्रीट, गंगा रोड, कश्मीरी एवेन्यू, कलकत्ता स्ट्रीट और मांडले टेरेस। यहाँ तक कि आपको ‘गावस्कर प्लेस' भी देखने को मिल जाएगा।

 
गऊचोरी  - विद्यानिवास मिश्र

बाढ़ उतार पर थी और मैं नाव से गाँव जा रहा था। रास्‍ता लंबा था, कुआर की चढ़ती धूप, किसी तरह विषगर्भ दुपहरी काटनी थी, इसलिए माँझी से ही बातचीत का सिलसिला जमाया। शहर से लौटने पर गाँव का हाल-चाल पूछना जरुरी-सा हो जाता है, सो मैंने उसी से शुरू किया .... ' कह सहती, गाँव-गड़ा के हाल चाल कइसन बा।' सहती को भी डाँड़ खेते-खेते ऊब मालूम हो रही थी, बोलने के लिए मुँह खुल गया - 'बाबू का बताई, भदई फसिल गंगा भइया ले लिहली, रब्‍बी के बावग का होई, अबहिन खेत खाली होई तब्‍बे न, ओहू पर गोरू के हटवले के बड़ा जोर बा, केहू मारे डरन बहरा गोरू नाहीं बाँधत बा, हमार असाढ़ में खरीदल गोई कवनी छोरवा दिहलसि, ओही के तलास में तीनों लरिके बिना दाना पानी कइले पाँच दिन से निकसल बाटें।' इतना कह कर गरीब आदमी सुबकने लगा। कुछ सांत्वना देने की गरज से मैंने पूछा - 'कहीं कुछ सोरिपता नाहीं लगत बा। फलाने बाबा के गोड़ नाहीं पुजल?' जवाब में वह यकायक क्रोध में फनफना उठा - 'बाबू रउरहू अनजान बनि जाईलें। माँगत त बाटें तीन सैकड़ा, कहाँ से घर-दुआर बेंचि के एतना रुपया जुटाईं। सब इनही के माया हवे, एही के बजरिए बा'। तब सोचा हाँ, जो त्राता है वही तो भक्षक भी है। गऊ चुराने वाला गोभक्षक नहीं गोरक्षक ही तो है। हमारे गाँव में गऊचोरी से बड़ी शायद कोई समस्‍या न हो।

 
मेरी कथायात्रा  - कृष्णा सोबती

अपनी साहित्यिक यात्रा में मुझे न किसी को पछाड़ने की फ़िक्र रही और न किसी से पिछड़ने का आतंक। इरादा सिर्फ इतना कि लिखते रहो, अपने कदमों से बढ़ते रहो, अपनी राह पर। जो देखा है, जाना है, जिया है, पाया है, खोया है, उसके पार निगाह रखो। एक व्यक्ति के निज के आगे और अलग भी एक और बड़ी दुनिया है। उसे मात्र जानने की नहीं, अपने पर उतारने की समझ जगाओ। तालीम बढ़ाओ। फिर जो उजागर हो, उसे समेट लो! याद रहे यह कि जो तुम हो, उसे ही संवेदन का मानदंड समझ लेना काफी नहीं। जो तुमने झेला है, संघर्ष उतना ही नहीं। अपनी सीमाओं और क्षमताओं पर आँख रखते हुए- सफल और विफल के झमेलों को भूल, अथक परिश्रम और चौकसी ही कृतित्व को कृतार्थ करती है। अपने पांव तले की एक छोटी सी ज़मीन पर खड़े होकर, एक बड़ी दुनिया से साक्षात्कार करती है। लेखक में प्रतिभा कितनी है- इसे जांचने-मापने का काम आलोचक के जिम्मे है।

 
मैं लेखक कैसे बना  - अमृतलाल नागर

अपने बचपन और नौजवानी के दिनों का मानसिक वातावरण देखकर यह तो कह सकता हूँ कि अमुक-अमुक परिस्थितियों ने मुझे लेखक बना दिया, परंतु यह अब भी नहीं कह सकता कि मैं लेखक ही क्‍यों बना। मेरे बाबा जब कभी लाड़ में मुझे आशीर्वाद देते तो कहा करते थे कि ''मेरा अमृत जज बनेगा।'' कालांतर में उनकी यह इच्‍छा मेरी इच्‍छा भी बन गई। अपने बाबा के सपने के अनुसार ही मैं भी कहता कि विलायत जाऊँगा और जज बनूँगा।

 
चाचा का ट्रक और हिंदी साहित्य  - शरद जोशी | Sharad Joshi

अभी-अभी एक ट्रक के नामकरण समारोह से लौटा हूं। मेरे एक रिश्तेदार ने जिनका हमारे घर पर काफी दबदबा है, कुछ दिन हुए एक ट्रक खरीदा है। उसका नाम रखने के लिए मुझे बुलाया था। एक लड़का, जो अपने आपको बहुत बड़ा आर्टिस्ट मानता था, जिसका पैंट छोटा था, मगर बाल काफी लंबे थे, रंग और ब्रश लिए पहले से वहां बैठा था कि जो नाम निकले वह ट्रक पर लिख दे। मैं समय पर पहुंच गया, इसके लिए रिश्तेदार, जिनको मैं चाचाजी कहता हूँ, प्रसन्न थे। उनका कहना था कि यदि नौ बजे बुलाया कलाकार बारह बजे पहुंचे तो उसे समय पर मानो।

 
निज जीवन की एक छटा  - रामप्रसाद बिस्मिल

शहीद रामप्रसाद 'बिस्मिल' की आत्मकथा के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं।  इनमें गणेशशंकर विद्यार्थी की 'प्रताप प्रेस' कानपुर, पं बनारसीदास चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित और 'आत्माराम एण्ड सन्स' के अतिरिक्त 'राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान और प्रशिक्षण' के प्रकाशन अग्रणी हैं।  दिनेश शर्मा द्वारा सम्पादित 'रामप्रसाद 'बिस्मिल' रचनावली' के पहले खण्ड की भूमिका में उल्लेख किया गया है कि 'प्रताप प्रेस' कानपुर से भी पहले यह पुस्तक 'काकोरी षड़यंत्र' के रूप में सिंध प्रांत (अब पकिस्तान) में भजनलाल बुकसेलर दवारा आर्ट प्रेस से 1927 में प्रकाशित हो चुकी थी।  ने भी इसका प्रकाशन किया है। 

 
रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने कहा था | अमर वचन  - रामप्रसाद बिस्मिल

यदि किसी के मन में जोश, उमंग या उत्तेजना पैदा हो तो शीघ्र गावों में जाकर कृषकों की दशा सुधारें।

 
जापान का हिंदी संसार - सुषम बेदी  - सुषम बेदी

जैसा कि कुछ सालों से इधर जगह-जगह विदेशों में हिंदी के कार्यक्रम शुरू हो रहे हैं उसी तरह से जापान में भी पिछले दस-बीस साल से हिंदी पढ़ाई जा रही होगी, मैंने यही सोचा था जबकि सुरेश रितुपर्ण ने टोकियो यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरन स्टडीज़ की ओर से विश्व हिंदी सम्मेलन का आमंत्रण भेजा। वहाँ पहुंचने के बाद मेरे लिए यह सचमुच बहुत सुखद आश्चर्य का विषय था कि दरअसल जापान में हिंदी पढ़ाने का कार्यक्रम 100 साल से भी अधिक पुराना है और वहां सन 1908 से हिंदी पढ़ाई जा रही है। आखिर हम भूल कैसे सकते हैं कि जापान के साथ भारत के सम्बन्ध उस समय से चले आ रहे हैं जब छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का वहां आगमन हुआ। यह जरूर है कि सीधे भारत से न आकर यह धर्म चीन और कोरिया के ज़रिये यहां आया। इस विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी भी बहुत सम्पन्न है। वहां लगभग 60-70 हजार के क़रीब हिंदी की पुस्तकें और पत्रिकाएँ हैं।

 
अमरीका में हिंदी : एक सिंहावलोकन  - सुषम बेदी

जब से अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने (जनवरी 2006) यह घोषणा की है कि अरबी, हिंदी, उर्दू जैसी भाषाओं के लिए अमरीकी शिक्षा में विशेष बल दिया जाएगा और इन भाषाओं के लिए अलग से धन भी आरक्षित किया गया तो यह समाचार सारे संसार में आग की तरह फैल गया था। यहाँ तक कि फरवरी 2007 को भी डिस्कवर लैंग्वेजेस महीना घोषित किया गया। अमरीकी कौंसिल आन द टीचिंग आफ फारन लैंग्वेजेस नामक भाषा शिक्षण से जुड़ी संस्था ने विशेष रूप से राष्ट्रपति बुश के संदेश को प्रसारित करते हुए बताया है कि देश भर में कई तरह से स्कूलों और कालेजों के प्राध्यापक भाषाओं के वैविध्य को मना रहे हैं। सच तो यह है कि दुनिया को चाहे अब जा के पता चला हो कि इन भाषाओं को पढ़ाया जाएगा, इस दिशा में काम तो बहुत पहले से ही हो रहा था।

 
लिखी कागद कारे किए  - प्रभाष जोशी

सिडनी से ही ब्रिसबेन गया था और भारत को आस्ट्रेलिया से एक रन से हारते देखकर लौट आया था। सिडनी में भारत का मैच पाकिस्तान से होना था और फिर क्रिकेट के दो सबसे पुराने प्रतिद्वन्द्वियों इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया का मुकाबला था। यानी काम के दिन दो थे और सिडनी में टिकना सात दिन था।

 
आत्मकथ्य : बालेश्वर अग्रवाल  - बालेश्वर अग्रवाल

जीवन के नब्बे वर्ष पूरे हो रहे हैं आज जब मैं यह सोच रहा हूँ, तो ध्यान में राष्ट्रकवि स्व. श्री माखन लाल चतुर्वेदी की प्रसिद्ध कविता 'पुष्प की अभिलाषा' की पक्तियां याद आ रही है।

 
प्रशांत में हिंदी  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

यूँ तो प्रशांत में अनेक देश, द्वीप और द्वीपीय देश हैं।  हम जब 'प्रशांत में हिंदी' की बात करते हैं तो हम न्यूज़ीलैंड, फीजी और ऑस्ट्रेलिया पर केंद्रित हैं।  यहाँ इस विषय पर चर्चा करेंगे कि प्रशांत के इन देशों में हिंदी शिक्षण, साहित्य, पत्रकारिता और मनोरंजन के संसाधनों और उपलब्धता की क्या स्थिति है।

 
रोनाल्ड स्टुअर्ट मेक्ग्रेगॉर - विदेशी हिंदी सेवी  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

रोनाल्ड स्टुअर्ट मेक्ग्रेगॉर का जन्म न्यूजीलैंड में 1929 में हुआ था। मेक्ग्रेगॉर के माता-पिता स्कॉटिश थे। बचपन में मेक्ग्रेगॉर को किसी ने फीजी से प्रकाशित हिंदी व्याकरण की एक पुस्तक भेंट की थी। इसी के फलस्वरूप उनका हिंदी की ओर रूझान हो गया।

 
हिंदी में आगत शब्दों के लिप्यंतरण के मानकीकरण की आवश्यकता  - विजय कुमार मल्‍होत्रा

इसमें संदेह नहीं कि आज हिंदी पत्रकारिता का क्षेत्र बहुत व्यापक होता जा रहा है, मुद्रण से लेकर टी.वी. चैनल और इंटरनैट तक मीडिया के सभी स्वरूपों में नये-नये प्रयोग किये जा रहे हैं। टी.वी. चैनल के मौखिक स्वरूप में हिंदी के साथ अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग बहुत सहज लगता है, क्योंकि मौखिक बोलचाल में आज हम हिंदी के बजाय हिंगलिश के प्रयोग के आदी होते जा रहे हैं, लेकिन जब वही बात अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में मुद्रित रूप में सामने आती हैं तो कई प्रश्न उठ खड़े होते हैं। अर्थ का अनर्थ होने के खतरे भी सामने आ जाते हैं। ध्वन्यात्मक होने की विशेषता के कारण हम जो भी लिखते हैं, उसी रूप में उसे पढ़ने की अपेक्षा की जाती है। इसी विशेषता के कारण देवनागरी लिपि को अत्यंत वैज्ञानिक माना जाता है। उदाहरण के लिए taste और test दो शब्द हैं। अंग्रेज़ी के इन शब्दों को सीखते समय हम इनकी वर्तनी को ज्यों का त्यों याद कर लेते हैं। इतना ही नहीं put और but के मूलभूत अंतर को भी वर्तनी के माध्यम से ही याद कर लेते हैं। Calf, half और psychology में l और p जैसे silent शब्दों की भी यही स्थिति है। कुछ विद्वान् तो अब हिंदी के लिए रोमन लिपि की भी वकालत भी करने लगे हैं। ऐसी स्थिति में अंग्रेज़ी के आगत शब्दों के हिंदी में लिप्यंतरण पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यकता है।

 
‘हम कौन थे, क्या हो गए---!’  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

किसी समय हिंदी पत्रकारिता आदर्श और नैतिक मूल्यों से बंधी हुई थी। पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं, ‘धर्म' समझा जाता था। कभी इस देश में महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, महात्मा गांधी, प्रेमचंद और बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन' जैसे लोग पत्रकारिता से जुड़े हुए थे। प्रभाष जोशी सरीखे पत्रकार तो अभी हाल ही तक पत्रकारिता का धर्म निभाते रहे हैं। कई पत्रकारों के सम्मान में कवियों ने यहाँ तक लिखा है--

 
हू केयर्स?  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

अगस्त का महीना विदेश में बसे भारतीयों के लिए बड़ा व्यस्त समय होता है। कम से कम हमारे यहां तो ऐसा ही होता है। स्वतंत्रता दिवस की तैयारी पूरे जोरों पर रहती है। अनेक संस्थाएं स्वतंत्रता दिवस का आयोजन करती हैं। नहीं, मैं गलत लिख गया! दरअसल, स्वतंत्रता दिवस नहीं, ‘इंडिपेंडेंस डे'! 'स्वतंत्रता-दिवस' तो न कहीं सुनने को मिलता, न कहीं पढ़ने को। मुझे तलख़ी आई तो साथ वाले ने वेद-वाणी उवाची, ‘हू केयर्स?' यही तो कठिनाई है कि आप ‘केयर' ही तो नहीं करते! ...और करते भी हैं तो जब आप पर आन पड़े, तभी करते हैं!

 
गांधीजी को महात्मा की उपाधि किसने दी?  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

गांधीजी को भारत ही नहीं पूरा विश्व ‘महात्मा गांधी' कहता है। पिछले कई वर्षों में यह प्रश्न बार-बार पूछा गया है कि गांधी जी को ‘महात्मा' की उपाधि किसने दी। उन्हें महात्मा की उपाधि ‘किसने, कब और कहाँ दी' इस विषय में कई लोगों ने सूचना के अधिकार (RTI) के अंतर्गत भी यह प्रश्न उठाया।

 
जानिए, भारत के पहले एम्स की स्थापना कैसे हुई  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

क्या आप जानते है कि दिल्ली का अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स /AIIMS) कैसे बना था? इसकी स्थापना में न्यूज़ीलैंड की विशेष भूमिका थी। 

 
बदलते विश्व में बदलता भारत  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

कहा जाता है, ‘परिवर्तन सृष्टि का नियम है।‘ परिवर्तन और अनित्यता को समझ लेना ही ज्ञान प्राप्त करना है। जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक क्या हम परिवर्तन का ही मार्ग तय करते हैं? या कहें कि हम एक नियत प्रवृत्ति के साक्षी बनते हैं कि इस संसार में सब कुछ नश्वर और क्षणभंगुर है। जो पैदा हुआ, वह मरता भी है। एक बालक युवा होता है, प्रौढ़ होता है, फिर वृद्ध जीवन जीकर मृत्यु को प्राप्त होता है। यही जीवन है।

 
आज की कहानी | इतिहास में आज का दिन  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

यहाँ इतिहास में आज के दिन से संबंधित कथा-कहानी, किस्से व प्रसंग प्रकाशित किए जाएंगे। यह कथा-कहानी, किस्से या प्रसंग रोचक व ज्ञानवर्धक होंगे। 

 
हिंदी के दिलदार सिपाही  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

हिंदी के दिलदार सिपाही के अतर्गत हम ऐसे हिंदी सेवियों की जानकारी संकलित कर रहे हैं, जिन्होंने निस्वार्थ भाव से हिंदी की सेवा की। इनमें अनेक विदेशी भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हिंदी से अटूट स्नेह किया। आज हिंदी इनपर गर्व करती है। 

 
हमें हिंदी से प्यार है  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

हिंदी से प्यार है?

 
हिंदी ने मुझे बहुत कुछ दिया : डॉ॰ विवेकानंद शर्मा  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

नांदी के पास के एक गाँव में पैदा हुए डॉ॰ विवेकानंद शर्मा [1939 - 9 सितंबर 2006] फीज़ी में हिंदी के एक प्रतिष्ठित लेखक रहे हैं। फीजी के पूर्व युवा तथा क्रीडा मंत्री, सांसद डॉ॰ विवेकानंद शर्मा का हिंदी के प्रति गहरा लगाव रहा है। फीजी में हिंदी के विकास के लिए वह निरंतर प्रयत्नशील रहे। बचपन से ही वे हिंदी सीखना चाहते थे और भारत जाना चाहते थे। फीजी के पूर्व प्रधानमंत्री महेन्द्र चौधरी डॉ॰ विवेकानंद शर्मा के हाई स्कूल के सहपाठी रहे हैं। आपने फीज़ी में टीचर ट्रेनिंग की फिर अध्यापक हो गए और बाद में भारत चले गए और गोरखपुर महाविद्यालय में दाखिला ले लिया। उसके बाद देहली महाविद्यालय से बी॰ए॰ की। इसी दौरान भारत में कई लेखकों व कवियों के सर्पक में आए। फिर फीज़ी के भूतपूर्व राष्ट्रपति रातू मारा ने इन्हें प्रेरित किया कि फीजी लौटकर फीजी की सेवा करे। लगभग दो साल फीजी रहने के पश्चात पुनः भारत जाकर आपने पीएचडी की। वे कहते थे, 'हिंदी ने मुझे बहुत कुछ दिया। फीजी में जो स्थान हिंदी को दिया गया, वो स्थान तो हिंदी को भारत में भी नहीं मिला।'

फीज़ी की वर्तमान दशा के बारे में आप क्या कहेंगे? 
भारत से हमारी अपेक्षाएं थी, हम सोचते थे कि भारत हमारे बारे में अन्तरराष्ट्रीय मंच पर आवाज उठाएगा। शायद भारत अपनी समस्याओं से जूझ रहा है। फिर वैसे भी हम भारत से इतने दूर हैं, इस स्थिति में शायद भारत बहुत कुछ नहीं कर सकता था। हम चाहते थे कि हमें ऐसा लगे कि भारत हमारे पीछे है पर ऐसा लगता नहीं है। हमारा यहाँ कौन संरक्षक है? पड़ोसी देशों के तो उच्चायुक्त ही वापिस बुला लिए गए हैं। भारत के उच्चायुक्त का यहाँ होना तो हमारे लिए फक्र की बात है लेकिन वे अकेले क्या कर पाएंगे। वो तो बेचारे खुद ऐसे संकट के समय हमारे साथ संकट झेल रहे हैं। आज जो ये मांग उठाई जा रही है कि फीजी फीजियन के लिए है, वो तो किसी हद तक ठीक है किन्तु भारतीयों के योगदान को तो पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया है । हमने खून-पसीना एक करके इस देश को आबाद किया है जब भारत, ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड हमारे पूर्वजों को यहाँ लाए थे, तो उन्हें बहकाकर झूठे सपने दिखाकर यहाँ लाया गया था। फिर आज ये तीनों जिम्मेवार देश क्यों मुँह छुपाए घूम रहे हैं। क्यों नहीं भारत खुलकर सामने आता? क्या भारत आज शक्तिहीन हो गया? क्यों नहीं भारत कुछ कह और कर सकता? भारत कुछ कह या कर रहा है, हमें तो ऐसा कुछ फीज़ी में सुनने को नहीं मिल रहा है। 

हमारे दिल में भारत के लिए बहुत प्यार, बहुत श्रद्धा है। भारत का भी ये धर्म है, कर्तव्य है कि वो अपने बच्चों के लिए कुछ करे। 

विश्व समुदाय के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे? 
ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड हमारे पूर्वजों को यहाँ लाने के जिम्मेदार हैं। ...और फीज़ी के भारतीयों की संख्या है ही कितनी? केवल तीन लाख । हमें ऑस्ट्रेलिया के किसी भी कोने में डाल दे - हम खा लेंगे, पी लेंगे, आराम से जी लेंगे और ऑस्ट्रेलिया की उन्नति करेंगे। 

...लेकिन फिर आप ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री भी तो बनना चाहेंगे? 
ये बहुत अच्छा प्रश्न किया है आपने।  …लेकिन जब भारतीयों को यहाँ लाया गया तो हमें पूर्ण नागरिक अधिकार दिये गये थे। हमने फीजी की उन्नति में पूरा योगदान दिया। उसके बाद हमने इसी देश को अपना समझ लिया और भारत की ओर मुड़ कर भी नहीं देखा। भारत तो हमारे लिए ननिहाल है। 

जिस ननिहाल को आपने कभी पीछे मुड़कर ही नहीं देखा वो अब आपके लिए क्या करे? आप क्यों भारत से अपेक्षाएं रखते हैं? 
कुछ क्षण सोचकर वे मुसकरा पड़ते हैं। फिर कहते हैं, 'ये भी बहुत अच्छा प्रश्न है आपका?' 'ननिहाल के प्रति मोह तो हर नाति के मन में होता है और मुसीबत पड़ने पर वो ननिहाल की ओर ही दौड़ता है, देखता है। भगवान कृष्ण आदि सब इसके साक्षी है। हम भारतीयों को हजारों मील दूर दुनिया के एक दूसरे कोने पर लाकर डाल दिया गया, उसके बाद नानी ने कितनी अपने नातियों का ख्याल रखा है। 

लेखक होने के नाते आपने क्या किया? क्या आपने नई पीढ़ी में स्वाभिमान जागृति करने के लिए कुछ किया? 
आपने तो मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया है। मेरा ये मानना है कि यदि हिंदी भाषा में हमारी पूरी आस्था नहीं होगी तब संस्कृति कहाँ रहेगी! ...और हम उसी के प्रचार में लगे हुए हैं।

-रोहित कुमार हैप्पी

[डॉ॰ विवेकानंद शर्मा का यह साक्षात्कार सन् 2000 में फीजी के तख्तापलट के दौरान लिया गया था]

 
दाँत  - प्रतापनारायण मिश्र

इस दो अक्षर के शब्द तथा इन थोड़ी-सी छोटी-छोटी हड्डियों में भी उस चतुर कारीगर ने यह कौशल दिखलाया है कि किसके मुँह में दाँत हैं जो पूरा-पूरा वर्णन कर सके । मुख की सारी शोभा और यावत् भोज्य पदार्थो का स्वाद इन्हीं पर निर्भर है। कवियों ने अलक ( जुल्फ ), भ्रू ( भौं ) तथा बरुनी आदि की छवि लिखने में बहुत - बहुत रीति से बाल की खाल निकाली है, पर सच पूछिए तो इन्हों को शोभा से सबकी शोभा है । जब दाँतों के बिना पला-सा मुँह निकल आता है, और चिबुक ( ठोड़ी ) एवं नासिका एक में मिल जाती हैं उस समय सारी सुघराई मिट्टी में मिल जाती है।

 
"हिन्दू" शब्द की व्युत्पत्ति  - महावीर प्रसाद द्विवेदी | Mahavir Prasad Dwivedi

किसी-किसी का मत है कि हिन्दू शब्द नदीवाचक सिन्धु शब्द का अपभ्रंश है और इंडस (Indus) अर्थात सिन्धु-शब्द से ही अँगरेजी शब्द इंडिया (India) की उत्पत्ति है। किसी-किसी का मत है कि अरबी हिन्द शब्द से अँगरेजी शब्द इंडिया निकला है। कोई कोई पंडित हिन्दू शब्द की सिद्धि संस्कृत व्याकरण से करते हैं और कहते हैं कि वह हिसि + दो + धातुओं से बना है और हीन अर्थात् बुरे या कुमार्गगामी लोगों को दोष या दराड देने वाले आर्यों का नाम है। बहुत आदमी हिन्दू शब्द को फ़ारसी भाषा का शब्द मानते हैं और उसका अर्थ चोर, डाकू, राहजन गुलाम, काला, काफिर आदि करते हैं। फ़ारसी में हिन्दू शब्द ज़रूर है और अर्थ भी उसका अच्छा नहीं है। इसी से इस शब्द के अर्थ की तरफ़ लोगों का इतना ध्यान गया है। सिन्धु से हिन्दू हो जाना या पुराने जमाने में हिन्दुओं को तुच्छ दृष्टि से देखने वाले मुसलमानों का, उनके लिए काफिर और ग़ुलाम आदि अर्थों का वाचक शब्द प्रयोग करना, कोई विचित्र बात भी नहीं। परन्तु पंडित धर्मानन्द महाभारती न तो इन अर्थों में से किसी अर्थ को मानते हैं और न हिन्दू-शब्द की आज तक प्रसिद्ध व्युत्पत्ति ही को क़बूल करते हैं। आपने पुरानी व्युत्पत्ति और पुराने अर्थ को गलत साबित करके हिन्दू शब्द की उत्पत्ति और अर्थ एक नए ही ढंग से किया है। आपने इस विषय पर, तीन चार वर्ष हुए, बॅगला भाषा में एक लेखमालिका निकाली थी। उसके उत्तर अंश का मतलब हम यहां पर, संक्षेप में, देते है--

