काव्य |
जब ह्रदय अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे काव्य कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक संबंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है। |
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Literature Under This Category |
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अब तो हरि नाम लौ लागी | पद
- मीराबाई | Meerabai
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अब तो हरि नाम लौ लागी
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मैंने लिखा कुछ भी नहीं | ग़ज़ल
- डॉ सुधेश
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मैंने लिखा कुछ भी नहीं तुम ने पढ़ा कुछ भी नहीं ।
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साजन! होली आई है!
- फणीश्वरनाथ रेणु | Phanishwar Nath 'Renu'
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साजन! होली आई है! सुख से हँसना जी भर गाना मस्ती से मन को बहलाना पर्व हो गया आज- साजन ! होली आई है! हँसाने हमको आई है! साजन! होली आई है! इसी बहाने क्षण भर गा लें दुखमय जीवन को बहला लें ले मस्ती की आग- साजन! होली आई है! जलाने जग को आई है! साजन! होली आई है! रंग उड़ाती मधु बरसाती कण-कण में यौवन बिखराती, ऋतु वसंत का राज- लेकर होली आई है! जिलाने हमको आई है! साजन ! होली आई है! खूनी और बर्बर लड़कर-मरकर- मधकर नर-शोणित का सागर पा न सका है आज- सुधा वह हमने पाई है ! साजन! होली आई है! साजन ! होली आई है ! यौवन की जय ! जीवन की लय! गूँज रहा है मोहक मधुमय उड़ते रंग-गुलाल मस्ती जग में छाई है साजन! होली आई है!
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बापू
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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संसार पूजता जिन्हें तिलक, रोली, फूलों के हारों से, मैं उन्हें पूजता आया हूँ बापू ! अब तक अंगारों से। अंगार, विभूषण यह उनका विद्युत पीकर जो आते हैं, ऊँघती शिखाओं की लौ में चेतना नयी भर जाते हैं। उनका किरीट, जो कुहा-भंग करके प्रचण्ड हुंकारों से, रोशनी छिटकती है जग में जिनके शोणित की धारों से। झेलते वह्नि के वारों को जो तेजस्वी बन वह्नि प्रखर, सहते ही नहीं, दिया करते विष का प्रचण्ड विष से उत्तर। अंगार हार उनका, जिनकी सुन हाँक समय रुक जाता है, आदेश जिधर का देते हैं, इतिहास उधर झुक जाता है।
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संत दादू दयाल के पद
- संत दादू दयाल | Sant Dadu Dayal
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पूजे पाहन पानी
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अर्जुन की प्रतिज्ञा
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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उस काल मारे क्रोध के तन कांपने उसका लगा, मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा। मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ, प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ? युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से, अब रोष के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से । निश्चय अरुणिमा-मित्त अनल की जल उठी वह ज्वाल सी, तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही। साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं, पूरा करुंगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं। जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी, वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी। अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है, इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है, उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है, उन्मुक्त बस उसके लिये रौ'र'व नरक का द्वार है। उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है, पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है । अतएव कल उस नीच को रण-मध्य जो मारूँ न मैं, तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं। अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही, साक्षी रहे सुन ये वचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही। सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वध करूँ, तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ। |
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गुणगान
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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कलम, आज उनकी जय बोल | कविता
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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जला अस्थियाँ बारी-बारी चिटकाई जिनमें चिंगारी, जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल कलम, आज उनकी जय बोल।
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वीर | कविता
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
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जो तुम आ जाते एक बार | कविता
- महादेवी वर्मा | Mahadevi Verma
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कितनी करूणा कितने संदेश पथ में बिछ जाते बन पराग गाता प्राणों का तार तार अनुराग भरा उन्माद राग आँसू लेते वे पथ पखार जो तुम आ जाते एक बार
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अधिकार | कविता
- महादेवी वर्मा | Mahadevi Verma
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वे मुस्काते फूल, नहीं जिनको आता है मुर्झाना, वे तारों के दीप, नहीं जिनको भाता है बुझ जाना।
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मैं नीर भरी दुःख की बदली | कविता
- महादेवी वर्मा | Mahadevi Verma
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मैं नीर भरी दुःख की बदली, स्पंदन में चिर निस्पंद बसा, क्रंदन में आहत विश्व हँसा, नयनो में दीपक से जलते, पलकों में निर्झनी मचली ! मैं नीर भरी दुःख की बदली !