 
प्रो. राजेश कुमार  - प्रो. राजेश कुमार

प्रो. राजेश कुमार

 
माओरी कहावतें  - भारत-दर्शन

एक माओरी कहावत है, ‘E tino mōhio ai te tāngata ki te tāngata me mōhio anō ki te reo me ngā tikanga taua tāngata.’ -- लोगों को अच्छी तरह से जानने के लिए, उनकी भाषा और रीति-रिवाजों को जानना आवश्यक है। तभी हमें लगा कि भारतीय दृष्टि से माओरी संसार को समझने का प्रयास करना चाहिए।

माओरी कहावतें

 
ऑकलैंड | नोर्थ आइलैंड, न्यूज़ीलैंड  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

आइए, इस बार हम आपको ऑकलैंड की सैर करवा दें।

 
अद्भुत संवाद  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

"ए, जरा हमारा घोड़ा तो पकड़े रहो।"
"यह कूदेगा तो नहीं?"
"कूदेगा! भला कूदेगा क्यों? लो संभालो। "
"यह काटता है?"
"नहीं काटेगा, लगाम पकड़े रहो।"
"क्या इसे दो आदमी पकड़ते हैं तब सम्हलता है?"
"नहीं !"
"फिर हमें क्यों तकलीफ देते हैं? आप तो हई हैं।"

 
मैं नास्तिक क्यों हूँ?  - भगत सिंह

एक नई समस्‍या उठ खड़ी हुई है - क्‍या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान सर्वव्‍यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्‍वर के अस्तित्‍व पर विश्‍वास नहीं करता हूँ? मैंने कभी कल्‍पना भी न की थी कि मुझे इस समस्‍या का सामना करना पड़ेगा। लेकिन अपने दोस्‍तों से बातचीत के दौरान मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे कुछ दोस्‍त, यदि मित्रता का मेरा दावा गलत न हो, मेरे साथ अपने थोड़े से संपर्क में इस निष्‍कर्ष पर पहुँचने के लिए उत्‍सुक हैं कि मैं ईश्‍वर के अस्तित्‍व को नकार कर कुछ जरूरत से ज्‍यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमंड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्‍वास के लिए उकसाया है। जी हाँ, यह एक गंभीर समस्‍या है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमजोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्‍य हूँ और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। एक कमजोरी मेरे अंदर भी है। अहंकार मेरे स्‍वभाव का अंग है। अपने कामरेडों के बीच मुझे एक निरंकुश व्‍यक्ति कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्‍त श्री बी.के. दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्‍वेच्‍छाचारी कहकर मेरी निन्‍दा भी की गई। कुछ दोस्‍तों को यह शिकायत है, और गंभीर रूप से है, कि मैं अनचाहे ही अपने विचार उन पर थोपता हूँ और अपने प्रस्‍तावों को मनवा लेता हूँ। यह बात कुछ हद तक सही है, इससे मैं इनकार नहीं करता। इसे अहंकार भी कहा जा सकता है। जहाँ तक अन्‍य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है, मुझे निश्‍चय ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन यह व्‍यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्‍वास के प्रति न्‍यायोचित गर्व हो और इसको घमंड नहीं कहा जा सकता। घमंड या सही शब्‍दों में अहंकार तो स्‍वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। तो फिर क्‍या यह अनुचित गर्व है जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया, अथवा इस विषय का खूब सावधानी के साथ अध्‍ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्‍वर पर अविश्‍वास किया? यह प्रश्‍न है जिसके बारे में मैं यहाँ बात करना चाहता हूँ। लेकिन पहले मैं यह साफ कर दूँ कि आत्‍माभिमान और अहंकार दो अलग-अलग बातें हैं।

 
मैं नास्तिक क्यों हूँ? - भाग 2  - भगत सिंह

न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर, केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है। केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है। इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है? तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण मत दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है। मैं पूछता हूँ कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँ तक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो कि अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर - अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो। किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा? चूँकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों - वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तो, ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। जी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी धन-संपत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसी घर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं।

 
The Collected Work of Mahatma Gandhi - Vol 45 - Page 334  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

The Collected Works of Mahatma Gandhi - Vol 45 - Page 334

 
क्यों डरें महर्षि वेलेन्टाइन से?  - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik

‘सेंट वेलेन्टाइन डे' का विरोध अगर इसलिए किया जाता है कि वह प्रेम-दिवस है तो इससे बढ़कर अभारतीयता क्या हो सकती है? प्रेम का, यौन का, काम का जो मुक़ाम भारत में है, हिन्दू धर्म में है, हमारी परम्परा में है, वह दुनिया में कहीं नहीं है। धर्मशास्त्रों में जो पुरुषार्थ-चतुष्टय बताया गया है--धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-- उसमें काम का महत्व स्वयंसिद्ध है। काम ही सृष्टि का मूल है। अगर काम न हो तो सृष्टि कैसे होगी? काम के बिना धर्म का पालन नहीं हो सकता। इसीलिए काम पर रचे गए ग्रन्थ को कामशास्त्र कहा गया? शास्त्र किसे कहा जाता है? क्या किसी अश्लील ग्रन्थ को कोई शास्त्र कहेगा? शास्त्रकार भी कौन है? महर्षि है! महर्षि वात्स्यायन! वैसे ही जैसे कि महर्षि वेलेन्टाइन जो पैदा हुए, तीसरी सदी में। वे भारत में नहीं, इटली में पैदा हुए।

 
द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन, पोर्ट लुइस, मॉरीशस  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन 28-30 अगस्त, 1976 को  पोर्ट लुइस, मॉरीशस में आयोजित किया गया था।

  • मॉरीशस में एक विश्व हिंदी केंद्र की स्थापना की जाए जो सारे विश्व में हिंदी की   गतिविधियों का समन्वय कर सके।
  • एक अंतरराष्ट्रीय हिंदी पत्रिका का प्रकाशन किया जाए जो भाषा के माध्यम से ऐसे समुचित वातावरण का निर्माण कर सके जिसमें मानव विश्व का नागरिक बना रहे और अध्यात्म की महान शक्ति एक नए समन्वित सामंजस्य का रूप धारण कर सके।
  • हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में एक आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान मिले। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक समयबद्ध कार्यक्रम बनाया जाए।
 
लोहड़ी - लुप्त होते अर्थ  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

यह सच है कि आज कोई भी त्यौहार चाहे वह लोहड़ी हो, होली हो या दिवाली हो - भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी धूम-धाम से मनाया जाता है। यह भी सत्य है कि अधिकतर आयोजक व आगंतुक इनके अर्थ, आधार व पृष्ठभूमि से अनभिज्ञ होते हैं। आयोजक एक-दो पृष्ठ के भाषण रट कर अपने ज्ञान का दिखावा कर देते हैं और इस तोता रटंत भाषण से हट कर यदि कोई प्रश्न कर लिया जाए तो उनकी बत्ती चली जाती है और आगंतुक/दर्शक वर्ग तो मौज-मस्ती के लिए आता है। आज लोहड़ी है - लेकिन अब कितने बच्चों को लोहड़ी के गीत आते हैं? कौन मां-बाप लोहड़ी के गीत गा अपने बच्चों को पड़ोसियों के घर लोहड़ी मांगने जाने की अनुमति देते हैं? और भूल-चूक से यदि कोई बच्चा आ ही जाए आपके द्वार तो आपके घर में न लकड़ी होगी, न खील और न मक्का तो पारंपरिक तौर पर उन्हें देंगे क्या? त्यौहार के नाम पर बस बालीवुड का हो-हल्ला सुनाई देता है! अच्छे भले गीतों का संगीत बदल कर उनका सत्यानाश करके उसे 'रिमिक्स' कह दिया जाता है। कुछ दिन पहले एक परिचित का फोन आया, "13 को आ जाओ! मेरे बेटे की पहली लोहड़ी है!" मैंने अनभिज्ञता जताते हुए पूछ लिया, "इसके बारे में कुछ बताइए कि लोहड़ी क्या है, क्यों मनाई जाती है?"

 
डा अरून गाँधी से बातचीत  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

महात्मा गांधी के पौत्र डा अरून गाँधी से बातचीत

 
बात न्यू मीडिया से संबंधित कुछ अटपटे प्रश्न  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

न्यू मीडिया शिक्षक

 
कबीरा क्यों खड़ा बाजार  - प्रेम जनमेजय

संपादक ने फोन पर कहा- कबीरा खड़ा बाजार में।

 
बापू का अंतिम दिन - प्यारे लाल  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

29 जनवरी को सारे दिन गांधीजी को इतना ज्यादा काम रहा कि दिन के आखिर में उन्हें खूब थकान मालूम होने लगी । काँग्रेस-विधान के मसविदे की तरफ इशारा करते हुए, जिसे तैयार करने की जिम्मेदारी उन्होंने ली थी, उन्होंने आभा से कहा, "मेरा सिर घूम रहा है। फिर भी मुझे इसे पूरा करना ही होगा। मुझे डर है कि रात को देर तक जागना होगा।"

आखिरकार वे 9 बजे रात को सोने के लिए उठे। एक लड़की ने उन्हें याद दिलाया कि आपने हमेशा की कसरत नहीं की है। "अच्छा, तुम कहती हो तो मैं कसरत करूँगा।" --गाँधीजी ने कहा और वे दोनों लड़कियों के कंधो पर, जिमनाशियम के "पैरलल बार की" तरह, शरीर को तीन बार उठाने की कसरत करने के लिए बढ़े।

बिस्तर में लेटने के बाद गांधीजी आमतौर पर अपने हाथ-पाँव और दूँसरे अंग सेवा करने वालो से दबवाते थे--ऐसा करवाने में उन्हें अपना नहीं, बल्कि सेवा करनेवालों की भावनाओं का ही ज्यादा खयाल रहता था। वैसे तो उन्होंने अपने आपको इस बात से एक अरसे से उदासीन बना लिया था, हालाँकि मैं जानता हूँ कि उनके शरीर को इन छोटी-मोटी सेवाओं की जरूरत थी। इससे उन्हें दिनभर के कुचल डालनेवाले काम के बोझ के बाद मन को हलका करनेवाली बातचीत और हँसी-मजाक का थोड़ा मौका मिलता था। अपने मजाक में भी वे हिदायतें जोड़ देते। गुरुवार की रात को वे आश्रम की एक महिला से बातचीत करने लगे, जो संयोग से मिलने आ गई थी। उन्होंने उसकी तन्दुरुस्ती अच्छी न होने के कारण उसे डाँटा और कहा कि अगर रामनाम तुम्हारे मन-मन्दिर में प्रतिष्ठित होता तो तुम बीमार नहीं पड़ती। उन्होंने आगे कहा, "लेकिन उसके लिए श्रद्धा की जरूरत है।"

उसी शाम को प्रार्थना के बाद प्रार्थना सभा में आये हुए लोगों में से एक भाई उनके पास दौड़ता हुआ आया और कहने लगा कि आप 2 फरवरी को वर्धा जा रहे हैं, इसलिए मुझे अपने हस्ताक्षर दे दीजिये। गांधीजी ने पूछा, "यह कौन कहता है?" हस्ताक्षर माँगनेवाले हठी भाई ने कहा, "अखबारों में यह छपा है।" गांधीजी ने हँसते हुए कहा, "मैंने भी गांधी के बारे में वह खबर देखी है, लेकिन मैं नहीं जानता, वह 'गांधी' कौन है?"

एक दूसरे आश्रमवासी भाई से बात करते हुए गांधीजी ने वह राय फिर दोहराई जो उन्होंने प्रार्थना के बाद अपने भाषण में जाहिर की थी-- "मुझे गडबड़ी के बीच शांति, अंधेरे में प्रकाश और निराशा में आशा पैदा करनी होगी।" बातचीत के दौरान में 'चलती लकड़ियों' का जिक्र आने पर गांधीजी ने कहा, "मैं लड़कियों को अपनी 'चलती लकड़ियाँ' बनने देता हूँ, लेकिन दरअसल मुझे उनकी जरूरत नहीं है। मैंने लम्बे समय में अपने आपको इस बात का आदी बना लिया है कि किसी बात के लिए किसी पर निर्भर न रहा जाए। लड़कियाँ अपना पिता समझकर मेरे पास आती है और मुझे घेर लेती है। मुझे यह अच्छा लगता है। लेकिन सच पूछा जाए तो मैं इस बात में बिलकुल उदासीन हूँ।" इस तरह यह छोटी-सी बातचीत तबतक चलती रही जबतक गांधीजी सो न गये।

आठ बजे उनकी मालिश का वक्त था। मेरे कमरे से गुजरते हुए उन्होंने काँग्रेस के नये विधान का मसविदा मुझे दिया, जो देश के लिए उनका 'आखिरी वसीयतनामा' था। इसका कुछ हिस्सा उन्होंने पिछली रात को तैयार किया था। मुझसे उन्होंने कहा कि इसे 'पूरी' तरह दोहरा लो। इसमें कोई विचार छूट गया हो तो उसे लिख डालो, क्योंकि मैंने इसे बहुत थकावट की हालत में लिखा है।

मालिश के बाद मेरे कमरे से निकलते हुए उन्होंने पूछा, "उसे पूरा पढ़ लिया या नहीं।" और मुझसे कहा कि नोआखाली के अपने अनुभव और प्रयोग के आधार पर मैं इस विषय में एक टिप्पणी लिखूँ कि मद्रास के सिर पर झूमते हुए अन्नसंकट का किस तरह सामना किया जा सकता है। उन्होंने कहा--"वहाँ का खाद्यविभाग हिम्मत छोड़ रहा है। मगर मेरा खयाल है कि मद्रास जैसे प्रान्त में, जिसे कुदरत ने नारियल, ताड़, मूँगफली और केला इतनी ज्यादा तादाद में दिए हैं-- कई किस्म की जड़ों और कंदों की बात ही जाने दो-- अगर लोग सिर्फ अपनी खाद्य-सामग्री का सम्हालकर उपयोग करना जानें, तो उन्हें भूखों मरने की जरूरत नहीं।" मैंने उनकी इच्छा के अनुसार टिप्पणी तैयार करने का वचन दिया। इसके बाद वे नहाने चले गये। जब वे नहाकर लौटे तब उनके बदन पर काफी ताजगी नजर आती थी। पिछली रात की थकावट मिट गई थी और हमेशा की तरह प्रसन्नता उनके चेहरे पर चमक रही थी। उन्होंने आश्रम की लड़कियों को उनकी कमजोर शारीरिक बनावट के लिए डाँटा। जब किसी ने उनसे कहा कि वाहन न मिलने के कारण अमुक जगह नहीं गईं, तो उन्होंने कड़ाई से कहा--"वह पैदल क्यों न चली गई?" गांधीजी की यह कड़ाई कोरी कड़ाई ही नहीं थी, क्योंकि मुझे याद है कि एक बार जब आंध्र के अपने एक दौरे में हमें ले जानेवाली मोटरों का पेट्रोल खत्म हो गया तो उन्होंने सारे कागजात और लकड़ी की हलकी पेटी लेकर वहाँ से 13 मील दूँर दूसरे स्टेशन तक पैदल जाने के लिए तैयार होने को हमसे कहा था।

बंगाली लिखने के अपने रोजाना के अभ्यास को पूरा करने के बाद गांधीजी ने साढ़े नौ बजे अपना सवेरे का भोजन किया। अपनी पार्टी को तितर-बितर करने के बाद वे पूर्व बंगाल के गांवों में अपनी 'करो या मरो' की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए नंगे पाँव श्रीरामपुर गये तबसे वे नियमित रूप से बंगाली का अभ्यास करते रहे है। जब मैं विधान के मसविदे को दोहराने के बाद उनके पास ले गया, तब वे भोजन कर रहे थे। उनके भोजन में ये-ये चीजें शामिल थी--बकरी का दूँध, पकाई हुई और कच्ची भाजियां, संतरे और अदरक का काढ़ा, खट्टे नींबू और घृतकुमारी। उन्होंने अपनी विशेष सतर्कता से मसविदे में बढ़ाई हुई और बदली हुई बातों को एक-एक करके देखा और पंचायती नेताओं की संख्या के बारे में जो गलती रह गई थी, उसे सुधारा।

इसके बाद मैंने गांधीजी को डाक्टर राजेन्द्रप्रसाद से हुई अपनी मुलाकात की विस्तृत रिपोर्ट दी। डाक्टर राजेन्द्रप्रसाद की तबीयत अच्छी न थी। इसीलिए गांधीजी ने कल उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछने के लिए उनके पास भेजा था। मैंने गांधीजी को पूर्वी बंगाल के बारे में ताजी-से-ताजी खबर भी सुनाई, जो मुझे डाक्टर श्यामाप्रसाद मुकर्जी ने कल शाम को बताई थी। इसपर से नोआखाली के बारे में चर्चा चली। मैंने उनके सामने व्यवस्थित रीति से नोआखाली छोड़ने की बात रखी लेकिन गांधीजी का दृष्टिकोण साफ और मजबूत था। उन्होंने कहा, "जैसे हम कार्यकर्ताओं को 'करना या मरना' है, उसी तरह हमें अपने लोगों को भी आत्म-सम्मान, इज्जत और मजहबी हक को बचाने के लिए 'करने या मरने' को तैयार करना है। हो सकता है कि आखिर में थोड़े ही लोग बचें, लेकिन कमजोरी से ताकत पैदा करने का इसके सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं है। क्या हथियारों को लड़ाई में भी बलवा करनेवाले या कमजोर सिपाहियों की कतारें मार नहीं दी जातीं? तब अहिंसक लड़ाई में इससे दूसरा कैसे हो सकता है ?" उन्होंने आगे कहा, "तुम नोआखाली में जो कुछ कर रहे हो, वही सही रास्ता है। तुमने मौत का डर भगा दिया है और लोगों के दिलों में अपना स्थान बनाकर उनका प्यार पा लिया है। प्यार और परिश्रम के साथ ज्ञान जोड़ना जरूरी है। तुमने यही किया है। अगर तुम अकेले भी अपना काम पूरी तरह और अच्छी तरह करो, तो तुम्हीं सबके लिए काफी हो। तुम जानते हो कि यहाँ मुझे तुम्हारी बड़ी जरूरत है। मुझपर काम का इतना बोझ है और मैं बहुत-कुछ दुनिया को भी देना चाहता हूँ, तुम्हारे बाहर रहने से मैं ऐसा नहीं कर सकता। लेकिन मैंने अपने आपको इसके लिए कड़ा बना लिया है। नोआखाली का तुम्हारा काम इससे ज्यादा महत्व का है।" इसके बाद उन्होंने मुझे बताया कि अगर सरकार अपना फर्ज पूरा करने में चूके, तो गुंडों के साथ कैसे निपटना चाहिए।

दोपहर को थोड़ी झपकी लेने के बाद गांधीजी श्री सुधीर घोष से मिले। श्री घोष ने और बातों के अलावा 'लन्दन टाइम्स' की कतरन और एक अँग्रेज़ दोस्त के खत के कुछ हिस्से पढ़कर उन्हें सुनाये। इनमें लिखा था कि किस तरह कुछ लोग बड़ी तत्परता के साथ पण्डित नेहरू और सरदार पटेल के बीच फूट डालने की कोशिश कर रहे है। वे सरदार पटेल पर फिरकापरस्त होने का दोष लगाते है और पण्डित नेहरूजी की तारीफ करने का ढोंग रचते है। गांधीजी ने कहा कि वे इस तरह की हलचल से वाकिफ है और उसपर गहराई से विचार कर रहे है। वे बोले कि अपने एक प्रार्थना सभा के भाषण में पहले ही इसके बारे में कह चुका हूँ, जो 'हरिजन' में छप गया है। मगर मुझे लगता है कि इसके लिए कुछ और ज्यादा करने की जरूरत है। मैं सोच रहा हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए।

सारे दिन लोग लगातार मुलाकात करने के लिए आते रहे। उनमें दिल्ली के मौलाना लोग भी थे। उन्होंने गांधीजी के वर्धा जाने के बारे में अपनी सम्मति दे दी। गांधीजी ने उनसे कहा कि मैं सिर्फ थोड़े दिनों के लिए ही यहाँ से गैरहाजिर रहूँगा और अगर भगवान की कुछ और ही मर्जी न हुई और कोई आकस्मिक घटना न घटी तो 11 तारीख को वर्धा में स्वर्गीय सेठ जमनालालजी की पुण्यतिथि मनाने के बाद 14वीं तारीख को में लौट जाऊँगा।

एक बात और थी, जिसके बारे में मुझे गांधीजी से सलाह लेनी थी। मैंने उनसे पूछा, "बापू, मुसलमान औरतों में अपने काम को आसानी से चलाने के लिए अगर ज्यादा नहीं तो थोड़े ही वक्त के लिए मैं ----को नोआखाली ले आऊँ? जरूरी छुट्टी के लिए आपसे प्रार्थना करूँगा।"   "खुशी से।"--उन्होंने जवाब दिया। आखिरी शब्द ये थे जो मुझे सुनने थे।

साढ़े चार बजे आभा उनका शाम का खाना लाई। इस धरती पर उनका यह आखिरी भोजन था, जिसमें करीब-करीब सवेरे की ही सब चीज़ें शामिल थी। उनकी आखिरी बैठक सरदार पटेल के साथ हुई। जिन विषयों पर चर्चा हुई, उनमें से एक मंत्रिमंडल की एकता को तोड़ने के लिए सरदार के खिलाफ किया जानेवाला गंदा प्रचार था। गांधीजी की यह साफ राय थी कि हिन्दुस्तान के इतिहास में ऐसे नाजुक मौके पर मंत्रिमंडल में किसी तरह की फूट पैदा होना बड़ी दुःखपूर्ण बात होगी। सरदार से उन्होंने कहा कि आज मैं इसीको अपनी प्रार्थना सभा के भाषण का विषय बनाऊँगा। प्रार्थना के बाद पण्डितजी मुझसे मिलेंगे, उनसे भी इसके बारे में चर्चा करूँगा। आगे चलकर उन्होंने कहा, "अगर जरूरी हुआ तो मैं 2 तारीख को वर्धा जाना मुल्तवी कर दूँगा और तबतक दिल्ली नहीं छोड़ूँगा जबतक दोनों के बीच फूट डालने की कोशिश के इस भूत का पूरी तरह खात्मा न कर दूँ।"

इस तरह चर्चा चलती रही। बेचारी आभा भी दूध देने का साहस नहीं कर रही थी। इस बात को जानते हुए कि बापू वक्त की पाबन्दी को और खासकर प्रार्थना के बारे में उसकी पाबन्दी को, कितना महत्व देते है, उसने आखिर में निराश होकर उनकी घड़ी उठाई और जैसे इस बात का इशारा करते हुए उनके सामने रख दी कि प्रार्थना में देर हो रही है।

प्रार्थना के मैदान में जाने के पहले ज्योंही गांधीजी गुसलखाने में जाने के लिए उठे, वे बोले, "अब मुझे आपसे अलग होना पड़ेगा।" रास्ते में वे उस शाम को अपनी 'चलती लकड़ियों'--आभा और मनु के साथ तबतक हँसते और मज़ाक करते रहे जबतक कि वे प्रार्थना के मैदान की सीढ़ियों पर नहीं पहुंच गये।

दिन में जब दोपहर के पहले आभा गांधीजी के लिए कच्ची गाजरों का रस लाई, तब उन्होंने उलाहना देते हुए कहा, "तो तुम मुझे ढोरों का खाना खिलाती हो।" आभा ने जवाब दिया, "बा तो इसे 'घोड़े की खुराक' कहती थी।" उन्होंने पूछा, "जिस चीज को दूसरा पूछेगा भी नहीं, उसे स्वाद से खाना क्या कम चीज है ?" और हँसने लगे।

आभा ने कहा-"बापू, आपकी घड़ी को जरूर यह लगता होगा कि आप उसकी परवाह नहीं करते। आप उसकी तरफ देखते नहीं।" गांधीजी ने तुरन्त जवाब दिया--"मैं क्यो देखूँ, जब तुम दोनों मुझे ठीक समय बता देती हो?" लड़कियों में से एक ने पूछा, "लेकिन आप तो समय बतानेवाली लड़कियों की तरफ नहीं देखते।"

बापू फिर हँसने लगे। पाँव साफ करते हुए, उन्होंने आखिरी बात कही, "मैं आज 10 मिनट देर से पहुँचा हूँ। देर से आने में मुझे नफरत होती है। मैं प्रार्थना की जगह पर ठीक पाँच बजे पहुँचना पसंद करता हूँ।" यहाँ बातचीत खतम हो गई। क्योंकि--'चलती लकड़ियों' के साथ गांधीजी की यह शर्त थी कि प्रार्थना के मैदान के अहाते में पहुंचते ही सारा मज़ाक और बातचीत बन्द हो जानी चाहिए--मन में प्रार्थना के विचारो के सिवा दूसरी कोई चीज नहीं होनी चाहिए। मन प्रार्थनामय हो जाना चाहिए।

अब गांधीजी प्रार्थना-सभा के बीच रस्सियो से घिरे रास्ते में चलने लगे। उन्होंने प्रार्थना में शामिल होने वाले लोगों के नमस्कारों का जवाब देने के लिए लड़कियों के कन्धों से अपने हाथ उठा लिये । एकाएक भीड में से कोई दाहिनी ओर से भीड़ को चीरता हुआ उस रास्ते पर आया। मनु ने यह सोचा कि वह आदमी बापू के पाँव छूने को आगे बढ़ रहा है। इसलिए उसने उसको ऐसा करने के लिए झिड़का, क्योंकि प्रार्थना में पहले ही देर हो चुकी थी। उसने रास्ते में आने वाले आदमी का हाथ पकड़कर उसे रोकने की कोशिश की। लेकिन उसने जोर से मनु को धक्का दिया, जिससे उसके हाथ की आश्रम-भजनावली, माला और बापू का पीकदान नीचे गिर गये। ज्योंही वह बिखरी हुई चीज़ों को उठाने के लिए झुकी, वह आदमी बापू के सामने खड़ा हो गया--इतना नजदीक खड़ा था कि पिस्तौल से निकली हुई गोली का खोल बाद में बापू के कपड़े की परत में उलझा हुआ मिला। सात कारतूसों वाले ऑटोमैटिक पिस्तौल से जल्दी-जल्दी तीन गोलियां छूटीं। पहली गोली नाभी से ढाई इँच ऊपर और मध्य रेखा से साढ़े तीन इँच दाहिनी तरफ पेट की बाजू में लगी। दूसरी गोली, मध्य-रेखा से एक इँच की दूरी पर दाहिनी तरफ घुसी और तीसरी गोली छाती की दाहिनी तरफ लगी। पहली और दूसरी गोली शरीर को पारकर पीठ से बाहर निकल आई। तीसरी गोली उनके फेफड़े में ही रुकी रही। पहले बार में उनका पाँव, जो गोली लगने के वक्त आगे बढ़ रहा था, नीचे आ गया। दूसरी गोली छोड़ी गई तबतक वे अपने पाँवों पर ही खड़े थे, उसके बाद वे गिर गये। उनके मुंह से आखिरी शब्द "हे राम" निकले। उनका चेहरा राख की तरह सफेद पड़ गया। उनके सफेद कपड़ों पर गहरा सुर्ख धब्बा फैलता हुआ दिखाई पड़ा। उनके हाथ, जो सभा को नमस्कार करने के लिए उठे थे, धीरे-धीरे नीचे आ गये, एक हाथ आभा के गले में अपनी स्वाभाविक जगह पर गिरा। उनका लड़खड़ाता हुआ शरीर धीरे से ढुलक गया। घबराई हुई मनु और आभा ने महसूस किया कि क्या हो गया है।

मैं दूसरे दिन नोआखाली जाने की अपनी तैयारी पूरी करने के लिए शहर गया था और वहाँ से हाल में ही लौटा था। प्रार्थना सभा के मैदान तक बनी हुई पत्थर की कमानी के नीचे भी मैं न पहुँच पाया कि श्री चन्द्रावत सामने से दौड़ते हुए आये। उन्होंने चिल्लाकर कहा,"डाक्टर को फोन करो। बापू को गोली मार दी गई है।" मैं पत्थर की तरह जहां-का-तहां खड़ा रह गया, जैसे बुरा सपना देखा हो। मशीन की तरह मैंने किसीके द्वारा डाक्टर को फोन करवाया।

हरएक को इस घटना से धक्का लगा। डा० राज सब्बरवाल ने, जो उनके पीछे आई, गांधीजी के सिर को धीरे से अपनी गोद में रख लिया। उनका काँपता हुआ शरीर डाक्टर के सामने आधा लेटा हुआ था और आखें अधमुँदी थी। हत्यारे को बिड़ला-भवन के माली ने मजबूती से पकड़ लिया था। दूसरों ने भी उसका साथ दिया और थोड़ी खींचतान के बाद उसे काबू में कर लिया। बापू का शांत और ढीला पड़ा हुआ शरीर दोस्तों के द्वारा अन्दर ले जाया गया और उस चटाई पर उसे रखा गया, जिसपर बैठकर वे काम किया करते थे। मगर कुछ इलाज करने से पहले ही घड़ी की आवाज बन्द हो चुकी थी। उन्हें भीतर लाने के बाद उनको जो छोटा चम्मच भर शहद और गरम पानी पिलाया गया उसे भी वे पूरी तरह निगल न सके। करीब-करीब फौरन ही उनका अवसान हो गया।

डा० सुशीला बहावलपुर गई थी, जहाँ बापू ने उन्हें दया के मिशन पर भेजा था। डा० भार्गव, जिन्हें बुलावा भेजा था, आये और एड्रेनलिन के लिए डा० सुशीला की संकट के समय काम में आने वाली दवाइयों का संदूक पागल की तरह तलाश करने लगे। मैंने उनसे दलील की कि वे उस दवाई को ढूंढने की मेहनत न उठाये, क्योंकि गांधीजी ने कई बार हमसे कहा है कि उनकी जान बचाने के लिए भी कोई निषिद्ध दवाई उनको न दी जाए। जैसे-जैसे बरस बीतते गये, उन्हें ज्यादा विश्वास होता गया कि सिर्फ रामनाम ही उनकी और दूसरों की सारी बीमारियों को दूर कर सकता है। थोड़े ही दिनों पहले अपने उपवास के दरमियान उन्होंने यह सवाल पूछकर साइंस की कमियों के बारे में अपने मत को पक्का कर दिया था कि गीता में जो यह कहा गया है 'एकांशेन स्थितो जगत्'--उसके एक अंश से सारा संसार टिका हुआ है--उसका क्या मतलब है? रामनाम की सब बीमारियों को दूर करने की शक्ति पर अपने विश्वास के बारे में बोलते हुए एक आह के साथ गांधीजी ने घनश्यामदासजी से कहा था, "अगर मैं इसे अपने जीते-जी साबित नहीं कर सकता, तो वह मौत के साथ ही खत्म हो जाएगा।" जैसाकि आखिर में हुआ, डा० सुशीला की संकटकालीन दवाइयो में एड्रेनलिन नहीं मिला। संयोग से एड्रेनलिन की जो एक मात्र शीशी सुशीला ने कभी ली थी वह नोआखाली के काजिरखिल कैम्प में टूट गई थी। गांधीजी उसकी इतनी कम परवाह करते थे।

उनके साथियों में सबसे पहले सरदार वल्लभभाई पटेल आये। वे गांधीजी के पास बैठे और नाड़ी देखकर उन्होंने खयाल कर लिया कि वह अब भी धीरे-धीरे चल रही है। डा० जीवराज मेहता कुछ मिनट बाद पहुंचे। उन्होंने नाड़ी और आँखों की परीक्षा की और उदास और दुखी होकर सिर हिलाया। लड़कियाँ सिसक उठी लेकिन उन्होंने तुरन्त दिल को कड़ा किया और रामनाम बोलने लगी। मृत शरीर के पास सरदार चट्टान की तरह अचल बैठे थे। उनका चेहरा उदास और पीला पड़ गया था। इसके बाद पंडित नेहरू आये और बापू के कपड़ों में अपना मुंह छिपाकर बच्चे की तरह सिसकने लगे। इसके बाद देवदास आये। तब बापू के पुराने रक्षकों में से बचे हुए श्री जयरामदास, राजकुमारी अमृतकौर, आचार्य कृपलानी आये। कुछ देर बाद लॉर्ड माउण्टबेटन आये, तबतक बाहर लोगों की भीड़ इतनी बढ़ गई थी कि वे बड़ी मुश्किल से अन्दर आ सके। कड़े दिल के योद्धा होने के कारण उन्होंने एक पल भी नहीं गवाया और वे पंडित नेहरू और मौलाना आजाद को दूसरे कमरे में ले गये और महान दुर्घटना से पैदा होनेवाले समस्याओं पर अपने राजनैतिक दिमाग से विचार करने लगे। एक सुझाव यह रखा गया कि मृत शरीर को मसाला, देकर कुछ समय के लिए सुरक्षित रखा जाए, लेकिन इस बारे में गांधीजी के विचार इतने साफ और मजबूत थे कि बीच में पड़ना मेरे लिए जरूरी और पवित्र कर्तव्य हो गया। मैंने उनसे कहा कि बापू मरने के बाद पार्थिव शरीर को पूजने का कड़ा विरोध करते थे। उन्होंने मुझे कई बार कहा था, "अगर तुम मेरे बारे में ऐसा, होने दोगे तो मैं मौत में भी कोसूँगा। मैं जहाँ कहीं मरू, मेरी यह इच्छा है कि बिना किसी दिखावे या झमेले के मेरा दाह-संस्कार किया जाए।" डा० राजेन्द्र प्रसाद, श्री जयरामदास और डा० जीवराज मेहता ने मेरी बात का समर्थन किया। इसलिए मृत शरीर को मसाला देकर रखने का विचार छोड़ दिया गया। बाकी रात गीता के श्लोक और सुखमणि साहब के भजन मीठे राग में गाये जाते रहे और बाहर दुख से पागल बने लोगों की भीड़ दर्शन के लिए कमरे के चारों तरफ इकट्ठी होती रही। आखिरकार मृत शरीर को ऊपर ले जाकर बिड़ला-भवन के छज्जे पर रखना पड़ा, ताकि सब लोग दर्शन कर सकें।

सुबह जल्दी ही शरीर को हिन्दू-विधि के अनुसार नहलाया गया और कमरे के बीच में फूलों से ढककर रख दिया गया। विदेशी राजदूत, सुबह थोड़ी देर बाद आये और उन्होंने बापू के चरणों पर फूलों की मालाएँ रखकर अपनी मौन श्रद्धांजलि अर्पित की।

अवसान के दो दिन पहले ही गांधीजी ने कहा था, "मेरे लिए इससे प्यारी चीज क्या हो सकती है कि मैं हँसते-हँसते गोलियों की बौछार का सामना कर सकूँ?" और मालूम होता है, भगवान् ने उन्हें यह वरदान दे दिया।

11 बजे हमारे सबके अन्तिम प्रणाम करने के बाद मृत शरीर अर्थी पर रखा गया। उस समय तक रामदास गांधी हवाई जहाज द्वारा नागपुर से आ पहुँचे थे। डा० सुशीला नायर सबसे आखिर में पहुँची, जब अर्थी रवाना होने वाली थी। उन्हें इस बात का बड़ा दुख था कि बापू के आखिरी समय में वह उनके पास नहीं रह सकी लेकिन इस बात के लिए उन्होंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि वह अन्तिम दर्शन के समय पहुँच गईं।

उस रात डा० सुशीला बार-बार बहुत दुखी होकर चिल्लाती रही, "आखिर मुझे यह सजा क्यों?" देवदास ने उन्हें आश्वासन देने की कोशिश की "यह सजा नहीं है। बापू के आखिरी मिशन को पूरा करने में जुटे रहना बड़े गौरव की बात है--यह बापू का उसीको सौंपा हुआ आखिरी काम था।" बापू की यह एक विशेषता थी कि जिन्हें उन्होंने बहुत दिया था, उनसे वे और ज्यादा की आशा रखते थे।

जब मैं बापू का अपार शांति, क्षमा, सहिष्णुता और दया से भरा आँचल और उदास चेहरा ध्यान से देखने लगा, तो मेरे दिमाग में उस समय से लेकर जब मैं कालेज के विद्यार्थी रूप में चौंधियाने वाले सपनों और उज्ज्वल आशाओं से भरा बापू के पास आकर उनके चरणों में बैठा था--आजतक के 28 लम्बे वर्षों के निकटतम और अटूट सम्बन्ध का पूरा दृश्य बिजली की गति से घूम गया और वे वर्ष कौम के बोझ से कितने लदे हुए थे।

जो कुछ हुआ था, उसके अर्थ पर मैं विचार करने लगा। पहले मैं घबराहट महसूस करने लगा, लेकिन बाद में धीरे-धीरे यह पहेली अपने आप सुलझने लगी। उस दिन जब बापू ने एक आदमी के भी अपना फर्ज पूरी और अच्छी तरह अदा करने के बारे में कहा था, मुझे ताज्जुब हुआ था कि आखिर उनके कहने का ठीक-ठीक मतलब क्या है? उनकी मृत्यु ने उसका जबाव दे दिया। पहले जब गांधीजी उपवास करते तो वे दूसरों से प्रार्थना करने के लिए कहते थे। वे कहा करते थे, "जबतक पिता बच्चों के बीच है तबतक उन्हें खेलना और खुशी से उछलना-कूदना चाहिए। जब मैं चला जाऊँगा तब आज मैं जो कुछ कर रहा है वह सब वे करेंगे।" मगर--- बापू ने जो आजादी हमारे लिए जीती है, यदि उसका फल हमें भोगना है, तो उनकी मौत ने हमें वह रास्ता दिखा दिया है, जिस पर हमें चलना है।

-प्यारेलाल
[गांधी-श्रद्धांजलि-ग्रंथ, संपादक - सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सत्साहित्य-प्रकाशन, 1955]

 
भीष्म को क्षमा नहीं किया गया  - हजारीप्रसाद द्विवेदी

मेरे एक मित्र हैं, बड़े विद्वान, स्‍पष्‍टवादी और नीतिमान। वह इस राज्‍य के बहुत प्रतिष्ठित नागरिक हैं। उनसे मिलने से सदा नई स्‍फूर्ति मिलती है। यद्यपि वह अवस्‍था में मुझसे छोटे हैं, तथापि मुझे सदा सम्‍मान देते हैं। इस देश में यह एक अच्‍छी बात है कि सब प्रकार से हीन होकर भी यदि कोई उम्र में बड़ा हो, तो थोड़ा-सा आदर पा ही जाता है। मैं भी पा जाता हूँ। मेरे इस मित्र की शिकायत थी कि देश की दुर्दशा देखते हुए भी मैं कुछ कह नहीं रहा हूँ, अर्थात इस दुर्दशा के लिए जो लोग जिम्‍मेदार हैं उनकी भर्त्‍सना नहीं कर रहा हूँ। यह एक भयंकर अपराध है। कौरवों की सभा में भीष्‍म ने द्रौपदी का भयंकर अपमान देखकर भी जिस प्रकार मौन धारण किया था, वैसे ही कुछ मैं और मेरे जैसे कुछ अन्‍य साहित्‍यकार चुप्‍पी साधे हैं। भविष्‍य इसे उसी तरह क्षमा नहीं करेगा जिस प्रकार भीष्‍म पितामह को क्षमा नहीं किया गया। मैं थोड़ी देर तक अभिभूत होकर सुनता रहा और मन में पापबोध का भी अहसास हुआ। सोचता रहा, कुछ करना चाहिए, नहीं तो भविष्‍य क्षमा नहीं करेगा। वर्तमान ही कौन क्षमा कर रहा है? काफी देर तक मैं परेशान रहा - चुप रहना ठीक नहीं है, कंबख्‍त भविष्‍य कभी माफ नहीं करेगा। उसकी सीमा भी तो कोई नहीं है। पाँच हजार वर्ष बीत गए और अब तक विचारे भीष्‍म पितामह को क्षमा नहीं किया गया। भविष्‍य विकट असहिष्‍णु है।

 
देसियों के विदेशी बुखार  - रीता कौशल | ऑस्ट्रेलिया

जैसे ही दिवाली आने वाली होती है सोशल मीडिया पर एक पोस्ट तैरने लगती है कि चीन की बनी इलेक्ट्रिक झालर मत खरीदो, अपने यहाँ के कुम्हारों के बने दीये खरीद कर दिवाली पर जलाओ। ऐसा ही रक्षाबंधन के आसपास राखी के धागों को लेकर होता है पर क्या आज ग्लोबलाइजेशन के दौर में विदेशी सामान की खरीद से बचना इतना आसान है? इन फेसबुक पोस्ट को देख कर लगता है कि हम भारतीयों की देशभक्ति एक मौसमी बुखार की तरह है जो कुछ खास मौसम में ही जोर मारती है।

 
न्यूज़ीलैंड में हिंदी  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

न्यूज़ीलैंड में हिंदी : एक संक्षिप्त विवरण
पृष्ठभूमि

 
दिया टिमटिमा रहा है  - विद्यानिवास मिश्र

लोग कहेंगे कि दीवाली के दिन कुछ अधिक मात्रा में चढ़ाली है, नहीं तो जगर-मगर चारों ओर बिजली की ज्‍योति जगमग रही है और इसको यही सूझता है कि दिया, वह भी दिए नहीं, दिया टिमटिमा रहा है, पर सूक्ष्‍म दृष्टि का जन्‍मजात रोग जिसे मिला हो वह जितना देखेगा, उतना ही तो कहेगा। मैं गवई-देहात का आदमी रात को दिन करनेवाली नागरिक प्रतिभा का चमत्कार क्‍या समझूँ? मै जानता हूँ, अमा के सूचीभेद्य अंधकार से घिरे हुए देहात की बात, मैं जानता हूँ, अमा के सर्वग्रासी मुख में जाने से इनकार करने वाले दिए की बात, मै जानता हूँ बाती के बल पर स्‍नेह को चुनौती देनेवाले दिए की बात और जानता हूँ इस टिमटिमाते हुए दिए में भारत की प्राण ज्‍योति के आलोक की बात। दिया टिमटिमा रहा है! स्‍नेह नहीं, स्‍नेह तलछट भर रही है और बाती न जाने किस जमाने का तेल सोखे हुए है कि बलती चली जा रही है, अभी तक बुझ नहीं पाई। सामने प्रगाढ़ अंधकार, भयावनी निस्‍तब्‍धता और न जाने कैसी-कैसी आशंकाएँ! पर इन सब को नगण्‍य करता हुआ दिया टिमटिमा रहा है...

 
माओरी कहावतें (6-10)  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

माओरी कहावतें
E tino mōhio ai te tāngata ki te tāngata me mōhio anō ki te reo me ngā tikanga taua tāngata.
To know people well, one needs to know their language and customs.
लोगों को अच्छी तरह से जानने के लिए उनकी भाषा और रीति-रिवाजों को जानना आवश्यक है।

 
तीव्रगामी  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

एक शख्स ने किसी से कहा कि अगर मैं झूठ बोलता हूँ तो मेरा झूठ कोई पकड़ क्यों नहीं लेता।

 
मैं नास्तिक क्यों हूँ? | भाग-2  - भगत सिंह

न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर, केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है। केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है। इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है? तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण मत दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है। मैं पूछता हूँ कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँ तक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो कि अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर - अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो। किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा? चूँकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों - वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तो, ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। जी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी धन-संपत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसी घर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं।

 
रिश्वतखोरों पर सीधी कार्रवाई  - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik

भारत की कुल जनसंख्या में आधे लोग नौजवान हैं। इन नौजवानों से एक अंग्रेजी अखबार ने पूछा कि आप में से कितनों ने कभी रिश्वत दी है? इस अखबार ने देश के 15 शहरों के 7 हजार नौजवानों से बात की। उसने पाया कि अहमदाबाद, मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों में लगभग 75 प्रतिशत जवानों ने कभी न कभी रिश्वत दी है। उन नौजवानों का कहना था कि हम क्या करें। हम मजबूर हैं। स्कूटर या कार का लायसेंस हो, पासपोर्ट हो, रेल का आरक्षण हो, जन्म या मृत्यु का प्रमाण-पत्र हो, सरकारी अस्पताल में इलाज करवाना हो- आप कहीं भी चले जाएं, रिश्वत के बिना कोई काम नहीं होता। हम सोचते हैं, चीखने-चिल्लाने और लड़ने-झगड़ने में अपना वक्त क्यों खराब करें? पैसे दें और पिंड छुड़ाएँ!  उन्होंने स्वीकार किया कि रिश्वत देने में हमें कोई संकोच नहीं होता।

यह बात तो कुछ बड़े शहरों के 75 प्रतिशत नौजवानों पर लागू होती है और छोटे शहरों के लगभग 45 प्रतिशत नौजवानों पर! तो क्या जो शेष नौजवान हैं, वे अपना काम बिना रिश्वत के चलाते हैं? क्या उन्होंने कभी कोई रिश्वत नहीं दी? इस संबंध में यह सर्वेक्षण मौन है। हो सकता है कि उसने यह सवाल नौजवानों से पूछा ही न हो। यह भी संभव है कि जिन नौजवानों ने रिश्वत नहीं दी, उन्हें रिश्वत देने का मौका ही न आया हो। यदि वैसा मौका होता तो वे भी क्यों चूकते? वे भी रिश्वत दे डालते। ‘शार्टकट’ कौन नहीं चाहता है?  यह हाल उस पीढ़ी का है, जो रामलीला मैदान और इंडिया गेट पर नारे लगा रही थी कि ‘गली-गली में चोर है।’

तो क्या हम यह मान लें कि पूरे भारत ने ही भ्रष्टाचार के आगे घुटने टेक दिए हैं? लगता तो ऐसा ही है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। रिश्वत लेने वालों और देने वालों की संख्या मुश्किल से एक-दो प्रतिशत ही होगी। देश के 70-80 करोड़ लोग जो 30-35 रू. रोज पर गुजारा करते हैं, उन्हें रिश्वत से क्या लेना देना है? रिश्वत तो सिर्फ 25-30 करोड़ लोगों याने मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग का सिरदर्द है। उनमें भी सभी लोगों को न तो रिश्वत देने की जरूरत पड़ती है और न ही सारे सरकारी कर्मचारी रिश्वतखोर हैं। रिश्वत लेने और देने वालों की संख्या कुछ हजार और कुछ लाख तक ही सीमित है। इन लोगों को आप सिर्फ कानून के डर से सीधा नहीं कर सकते। इन्हें सीधा करने के लिए सीधी कार्रवाई की जरूरत है। रिश्वतखोरों के दफ्तरों पर अहिंसक धरने दिए जाएं और उनका जमकर प्रचार किया जाए तो ऐसी सौ - दो सौ घटनाएं ही सारे देश के रिश्वतखोरों को हिला देंगी। यदि देश के दस करोड़ नौजवान रिश्वत लेने और देने के विरूद्ध शपथ ले लें तो सोने में सुहागा हो जाए।

 

dr.vaidik@gmail.com
फरवरी 2012
ए-19,  प्रेस एनक्लेव, नई दिल्ली-17,   
फोन (निवास)  2651-7295,  मो. 98-9171-1947

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समाज को कुरीतियों का कोढ़ लगा है और हम हाथ पर हाथ धरे मूक दर्शक बने बैठे हैं? डा वैदिक ने इस ज्वलंत समस्या पर अपने विचार और सुझाव रखे हैं, आप क्या कहते हैं?

आप स्वयं से पूछिए इस रिश्वतखोरी जैसी समस्या में आपका भी योगदान है कि नहीं? आज देश की पुलिस, नेता, अभिनेता और यहाँ तक की जनसाधारण अधिकतर भ्रष्ट हो चुके हैं तो पुलिस, नेता, अभिनेता कौन है? हम ही तो हैं? वे कोई आसमान से तो उतरे नहीं? क्या किया जाए? कैसे मुक्ति मिली हमें इस भ्रष्टाचार के झंझावत से? क्या आप डॉ. वेदप्रताप वैदिक के विचारों व उनके सुझावों से सहमत हैं? क्या आप इस बारे में कुछ कहना चाहते हैं?

  • क्या आप के पास इस समस्या का कोई समाधान है? क्या अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फंसे और पंगु होते समाज को आप कोई समाधान सुझा पाएंगे?

  • क्या आप आज के इस परिवेश, सामाजिक ढांचे और जीवन में परिवर्तन चाहते हैं? क्या किया जाए?

  • अपने विचार केवल तभी दें यदि आप का कर्म उनसे मेल खाता हो - हाथी दांत वाले लोग कृपया क्षमा करें!

 
तृतीय विश्व हिंदी सम्मेलन, नई दिल्ली, भारत  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

तृतीय विश्व हिंदी सम्मेलन 28-30 अक्टूबर, 1983 नई दिल्ली, भारत में आयोजित किया गया था।

 
फिजी के प्रधानमंत्री से बातचीत  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

अन्याय के सामने न झुका हूं, न झुकूंगा - महेन्द्र चौधरी

 
इंटरनेट नहीं जानते तो साहित्यकार नहीं!  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

क्या इंटरनेट और फेसबुक जानने-समझने वाले ही हिंदी साहित्यकार हैं? सरकार की माने तो ऐसा ही लगता है। क्योंकि यदि किसी साहित्यकार अथवा हिन्दी प्रेमी को हिन्दी सम्मेलन में शिरकत करना है तो उसे अनिवार्य रूप से ऑनलाइन आवेदन भरना होगा। इसके बिना वह सम्मेलन में हिस्सेदारी नहीं कर पाएगा।

 
कैसे होगी हिंदी की प्रगति और विकास  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

सम्मेलन के सत्रों का हाल तो कुछ और ही था। प्रत्येक सत्र में पत्रकारों का छायाचित्र लेने या रिकार्डिंग करने पर प्रतिबंध था। वे शायद उद्घाटन व समापन समारोह के लिए ही आमंत्रित किए गए थे। मंच पर बैठे पत्रकार बिरादरी के मित्र भी सरकारी पाले में जाकर सरकारी बातें करने लगे थे, "अरे! इतना बड़ा समारोह है! ज़रा आयोजकों की मजबूरी भी तो समझिए!"  
 