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अन्वेषण
- रामनरेश त्रिपाठी
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मैं ढूंढता तुझे था, जब कुंज और वन में। तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में॥
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जलियाँवाला बाग में बसंत
- सुभद्रा कुमारी
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यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते, काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
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आखिर पाया तो क्या पाया?
- हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai
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जब तान छिड़ी, मैं बोल उठा जब थाप पड़ी, पग डोल उठा औरों के स्वर में स्वर भर कर अब तक गाया तो क्या गाया?
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कबीर दोहे -2
- कबीरदास | Kabirdas
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(21) लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट । पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥
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रहीम के दोहे
- रहीम
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(1)
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रहीम के दोहे - 2
- रहीम
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(21)
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प्रभु ईसा
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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मूर्तिमती जिनकी विभूतियाँ जागरूक हैं त्रिभुवन में; मेरे राम छिपे बैठे हैं मेरे छोटे-से मन में;
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हम पंछी उन्मुक्त गगन के
- शिवमंगल सिंह सुमन
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हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे कनक-तीलियों से टकराकर पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।
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मधुशाला | Madhushala
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला, प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला; पहले भोग लगा लूँ तेरा, फिर प्रसाद जग पाएगा; सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला। ।१।
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देशभक्ति | Poem on New Zealand
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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काका हाथरसी का हास्य काव्य
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार
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वंदन कर भारत माता का | काका हाथरसी की हास्य कविता
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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वंदन कर भारत माता का, गणतंत्र राज्य की बोलो जय । काका का दर्शन प्राप्त करो, सब पाप-ताप हो जाए क्षय ॥
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हास्य दोहे | काका हाथरसी
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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अँग्रेजी से प्यार है, हिंदी से परहेज, ऊपर से हैं इंडियन, भीतर से अँगरेज
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श्रमिक का गीत
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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रहा हाड़ ना मास मेरा जानूँ हूँ इतिहास तेरा।
हम धरती पर तंग हुए देवलोक में वास तेरा। जानूँ हूँ इतिहास तेरा॥ खाऊँ, ओड़ूँ, इसे बिछौऊं किया बड़ा विश्वास तेरा। जानूँ हूँ इतिहास तेरा॥
जो चाहे तू वो मैं बोलूँ ना बंधुआ, ना दास तेरा। जानूँ हूँ इतिहास तेरा॥
'रोहित' सुन ले बात ध्यान से वरना हो जाये नास तेरा। जानूँ हूँ इतिहास तेरा॥
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धर्म निभा
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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कवि कलम का धर्म निभा कलम छोड़ या सच बतला।
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खिलौनेवाला
- सुभद्रा कुमारी