अब कई पत्रकार बेचारे तो बुरे फंसे उनके पास मीडिया का पास तो था वे अंदर जा सकते थे लेकिन अब प्रतिनिधि वाला परिचय-पत्र न होने से चाय-नाश्ता निषेध था। इधर हाल यह था कि प्रतिनिधियों और अतिथियों को चाय के लिए तरसते देखा!

कुछ कहेंगे हमने तो ऐसा नहीं देखा - भाई, आप विशिष्ट जो थे! अंदर जो श्रेणी विभाजन किया गया था प्रतिनिधियों और विशिष्ट का - उसमें अंतर तो रहता ही है, न! स्वाभाविक है!
 
अगले दिन फिर कुछ पत्रकार चाय-नाश्ते की सोच रहे थे पर अब उनके पास 'प्रतिनिधि' वाला बिल्ला तो था नहीं यथा स्वयंसेवी सैनिक उन्हें अंदर कैसे जाने देते? मैं बाहर आया तो एक पत्रकार ने पूछा, "आपको अंदर कैसे जाने दिया?"
मैंने कहा, "भैय्या, भुगतान किया है! मीडिया के साथ-साथ प्रतिनिधि वाला बिल्ला भी है, न! शुल्क चुकाया है!"

अब भाई साहब क्या कहते चाय-नाश्ते का ख्याल छोड़ पानी पीने चल दिए फिर बाकी दिन वे दिखाई नहीं पड़े।
 
दो पत्रकार भाई अपने होटल में ही पास में ठहरे थे। एक सपत्नीक थे। पहले दिन तो पत्नी के साथ सम्मेलन में ही थे लेकिन जब से चायपान व दोपहर का भोजन बंद हुआ उनका सम्मेलन में आना भी बंद हुआ। अब आयोजकों का गणित देखिए! आमंत्रित किए गए पत्रकारों को होटल व कार की सेवाएं दी गई थीं। होटल में सुबह का नाश्ता करके भाई लोग पत्नी को लेकर 70-80 किलोमीटर जाकर शाम को वापिस आ जाते थे। एक जो पर्चा बांटा था ना के आसपास 'भाई साहब' ने वे सब देख लिए थे। 

दूसरे भाई भी मुफ्त की गाड़ी खूब दौड़ा रहे थे। मैंने पूछा, "आप दिखाई ही नहीं दिए?"
 
"सत्रों में तो बैठना 'अलाउड' नहीं। खाने के लिए भी वहाँ 'प्राब्लम' आ रही थी तो बस होटल में ही रहे, कुछ इधर-उधर घूम लिए।"

- रोहित कुमार 'हैप्पी'
 
राम प्रसाद बिस्मिल का अंतिम पत्र  - रामप्रसाद बिस्मिल

शहीद होने से एक दिन पूर्व रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने एक मित्र को निम्न पत्र लिखा -

 
महात्मा गांधी के जीवन के अंतिम 48 घंटों की झलकियां -वी कल्याणम  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

बृहस्पतिवार, 29 जनवरी, 1948 गांधीजी के लिये गतिविधियों से भरा व्यस्त दिन था। दिन ढलने तक वे थक कर निढाल हो गए थे। उन्हें चक्कर आ रहे थे। “फिर भी मुझे यह पूरा करना ही है,” उन्होंने कांग्रेस के संविधान के मसौदे की ओर इशारा करते हुए कहा। लगभग सवा नौ बजे वे सोने के लिये उठे। आज बापू बहुत ही अनमने से थे और मनु से उन्होंने एक उर्दू का शेर कहा जिसका अर्थ था-- “दुनिया के बग़ीचे की बहार बहुत थोड़े दिनों के लिये होती है। थोड़े दिनों के लिये ही इसे देखो।”

शुक्रवार 30 जनवरी को वे सदा की तरह सुबह 3.30 बजे प्रार्थना के लिये उठ गए। महात्मा गांधी के जीवन का अंतिम दिन भी उनके अन्य दिनों जैसा ही सुव्यवस्थित और व्यस्त रहने वाला था। अपनी लकड़ी की चैकी से उठकर उन्होंने अपने दल के अन्य सदस्यों को जगाया। दल के साथी थे बृजकृष्ण, चांदीवाला, मनु तथा आभा उनकी प्रपौत्रियाँ। उनकी चिकित्सक डॉ॰ सुशीला नैयर जो अक्सर उनके साथ होती थीं, पाकिस्तान में थीं। गांधीजी ने एक सामान्य भारतीय के ही समान दातून से दाँत साफ किये।

प्रार्थना के बाद अपनी प्रिय “लाठियां”, मनु और आभा का सहारा लेकर वे धीरे-धीरे अन्दर के कमरे में आ गए जहाँ मनु ने उनके पैरों को कम्बल से ढक दिया। बाहर अभी भी अन्धेरा ही था मगर गांधीजी की दिनचर्या आरम्भ हो चुकी थी। पिछली रात के लिखे कांग्रेस के संविधान के मसौदे को उन्होंने ठीक किया। यही वह दस्तावेज़ था जो उनकी अंतिम वसीयत और वक्तव्य कहलाया। प्रातः 4.45 बजे उन्होंने एक गिलास नींबू, शहद और गुनगुने पानी का सेवन किया और एक घंटे बाद अपना दैनिक सन्तरे का रस पिया। काम करते हुए, उपवास के कारण आई कमज़ोरी की वजह से वे थक गए और थोड़ी देर के लिये सो गए।

आधे घंटे बाद ही उठकर गांधीजी ने अपनी पत्राचार की फाइल मांगी। पिछले दिन उन्होंने किशोरलाल मशरूवाला को एक पत्र लिखा था। अपने उपवास के दौरान ही गांधीजी को बहुत खांसी हो गई थी। उसको ठीक करने के लिये वे लौंग के चूर्ण के साथ गुड़ की गोली ले रहे थे। लेकिन सुबह तक लौंग का चूर्ण ख़त्म हो गया था। बापू के साथ कमरे में टहलने की जगह मनु खांसी की गोलियाँ बनाने बैठ गईं। “मैं अभी आपके साथ आती हूँ,” उन्होंने गांधीजी से कहा, “वरना रात के लिये ज़रूरत पड़ने पर कोई दवा नहीं होगी।” मगर सदा वर्तमान को महत्व देने वाले गांधीजी ने कहा “कौन जाने रात से पहले क्या होने वाला है। मैं ही जीवित रहूँगा या नहीं। यदि रात को मैं जीवित रहा तो तुम उस समय दवाई आसानी से बना लेना।”

गांधीजी की पहली भेंट सुबह 7 बजे राजन नेहरू से थी जो अमेरिका जा रही थीं। गांधीजी ने उनसे अपने कमरे में दैनिक कामकाज के बीच ही बातचीत की। अभी उनमें अपने नियमित खुली हवा में सैर करने की शक्ति वापस नहीं आई थी।

प्रातः आठ बजे, वे अपनी मालिष के लिये तैयार हुए। प्यारेलाल के कमरे के सामने से गुज़रते हुए उन्होंने अपने द्वारा पिछली रात को तैयार किया हुआ कांग्रेस का नया संविधान उन्हे संशोधन के लिये दिया। उन्होंने कहा “जहाँ ज़रूरत हो खाली स्थानों को भर दो,” साथ ही यह भी जोड़ा “इसे मैंने बहुत भारी तनाव में लिखा है।”
इसके बाद गांधीजी ने अपना स्नान संपन्न किया। स्नान के बाद मनु ने बापू का (जो लगभग पाँच फुट पाँच इंच लम्बे थे) वजन लिया। वे 109 1/2 पाउन्ड के थे। उपवास के बाद से उनका ढाई पाउन्ड वज़न बढ़ गया था। उनकी ताकत भी धीरे-धीरे लौट रही थी। प्यारेलाल को भी ऐसा लगा कि स्नान के बाद बापू तरोताज़ा लग रहे थे। पिछली रात का तनाव मानो ख़त्म हो गया था।

सुबह साढ़े नौ बजे उन्होंने अपना सुबह का भोजन लिया, जिसके पहले उन्होंने बंगला लेखन का दैनिक अभ्यास किया। अपनी ऐतिहासिक नोआखली यात्रा के दौरान उन्होंने बंगला भाषा सीखने का प्रयास आरम्भ किया था जिसे उन्होंने जीवन के अन्तिम दिन तक जारी रखा। आज उन्होंने लिखा “भैरव का घर नैहाटी में है। शैल उसकी बड़ी पुत्री है। आज शैल का कैलाश के साथ विवाह है।”

अभी वे अपना प्रातः का भोजन कर ही रहे थे, जिसमें 12 आउंस बकरी का दूध, कच्ची और पकी सब्जियाँ, सन्तरे, चार टमाटर, गाजर का रस, अदरक, नींबू और एलो का निचोड़ था, जब प्यारेलाल उनके पास कांग्रेस के संविधान का मसौदा लेकर आए। गांधीजी ने ध्यान से हर संशोधन को देखा और पंचायत नेताओं की संख्या में गिनती के दोष को सुधारा।

वर्ष 1920 में जब कांग्रेस की बागडोर गांधीजी को सौंपी गई थी तब उन्होंने सबसे पहले इसके लिये एक संविधान तैयार किया, जिसके साथ कांग्रेस स्वाधीनता संग्राम के निर्णायक दौर में पहुँची। जीवन के अंतिम दिन भी वे कांग्रेस के लिये नया संविधान तैयार करने में लगे हुए थे जिसके आधार पर स्वाधीन भारत का संचालन होना था। आज मानो उनका जीवन चक्र पूर्णता को प्राप्त कर रहा था।

थोड़ी देर विश्राम के बाद उन्होंने मिलने आनेवालों से भेंट की। दिल्ली से कुछ मौलवी आए हुए थे, जिन्होंने उनके वर्धा जाने के विचार को अपनी सहमति दी। गांधीजी ने उन लोगों से कहा कि वे थोड़े ही समय के लिये अनुपस्थित रहेंगे। “हाँ, यह और बात है कि ईश्वर की इच्छा कुछ और हो और कोई अनसोची घटना घट जाए।”
उन्होंने बिशन से कहा-- “मेरे ज़रूरी पत्र मुझे दे दो। मुझे उनके जवाब आज ही देने चाहिये, क्या पता कल मैं रहूँ, न रहूँ।”

अपने जीवन के अन्तिम दिन में गांधीजी ने अपने अतिप्रिय स्वर्गीय सचिव श्री महादेव देसाई का भी स्मरण किया। महादेव भाई की जीवनी लिखी जानी थी, परन्तु कुछ आर्थिक पहलुओं पर असहमति हो रही थी। गांधीजी ने इस बारे में अपनी खिन्नता प्रकट की। महादेव की डायरियों का संपादन और संकलन भी होना था। इस कार्य के लिये आदर्श व्यक्ति, श्री नरहरि पारीख अस्वस्थ थे। गांधीजी ने निर्णय किया कि यह कार्य श्री चन्द्रशेखर शुक्ल को सौंपा जाए। श्री मशरूवाला भी इस कार्य के लिये योग्य दावेदार थे।

महात्मा गांधी श्री सुधीर घोष से भी मिले, जिन्होंने उन्हें बताया कि किस प्रकार ब्रिटिश प्रेस में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तथा उप-प्रधानमंत्री श्री सरदार वल्लभभाई पटेल के बीच के मतभेदों को उछाला जा रहा था। गांधीजी इस विषय में आज दोपहर को सरदार पटेल से मिलने वाले थे और आज ही शाम सात बजे नेहरू तथा मौलाना आज़ाद से बातचीत करने वाले थे।

गांधीजी से मिलने एक सिन्धी प्रतिनिधि मण्डल आया। उनके कष्टों से उन्हें बहुत पीड़ा पहुँची। गांधीजी ने उन लोगों को बताया कि किस प्रकार एक शरणार्थी ने उन्हें संसार छोड़कर हिमालय में बसने की सलाह दी। हँसते हुए उन्होंने कहा कि यह तो एक दृष्टि से बहुत अच्छा होगा क्योंकि फिर वे दोहरे महात्मा बन जाएंगे और अपनी ओर और भी बड़ी भीड़ को आकर्षित कर सकेंगे। लेकिन वे प्रसिद्धि नहीं चाहते थे, वे एक ऐसी शक्ति और शान्ति चाहते थे जिससे लोगों को चारों ओर फैले अंधकार और दुःख में से बाहर निकाल सकें।

गांधीजी जनवरी की सुहानी धूप में लेट गए और अपने पेट पर मिट्टी का लेप लगाया। अपने चेहरे को उन्होंने नोआखली से लाई हुई बाँस की टोपी से ढक लिया। मनु और आभा उनके पैर दबाने लगीं।

दोपहर 1.30 बजे के लगभग बृजकृष्ण ने गांधीजी को मास्टर तारा सिंह का सन्देश पढ़कर सुनाया जिसमें उन्हें हिमालय जाकर बसने को कहा गया था। पिछले दिन ही एक शरणार्थी ने उनसे ऐसी बात कही थी, जिससे उन्हें चोट पहुँची थी। गांधीजी ने इसके बाद गाजर और नींबू का रस लिया। कुछ दृष्टिहीन और बेघर शरणार्थी उनसे मिलने आए। उन्होंने बृजकृष्ण को उनके बारे में कुछ हिदायते दीं। इसके बाद उन्हें इलाहाबाद में हुए दंगों की रिपोर्ट पढ़ कर सुनाई गई।

समय बीतता जा रहा था। अब मध्य दोपहरी थी।

दैनिक साक्षात्कारों का सिलसिला लगभग 2.15 बजे फिर आरम्भ हुआ। भारतवर्ष से तथा विदेशों से भी आए अनेक लोग उनसे मिलना चाहते थे। दो पंजाबी उनसे अपने ज़िले में हरिजनों के विषय में बोले। फिर बारी आई दो सिन्धियों की। श्रीलंका के एक प्रतिनिधि अपनी बेटी के साथ उनसे मिलने आए और उनसे श्रीलंका के स्वाधीनता दिवस (14 फरवरी) के लिये संदेह देने का अनुरोध किया। उनकी बेटी ने गांधीजी के हस्ताक्षर लिये, जो उनका अन्तिम हस्ताक्षर सिद्ध हुआ। दोपहर तीन बजे उनसे एक प्रोफेसर मिलने आए और उन्होंने गांधीजी से कहा कि जो वे आज सीख दे रहे हैं वह बुद्ध के समय में दी गई थी। लगभग 3.15 बजे फ्रांस के प्रसिद्ध फोटोग्राफर हेनरी कार्टियर-ब्रेसन ने उन्हें अपने चित्रों की एल्बम भेंट दी। गांधीजी एक पंजाबी तथा एक सिंधी प्रतिनिधिमंडल से मिले जिन्होंने उनसे दिल्ली में 15 फरवरी को आयोजित होने वाले सम्मेलन के लिये अध्यक्ष पद के लिये सुझाव मांगा। गांधीजी ने कांग्रेस अध्यक्ष डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद का नाम सुझाया तथा अपने संदेह देने की बात भी की।

चार बजे तक गांधीजी ने अन्तिम साक्षात्कार समाप्त किया। अब सरदार पटेल के आने का समय भी हो गया था। ठीक चार बजे सरदार पटेल अपनी पुत्री तथा सचिव मणिबेन के साथ आ गए। गांधीजी और सरदार पटेल तत्काल ही विचार-विमर्श में लीन हो गए।

गांधीजी के उपवास से आई स्थिति में नरमी के बावजूद सरदार पटेल तथा नेहरूजी के बीच आए मतभेदों से गांधीजी अवगत थे तथा इसी कारण से चिन्तित भी थे। वे चाहते थे दोनों के विचारों में मेल रहे।

गांधीजी ने सरदार पटेल से कहा कि यद्यपि उन्होंने पहले सोचा था कि सरदार पटेल अथवा नेहरूजी, दोनों में से किसी एक को मंत्रिमण्डल छोड़ना होगा, परन्तु अब वे भारत के नए गवर्नर जनरल माउन्टबैटेन से सहमत थे कि दोनों ही का होना ज़रूरी था। उन्होंने सरदार पटेल से कहा कि ‘वे शाम की प्रार्थना सभा में यह कहेंगे और नेहरू से भी यही कहेंगे। उन्होंने कहा कि दोनों के बीच किसी मुश्किल स्थिति में वे अपना वर्धा जाना भी स्थगित कर सकते हैं।

सायं 4.30 बजे आभा उनका अन्तिम भोजन लेकर आई: उसमें बकरी का दूध, पकी तथा कच्ची सब्ज़ियाँ, सन्तरे और अदरक, नींबू, मक्खन और एलो का जूस था। अपने कमरे में फर्श पर बैठकर उन्होंने अपना अन्तिम भोजन लिया तथा सरदार पटेल से बातचीत भी जारी रखी। मणिबेन, सरदार की पुत्री तथा सचिव भी इस बातचीत के दौरान उपस्थित थीं।

अभी गांधीजी और सरदार पटेल की बातचीत चल ही रही थी कि दो काठियावाड़ी नेता आए और मनु से गांधीजी से मिलने की इच्छा प्रकट की। मनु के पूछने पर गांधीजी ने सरदार पटेल के सामने कहा,“उनसे कहो कि मैं उनसे मिलूँगा, लेकिन प्रार्थना सभा के बाद, और वह भी तब यदि मैं जीवित रहा। हम तब बातचीत करेंगे।” मनु ने गांधीजी का उत्तर अतिथियों को दे दिया और उनसे प्रार्थना सभा के लिये रुकने को कहा। फिर से, गांधीजी ने अपनी मृत्यु की संभावना की बात की थी और इस बार तो उन्होंने यह बात अपनी सुरक्षा के लिये मुख्य रूप से ज़िम्मेदार व्यक्ति के सामने ही कही थी।

उसके बाद गांधीजी ने अपना प्रिय चर्खा मांगा और अन्तिम बार बड़े प्रेमपूर्वक चर्खा काता। मौलाना आजा़द और जवाहरलाल नेहरू उनसे प्रार्थना के बाद मिलने वाले थे।

सायं 5.00 बजे आभा ने गांधीजी को घड़ी दिखाई। गांधीजी उठे, अपनी चप्पल पहनी और कमरे के किनारे वाले दरवाजे़ से शाम के धुंधलके में बाहर निकल आए। उन्होंने ठंड के कारण गरम शाल ओढ़ रखी थी। आभा और मनु के साथ वे प्रार्थना स्थल की ओर बढ़ने लगे, जिन्हें वे अपनी ‘लाठियां’ कहते थे। आज उन्हें प्रार्थना में देर हो गई थी। उन्होंने कहा “मैं दस मिनट लेट हो गया हूँ, और मुझे देरी बिल्कुल नापसन्द है। मुझे ठीक पाँच बजे यहाँ होना चाहिये।” मनु उनकी दायीं तरफ तथा आभा बायीं तरफ थी। और इस तरह महाप्रयाण की ओर निकल पड़े महात्मा गांधी। जीवन-यात्रा का आरम्भ उन्होंने पोरबन्दर से किया और वह राजकोट, इंग्लैण्ड के इनरटेम्पल, मुम्बई, डरबन, पीटर मारित्ज़बर्ग, जोहान्सबर्ग, फीनिक्स आश्रम, टोल्स्टोय फार्म, चम्पारण, साबरमती, यरवदा, दांडी, किंग्स्ले हाल, सेन्ट जेम्स पैलेस, स्विट्ज़रलैण्ड, रोम, सेवाग्राम, आग़ा ख़ा महल, नोआखली, कोलकाता होते हुए अन्तिम पड़ाव दिल्ली तक आ पहुँचे।

आज वे बग़ीचे के दायीं ओर लताओं से घिरे परगोलों के रास्ते से नहीं आ रहे थे। देर के कारण उन्होंने बग़ीचे के बीच का रास्ता लिया था जो सीधा प्रार्थना स्थल को जाता था।

उपस्थित भीड़ हज़ारों की संख्या में थी जिसमें साधारण वस्त्रों में 20 पुलिसकर्मी भी मौजूद थे। सीढ़ियों पर पहुँचकर गांधीजी ने भीड़ के अभिवादन के लिये हाथ जोड़े। सदा की तरह लोगों ने उनके लिये रास्ता बनाया। संयोगवश आज गांधीजी के आगे कोई नहीं था।

और अब वह चरम मुहूर्त आ गया था जब गांधीजी ने अमरत्व की ओर अन्तिम पग लिये।

छटी हुई भीड़ में से हत्यारे ने गांधीजी को अपनी ओर आते देखा। उसने हत्या की योजना को बदलते हुए उसी समय निर्णय लिया कि वह उनको इसी समय एकदम नज़दीक से गोलियों का निशाना बनाएगा। गांधीजी सीढ़ियों से दो चार कदम आगे आ गए थे। हत्यारा राह बनाता हुआ हाथ जोड़े हुए उनकी ओर बढ़ने लगा। उन जुड़े हाथों के भीतर छोटी सी विदेशी बेरेटा पिस्तौल छुपी हुई थी। वह झुका और बोला, “नमस्ते गांधीजी।” गांधीजी ने उत्तर में हाथ जोड़े। मनु को लगा कि वह व्यक्ति गांधीजी के पैर छूने जा रहा था, जो बापू को पसन्द नहीं था। मनु ने उससे कहा “भाई, बापू को पहले ही प्रार्थना के लिये देर हो गई है। आप क्यों उन्हें परेशान कर रहे हैं?”

गांधीजी को अपने जीवन पर और एक हमले का पूर्वाभास था। जब यह सब हो रहा था वे शायद समझ गए हों कि ..यही वह क्षण है।

हत्यारे ने बाएँ हाथ से मनु को ज़ोर से धकेल दिया और तभी उसके दाएँ हाथ में छुपी पिस्तौल भी दिख गई। मनु के हाथ से सभी चीजे़ नीचे गिर गईं। कुछ समय तक वह इस अनजान हत्यारे से बहस करती रही। पर तभी हाथ से पूजा की माला गिर जाने पर वह उसे उठाने के लिये जै़से ही झुकी उसी समय ...... शान्त वातावरण को भेदती हुई तीन गोलियों की भयानक आवाज़ ने सबको स्तब्ध कर दिया। आततायी ने गांधीजी के षरीर में तीन गोलियाँ उतार दी थी। तीसरी गोली लगने तक गांधीजी खड़े ही थे, हाथ भी जुड़े हुए थे, और फिर उनके मुँह से काँपते स्वरों में निकला “हे राम, हे राम।” फिर व्यक्तिगत अहिंसा के अन्तिम चरण में वे धीरे-धीरे धरती पर गिर गए। हाथ अब भी जुड़े हुए ही थे। वातावरण में धुआँ भर गया था। चारों ओर दहशत भरी भगदड़ सी मच गई थी। दोनों पोतियों की गोद में सिर रखे महात्मा गांधी धरती पर गिरे हुए थे। उनका चेहरा विवर्ण हो गया था और सफेद शाल धीरे-धीरे रक्त-रंजित होती जा रही थी। वेदना के इस असहनीय क्षण को झेलने में असमर्थ कुछ ही पलों में महात्मा गांधी का देहावसान हो गया था। सूर्य भी अपनी अन्तिम किरणों को समेट क्षितिज के उस पार विलुप्त हो गया मानो इस मर्मान्तक घटना के साक्षी होने के अपराध-बोध को सहन नहीं कर पा रहा हो।

शाम के 5.17 हुए थे। भारत और विश्वभर में फैले उनके असंख्य मित्र, सहयोगी इस विश्वास के साथ निश्चिंत थे कि उनके प्रिय बापू जीवित हैं।

आभा और मनु अन्य लोगों की सहायता से गांधीजी को बिड़ला हाउस स्थित उनके कमरे में ले गईं। उनके नेत्र अधखुले थे और ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वे जीवित हों। सरदार पटेल जो कुछ ही समय पहले गांधीजी के पास से गए थे, वापस फिर उनके पास आ गए थे। नब्ज़ देखते हुए उन्हें लगा मानो साँसें चल रहीं हों। दवाई के बक्से में एड्रिनेलिन ढूंढी गई पर नहीं मिली।

एक व्यक्ति डॉ॰ डी. पी. भार्गव को साथ लेकर आया। गोली लगने के दस मिनट बाद जब डॉ॰ भार्गव ने गांधीजी की जाँच की तो कहा “दुनिया की कोई शक्ति उन्हें नहीं बचा सकती थी। उनकी मृत्यु दस मिनट पहले हो चुकी थी।”

गांधीजी के नियमित युवा परिचारक उनके शरीर के पास बैठ कर सुबक रहे थे। डॉ॰ जीवराज मेहता आए और बापू की मृत्यु की पुष्टि की। तभी भीड़ में आवाजें उभरी “जवाहरलाल नेहरू जी आ गए हैं।” वे गांधीजी के पास बैठे और उनके ख़ून से सने वस्त्रों में मुँह छुपा कर रोने लगे। इसके बाद वहाँ बापू के सबसे छोटे पुत्र देवदास, शिक्षा मंत्री मौलाना आज़ाद और अन्य गणमान्य व्यक्ति भी पहुँचने लगे।

देवदास ने पिता के शरीर को छूकर देखा तो पाया कि वह अभी भी गर्म था। उनका सिर आभा की गोद में था और चेहरे पर एक शान्त मुस्कान थी। ऐसा लग रहा था मानो वे सो रहे हों। उस पल को याद करते हुए देवदास ने बाद में लिखा, “हम लोग रात भर उनके पास बैठे रहे। उनका चेहरा इतना शान्त था और शरीर को घेरती हुईं ऐसी सौम्य दिव्य ज्योति व्याप्त थी कि शोक मनाना मानो अपराध हो।”

बाहर, एक विशाल जनसमूह एकत्रित हो गया था जो अपने प्रिय बापू के अन्तिम दर्शन को व्याकुल था। बिड़ला हाउस की छत पर उनके नश्वर शरीर को उज्ज्वल प्रकाश में इस प्रकार रखा गया कि नीचे सभी लोग उनके दर्शन कर सकें। हज़ारो लोग वहाँ मौन होकर, विलाप करते हुए गुज़रे।

मध्यरात्रि के आसपास उनके शरीर को पुनः नीचे कमरे में ले जाया गया। सारी रात शोकाकुल लोग सुबकियों के बीच श्रीमद़ भगवतगीता तथा अन्य धर्मग्रन्थों का पाठ करते रहे। इस प्रकार 30 जनवरी 1948 की उस कालरात्रि का अन्त हुआ परन्तु “मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है” की वाणी में कालजयी हो गए हैं, महात्मा गांधी।

- वी कल्याणम

 
नए जमाने का एटीएम      - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

धनाधन बैंक के मैनेजर आज बड़े गुस्से में हैं। नामी-गिरामी लोगों की लोन फाइल बगल में पटकते हुए सेक्रेटरी से कहा, किसानों की फाइल ले आओ। देखते हैं, किसके पास से कितना आना है। सेक्रेटरी ने आश्चर्य से कहा, सर! कहीं ओस चाटने से प्यास बुझती है। बड़े लोगों की लोन वाली फाइलें छोड़ गरीब किसानों की फाइलों में आपको क्या मिलेगा। किसानों के सारे लोन एक तरफ, हाई-प्रोफाइल लोन एक तरफ। मैनेजर ने गुर्राते हुए कहा, तुम्हें क्या लगता है कि मैं बेवकूफ हूँ। यहाँ हर दिन झक मारने आता हूँ। हाई प्रोफाइल लोन वाली फाइन छूने का मतलब है बिन बुलाए मौत को दावत देना। हाई-प्रोफाइल वाले किसी से डरते नहीं हैं। इनकी पहुँच बहुत ऊपर तक होती है। मेरी गर्दन तक पहुँचना उनके लिए बच्चों का खेल है। गरीबों का क्या है, वे अपनी इज्जत बचाने के लिए कुछ भी करके लोन चुकायेंगे। वैसे भी गरीबों का सुनने वाला कौन है? देश में अस्सी करोड़ से अधिक गरीब हैं। वे केवल वोट के लिए पाले जाते हैं। ऐसे लोगों को गली का कुत्ता भी डरा जाता है। 

 
अभिसारिका | गद्यगीत  - जगन्नाथ प्रसाद चौबे वनमाली

प्रतिदिन संझा लाली से झोली भर अभिसार के लिए अपना श्रृंगार करती है।
तारे आकर गीत गाने लगते हैं।

 
रूस के प्रो. लुदमिला खोखलोवा से बातचीत  - डॉ संध्या सिंह | सिंगापुर

 “हिंदी दोस्ती की भाषा है, इससे अलग किस्म के सपने पूरे होते हैं।”

 
एक यांत्रिक संतान  - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

उसकी कोख में बच्ची थी। अब आप पूछेंगे कि मुझे कैसे पता? कहीं डॉक्टरों को खिला-पिलाकर मालूम तो नहीं करवा लिया! यदि मैं कहूँ कि उसकी कोख में बच्चा था, तब निश्चित ही आप इस तरह का सवाल नहीं करते। आसानी से मान लेते। हमारे देश में लिंग भेद केवल व्याकरण तक सीमित है। वैचारिक रूप से हम अब भी पुल्लिंगवादी हैं। खैर जो भी हो उसकी कोख में बच्चा था या बच्ची यह तो नौ महीने बाद ही मालूम होने वाला था। चूंकि पहली संतान होने वाली थी सो घर की बुजुर्ग पीढ़ी खानदान का नाम रौशन करने वाले चिराग की प्रतीक्षा कर रही थी। वह क्या है न कि कोख से जन्म लेने वाली संतान अपने साथ-साथ कुछ न दिखाई देने वाले टैग भी लाती हैं। मसलन लड़का हुआ तो घर का चिराग और लड़की हुई तो घर की लक्ष्मी। कोख का कारक पुल्लिंग वह इस बात से ही अत्यंत प्रसन्न रहता है कि उसके साथ पिता का टैग लग जाएगा, जबकि कोख की पीड़ा सहने वाली ‘वह’ माँ बाद में बनेगी, सहनशील पहले।

 
ऐसे रोकें, शादी की फिजूलखर्ची  - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik

भारतीय समाज में तीन बड़े खर्चे माने जाते हैं। जनम, मरण और परण! कोई कितना ही गरीब हो, उसके दिल में हसरत रहती है कि यदि उसके यहां किसी बच्चे ने जन्म लिया हो या किसी की शादी हो या किसी बुज़ुर्ग की मृत्यु हुई हो तो वह अपने सगे-संबंधियों और मित्रों को इकट्ठा करे और उन्हें कम से कम भोजन तो करवाए। इस इच्छा को गलत कैसे कहा जाए? यह तो स्वाभाविक मानवीय इच्छा है। लेकिन यह इच्छा अक्सर बेकाबू हो जाती है। लोग अपनी चादर के बाहर पाँव पसारने लगते हैं।

 
चतुर्थ विश्व हिंदी सम्मेलन, पोर्ट लुइस, मॉरीशस  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

चतुर्थ विश्व हिंदी सम्मेलन 02-04 दिसम्बर, 1993 को  पोर्ट लुइस, मॉरीशस में आयोजित किया गया था।

 
तुम क्या जानो पीर पराई?  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान लाल परेड मैदान में बहुत से छात्र-छात्राओं से वार्तालाप व साक्षात्कार हुआ। वे विश्व हिंदी सम्मेलन देखने आए थे लेकिन प्रवेश-अनुमति न पाने से खिन्न थे। उनमें से अधिकतर तो केवल विश्व हिंदी सम्मेलन का नाम भर सुनकर भोपाल चले आए थे। उन्हें इसके बारे में सीमित जानकारी थी व वे सम्मेलन में प्रवेश-शुल्क से भी अनभिज्ञ थे।

कानपुर से आया एक युवक 'प्रभु आज़ाद' लगातार दो दिनों तक मेरे पीछे पड़ा रहा कि मुझे किसी तरह अंदर ले चलिए। मैं चाहते हुए भी विवश था। मैंने कुछ को लगातार तीनों दिन बाहर बैठे पाया। यह उनका हिंदी स्नेह है कि वे अंतिम दिन तक आस लगाए रहे कि शायद वे प्रवेश कर पाएं!
 
Students complaining about VHS that they are not allowed to enter.

एक दिन तो एक लड़की इतनी आतुर थी प्रवेश करने को, कि पूछिए मत! मैंने अपने जीवन में इतना असहाय कभी महसूस नहीं किया होगा! क्या करता...मैं तो स्वयं एक परदेसी से अधिक क्या था!  मेरे पास केवल सहानुभूति थी और यह उनके विशेष काम की नहीं थी।

मुंबई से आए मनोज ने कहा, "सम्मेलन के नाम से ऐसा आभास होता है कि निशुल्क ही होगा।" कुछ और ने भी अपनी सहमति जता दी। "हम, शुल्क चुकाने को भी तैयार हैं लेकिन बताया गया है कि डेट निकल चुकी सो नहीं हो सकता।"

"हाँ, भाई। आवेदन भरने की तिथि निकल चुकी है। सम्मेलन की साइट पर सब दिया तो था।" मैंने कहा।
 
"लेकिन हमें तो कुछ पता ही नहीं था। साइट का कहाँ से पता चलता। इतना ही पता चला समाचारों में कि भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन हो रहा है। साइट कहाँ प्रचारित की गई थी सामान्य लोगों व छात्रों में? हमें तो नहीं पता था।" उसके कई और साथियों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए 'ना' के अंदाज वाला सिर हिला दिया।
 
"वैसे यह सम्मेलन किसके लिए हो रहा है?" एक  युवती ने सवाल किया फिर स्वयं ही उत्तर दे दिया, "सामान्य लोगों के लिए तो नहीं लगता! क्या केवल कुछ ख़ास लोगों के लिए है? इससे हिंदी का प्रचार कैसे होगा?"

Students disappointed with Vishwa Hindi Sammelan
 
"जहाँ शहर की सजावट करने में इतना खर्चा हुआ है, वहाँ कम से कम यहाँ बाहर एक प्रोजेक्टर ही लगा देते! हम बाहर बैठकर ही देख लेते।" बैंच से उठकर पास आते एक अन्य युवक ने कहा।

"क्या करें, भाई!"
 
"आप मुख्यमंत्री से मिलें तो उन्हें हमारी शिकायत तो दर्ज करवा ही सकते हैं।"
 
"हाँ, आपके लिए अधिक नहीं कर सका पर आपकी यह शिकायत मैं अवश्य मुख्यमंत्री तक पहुंचा दूंगा।" मैंने उन्हें सांत्वना दी।
 
"हिंदी का प्रचार करने वाले तो सब बाहर ही बैठे हैं!" एक ने बैंच पर बैठे बहुत से अपने छात्र मित्रों की ओर हाथ घुमाते हुए कहा। फिर बहुत-से युवक-युवतियों ने एक साथ ठहाका लगा दिया। मैं भी मुसकरा कर उनके अट्हास में छिपे दर्प, व्यंग्य और पीड़ा का आकलन करता हुआ आगे बढ़ गया। मैं सोच रहा था कि सचमुच यदि एक प्रोजेक्टर बाहर किसी पंडाल में लगाया जाता तो कितना अच्छा होता! 
 
सम्मेलन के अंतिम दिन मुझे अवसर मिल ही गया। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री विदेश से आए अतिथियों से मिलने आए तो मैंने बाहर बैठे छात्र-छात्राओं की पीड़ा का मुद्दा उनके समक्ष रखा। छात्रों द्वारा प्रोजेक्टर वाले सुझाव की भी चर्चा की। विदेश से आए एक-आध अतिथि को मेरा यह मुद्दा उठाना भाया नहीं। मुझे संतुष्टि थी कि मैंने उन छात्र-छात्राओं से किया वादा निभाया। 
 
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
[साभार- वेब दुनिया]
 
गांधी को श्रद्धांजलि  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

30 जनवरी 1948 के सूर्यास्त के साथ पंडित नेहरु को लगा कि हमारे जीवन से प्रकाश चला गया है। चारों ओर अंधकार व्याप्त है। लेकिन दूसरे ही क्षण सत्य प्रकट हुआ और नेहरु ने कहा "मेरा कहना गलत है, हजारों वर्षों के अंत होने तक यह प्रकाश दिखता ही रहेगा और अनगिनत लोगों को सांत्वना देता रहेगा।"

 
जयप्रकाश मानस से बातचीत  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

स्वंयसेवी आधार पर हिंदी-संस्कृति का प्रचार-प्रसार - जयप्रकाश मानस
[2012]

 
समय के झरोखे से बालेश्वर अग्रवाल  - बालेश्वर अग्रवाल

17 जुलाई 1921 को उड़ीसा के बालासोर (बालेश्वर) नगर में बालेश्वर अग्रवाल का जन्म हुआ।

 
ऑनलाइन शिक्षण : कोरोना संकट में आशा की एक किरण  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन के अतिरिक्त कोरोना वायरस से शिक्षा व्यवस्था सर्वाधिक प्रभावित हुई है। प्राथमिक पाठशाला से लेकर उच्च स्तरीय शैक्षणिक संस्थानों में और पठन-पाठन का भविष्य अनिश्चितता के दौर से गुजर रहा है। जब से कोरोना की महामारी ने विश्व को अपनी चपेट में लिया है, विश्वव्यापी तालाबंदी का एक नया दौर चल रहा है। हमारा संपूर्ण सामाजिक ढांचा कोविड-19 (कोरोना) से बुरी तरह प्रभावित हुआ है।

 
असल हकदार  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

एक वकील ने बीमारी की हालत में अपना सब माल और असबाब पागल, दीवाने और सिड़ियों के नाम लिख दिया। लोगों ने पूछा, ‘यह क्या?'

 
आशा भोंसले का तमाचा  - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik

आशा भोंसले और तीजन बाई ने दिल्लीवालों की लू उतार दी। ये दोनों देवियाँ 'लिम्का बुक ऑफ रेकार्ड' के कार्यक्रम में दिल्ली आई थीं। संगीत संबंधी यह कार्यक्रम पूरी तरह अँग्रेज़ी में चल रहा था। यह कोई अपवाद नहीं था। आजकल दिल्ली में कोई भी कार्यक्रम यदि किसी पांच-सितारा होटल या इंडिया इंटरनेशनल सेंटर जैसी जगहों पर होता है तो वहां हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा के इस्तेमाल का प्रश्न ही नहीं उठता। इस कार्यक्रम में भी सभी वक्तागण एक के बाद एक अँग्रेज़ी झाड़ रहे थे। मंच संचालक भी अँग्रेज़ी बोल रहा था।

 
पांचवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन, ट्रिनिडाड एवं टोबेगो  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

पांचवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन (04-08 अप्रैल, 1996)
ट्रिनिडाड एवं टोबेगो

 
कबिरा आप ठगाइए...  - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

मनुष्य का जीवन यों बहुत दुखमय है, पर इसमें कभी-कभी सुख के क्षण आते रहते हैं। एक क्षण सुख का वह होता है, जब हमारी खोटी चवन्नी चल जाती है या हम बगैर टिकट बाबू से बचकर निकल जाते हैं। एक सुख का क्षण वह होता है, जब मोहल्ले की लड़की किसी के साथ भाग जाती है और एक सुख का क्षण वह भी होता है, जब 'बॉस' के घर छठवीं लड़की होती है।

 
‘फीजी हिंदी’ साहित्य एवं साहित्यकार: एक परिदृश्य  - सुभाषिनी लता कुमार | फीजी

‘फीजी हिंदी’ फीजी में बसे भारतीयों द्वारा विकसित हिंदी की नई भाषिक शैली है जो अवधी, भोजपुरी, फीजियन, अंग्रेजी आदि भाषाओं के मिश्रण से बनी है। फीजी के प्रवासी भारतीय मानक हिंदी की तुलना में, फीजी हिंदी भाषा में अपनी भाव-व्यंजनाओं को अच्छी तरह से अभिव्यक्त कर पाते हैं। इसीलिए भारतवंशी साहित्यकारों ने अंग्रेजी भाषा के मोह को छोड़कर हिंदी में साहित्यिक कृतियाँ लिखनी प्रारंभ कीं। मातृभाषा के इसी प्रेम के फलस्वरूप फीजी हिंदी की साहित्यिक कृतियों का सृजन भी हुआ है, जिनमें रेमंड पिल्लई का ‘अधूरा सपना’ और सुब्रमनी का ‘डउका पुराण’ प्रमुख हैं।

 
एक से दो  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

एक काने ने किसी आदमी से यह शर्त बदी कि, "जो मैं तुमसे ज्यादा देखता हूँ तो पचास रूपया जीतूँ।"

 
हिन्दी भाषा का भविष्य  - गणेशशंकर विद्यार्थी | Ganesh Shankar Vidyarthi

[ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के गोरखपुर अधिवेशन में अध्यक्ष पद से दिये हुए भाषण का कुछ अंश ]

 
छठा विश्व हिंदी सम्मेलन, ब्रिटेन  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

छठा विश्व हिंदी सम्मेलन (14-18 सितंबर, 1999)
लंदन, ब्रिटेन विश्व हिंदी सम्मेलन में पारित मंतव्य

 
साहित्य का उद्देश्य  - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand

सज्जनों,

 
मैं कहानी कैसे लिखता हूँ  - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand

मेरे किस्से प्राय: किसी-न-किसी प्रेरणा अथवा अनुभव पर आधारित होते हैं, उसमें मैं नाटक का रंग भरने की कोशिश करता हूँ मगर घटना-मात्र का वर्णन करने के लिए मैं कहानियाँ नहीं लिखता। मैं उसमें किसी दार्शनिक और भावनात्मक सत्य को प्रकट करना चाहता हूँ। जब तक इस प्रकार का कोई आधार नहीं मिलता, मेरी कलम ही नहीं उठती। आधार मिल जाने पर मैं पात्रों का निर्माण करता हूँ। कई बार इतिहास के अध्ययन से भी प्लाट मिल जाते हैं लेकिन कोई घटना कहानी नहीं होती, जब तक कि वह किसी मनोवैज्ञानिक सत्य को व्यक्त न करे।

 
अथ हिंदी कथा अच्छी थी पर अपने झंडे को क्या हुआ  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में 'हिंदी अथ कथा'  निःसंदेह अविस्मरणीय था।  'हिंदी अथ कथा' में लहराये जाने वाले झंडे से चक्र गायब था। मंत्रियों, पत्रकारों व साहित्यकारों की उपस्थिति में यह झंडा कई मिनटों तक लहराता रहा। सब तालियां बजाते रहे, झंडा भी लहराता रहा। मैंने साथ वाले पत्रकार से पूछा कि यह झंडे को क्या हुआ। उसने कंधे झटक कर, "आइ डांट नो!" बता दिया।

 
हिन्दी की होली तो हो ली  - गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas

(इस लेख का मज़मून मैंने होली के ऊपर इसलिए चुना कि 'होली' हिन्दी का नहीं, अंग्रेजी का शब्द है। लेकिन खेद है कि हिंदुस्तानियों ने इसकी पवित्रता को नष्ट करके एकदम गलीज़ कर दिया है। हिन्दी की होली तो हो ली, अब तो समूचे भारत में अंग्रेजी की होली ही हरेक चौराहे पर लहक रही है।)

 
फीजी के प्रवासी भारतीय साहित्यकार प्रो. बृज लाल की दृष्टि  - सुभाषिनी लता कुमार | फीजी

अकादमिक स्वर्गीय प्रो. बृज लाल का नाम फीजी तथा दक्षिण प्रशान्त महासागर के प्रतिष्ठित साहित्यकारों की अग्रीम श्रेणी में लिया जाता है। उनके पूर्वज गिरमिटिया मजदूर के रूप में सन् 1908 में भारत से लगभग 12000 हजार किलोमीटर दूर फीजी द्वीप आकर बस गए। प्रो. बृजलाल के उत्थान की कहानी फीजी के एक साधारण गाँव के स्कूल ‘ताबिया सनातन धर्म’ से शुरू होती है। उन्होंने अपनी शिक्षा और कड़ी मेहनत के बल पर ऑस्ट्रेलियन राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में प्रशांत और एशियाई इतिहास के एमेरिटस प्रोफेसर का पद संभाला तथा अपने लेखन के माध्यम से प्रवासी भारतीयों के इतिहास को रचनात्मक रूप प्रदान किया है।

 
सच्चा घोड़ा  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

एक सौदागर किसी रईस के पास एक घोड़ा बेचने को लाया और बार-बार उसकी तारीफ में कहता, "हुजूर, यह जानवर गजब का सच्चा है।"

 
राष्ट्रीयता | निबंध  - गणेशशंकर विद्यार्थी | Ganesh Shankar Vidyarthi

देश में कहीं-कहीं राष्‍ट्रीयता के भाव को समझने में गहरी और भद्दी भूल की जा रही है। आये दिन हम इस भूल के अनेकों प्रमाण पाते हैं। यदि इस भाव के अर्थ भली-भाँति समझ लिये गये होते तो इस विषय में बहुत-सी अनर्गल और अस्‍पष्‍ट बातें सुनने में न आतीं। राष्‍ट्रीयता जातीयता नहीं है। राष्‍ट्रीयता धार्मिक सिद्धांतों का दायरा नहीं है। राष्‍ट्रीयता सामाजिक बंधनों का घेरा नहीं है। राष्‍ट्रीयता का जन्‍म देश के स्‍वरूप से होता है। उसकी सीमाएँ देश की सीमाएँ हैं। प्राकृतिक विशेषता और भिन्‍नता देश को संसार से अलग और स्‍पष्‍ट करती है और उसके निवासियों को एक विशेष बंधन-किसी सादृश्‍य के बंधन-से बाँधती है। राष्‍ट्र पराधीनता के पालने में नहीं पलता। स्‍वाधीन देश ही राष्‍टों की भूमि है, क्‍योंकि पुच्‍छ-विहीन पशु हों तो हों, परंतु अपना शासन अपने हाथों में न रखने वाले राष्‍ट्र नहीं होते। राष्‍ट्रीयता का भाव मानव-उन्‍नति की एक सीढ़ी है। उसका उदय नितांत स्‍वाभाविक रीति से हुआ। योरप के देशों में यह सबसे पहले जन्‍मा। मनुष्‍य उसी समय तक मनुष्‍य है, जब तक उसकी दृष्टि के सामने कोई ऐसा ऊँचा आदर्श है, जिसके लिए वह अपने प्राण तक दे सके। समय की गति के साथ आदर्शों में परिवर्तन हुए। धर्म के आदर्श के लिए लोगों ने जान दी और तन कटाया। परंतु संसार के भिन्‍न-भिन्‍न धर्मों के संघर्षण, एक-एक देश में अनेक धर्मों के होने तथा धार्मिक भावों की प्रधानता से देश के व्‍यापार, कला-कौशल और सभ्‍यता की उन्नति में रुकावट पड़ने से, अंत में धीरे-धीरे धर्म का पक्षपात कम हो चला और लोगों के सामने देश-प्रेम का स्‍वाभाविक आदर्श सामने आ गया। जो प्राचीन काल में धर्म के नाम पर कटते-मरते थे, आज उनकी संतति देश के नाम पर मरती है। पुराने अच्‍छे थे या ये नये, इस पर बहस करना फिजूल ही है, पर उनमें भी जीवन था और इनमें भी जीवन है। वे भी त्‍याग करना जानते थे और ये भी और ये दोनों उन अभागों से लाख दर्जे अच्‍छे और सौभाग्‍यवान हैं जिनके सामने कोई आदर्श नहीं और जो हर बात में मौत से डरते हैं। ये पिछले आदमी अपने देश के बोझ और अपनी माता की कोख के कलंक हैं। देश-प्रेम का भाव इंग्‍लैंड में उस समय उदय हो चुका था, जब स्‍पेन के कैथोलिक राजा फिलिप ने इंग्‍लैंड पर अजेय जहाजी बेड़े आरमेड़ा द्वारा चढ़ाई की थी, क्‍योंकि इंग्‍लैंड के कैथोलिक और प्रोटेस्‍टेंट, दोनों प्रकार के ईसाइयों ने देश के शत्रु का एक-सा स्‍वागत किया। फ्रांस की राज्‍यक्रांति ने राष्‍ट्रीयता को पूरे वैभव से खिला दिया। इस प्रकाशमान रूप को देखकर गिरे हुए देशों को आशा का मधुर संदेश मिला। 19वीं शताब्‍दी राष्‍ट्रीयता की शताब्‍दी थी। वर्तमान जर्मनी का उदय इसी शताब्‍दी में हुआ। पराधीन इटली ने स्‍वेच्‍छाचारी आस्ट्रिया के बंधनों से मुक्ति पाई। यूनान को स्‍वाधीनता मिली और बालकन के अन्‍य राष्‍ट्र भी कब्रों से सिर निकाल कर उठ पड़े। गिरे हुए पूर्व ने भी अपने विभूति दिखाई। बाहर वाले उसे दोनों हाथों से लूट रहे थे। उसे चैतन्‍यता प्राप्‍त हुई। उसने अँगड़ाई ली और चोरों के कान खड़े हो गये। उसने संसार की गति की ओर दृष्टि फेरी। देखा, संसार को एक नया प्रकाश मिल गया है और जाना कि स्‍वार्थपरायणता के इस अंधकार को बिना उस प्रकाश के पार करना असंभव है। उसके मन में हिलोरें उठीं और अब हम उन हिलोरों के रत्‍न देख रहे हैं। जापान एक रत्‍न है - ऐसा चमकता हुआ कि राष्‍ट्रीयता उसे कहीं भी पेश कर सकती है। लहर रुकी नहीं। बढ़ी और खूब बढ़ी। अफीमची चीन को उसने जगाया और पराधीन भारत को उसने चेताया। फारस में उसने जागृति फैलाई और एशिया के जंगलों और खोहों तक में राष्‍ट्रीयता की प्रतिध्‍वनि इस समय किसी न किसी रूप में उसने पहुँचाई। यह संसार की लहर है। इसे रोका नहीं जा सकता। वे स्‍वेच्‍छाचारी अपने हाथ तोड़ लेंगे - जो उसे रोकेंगे और उन मुर्दों की खाक का भी पता नहीं लगेगा - जो इसके संदेश को नहीं सुनेंगे। भारत में हम राष्‍ट्रीयता की पुकार सुन चुके हैं। हमें भारत के उच्‍च और उज्‍ज्‍वल भविष्‍य का विश्‍वास है। हमें विश्‍वास है कि हमारी बाढ़ किसी के राके नहीं रुक सकती। रास्‍ते में रोकने वाली चट्टानें आ सकती हैं। बिना चट्टानें पानी की किसी बाढ़ को नहीं रोक सकतीं, परंतु एक बात है, हमें जान-बूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए। ऊटपटाँग रास्‍ते नहीं नापने चाहिए। कुछ लोग 'हिंदू राष्‍ट्र' - 'हिंदू राष्‍ट्र' चिल्‍लाते हैं। हमें क्षमा किया जाय, यदि हम कहें-नहीं, हम इस बात पर जोर दें - कि वे एक बड़ी भारी भूल कर रहे हैं और उन्‍होंने अभी तक 'राष्‍ट्र' शब्‍द के अर्थ ही नहीं समझे। हम भविष्‍यवक्‍ता नहीं, पर अवस्‍था हमसे कहती है कि अब संसार में 'हिंदू राष्‍ट्र' नहीं हो सकता, क्‍योंकि राष्‍ट्र का होना उसी समय संभव है, जब देश का शासन देशवालों के हाथ में हो और यदि मान लिया जाय कि आज भारत स्‍वाधीन हो जाये, या इंग्‍लैंड उसे औपनिवेशिक स्‍वराज्‍य दे दे, तो भी हिंदू ही भारतीय राष्‍ट्र के सब कुछ न होंगे और जो ऐसा समझते हैं - हृदय से या केवल लोगों को प्रसन्‍न करने के लिए - वे भूल कर रहे हैं और देश को हानि पहुँचा रहे हैं। वे लोग भी इसी प्रकार की भूलकर रहे हैं जो टर्की या काबुल, मक्‍का या जेद्दा का स्‍वप्‍न देखते हैं, क्‍योंकि वे उनकी जन्‍मभूमि नहीं और इसमें कुछ भी कटुता न समझी जानी चाहिए, यदि हम य‍ह कहें कि उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और उनके मरिसेये - यदि वे इस योग्‍य होंगे तो - इसी देश में गाये जाएँगे, परंतु हमारा प्रतिपक्षी, नहीं, राष्‍ट्रीयता का विपक्षी मुँह बिचका कर कह सकता है कि राष्‍ट्रीयता स्‍वार्थों की खान है। देख लो इस महायुद्ध को और इंकार करने का साहस करो कि संसार के राष्‍ट्र पक्‍के स्‍वार्थी नहीं है? हम इस विपक्षी का स्‍वागत करते हैं, परंतु संसार की किस वस्‍तु में बुराई और भलाई दोनों बातें नहीं हैं? लोहे से डॉक्‍टर का घाव चीरने वाला चाकू और रेल की पटरियाँ बनती हैं और इसी लोहे से हत्‍यारे का छुरा और लड़ाई की तोपें भी बनती हैं। सूर्य का प्रकाश फूलों को रंग-बिरंगा बनाता है पर वह बेचारा मुर्दा लाश का क्‍या करें, जो उसके लगते ही सड़कर बदबू देने लगती है। हम राष्‍ट्रीयता के अनुयायी हैं, पर वही हमारी सब कुछ नहीं, वह केवल हमारे देश की उन्‍नति का उपाय-भर है।