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वह देखो माँ आज खिलौनेवाला फिर से आया है। कई तरह के सुंदर-सुंदर नए खिलौने लाया है। हरा-हरा तोता पिंजड़े में गेंद एक पैसे वाली छोटी सी मोटर गाड़ी है सर-सर-सर चलने वाली। सीटी भी है कई तरह की कई तरह के सुंदर खेल चाभी भर देने से भक-भक करती चलने वाली रेल। गुड़िया भी है बहुत भली-सी पहने कानों में बाली छोटा-सा \\\'टी सेट\\\' है छोटे-छोटे हैं लोटा-थाली। छोटे-छोटे धनुष-बाण हैं हैं छोटी-छोटी तलवार नए खिलौने ले लो भैया ज़ोर-ज़ोर वह रहा पुकार। मुन्नूौ ने गुड़िया ले ली है मोहन ने मोटर गाड़ी मचल-मचल सरला कहती है माँ se लेने को साड़ी कभी खिलौनेवाला भी माँ क्याख साड़ी ले आता है। साड़ी तो वह कपड़े वाला कभी-कभी दे जाता है। अम्मा तुमने तो लाकर के मुझे दे दिए पैसे चार कौन खिलौने लेता हूँ मैं तुम भी मन में करो विचार। तुम सोचोगी मैं ले लूँगा तोता, बिल्लीा, मोटर, रेल पर माँ, यह मैं कभी न लूँगा ये तो हैं बच्चों के खेल। मैं तो तलवार ख़रीदूँगा माँ या मैं लूँगा तीर-कमान जंगल में जा, किसी ताड़का को मारुँगा राम समान। तपसी यज्ञ करेंगे, असुरों- को मैं मार भगाऊँगा यों ही कुछ दिन करते-करते रामचंद्र मैं बन जाऊँगा। यही रहूँगा कौशल्याऊ मैं तुमको यही बनाऊँगा तुम कह दोगी वन जाने को हँसते-हँसते जाऊँगा। पर माँ, बिना तुम्हाेरे वन में मैं कैसे रह पाऊँगा? दिन भर घूमूँगा जंगल में लौट कहाँ पर आऊँगा। किससे लूँगा पैसे, रूठूँगा तो कौन मना लेगा कौन प्यानर से बिठा गोद में, मनचाही चींजे़ देगा। |
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मेरा शीश नवा दो - गीतांजलि
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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मेरा शीश नवा दो अपनी चरण-धूल के तल में। देव! डुबा दो अहंकार सब मेरे आँसू-जल में।
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ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है | ग़ज़ल
- वसीम बरेलवी | Waseem Barelvi
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ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है समन्दरों ही के लहजे में बात करता है
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फिर तेरी याद
- त्रिलोचन
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फिर तेरी याद जो कहीं आई नींद आने को थी नहीं आई
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आज के हाइकु
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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भूख-गरीबी करा देती है दूर बड़े करीबी।
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बढ़े चलो! बढ़े चलो!
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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न हाथ एक शस्त्र हो न हाथ एक अस्त्र हो, न अन्न, नीर, वस्त्र हो, हटो नहीं, डटो वहीं, बढ़े चलो! बढ़े चलो!
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माँ कह एक कहानी
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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"माँ कह एक कहानी।" बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?" "कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी? माँ कह एक कहानी।" "तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे, तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभी मनमानी।" "जहाँ सुरभी मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।" वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे, हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।" "लहराता था पानी, हाँ हाँ यही कहानी।" "गाते थे खग कल कल स्वर से, सहसा एक हँस ऊपर से, गिरा बिद्ध होकर खर शर से, हुई पक्षी की हानी।" "हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!" चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया, इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।" "लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।" "माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी, तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।" "हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।" हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में, गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सब ने जानी।" "सुनी सब ने जानी! व्यापक हुई कहानी।" राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?" "माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी। कोई निरपराध को मारे तो क्यों न उसे उबारे? रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।" "न्याय दया का दानी! तूने गुणी कहानी।"
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देश
- शेरजंग गर्ग
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ग्राम, नगर या कुछ लोगों का काम नहीं होता है देश संसद, सड़कों, आयोगों का नाम नहीं होता है देश
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वीरांगना
- केदारनाथ अग्रवाल | Kedarnath Agarwal
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मैंने उसको जब-जब देखा, लोहा देखा। लोहे जैसा तपते देखा, गलते देखा, ढलते देखा मैंने उसको गोली जैसा चलते देखा।
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स्वतंत्रता का नमूना
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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बिना टिकिट के ट्रेन में चले पुत्र बलवीर जहाँ ‘मूड' आया वहीं, खींच लई ज़ंजीर खींच लई ज़ंजीर, बने गुंडों के नक्कू पकड़ें टी.टी., गार्ड, उन्हें दिखलाते चक्कू गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार बढ़ा दिन-दूना प्रजातंत्र की स्वतंत्रता का देख नमूना |