 
गिरमिटियों को श्रद्धांजलि (भाग 2)‘ का लोकार्पण  - सुभाषिनी लता कुमार | फीजी

नरेश चंद की ऑडियो सीडी ‘गिरमिट गाथा- गिरमिटियों को श्रद्धांजलि (भाग 2)‘ का लोकार्पण

 
सत्ता का नया फार्मुला  - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

एक समय था जब सरकार जनता से बनती थी। चुनाव की गर्मी के समय एयर कंडीशनर और बारिश की फुहार जैसे वायदे करने वाले जब सरकार में आते हैं, तब इनके वायदों को न जाने कौन सा लकवा मार जाता है कि कुछ भी याद नहीं रहता। अब तो जनता को बेवकूफ बनाने का एक नया फार्मूला चलन में आ गया है। चुनाव के समय S+R=JP का फार्मूला धड़ल्ले से काम करता है। यहां S का मूल्य शराब और R का मूल्य रुपया और JP का मतलब जीत पक्की। यानी शराब और रुपए का संतुलित मिश्रण गधे तक के सिर ताज पहना सकता है। यदि चुनाव जीत चुके हैं और पाँच साल का कार्यकाल पूरा होने वाला है, तब जीत का फार्मूला बदल जाता है। वह फार्मूला है PPP । यहां पहले P का मतलब पेंशन। पेंशन यानी बेरोजगारी पेंशन, वृद्धा पेंशन, विधवा पेंशन, किसान पेंशन, आदि-आदि। दूसरे P का अर्थ है पैकेज। इस पैकेज के लाखों-करोड़ों रुपए पैकेज की घोषणा कर दे फिर देखिए जनता तो क्या उनका बाप भी वोट दे देगा। वैसे भी जनता को लाखों-करोड़ों में से कुछ मिले न मिले शून्य की भरमार जरूर मिलेगी। इसी फार्मूले के तीसरे P का अर्थ है पगलाहट। जनता को मनगढ़ंत और उटपटांग उल्टे-सीधे सभी वायदे कर दें, फिर देखिए जनता में जबरदस्त पगलाहट देखने को मिलेगी।

 
सातवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन, सूरीनाम  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

सातवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन (5-9 जून, 2003)
पारामारिबो, सूरीनाम

 
न्यायशास्त्र  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

मोहिनी ने कहा, "न जाने हमारे पति से, जब हम दोनों की एक ही राय है तब, फिर क्यों लड़ाई होती है? ... क्योंकि वह चाहते हैं कि मैं उनसे दबूँ और यही मैं भी।"

 
पत्रकार का दायित्त्व  - गणेशशंकर विद्यार्थी | Ganesh Shankar Vidyarthi

हिंदी में पत्रकार-कला के संबंध में कुछ अच्‍छी पुस्‍तकों के होने की बहुत आवश्‍यकता है। मेरे मित्र पंडित विष्‍णुदत्‍त शुक्‍ल ने इस पुस्‍तक को लिखकर एक आवश्‍यक काम किया है। शुक्‍ल जी सिद्धहस्‍त पत्रकार हैं। अपनी पुस्‍तक में उन्‍होंने बहुत-सी बातें पते की कही हैं। मेरा विश्‍वास है कि पत्रकार कला से जो लोग संबंध करना चाहते हैं, उन्‍हें इस पुस्‍तक और उसकी बातों से बहुत लाभ होगा। मैं इस पुस्‍तक की रचना पर शुक्‍ल जी को हृदय से बधाई देता हूँ।

 
तेरा न्यू ईयर तो मेरा नया साल  - प्रो. राजेश कुमार

नया साल आ गया है और हमारे महाकवि इस तैयारी में है किस अभूतपूर्व और बेजोड़ तरीके से लोगों को नए साल की शुभकामनाएँ दी जाएँ कि वे बस अश-अश करते रह जाएँ। तभी उनके मन में संदेह का कीड़ा रेंगा, जिसके चलते वे हाल ही में उन्होंने लोगों को क्रिसमस दिवस मनाने को मानसिक गुलामी का प्रतीक घोषित करते हुए, तुलसी दिवस (तुलसीदास नहीं, तुलसी पौधा) की शुभकामनाएँ थी, और इसके चलते लोगों की नज़रों में हास्यास्पद बनकर रह गए थे। जाने कहाँ से किसी ने उनके पास तुलसी दिवस की जानकारी भेजी थी, जिसे राष्ट्र प्रेम के वशीभूत होकर उन्होंने इस बात को नज़रअंदाज़ करते हुए भी फ़ॉरवर्ड करने में बहुत गौरव महसूस नहीं अनुभव किया था कि उन्हें तुलसी दिवस तू याद क्रिसमस दिवस ने ही दिलाई थी, अन्यथा तुलसी भी पहले से मौजूद थी और क्रिसमस तो खैर पहले से था ही!

 
हिंदी में उर्दू शब्दों का इस्तेमाल  - प्रो. राजेश कुमार

हम कभी-कभी शुद्धतावादी लोगों से सुनते हैं कि हिंदी में उर्दू शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। आपने इस तरह की सूची भी देखी होगी, जिसमें लोग उर्दू शब्दों के हिंदी पर्याय देते हैं और सुझाव देते हैं कि उनके स्थान पर हिंदी शब्दों का ही उपयोग करना ज्यादा उचित होगा।

 
यंत्र, तंत्र, मंत्र | व्यंग्य  - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

एक यंत्र था। उसके लिए राजा-रंक एक समान थे। सो, मंत्री जी की कई गोपनीय बातें भजनखबरी को पता चल गयीं। मंत्री जी कुछ कहते उससे पहले ही भजनखबरी उनकी पोल खोल बैठा। पहले तो मंत्री जी को खूब गुस्सा आया। वह क्या है न कि कुर्सी पर बने रहने के लिए गुस्से को दूर रखना पड़ता है। इसलिए मंत्री जी ने भजनखबरी को नौकरी से बर्खास्त करने की जगह उसे उसके यंत्र के साथ अपने कार्यालय में नियुक्त कर दिया।

 
सिंगापुर में हिंदी का फ़लक | विश्व में हिंदी  - डॉ संध्या सिंह | सिंगापुर

विश्व आज वैश्विक गाँव बनता जा रहा है और इस वैश्विक गाँव में तमाम भाषाएँ अपने वजूद को बरक़रार रखने की कोशिश में लगी हैं। एक भाषा का हावी होना कई बार दूसरी भाषा के लिए ख़तरा उत्पन्न कर देता है और ऐसा कई परिस्थितियों में देखा गया है कि इस जद्दोजहद की लड़ाई में कभी-कभी कुछ भाषाएँ और संकुचित होती जाती हैं लेकिन कुछ लड़कर और निखरती है। हिंदी को लेकर भी कई अटकलें उसके राजभाषा बनने के पूर्व से आज तक लगाई जाती रही हैं और हिंदी के भारत की राष्ट्रभाषा न बनने के कारण कई बार प्रसार में अड़चनें भी आई हैं। पर वहीं यह भी सत्य है कि भारत की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा भले ही हिंदी को न मिला हो लेकिन भारत से बाहर भारत की प्रतिनिधि भाषा के रूप में वह अवश्य अपने पंख पसार रही है। हिंदी भाषा के प्रति पिछले कुछ वर्षों में अधिक जागरूकता बढ़ी है। आज अगर कहें कि हिंदी वह रेलगाड़ी स्वरूप प्रतीत हो रही है जो वैश्विक पुल पर अपनी गति से आगे बढ़ रही है तो संभवत: अतिशयोक्ति नहीं होगी। दुनिया के मानचित्र में भारतीयों ने हर भाग में पहुँचने की कोशिश की है और अपने साथ भाषा और संस्कृति की मंजुषा भी ले जाने की कोशिश की है। जैसा कि माना जाता है कि भाषा ही चाहे व्यक्ति हो, समाज हो या राष्ट्र हो उसकी अस्मिता-पहचान की निकष है। हिंदी में इस दायित्व को निभाने और पूरा करने की सभी खूबियाँ मौजूद हैं जिनके बल पर आज वह भारत की भाषा के साथ ही कहीं न कहीं विश्व भाषा की ओर बढ़ रही है। लाख विरोधों के बाद भी हिंदी अपनी पहचान विश्व जनता से करा चुकी है और आगे बढ़ रही है। हिंदी का वैश्विक परिदृश्य बहुत व्यापक है और यही व्यापकता हिंदी की लोकप्रियता का कारण है।

 
उपन्यास अरुणिमा के अंश  - रीता कौशल | ऑस्ट्रेलिया

रीता कौशल के उपन्यास ‘अरुणिमा’ के अंश

 
धर्म की आड़  - गणेशशंकर विद्यार्थी | Ganesh Shankar Vidyarthi

इस समय, देश में धर्म की धूम है। उत्पात किए जाते हैं, तो धर्म और ईमान के नाम पर, और ज़िद की जाती है, तो धर्म और ईमान के नाम पर। रमुआ पासी और बुद्धू मियाँ धर्म और ईमान को जानें, या न जानें, परंतु उनके नाम पर उबल पड़ते हैं और जान लेने और जान देने के लिए तैयार हो जाते हैं।

 
गुरु घंटाल  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

बाबू प्रहलाददास से बाबू राधाकृष्ण ने स्कूल जाने के वक्त कहा, "क्यों जनाब, मेरा दुशाला अपनी गाड़ी पर लिए जाइएगा?"

 
श्रीमती सुक्लेश बली से डॉ. सुभाषिनी कुमार की बातचीत  - सुभाषिनी लता कुमार | फीजी

फीजी में हिंदी शिक्षण का अलख जगाती हिंदी सेवी श्रीमती सुकलेश बली से साक्षात्कार

Mrs Suklesh Bali

 
आधी रात का चिंतन | ललित निबंध  - डॉ. वंदना मुकेश | इंग्लैंड

‘सर’ के यहाँ घुसते ही लगा कि शायद घर पर कुछ भूल आई हूँ। लेकिन समझ में नहीं आया। अरे, आप सोच रहे होंगे , ये ‘सर’ कौन हैं? तो बताऊँ कि ‘सर’ हैं डॉ. केशव प्रथमवीर, भूतपूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग पुणे विद्यापीठ। कब गुरु से पितृ-तुल्य हो गये, पता ही नही चला। ...और भारत–यात्रा पर बेटी पिता से न मिले वह तो संभव ही नहीं है। सो पुणे पँहुचते ही रात सर के पास रुकने की तैयारी से चल दी। दिमाग में घूम रही थी उनकी वह दीवार जिसपर पुस्तकें ही पुस्तकें सजी हैं। मेरे सोने की व्यवस्था कर के सर बात्रा ‘सर’ के पास सोने चले गये।

 
हैलो सूरज!  - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

हो न हो चाचा मामा से बड़े गुस्सैले होते हैं, नहीं तो चंदा को मामा और सूरज को चाचा क्यों कहते। कभी-कभी तो उसका गुस्सा देख दादा भी कह उठते हैं। ब्रह्मांड में कई आकाशगंगा है। उनमें से एक आकाशगंगा का एक छोटा सा भाग है हमारा सौरमंडल और सौरमंडल के प्रधान हैं हमारे सूरज चाचा। सूरज चाचा एक ही स्थान पर टिके हैं। वे किसी के आगे-पीछे चिरौरी करने नहीं घूमते। बल्कि दुनिया के लोग उन्हें गर्मी की सेटिंग करने की सलाह दे डालते हैं। हाँ यह अलग बात है कि वे किसी की नहीं सुनते। उनमें 72% पेड़ों को काटने का हाइड्रोजन वाला गुस्सा, 26% बचे-खुचे पेड़ों को पानी न डालने वाला हिलियम गुस्सा, 2% पर्यावरण के नाम पर नौटंकी करने और मुँह काला करवाने वाला कार्बनी गुस्सा, और कभी-कभी किसी के पुण्य पर ऑक्सीजन बनकर प्रेम लुटाने का काम करते हैं। सूरज चाचा का रंग अभी भी सफ़ेद है, इसलिए कि वे किसी खादी की दुकान से कपड़ा नहीं लेते। 

 
अचूक जवाब  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

एक अमीर से किसी फकीर ने पैसा मांगा। उस अमीर ने फकीर से कहा, "तुम पैसों के बदले लोगों से लियाकत चाहते तो कैसे लायक आदमी हो गये होते।"

 
अंगहीन धनी  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

एक धनिक के घर उसके बहुत-से प्रतिष्ठित मित्र बैठे थे। नौकर बुलाने को घंटी बजी। मोहना भीतर दौड़ा, पर हँसता हुआ लौटा।

 
रामायण में निहित वित्तीय साक्षरता के कुछ संदेश | आलेख   - डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड | न्यूज़ीलैंड

वित्तीय साक्षरता एक ऐसा विषय है जो लोगों में अलग-अलग तरह की भावनाएं जगा देता है और फिर शुरू हो जाती है या तो खर्चो का स्पष्टीकरण या पैसों की कमी का दुःख। पिछले दो दशकों से इसी क्षेत्र में काम करते-करते मैंने बहुत कुछ देखा और सुना है। कुछ उसके आधार पर और कुछ अपने धार्मिक ग्रंथों को खोजने पर सोचा कि क्यों ना हमारे धार्मिक ग्रंथों में छुपे ज्ञान को वित्तीय साक्षरता के साथ जोड़ा जाए। यह लेख उसी प्रयास की एक झलक है।

 
शारदाचरण मित्र  - भारत-दर्शन

हिंदी के दिलदार सिपाही - इन्हें हिंदी से प्यार था 

न्यायमूर्ति शारदाचरण मित्र (17 दिसम्बर, 1848 - 1917) देवनागरी लिपि के प्रबल समर्थक थे। आप चाहते थे कि समस्त भारतववर्ष में उसी का प्रचार हो। इसी उद्देश्य से 1905 में 'एक-लिपि-विस्तार परिषद्‌' नामक सभा स्थापित की, जिसके आप सभापति थे।  इसी परिषद्‌ ने 1907 में एक मासिक 'देवनागर' भी चलाया, जिसमें भारत की विभिन्न भाषाओं के लेख देवनागरी लिपि में रूपांतरित करके प्रकाशित किए जाते थे। इस मासिक में कन्नड़, तेलुगु, बांग्ला आदि की रचनाएं नागरी लिपि में प्रकाशित की जाती थीं।

 
गणेशशंकर विद्यार्थी का अंतिम पत्र  - गणेशशंकर विद्यार्थी | Ganesh Shankar Vidyarthi

आदरणीया बहिन जी!

सादर नमस्कार । मैं आपसे भली-भांति परिचित हूँ। मेरी धारणा है कि मैंने आपको कलकत्ते में आज से दस वर्ष पहले। देखा था। उस समय आप बहुत छोटी थीं। यहाँ की दशा निस्सन्देह बहुत बुरी है । हम लोग शान्ति के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। आपकी यह इच्छा कि आप प्राणों पर खेल कर भी शान्ति के लिये प्रयत्न करें, बहुत स्तुत्य है। किन्तु मैं अभी आपको आगे आने के लिए नहीं कह सकता । मुसलमान नेताओं में से एक भी आगे नहीं बढ़ता।

पुलिस का ढंग बहुत निन्दनीय है। अधिकारी चाहते हैं कि लोग अच्छी तरह से निपट लें । पुलिस खड़ी खड़ी देखा करती है। मस्जिद और मन्दिर में आग लगाई जाती है। लोग पीटे जाते हैं,
और दूकानें लूटी जाती हैं । यह दंगा तो कल ही समाप्त हो जाता, यदि अधिकारी तनिक भी साथ देते। मैंने अपनी आँखों से अधिकारियों की इस उपेक्षा को देखा है। ऐसी अवस्था में मैं आपको कैसे कहूँ कि आप आगे आइए । अधिकारियों को तो यह ईश्वरदत्त अवसर प्राप्त हुआ है। वे इस पर सन्तुष्ट हैं । ईश्वर उनके इस सन्तोष को भंग करें, इस बात को सभी भले आदमी चाहेंगे।

विनीत,

गणेशशंकर विद्यार्थी
'प्रताप' कार्यालय कानपुर 
25-3-1931

[यह पत्र विद्यार्थी जी ने अपने निधन से 7-8 घंटे पहले श्रीमती इंदुमती गोयनका के नाम लिखा था। यह उनका अंतिम पत्र था।] 

 
आत्मनिर्भरता  - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

विद्वानों का यह कथन बहुत ठीक है कि नम्रता ही स्वतन्त्रता की धात्री या माता है। लोग भ्रमवश अहंकार-वृत्ति को उसकी माता समझ बैठते हैं, पर वह उसकी सौतेली माता है जो उसका सत्यानाश करती है। चाहे यह सम्बन्ध ठीक हो या न हो, पर इस बात को सब लोग मानते हैं कि आत्मसंस्कार के लिए थोड़ी-बहुत मानसिक स्वतन्त्रता परम आवश्यक है-चाहे उस स्वतन्त्रता में अभिमान और नम्रता दोनों का मेल हो और चाहे वह नम्रता ही से उत्पन्न हो। यह बात तो निश्चित है कि जो मनुष्य मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसके लिए वह गुण अनिवार्य है, जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिससे अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है। युवा को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि उसकी आकांक्षाएँ उसकी योग्यता से कहीं बढ़ी हुई हैं। उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने बड़ों का सम्मान करे, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करे। ये बातें आत्म-मर्यादा के लिए आवश्यक हैं। यह सारा संसार, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है - हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हमारे कर्म, हमारे भोग, हमारे घर की और बाहर की दशा, हमारे बहुत से अवगुण और थोडे़ गुण सब इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते हैं कि हमें अपनी आत्मा को नम्र रखना चाहिए। नम्रता से मेरा अभिप्राय दब्बूपन से नहीं है जिसके कारण मनुष्य दूसरों का मुँह ताकता है, जिससे उसका संकल्प क्षीण और उसकी प्रज्ञा मन्द हो जाती है, जिसके कारण आगे बढ़ने के समय भी वह पीछे रहता है और अवसर पड़ने पर चटपट किसी बात का निर्णय नहीं कर सकता। मनुष्य का बेड़ा अपने ही हाथ में है, उसे वह चाहे जिधर लगाये। सच्ची आत्मा वही है जो प्रत्येक दशा में, प्रत्येक स्थिति के बीच, अपनी राह आप निकालती है।

 
यस सर  - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

एक काफी अच्छे लेखक थे। वे राजधानी गए। एक समारोह में उनकी मुख्यमंत्री से भेंट हो गई। मुख्यमंत्री से उनका परिचय पहले से था। मुख्यमंत्री ने उनसे कहा - आप मजे में तो हैं। कोई कष्ट तो नहीं है? लेखक ने कह दिया - कष्ट बहुत मामूली है। मकान का कष्ट। अच्छा सा मकान मिल जाए, तो कुछ ढंग से लिखना-पढ़ना हो। मुख्यमंत्री ने कहा - मैं चीफ सेक्रेटरी से कह देता हूँ। मकान आपका 'एलाट' हो जाएगा।

 
अपने-अपने युद्ध, अपनी-अपनी झंडाबरदारी  - प्रो. राजेश कुमार

झंडा हमारा गौरव है, हमारी शान है, हमारी बान है, हमारी आन है, हमारी पहचान है। लहराते हुए झंडे को देखते ही महाकवि के शरीर में सिहरन दौड़ जाती है, वे देश-प्रेम की भावना में गोते खाने लगते हैं, मातृभूमि के लिए कुछ कर गुज़रने कि भावनाओं में बहने लगते हैं।

 
किसी राष्ट्र के वास्तविक निर्माता उस देश के शिक्षक होते हैं  - डा. जगदीश गांधी

शिक्षक दिवस पर विशेष लेख

 
पुर तानह लौट यानि तानह लौट मंदिर  - प्रीता व्यास | न्यूज़ीलैंड

तानह लौट मंदिर
तानह लौट मंदिर में लेखिका, 'प्रीता व्यास' 

(प्रीता व्यास की सद्य प्रकाशित पुस्तक 'बाली के मंदिरों के मिथक' से एक मंदिर की कथा)

 
मैं नर्क से बोल रहा हूँ!  - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

हे पत्थर पूजने वालो! तुम्हें जिंदा आदमी की बात सुनने का अभ्यास नहीं, इसलिए मैं मरकर बोल रहा हूँ। जीवित अवस्था में तुम जिसकी ओर आंख उठाकर नहीं देखते, उसकी सड़ी लाश के पीछे जुलूस बनाकर चलते हो। जिंदगी-भर तुम जिससे नफरत करते रहे, उसकी कब्र पर चिराग जलाने जाते हो। मरते वक्त तक जिसे तुमने चुल्लू-भर पानी नहीं दिया, उसके हाड़ गंगाजी ले जाते हो। अरे, तुम जीवन का तिरस्कार और मरण सत्कार करते हो, इसलिए मैं मरकर बोल रहा हूँ। मैं नर्क से बोल रहा हूँ।

 
पत्रकार, आज़ादी और हमला  - प्रो. राजेश कुमार

मास्टर अँगूठाटेक परेशानी की हालत में इधर से उधर फिर रहे थे, जैसे कोई बहुत ग़लत घटना हो गई हो, और वे उसे सुधारने के लिए भी कुछ न कर पा रहे हों।

“क्यों परेशान घूम रहे हो? ऐसा क्या हो गया?" लतीपतीराम ने पूछा।

 
जगन्नाथ पांचवीं बार प्रधानमंत्री  - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik

कल रात मोरिशस के प्रधानमंत्री श्री अनिरुद्ध जगन्नाथ के साथ लगभग दो घंटे बात हुई। भोजन करते समय हम दोनों साथ-साथ बैठे थे। उनके साथ मोरिशस और भारत में पहले भी अनिरुद्ध जगन्नाथ पांचवी बार मारिशस के प्रधानमंत्री बनेकई बार भोजन और संवाद हुआ लेकिन इस बार जितनी खुली और अनौपचारिक बात हुई, शायद पहले कभी नहीं हुई। सर शिवसागर रामगुलाम के बाद, जो कि पहले प्रधानमंत्री थे, मोरिशस में प्रधानमंत्री का पद सिर्फ तीन लोगों के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। पहले जगन्नाथजी, दूसरे नवीन रामगुलाम और तीसरे पाॅल बेरांजे। यह संयोग है कि इन तीनों नेताओं से मेरे काफी अच्छे संबंध रहे। पिछले 30-35 वर्षों में हम लोग एक-दूसरे के घर भी आते-जाते रहे लेकिन जब हम भारत-मोरिशस संबंधों की बात करते हैं तो सर शिवसागर रामगुलाम के बाद जो नाम सबसे ज्यादा उभरता है, वह अनिरुद्ध जगन्नाथ का ही है। वे अपना नाम रोमन में फ्रांसीसी शैली में लिखते हैं, जिसका उच्चारण होता है-‘एनीरुड जुगनेट' लेकिन मैं उन्हें उनके शुद्ध हिंदी नाम से ही बुलाता हूं। वे पांचवीं बार मोरिशस के प्रधानमंत्री बने हैं। दुनिया की राजनीति मैं जितनी भी जानता हूं, आज तक मैंने किसी भी ऐसे नेता का नाम नहीं सुना जो अपने देश का पांच बार प्रधानमंत्री चुना गया हो। जगन्नाथजी तो दो बार राष्ट्रपति भी चुने गए। उनकी पत्नी लेडी सरोजनी भी बहुत उदार और सुसंस्कृत महिला हैं। मोरिशस में ही स्वनामधन्य स्व. स्वामी कृष्णानंदजी ने ही इन दोनों से मेरा पहला परिचय करवाया था। जगन्नाथजी के पुत्र भी आजकल सांसद हैं। जगन्नाथजी पिछले 50 साल से भी ज्यादा से मोरिशस की राजनीति में सक्रिय हैं। 86 साल की उम्र में भी उनका उत्साह देखने लायक है। उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों के बारे में मुझे बहुत विस्तार से बताया लेकिन अब उनकी भाषा में वह तेजाब नहीं दिखाई दिया, जो 30 साल पहले हुआ करता था। वे भारत-मोरिशस संबंधों में चीन या पाकिस्तान को कोई खास बाधा नहीं मानते। हालांकि उनके बढ़ते असर को वे स्वीकार करते हैं। उन्होंने मोरिशस से भारत आनेवाले अरबों रु. के ‘काले धन' की खबरों को निराधार बताया और दुतरफा कराधान समझौते के महत्व को रेखांकित किया। अफ्रीका में फैल रहे आतंकवाद पर जब मैंने चिंता जाहिर की तो उन्होंने कहा मोरिशस में हम काफी सावधान हैं। चिंता की कोई बात नहीं है।


- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

dr.vaidik@gmail.com
फरवरी 2012
ए-19,  प्रेस एनक्लेव, नई दिल्ली-17,   
फोन (निवास)  2651-7295,  मो. 98-9171-1947

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प्रीता व्यास से बातचीत  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

प्रीता व्यास का जन्म भारत में हुआ लेकिन कई दशकों से वे न्यूजीलैंड निवासी हैं। आपने 175 पुस्तकें लिखी है जिनमें अधिकतर अँग्रेज़ी बाल साहित्य है। अँग्रेज़ी बाल साहित्य के अतिरिक्त आपने हिंदी में भी 'पत्रकारिता परीक्षा विश्लेषण', 'इंडोनेशिया की लोक कथाएं', 'दादी कहो कहानी', 'बालसागर क्या बनेगा', 'जंगल टाइम्स', 'कौन चलेगा चांद पर रहने', 'लफ्फाजी नहीं होती है कविता' इत्यादि हिंदी पुस्तकें लिखी है। आपकी नई पुस्तक 'पहाड़ों का झगड़ा' माओरी लोक-कथा संकलन है। 

 
हिंदी महारानी है या नौकरानी ?  - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik

आज हिंदी दिवस है। यह कौनसा दिवस है, हिंदी के महारानी बनने का या नौकरानी बनने का ? मैं तो समझता हूं कि आजादी के बाद हिंदी की हालत नौकरानी से भी बदतर हो गई है। आप हिंदी के सहारे सरकार में एक बाबू की नौकरी भी नहीं पा सकते और हिंदी जाने बिना आप देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी बन सकते हैं। इस पर ही मैं पूछता हूं कि हिंदी राजभाषा कैसे हो गई ? आपका राज-काज किस भाषा में चलता है ? अंग्रेजी में ! तो इसका अर्थ क्या हुआ ? हमारी सरकारें हिंदुस्तान की जनता के साथ धोखा कर रही हैं। उसकी आंख में धूल झोंक रही हैं। भारत का प्रामाणिक संविधान अंग्रेजी में हैं। भारत की सभी ऊंची अदालतों की भाषा अंग्रेजी है। सरकार की सारी नीतियां अंग्रेजी में बनती हैं। उन्हें अफसर बनाते हैं और नेता लोग मिट्टी के माधव की तरह उन पर अपने दस्तखत चिपका देते हैं। सारे सांसदों की संसद तक पहुंचने की सीढ़ियां उनकी अपनी भाषाएं होती हैं लेकिन सारे कानून अंग्रेजी में बनते हैं, जिन्हें वे खुद अच्छी तरह से नहीं समझ पाते। बेचारी जनता की परवाह किसको है ? सरकार का सारा महत्वपूर्ण काम-काज अंग्रेजी में होता है। सरकारी नौकरियों की भर्ती में अंग्रेजी अनिवार्य है। उच्च सरकारी नौकरियां पानेवालों में अंग्रेजी माध्यमवालों की भरमार है। उच्च शिक्षा का तो बेड़ा ही गर्क है। चिकित्सा, विज्ञान और गणित की बात जाने दीजिए, समाजशास्त्रीय विषयों में भी उच्च शिक्षा और शोध का माध्यम आज तक अंग्रेजी ही है। आज से 53 साल पहले मैंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने का आग्रह करके इस गुलामी की जंजीर को तोड़ दिया था लेकिन देश के सारे विश्वविद्यालय अभी भी उस जंजीर में जकड़े हुए हैं। अंग्रेजी भाषा को नहीं उसके वर्चस्व को चुनौती देना आज देश का सबसे पहला काम होना चाहिए लेकिन हिंदी दिवस के नाम पर हमारी सरकारें एक पाखंड, एक रस्म-अदायगी, एक खानापूरी हर साल कर डालती हैं। हमारे महान राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री को चार साल बाद फुर्सत मिली कि अब उन्होंने केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक बुलाई। उसकी वेबसाइट अभी तक सिर्फ अंग्रेजी में ही है। यदि देश में कोई सच्चा नेता हो और उसकी सच्ची राष्ट्रवादी सरकार हो तो वह संविधान की धारा 343 को निकाल बाहर करे और हिंदी को राष्ट्रभाषा और अन्य भारतीय भाषाओं को राज-काज भाषाएं बनाए। ऐसा किए बिना यह देश न तो संपन्न बन सकता है, न समतामूलक, न महाशक्ति !

 
और बुलडोज़र गिरफ़्तार हो गया  - प्रो. राजेश कुमार

यह इतना आसान काम नहीं था, लेकिन आखिर पुलिस ने अपनी मुस्तैदी से बुलडोज़र को गिरफ़्तार कर ही लिया। बुलडोज़र के लिए हथकड़ी अभी तक नहीं बनी है, इसलिए पुलिस ने उसे रस्सों से बाँधकर ही अपने कब्जे में किया। चारों तरफ़ इस बात से हर्षोल्लास फैल गया, सरकार ने पुलिस की पीठ ठोंकी, और पुलिस ने कहा कि इस बड़ी सफलता के बाद चारों तरफ अमन-चैन, और क़ानून और व्यवस्था कायम हो गई है।

 
भारत में दो हिंदुस्तान हैं  - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik

कोरोना के इन 55 दिनों में मुझे दो हिंदुस्तान साफ-साफ दिख रहे हैं। एक हिंदुस्तान वह है, जो सचमुच कोरोना का दंश भुगत रहा है और दूसरा हिंदुस्तान वह है, जो कोरोना को घर में छिपकर टीवी के पर्दों पर देख रहा है।

 
महाकवि और धारा 420 सीसी की छूट  - प्रो. राजेश कुमार

महाकवि रोज़-रोज़ की बढ़ने वाली क़ीमतों, पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों में लगी हुई आग, और रोज़-रोज़ लगाए जाने वाले तरह-तरह के टैक्स से बहुत परेशान थे। वे अपनी वेतन पर्ची में देखते थे की उनकी तनख़्वाह तो दिनोदिन घटती जा रही है, जो टैक्स का कॉलम जो था, वह दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। उन्हें ऐसा लगने लगा था कि शायद वे अपने लिए नहीं, बल्कि सरकार के लिए ही कमाई कर रहे हैं। सरकार कर-पर-कर लगाए जा रही है, और यहाँ कर में कुछ नहीं बचता – ऐसी परेशानी में भी उन्हें कविता सूझने लगी थी।

 
मदारीपुर जंक्शन के उपन्यासकार बालेंदु द्विवेदी से बातचीत  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

बालेंदु द्विवेदी को उनके पहले उपन्यास ‘मदारीपुर जंक्शन' ने हिंदी उपन्यासकारों की श्रेणी में स्थापित कर दिया है। बालेन्दु द्विवेदी का जन्म उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जनपद के ब्रह्मपुर गाँव में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा पैतृक गाँव के मारुति नंदन प्राथमिक विद्यालय तथा लल्लन द्विवेदी इंटर कालेज में हुई। आपने इंटरमीडिएट की पढ़ाई (1989-1991) चौरी चौरा के ऐतिहासिक स्थल स्थित 'गंगा प्रसाद स्मारक इंटर कालेज' से की और आगे की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक (1991-1994) और परास्नातक (1994-1996) की।

 
कैसे मनाएं होली?  - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik

होली जैसा त्यौहार दुनिया में कहीं नहीं है। कुछ देशों में कीचड़, धूल और पानी से खेलने के त्यौहार जरूर हैं लेकिन होली के पीछे जो सांसारिक निर्ग्रन्थता है, उसकी समझ भारत के अलावा कहीं नहीं है। निर्ग्रन्थता का अर्थ ग्रंथहीन होना नहीं है। वैसे हिंदुओं को मुसलमान और ईसाई ग्रंथहीन ही बोलते हैं, क्योंकि हिंदुओं के पास कुरान और बाइबिल की तरह कोई एक मात्र पवित्र ग्रंथ नहीं होता है। उनके ग्रंथ ही नहीं, देवता भी अनेक होते हैं। मुसलमान और ईसाई अपने आप को अहले-किताब याने ‘किताबवाले आदमी' बोलते हैं।

 
शॉक | व्यंग्य  - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

नगर का नाम नहीं बताता। जिनकी चर्चा कर रहा हूँ, वे हिंदी के बड़े प्रसिद्ध लेखक और समालोचक। शरीर सम्पति काफी क्षीण। रूप कभी आकर्षक न रहा होगा। जब का जिक्र है, तब वे 40 पार कर चुके थे। बिन ब्याहे थे।

 
सर एडमंड हिलेरी से बातचीत  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

यह साक्षात्कार आउटलुक साप्ताहिक के लिए 2007 में लिया गया था।  

 
न्यूज़ीलैंड में हिंदी | क्या आप जानते हैं  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

न्यूज़ीलैंड में हिंदी : क्या आप जानते हैं? 

 
पूर्णिमा वर्मन से बातचीत  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

इन्टरनेट पर हिंदी की वैब दुनिया की बात करें तो पूर्णिमा वर्मन एक सुपरिचित नाम  हैं और सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्तियों में से एक हैं। वैब के आरंभिक दौर में हिंदी को प्रचारित-प्रसारित करने में आपकी अहम् भूमिका रही है। आप दशकों तक शारजहा में रही हैं और वहीं आपने अपनी वैब यात्रा आरम्भ की थी।  वर्तमान में आप लखनऊ (भारत) में हैं।  

 
उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी से साक्षात्कार  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी

 
इटली के हिन्‍दी भाषाविद् मार्को जोल्ली से बातचीत  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

इटली के हिन्‍दी भाषाविद् मार्को जोल्ली हिन्‍दी साहित्य में पीएचडी हैं। आपने भीष्म साहनी पर थीसिस लिखा है। भीष्म साहनी के उपन्यास का इटालियन में अनुवाद किया है। वे लगभग दस वर्षों से हिन्‍दी पढ़ा रहे हैं। उनको इस बार विश्व हिन्‍दी सम्मेलन का भाषा पर केन्द्रित होना अच्छा लगा।

आपने हिन्‍दी कहाँ सीखी?
"मैंने अपनी पढ़ाई इटली से की है लेकिन अभ्यास भारत में ही किया है।"

क्या आप भारत आते-जाते रहते हैं?
"हाँ, मैं भारत आता जाता रहता हूँ। मैं पिछले बीस सालों से यहाँ आता हूँ। सात साल पहले मैं देहली यूनिवर्सिटी में इटालियन पढ़ाता था हिन्‍दी माध्यम से।" कुछ क्षण रुक कर मार्को मुस्कराते हुए कहते हैं, "मज़े की बात यह है कि पूरे विभाग में मैं ही अकेला था जो हिन्‍दी माध्यम से पढ़ाता था। बाकी लोग अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाते थे।"

इटली में हिन्‍दी किस स्तर पर पढ़ाई जाती है?
"वहाँ विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्‍दी पढ़ाई जाती है। देखिए, इंडिया के साथ दिक्कत ये है कि लोग ये सोचते हैं कि इंडिया में अंग्रेज़ी चलती है और यह सोचते हैं हिंदुस्तानियों की वजह से। हिंदुस्तानी यही बोलते हैं कि यहाँ आने के लिए हिन्‍दी सीखने की जरूरत नहीं है, यहाँ पर अँग्रेज़ी चलती है। जबकि यह सच नहीं!"

फिर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, "मेरे ख्याल से अँग्रेज़ी बोलने वालों की संख्या होगा 10 प्रतिशत जो अच्छी अँग्रेज़ी बोलते हैं। अब इस अँग्रेज़ी के चक्कर में हमारे वहाँ के लोगों को लगता है कि हम क्यों हिन्‍दी सीखें जबकि कोई ज़रूरत है नहीं! मैं पिछले दस सालों से अपने वहाँ लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहा हूँ कि भारत जाने के लिए कम से कम वहाँ की एक भाषा सीखनी जरूरी है। सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा तो हिन्‍दी ही है तो हम बोलते हैं कि हिन्‍दी ही सीखो।"

भाषा को लेकर आपके और किस प्रकार के अनुभव हैं?
"आप शुद्ध हिन्‍दी पढ़ाकर भी हिन्‍दी का विकास नहीं कर सकते। शुद्ध हिन्‍दी पढ़कर यदि बच्चे सब्जी वाले के पास जाते हैं तो वे उनकी बात नहीं समझ सकते और उन्हें ऐसे देखेंगे कि ये कहाँ से आए हैं। क्या बात कर रहे हैं? एक मध्यम रास्ता निकाला जाना चाहिए। भाषा लोगों से सम्पर्क करने का एक तरीका होता है।

व्याकरण वगैरह बहुत ज़रूरी होता है पर उससे भी अधिक ज़रूरी होता है भाषा को बोलना। हम हिन्‍दी पढ़ाते हुए इस बात का ध्यान रखते हैं कि लोगों को भारत की संस्कृति के बारे में भी जानकारी दें। हम यह भी समझाते हैं कि हिंदोस्तानियों से मिलने के लिए व भारत की संस्कृति को समझने के लिए भाषा सीखना बहुत ज़रूरी है।"

 
भारतीय उच्चायोग का मतलब सेवा है : उच्चायुक्त परदेशी  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

HC Sh Pardeshi

 
कछुआ-धरम | निबंध  - चंद्रधर शर्मा गुलेरी | Chandradhar Sharma Guleri

 
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे  - शरद जोशी | Sharad Joshi

देश के आर्थिक नन्दन कानन में कैसी क्यारियाँ पनपी-सँवरी हैं भ्रष्टाचार की, दिन-दूनी रात चौगुनी। कितनी डाल कितने पत्ते, कितने फूल और लुक छिपकर आती कैसी मदमाती सुगन्ध। यह मिट्टी बड़ी उर्वरा है, शस्य श्यामल, काले करमों के लिए। दफ्तर दफ्तर नर्सरियाँ हैं और बड़े बाग़ जिनके निगहबान बाबू, सुपरिनटेंडेड डायरेक्टर। सचिव, मन्त्री। जिम्मेदार पदों पर बैठे जिम्मेदार लोग क्या कहने, आई.ए.एस., एम.ए. विदेश रिटर्न आज़ादी के आन्दोलन में जेल जाने वाले, चरखे के कतैया, गाँधीजी के चेले, बयालीस के जुलूस वीर, मुल्क का झंडा अपने हाथ से ऊपर चढ़ाने वाले, जनता के अपने, भारत माँ के लाल, काल अंग्रेजन के, कैसा खा रहे हैं, रिश्वत गप-गप ! ठाठ हो गये सुसरी आज़ादी मिलने के बाद। खूब फूटा है पौधा सारे देश में, पनप रहा केसर क्यारियों से कन्याकुमारी तक, राजधानियों में, ज़िला दफ्तर, तहसील, बी.डी.ओ., पटवारी के घर तक, खूब मिलता है काले पैसे का कल्पवृक्ष पी.डब्ल्यू डी., आर टी. ओ. चुंगी नाके बीज़ गोदाम से मुंसीपाल्टी तक। सब जगह अपनी-अपनी किस्मत के टेंडर खुलते हैं, रुपया बँटता है ऊपर से नीचे, आजू बाजू। मनुष्य- मनुष्य के काम आ रहा है, खा रहे हैं तो काम भी तो बना रहे हैं। कैसा नियमित मिलन है, बिलैती खुलती है, कलैजी की प्लेट मँगवाई जाती है। साला कौन कहता है राष्ट्र में एकता नहीं, सभी जुटे हैं, खा रहे हैं, कुतर-कुतर पंचवर्षीय योजना, विदेश से उधार आया रुपया, प्रोजेक्टों के सूखे पाइपों पर ‘फाइव-फाइव-फाइव' पीते बैठे हँस रहे हैं ठेकेदार, इंजीनियर, मन्त्री के दौरे के लंच-डिनर का मेनू बना रहे विशेषज्ञ। स्वास्थ्य मन्त्री की बेटी के ब्याह में टेलिविजन बगल में दाब कर लाया है दवाई कम्पनी का अदना स्थानीय एजेंट। खूब मलाई कट रही है। हर सब-इन्स्पेक्टर ने प्लॉट कटवा लिया कॉलोनी में। टॉउन प्लानिंग वालों की मुट्ठी गर्म करने से कृषि की सस्ती ज़मीन डेवलपमेंट में चली जाती है। देश का विकास हो रहा है भाई। आदमी चाँद पर पहुँच रहा है। हम शनिवार की रात टॉप फाइव स्टार होटल में नहीं पहुँच सकते, लानत है ऐसे मुल्क पर !

 
जिसके हम मामा हैं  - शरद जोशी | Sharad Joshi

एक सज्जन बनारस पहुँचे। स्टेशन पर उतरे ही थे कि एक लड़का दौड़ता आता।

‘‘मामाजी ! मामाजी !''-लड़के ने लपक कर चरण छूए।

 
विश्वरंग के निदेशक संतोष चौबे से बातचीत  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

विश्वरंग के निदेशक संतोष चौबे से से बातचीत

 
भारत विश्व-शक्ति कैसे बने?  - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik

भारत की सरकारों से मेरी शिकायत प्रायः यह रहती है कि वे शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम क्यों नहीं उठाती हैं? अभी तक आजाद भारत में एक भी सरकार ऐसी नहीं आई है, जिसने यह बुनियादी पहल की हो। कांग्रेस और भाजपा सरकारों ने छोटे-मोटे कुछ कदम इस दिशा में जरूर उठाए थे लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले मेरा सोच यह था कि यदि वे प्रधानमंत्री बन गए तो वे जरूर यह क्रांतिकारी काम कर डालेंगे लेकिन यह तभी हो सकता है जबकि हमारे नेता नौकरशाहों की गिरफ्त से बाहर निकलें। फिर भी 2018 से सरकार ने जो आयुष्मान बीमा योजना चालू की है, उससे देश के करोड़ों गरीब लोगों को राहत मिल रही है। यह योजना सराहनीय है लेकिन यह मूलतः राहत की राजनीति है याने मतदाताओं को तुरंत तात्कालिक लाभ दो और बदले में उनसे वोट लो। इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन इस देश का स्वास्थ्य मूल रूप से सुधरे, इसकी कोई तदबीर आज तक सामने नहीं आई है। फिर भी इस योजना से देश के लगभग 40-45 करोड़ लोगों को लाभ मिलेगा। वे अपना 5 लाख रू. तक का इलाज मुफ्त करवा सकेंगे। उनके इलाज का पैसा सरकार देगी। अभी तक देश में लगभग 3 करोड़ 60 लाख लोग इस योजना के तहत अपना मुफ्त इलाज करवा चुके हैं। उन पर सरकार ने अब तक 45 हजार करोड़ रु. से ज्यादा खर्च किया है। देश की कुछ राज्य सरकारों ने भी राहत की इस रणनीति को अपना लिया है लेकिन क्या भारत के 140 करोड़ लोगों की स्वास्थ्य-रक्षा और चिकित्सा की भी योजना कोई सरकार लाएगी? इसी प्रकार भारत में जब तक प्रांरभिक से लेकर उच्चतम शिक्षा भारतीय भाषाओं के जरिए नहीं होती है, भारत की गिनती पिछड़े हुए देशों में ही होती रहेगी। जब तक यह मैकाले प्रणाली की गुलामी का ढर्रा भारत में चलता रहेगा, भारत से प्रतिभापलायन होता रहेगा। अंग्रेजीदाँ भारतीय युवजन भागकर विदेशों में नौकरियाँ ढूंढेंगे और अपनी सारी प्रतिभा उन देशों पर लुटा देंगे। भारतमाता टूंगती रह जाएगी। इसका अर्थ यह नहीं कि हमारे बच्चे विदेशी भाषाएं न पढ़ें। उन्हें सुविधा हो कि वे अंग्रेजी के साथ कई अन्य प्रमुख विदेशी भाषाएं भी जरूर पढ़ें लेकिन उनकी पढ़ाई का माध्यम कोई विदेशी भाषा न हो। सारे भारत में किसी भी विदेशी भाषा को पढ़ाई का माध्यम बनाने पर कड़ा प्रतिबंध होना चाहिए। कौन करेगा, यह काम? यह काम वही संसद, वही सरकार और वही प्रधानमंत्री कर सकते हैं, जिनके पास राष्ट्रोन्नति का मौलिक सोच हो और नौकरशाहों की नौकरी न करते हों। जिस दिन यह सोच पैदा होगा, उसी दिन से भारत विश्व-शक्ति बनना शुरु हो जाएगा।

 
अद्भुत अकल्पनीय अविश्वसनीय  - प्रो. राजेश कुमार

यह 2013 का साल था और मैं गुजरात में निदेशक के पद पर गया था। अपने जिस पूर्ववर्ती से मुझे कार्यभार लेना था, उसने अन्य बातों के अलावा मेरे साथ मामाजी नामक शख्सियत का जिक्र किया और बताया कि उन्होंने मुझे बता दिया था कि मेरा स्थानांतरण 16 फ़रवरी को हो जाएगा। वे बहुत दिनों से अपने स्थानांतरण की कोशिश में थे, जो हो नहीं रहा था। उन्होंने आगे यह भी बताया कि मामाजी वैसे तो नेत्रहीन है, लेकिन उन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त है और वे भविष्य को देख लेते हैं। उनका स्थानांतरण 16 फ़रवरी को ही हुआ था।

 
सिंगापुर में भारत  - डॉ संध्या सिंह | सिंगापुर

भारतीय नाम वाले महत्वपूर्ण रास्तों की कहानी

रास्ते जीवन के वे पहलू हैं जिनसे हमारा वास्ता पड़ता ही है। कभी हम सही रास्ते पर होते हैं तो कभी हम रास्ते को सही करने की कोशिश करते हैं। यह एक शब्द बड़े-बड़े अर्थ समेटे रहता है। बहुत गहराई में न जाते हुए अगर इसके शाब्दिक रूप को भी लिया जाए तो हर देश में, हर शहर में, हर गाँव में अलग-अलग रास्ते होते हैं जिनका एक नाम होता है। जी हाँ कोई भी सड़क या रास्ता बेनाम नहीं होता है। याद कीजिए भारत में रिक्शेवाले को तय करते समय पहला वाक्य होता है “फलां जगह चलोगे?” और अगर वह रास्ता नहीं जानता तो हम तुरंत बताने लगते हैं “पहले फलां रास्ते से चलो, फिर फलां रास्ते से मुड़ जाना......” और आज ‘गूगल बाबा’ भी तो यही कर रहे हैं तो यह तो तय हो गया कि रास्ता और उसके नाम की बड़ी भूमिका होती है। इसी विषय को केंद्र में रखते हुए और ज़्यादा गंभीर न होते हुए सिंगापुर के उन रास्तों का ज़िक्र होगा जिनके नाम या तो भारतीय हैं या अगर भारतीय नहीं हैं तो कुछ ख़ास कहानी है उस नाम के पीछे। हर रास्ता एक कहानी कहता है। 

सिंगापुर\
सिंगापुर 

 
स्वर्ग में विचार-सभा का अधिवेशन  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

स्‍वामी दयानन्‍द सरस्‍वती और बाबू केशवचन्‍द्रसेन के स्‍वर्ग में जाने से वहां एक बहुत बड़ा आंदोलन हो गया। स्‍वर्गवासी लोगों में बहुतेरे तो इनसे घृणा करके धिक्‍कार करने लगे और बहुतेरे इनको अच्‍छा कहने लगे। स्‍वर्ग में भी 'कंसरवेटिव' और 'लिबरल' दो दल हैं। जो पुराने जमाने के ऋषि-मुनि यज्ञ कर-करके या तपस्‍या करके अपने-अपने शरीर को सुखा-सुखाकर और पच-पचकर मरके स्‍वर्ग गए हैं उनकी आत्‍मा का दल 'कंसरवेटिव' है, और जो अपनी आत्‍मा ही की उन्नति से और किसी अन्‍य सार्वजनिक उच्‍च भाव संपादन करने से या परमेश्‍वर की भक्ति से स्‍वर्ग में गए हैं वे 'लिबरल' दलभक्‍त हैं। वैष्‍णव दोनों दल के क्‍या दोनों से खारिज थे, क्योंकि इनके स्‍थापकगण तो लिबरल दल के थे किं‍तु ये लोग 'रेडिकल्‍स' क्‍या महा-महा रेडिकल्‍स हो गए हैं। बिचारे बूढ़े व्‍यासदेव को दोनों दल के लोग पकड़-पकड़ कर ले जाते और अपनी-अपनी सभा का 'चेयरमैन' बनाते थे, और व्‍यास जी भी अपने प्राचीन अव्यवस्थित स्‍वभाव और शील के कारण जिसकी सभा में जाते थे वैसी ही वक्‍तृता कर देते थे। कंसरवेटिवों का दल प्रबल था; इसका मुख्‍य कारण यह था कि स्‍वर्ग के जमींदार इन्‍द्र, गणेश प्रभृति भी उनके साथ योग देते थे, क्योंकि बंगाल के जमींदारों की भांति उदार लोगों की बढ़ती से उन बेचारों को विविध सर्वोपरि बलि और मान न मिलने का डर था।

 
नारदजी को व्यासजी का नमस्कार!  - गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas

वंदनीय, भक्तप्रवर, देवर्षि एवं आदिपत्रकार नारदजी महाराज, मेरे हार्दिक प्रणाम स्वीकार करें !

 
सर एडमंड हिलेरी से साक्षात्कार  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

[सर एडमंड हिलेरी ने 29 मई 1953 को एवरेस्ट विजय की थी। आज वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन 2007 को उनसे हुई बातचीत के अंश आपके लिए यहाँ पुन: प्रकाशित किए जा रहे है]

 
मकर संक्रांति | त्योहार  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

कर संक्रांति हिंदू धर्म का प्रमुख त्यौहार है। यह पर्व पूरे भारत में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है तब इस संक्रांति को मनाया जाता है।

 
न्यूज़ीलैंड में हिन्दी पठन-पाठन  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

यूँ तो न्यूज़ीलैंड कुल 40 लाख की आबादी वाला छोटा सा देश है, फिर भी हिंदी के मानचित्र पर अपनी पहचान रखता है। पंजाब और गुजरात के भारतीय न्यूज़ीलैंड में बहुत पहले से बसे हुए हैं किन्तु 1990 के आसपास बहुत से लोग मुम्बई, देहली, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा इत्यादि राज्यों से आकर यहां बस गए। फिजी से भी बहुत से भारतीय राजनैतिक तख्ता-पलट के दौरान यहां आ बसे। न्यूज़ीलैंड में फिजी भारतीयों की अनेक रामायण मंडलियाँ सक्रिय हैं। यद्यपि फिजी मूल के भारतवंशी मूल रुप से हिंदी न बोल कर हिंदुस्तानी बोलते हैं तथापि यथासंभव अपनी भाषा का ही उपयोग करते हैं। उल्लेखनीय है कि फिजी में गुजराती, मलयाली, तमिल, बांग्ला, पंजाबी और हिंदी भाषी सभी भारतवंशी लोग हिंदी के माध्यम से ही जुड़े हुए हैं।

 
न्यू मीडिया  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

न्यू मीडिया वास्तव में परम्परागत मीडिया का संशोधित रूप है जिसमें तकनीकी क्रांतिकारी परिवर्तन व इसका नया रूप सम्मिलित है। आइए, हिंदी न्यू मीडिया के स्वरुप, उद्भव और विकास पर एक दृष्टिपात करें।

 
न्यूज़ीलैंड एक परिचय  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

न्यूज़ीलैंड (New Zealand) या आओटियारोआ (Aotearoa - न्यूज़ीलैंड का माओरी नाम) दक्षिण प्रशान्त महासागर में आस्ट्रेलिया के 2000 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित है। इसका कुल क्षेत्रफल 269,000 वर्ग किलोमीटर है। यह क्षेत्रफल व आकार की दृष्टि से जापान से कुछ छोटा व ब्रिटेन से थोड़ा सा बड़ा कहा जा सकता है। न्यूज़ीलैंड की राजधानी वैलिंगटन है तथा सबसे बड़ा शहर ऑकलैंड है। ऑकलैंड को न्यूज़ीलैंड की वाणिज्य राजधानी भी कहा जा सकता है। न्यूज़ीलैंड की जनसंख्या लगभग 45 लाख ( 4.5 मिलियन) है जिसमें 80 प्रतिशत यूरोपियन समुदाय, सात में से एक माओरी (तांगाता फेनुआ, मूल या देशी लोग) 15 में से एक एशियन और 16 में से एक प्रशान्त द्वीप मूल के लोग सम्मिलित हैं। न्यूज़ीलैंड तेजी से बहु-संस्कृति समाज (Multi-cultural Society) के रूप में परिवर्तित होता जा रहा है।

 
मैं नास्तिक क्यों हूँ  - भगत सिंह

'मैं नास्तिक क्यों हूँ ?'  यह आलेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था जो लाहौर से प्रकाशित समाचारपत्र "द पीपल" में 27 सितम्बर 1931 के अंक में प्रकाशित हुआ था। भगतसिंह ने अपने इस आलेख में ईश्वर के बारे में अनेक तर्क किए हैं। इसमें सामाजिक परिस्थितियों का भी विश्लेषण किया गया है।

 
चौबीस घंटे की कथा  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

[ न्यूजीलैंड श्रम दिवस की ऐतिहासिक कथा ] 

 
प्रोफेसर ब्रिज लाल  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

प्रोफेसर ब्रिज लाल प्रसिद्ध इंडो-फीजियन इतिहासकार थे। आप लंबे समय से निर्वासन में थे और वर्तमान में ब्रिस्बेन, ऑस्ट्रेलिया के निवासी थे।

 
हरिद्वार यात्रा  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

श्रीमान क.व.सु. संपादक महोदयेषु!

 
ईश्वरचंद्र विद्यासागर  - भारत-दर्शन

Ishwar Chandra Vidyasagar

 
निर्मला | उपन्यास  - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand

'निर्मला'  मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया एक बहुचर्चित उपन्यास है। इसका प्रकाशन सन 1927 में हुआ था। मुंशी प्रेमचंद  ने दहेज़ प्रथा और अनमेल विवाह को आधार बना कर इस उपन्यास का लेखन प्रारम्भ किया।  प्रेमचन्द्र के जिन उपन्यासों ने साहित्य के मानक स्थापित किए,  उनमें निर्मला अग्रणी माना जाता है। इसमें हिन्दू समाज में स्त्री के स्थान का सशक्त चित्रण किया गया है। निर्मला पर बना दूरदर्शन का सीरियल भी बहुत लोकप्रिय हुआ है।

 
अनमोल वचन | रवीन्द्रनाथ ठाकुर  - रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore

  • प्रसन्न रहना बहुत सरल है, लेकिन सरल होना बहुत कठिन है।
  • तथ्य कई हैं, लेकिन सच एक ही है।
  • प्रत्येक शिशु यह संदेश लेकर आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है।
  • विश्वास वह पक्षी है जो प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है।
  • फूल एकत्रित करने के लिए ठहर मत जाओ। आगे बढ़े चलो, तुम्हारे पथ में फूल निरंतर खिलते रहेंगे।
  • चंद्रमा अपना प्रकाश संपूर्ण आकाश में फैलाता है परंतु अपना कलंक अपने ही पास रखता है।
  • कलाकार प्रकृति का प्रेमी है अत: वह उसका दास भी है और स्वामी भी।
  • केवल खड़े रहकर पानी देखते रहने से आप सागर पार नहीं कर सकते।
  • हम यह प्रार्थना न करें कि हमारे ऊपर खतरे न आएं, बल्कि यह प्रार्थना करें कि हम उनका निडरता से सामना कर सकें।
- रवीन्द्रनाथ ठाकुर

 
प्रधानमंत्री का भाषण 2016  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

स्वतंत्रता दिवस 2016 के अवसर पर प्रधानमंत्री के भाषण का मूल पाठ

15-08-2016

 
राष्ट्रपति का संदेश 2016  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर माननीय राष्ट्रपति का संदेश

 

 
अफसर कवि | व्यंग्य  - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

एक कवि थे। वे राज्य सरकार के अफसर भी थे। अफसर जब छुट्‌टी पर चला जाता, तब वे कवि हो जाते और जब कवि छुट्‌टी पर चला जाता, तब वे अफसर हो जाते।

 
कचरा लेखन | व्यंग्य  - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

“लेखक महोदय! आपके अनुभव और पहुँच के चलते इस बार विश्व पुस्तक मेले में आपकी बड़ी धूम रही। जितनी बार साँसें नहीं लीं उतनी बार तो आपने पुस्तकों का लोकार्पण कर दिया। जहाँ देखिए वहाँ आप ही आप छाए हुए थे। मधुमक्खी के छत्ते की तरह फोटों खिंचवाने की लेखकों में बड़ी चुल मची थी। पता ही नहीं चल रहा था कि लेखक कौन है और उसके रिश्तेदार कौन हैं? एक सप्ताह-दस दिन गुजर जाने के बाद लेखक खुद को उन फोटो में ढूँढ़ने में गच्चा खा जाएगा। यह सब छोड़िए। यह बताइए इतनी सारी पुस्तकें घर ले आए हैं, इनका क्या करेंगे?” – मैंने पूछा।

 
नेतृत्व की ताक़त | व्यंग्य  - शरद जोशी | Sharad Joshi

नेता 'शब्द दो अक्षरों से बना है। 'ने' और 'ता'। इनमें एक भी अक्षर कम हो, तो कोई नेता नहीं बन सकता। मगर हमारे शहर के एक नेता के साथ अजीब ट्रेजेडी हुई। वह बड़ी भागदौड़ में रहते थे। दिन गेस्टहाउस में गुज़ारते, रातें डाक बंगलों में। लंच अफ़सरों के साथ लेते, डिनर सेठों के साथ! इस बीच जो वक़्त मिलता, उसमें भाषण देते। कार्यकर्ताओं को संबोधित करते। कभी-कभी खुद सम्बोधित हो जाते। मतलब यह कि बड़े व्यस्त। 'ने' और 'ता' दो अक्षरों से तो मिलकर बने थे। एक दिन यह हुआ कि उनका 'ता' खो गया। सिर्फ़ 'ने' रह गया।

 
न्यूज़ीलैंड में हिंदी का भविष्य और भविष्य की हिंदी  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

लगभग 50 लाख की जनसंख्या वाले न्यूज़ीलैंड में अँग्रेज़ी और माओरी न्यूज़ीलैंड की आधिकारिक भाषाएं है। यहाँ सामान्यतः अँग्रेज़ी का उपयोग किया जाता है।

यद्यपि अंग्रेजी न्यूजीलैंड में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है तथापि माओरी और न्यूजीलैंड सांकेतिक भाषा, दोनों को औपचारिक रूप से न्यूजीलैंड की आधिकारिक भाषाओं के रूप में संवैधानिक तौर पर विशेष दर्जा प्राप्त है। यहाँ के निवासियों को किसी भी कानूनी कार्यवाही में माओरी और न्यूजीलैंड सांकेतिक भाषा का उपयोग करने का अधिकार है।

 
गणेश शंकर विद्यार्थी के निबंध  - गणेशशंकर विद्यार्थी | Ganesh Shankar Vidyarthi

श्री गणेश शंकर विद्यार्थी राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के चोटी के सेनानियों में से एक थे। 'प्रताप' के संपादक इस यशस्वी पत्रकार, गणेश शंकर विद्यार्थी के निबंधों को यहाँ संकलित किया जा रहा है।

 
पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का कथा संसार | एक विवेचना  - सुदर्शन वशिष्ठ

बहुआयाभी प्रतिमा के स्वाभी पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के विषय में तीन बातें बहुत विलक्षण हैं । पहली तो ये कि उनकी Gulerijiएकमात्र कहानी 'उसने कहा था' आज से एक सदी पूर्व हिन्दी जगत में एक अभूतपूर्व घटना के रूप में प्रकट हुईं । दूसरी, संस्कृत के महापण्डित होने के साथ कई भाषाओं के ज्ञाता होते हुए भी एक विशुद्ध हिन्दी प्रेमी रहे । दर्शन शास्त्र ज्ञाता, भाषाविद, निबन्धकार, ललित निबन्धकार, कवि, कला समीक्षक, आलोचक, संस्मरण लेखक, पत्रकार और संपादक होते हुए वे हिन्दी को समर्पित रहे । और तीसरी यह कि 12 सितम्बर 1922 को केवल उनतालीस वर्ष, दो महीने और पांच दिन की अल्पायु में उनका देहावसान हो गया किंतु अपने अल्प जीवन में वे इतना अधिक हिन्दी साहित्य को दे गए जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती ।

 
7 दिसंबर | इतिहास के आईने में  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

7 दिसंबर | 7 December

इतिहास के गर्भ में प्रत्येक दिन से संबंधित अनेक कहानी, किस्से और प्रसंग छिपे हैं। आइए, जाने क्या हुआ था 7 दिसंबर को! 

 
मजबूरी और कमजोरी  - नरेन्द्र कोहली

मैं रामलुभाया के घर पहुँचा तो देख कर चकित रह गया कि वह बोतल खोल कर बैठा हुआ था।

 
देशभक्त  - नरेन्द्र कोहली

रामलुभाया बहुत जल्दी में था। मैं उसे पुकारता रहा और वह मुझ से भागता रहा। अंततः मैंने दौड़ कर उस को पकड़ ही लिया।

 
भेजो  - नरेन्द्र कोहली

"हुजूर! ख़बर आई है कि हमारे लोगों ने भारतीय कश्मीर में पच्चीस हिंदू तो मार ही दिए हैं। ज़्यादा हों तो भी कुछ कहा नहीं जा सकता। उन्होंने दो-दो साल के बच्चे भी मार गिराए हैं।”

 
लालबहादुर शास्त्री के अनमोल वचन  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

लालबहादुर शास्त्री की जयंती के अवसर पर शास्त्रीजी के विचार-

  • मेरे विचार से पूरे देश के लिए एक संपर्क भाषा का होना आवश्यक है, अन्यथा इसका तात्पर्य यह होगा कि भाषा के आधार पर देश का विभाजन हो जाएगा। एक प्रकार से एकता छिन्न-भिन्न हो जाएगी........ भाषा एक ऐसा सशक्त बल है, एक ऐसा कारक है जो हमें और हमारे देश को एकजुट करता है। यह क्षमता हिन्दी में है।

  • जब स्वतंत्रता और अखंडता खतरे में हो, तो पूरी शक्ति से उस चुनौती का मुकाबला करना ही एकमात्र कर्त्तव्य होता है........... हमें एक साथ मिलकर किसी भी प्रकार के अपेक्षित बलिदान के लिए दृढ़तापूर्वक तत्पर रहना है।

  • हमारा रास्ता सीधा और स्पष्ट है। अपने देश में सबके लिए स्वतंत्रता और संपन्नता के साथ समाजवादी लोकतंत्र की स्थापना और अन्य सभी देशों के साथ विश्व शांति और मित्रता का संबंध रखना।

  • मुझे ग्रामीण क्षेत्रों, गांवों में, एक मामूली कार्यकर्ता के रूप में लगभग पचास वर्ष तक कार्य करना पड़ा है, इसलिए मेरा ध्यान स्वतः ही उन लोगों की ओर तथा उन क्षेत्रों के हालात पर चला जाता है। मेरे दिमाग में यह बात आती है कि सर्वप्रथम उन लोगों को राहत दी जाए। हर रोज, हर समय मैं यही सोचता हूं कि उन्हें किस प्रकार से राहत पहुंचाई जाए।

  • यदि लगातार झगड़े होते रहेंगे तथा शत्रुता होती रहेगी तो हमारी जनता को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। परस्पर लड़ने की बजाय हमें गरीबी, बीमारी और अज्ञानता से लड़ना चाहिए। दोनों देशों की आम जनता की समस्याएं, आशाएं और आकांक्षाएं एक समान हैं। उन्हें लड़ाई-झगड़ा और गोला-बारूद नहीं, बल्कि रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता है।
 
डा वेदप्रताप वैदिक के आलेख  - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik

डॉ. वेदप्रताप वैदिक भारत के सुप्रसिद्ध लेखक, पत्रकार, विचारक व स्वप्नद्रष्टा हैं। उनके विचार, स्वप्न, लेखन और पत्रकारिता सहज ही मनन करने का विषय बन जाते हैं औरे पाठक इन विषयों पर सोचने को बाध्य हो जाता है।

 
जनता का साहित्य किसे कहते हैं ?  - गजानन माधव मुक्तिबोध | Gajanan Madhav Muktibodh

ज़िन्दगी के दौरान में जो तजुर्बे हासिल होते हैं, उनसे नसीहतें लेने का सबक़ तो हमारे यहाँ सैकड़ों बार पढ़ाया गया है। होशियार और बेवक़ूफ़ में फ़र्क़ बताते हुए, एक बहुत बड़े विचारक ने यह कहा, "ग़लतियाँ सब करते हैं, लेकिन होशियार वह है जो कम-से-कम ग़लतियाँ करे और ग़लती कहाँ हुई यह जान ले और यह साव- धानी वरते कि कहीं वैसी ग़लती तो फिर नहीं हो रही है।"  जो आदमी अपनी ग़लतियों से पक्षपात करता है उसका दिमाग़ साफ़ नहीं रह सकता।

 
अपने जीवन को 'आध्यात्मिक प्रकाश' से प्रकाशित करने का पर्व है दीपावली!  - डा. जगदीश गांधी

दीपावली ‘अंधरे' से ‘प्रकाश' की ओर जाने का पर्व है:

 
न्यू मीडिया क्या है?  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

न्यू मीडिया क्या है?

 
वेब पत्रकारिता - योग्यताएं व संसाधन  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

न्यू मीडिया

 
वेब पत्रकारिता लेखन व भाषा  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

वेब पत्रकारिता लेखन व भाषा

 
न्यू मीडिया विशेषज्ञ या साधक  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

न्यू मीडिया विशेषज्ञ या साधक

 
चौथा बंदर - शरद जोशी  - शरद जोशी | Sharad Joshi

क बार कुछ पत्रकार और फोटोग्राफर गांधी जी के आश्रम में पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि गांधी जी के तीन बंदर हैं। एक आंख बंद किए है, दूसरा कान बंद किए है, तीसरा मुंह बंद किए है। एक बुराई नहीं देखता, दूसरा बुराई नहीं सुनता और तीसरा बुराई नहीं बोलता। पत्रकारों को स्टोरी मिली, फोटोग्राफरों ने तस्वीरें लीं और आश्रम से चले गए।

 
1968-69 के वे दिन  - शरद जोशी | Sharad Joshi

(यह लेख सौ वर्ष बाद छपने के लिए है)

 
सरकार का जादू : जादू की सरकार  - शरद जोशी | Sharad Joshi

जादूगर मंच पर आकर खड़ा हो गया। वह एयर इंडिया के राजा की तरह झुका और बोला, ''देवियो और सज्जनो, हम जो प्रोग्राम आपके सामने पेश करने जा रहे हैं, वह इस मुलुक का, इस देश का प्रोग्राम है जो बरसों से चल रहा है और मशहूर है। आप इसे देखिए और हमें अपना आशीर्वाद दीजिए।" इतना कहकर जादूगर ने झटके से सिर उठाया और जोरदार पाश्र्व संगीत बजने लगा।

''फर्स्ट आयटम ऑफ दि प्रोग्राम : अप्लीकेशन टू द गवर्नमेंट, सरकार कू दरखास्त!" जादूगर ने कहा और बायां हाथ विंग्स की तरफ उठाया कि दो लड़कियां वहां से निकलीं। उनके हाथों में स्टूल और बंद डिब्बे थे। एक डिब्बे पर लिखा था आवक और दूसरे पर जावक। लड़कियों ने जादूगर के दोनों ओर स्टूल रख दिए, उन पर डिब्बे जमा दिए और पीछे खड़ी हो उस आश्चर्यमिश्रित मुस्कराहट से देखने लगीं जैसे जादूगर की सहायिकाएं देखती हैं। जादूगर ने सबको दिखाया कि डिब्बे खाली हैं।

''सरकार कू दरखास्त! आवक का डिब्बा में दरखास डालेंगा तो जावक का डिब्बा में जवाब मिलेंगा। मिलेंगा तो मिलेंगा आदरवाइज नइ भी मिलेंगा। अप्लाय अप्लाय नो रिप्लाय।" जादूगर ने कहा और तभी विंग्स से एक व्यक्ति अनेक आवेदन-पत्र लेकर आया और उसने जादूगर के हाथों में थमा दिए। जादूगर ने दर्शकों की तरफ देखा और कहा, ''आरे आज बहुत सारा दरखाश है। हाम इसकू गोवरमैंट को भेजता है, ''इतना कहकर उसने आवक के डिब्बे में एक-एक कर आवेदन पत्र डालने शुरू कर दिए। फिर डिब्बे को बंद कर दिया। यह सारा काम उसने पाश्र्व संगीत की एक लहर के साथ किया। उसने डिब्बे को बंद किया और जादू की छड़ी घुमाई। फिर आवेदन पत्र लाने वाले से बोला, ''तुम इदर काय कू खड़ा है?"

''अप्लीकेशन का जवाब मांगता है सर!"

''ओ, आवक में दरखास डालेंगा तो जावक में जवाब आएंगा। इधर देखो।"

वह व्यक्ति जावक का डिब्बा देखता है। वह भी खाली है।

 
अतिथि! तुम कब जाओगे  - शरद जोशी | Sharad Joshi

तुम्हारे आने के चौथे दिन, बार-बार यह प्रश्न मेरे मन में उमड़ रहा है, तुम कब जाओगे अतिथि! तुम कब घर से निकलोगे मेरे मेहमान!

 
दीया घर में ही नहीं, घट में भी जले - ललित गर्ग  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

दीपावली का पर्व ज्योति का पर्व है। दीपावली का पर्व पुरुषार्थ का पर्व है। यह आत्म साक्षात्कार का पर्व है। यह अपने भीतर सुषुप्त चेतना को जगाने का अनुपम पर्व है। यह हमारे आभामंडल को विशुद्ध और पर्यावरण की स्वच्छता के प्रति जागरूकता का संदेश देने का पर्व है। प्रत्येक व्यक्ति के अंदर एक अखंड ज्योति जल रही है। उसकी लौ कभी-कभार मद्धिम जरूर हो जाती है, लेकिन बुझती नहीं है। उसका प्रकाश शाश्वत प्रकाश है। वह स्वयं में बहुत अधिक देदीप्यमान एवं प्रभामय है। इसी संदर्भ में महात्मा कबीरदासजी ने कहा था-'बाहर से तो कुछ न दीसे, भीतर जल रही जोत'।

 
धनतेरस | पौराणिक लेख  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

कार्तिक मास में त्रयोदशी का विशेष महत्व है, विशेषत: व्यापारियों और चिकित्सा एवं औषधि विज्ञान के लिए यह दिन अति शुभ माना जाता है।

 
विश्व हिंदी सम्मेलन  - भारत-दर्शन संकलन | Collections

विश्व हिंदी सम्मेलन का उद्देश्य 

हिंदी को विश्व स्तर पर प्रसारित और प्रचारित करना है जिससे वैश्विक स्तर पर हिंदी को स्थापित करने में सहायता मिल सके।

 
रोहित कुमार 'हैप्पी' के आलेख  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

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