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विडम्बना
- रीता कौशल | ऑस्ट्रेलिया
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मैंने जन्मा है तुझे अपने अंश से संस्कारों की घुट्टी पिलाई है । जिया हमेशा दिन-रात तुझको ममता की दौलत लुटाई है ।
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हिंदी जन की बोली है
- गिरिजाकुमार माथुर | Girija Kumar Mathur
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एक डोर में सबको जो है बाँधती वह हिंदी है, हर भाषा को सगी बहन जो मानती वह हिंदी है। भरी-पूरी हों सभी बोलियां यही कामना हिंदी है, गहरी हो पहचान आपसी यही साधना हिंदी है, सौत विदेशी रहे न रानी यही भावना हिंदी है।
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पन्द्रह अगस्त
- गिरिजाकुमार माथुर | Girija Kumar Mathur
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आज जीत की रात पहरुए, सावधान रहना! खुले देश के द्वार अचल दीपक समान रहना।
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हम होंगे कामयाब
- गिरिजाकुमार माथुर | Girija Kumar Mathur
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हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब हम होंगे कामयाब एक दिन ओ हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास, हम होंगे कामयाब एक दिन॥
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हिंदी मातु हमारी - प्रो. मनोरंजन
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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प्रो. मनोरंजन जी, एम. ए, काशी विश्वविद्यालय की यह रचना लाहौर से प्रकाशित 'खरी बात' में 1935 में प्रकाशित हुई थी।
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वसीम बरेलवी की ग़ज़ल
- वसीम बरेलवी | Waseem Barelvi
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मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा अब इसके बाद मेरा इम्तिहान क्या लेगा
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राजगोपाल सिंह | दोहे
- राजगोपाल सिंह
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बाबुल अब ना होएगी, बहन भाई में जंग डोर तोड़ अनजान पथ, उड़कर चली पतंग
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मौन ओढ़े हैं सभी | राजगोपाल सिंह का गीत
- राजगोपाल सिंह
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मौन ओढ़े हैं सभी तैयारियाँ होंगी ज़रूर राख के नीचे दबी चिंगारियाँ होंगी ज़रूर
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हाइकु - रोहित कुमार हैप्पी
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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दोस्त है कृष्ण तुम हर्जाना भरो सुदामा बन!
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शास्त्रीजी - कमलाप्रसाद चौरसिया | कविता
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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पैदा हुआ उसी दिन, जिस दिन बापू ने था जन्म लिया भारत-पाक युद्ध में जिसने तोड़ दिया दुनिया का भ्रम।
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मेरी कविता
- कमला प्रसाद मिश्र | फीजी | Kamla Prasad Mishra
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मैं अपनी कविता जब पढ़ता उर में उठने लगती पीड़ा मेरे सुप्त हृदय को जैसे स्मृतियों ने है सहसा चीरा
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ताजमहल
- कमला प्रसाद मिश्र | फीजी | Kamla Prasad Mishra
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उमड़ा करती है शक्ति, वहीं दिल में है भीषण दाह जहाँ है वहीं बसा सौन्दर्य सदा सुन्दरता की है चाह जहाँ उस दिव्य सुन्दरी के तन में उसके कुसुमित मृदु आनन में इस रूप राशि के स्वप्नों को देखा करता था शाहजहाँ
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भूल कर भी न बुरा करना | ग़ज़ल
- डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'
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भूल कर भी न बुरा करना जिस क़दर हो सके भला करना।
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एक आँख वाला इतिहास
- दूधनाथ सिंह
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मैंने कठैती हड्डियों वाला एक हाथ देखा-- रंग में काला और धुन में कठोर ।
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जयप्रकाश
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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झंझा सोई, तूफान रूका, प्लावन जा रहा कगारों में; जीवित है सबका तेज किन्तु, अब भी तेरे हुंकारों में।
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आपकी हँसी
- रघुवीर सहाय | Raghuvir Sahay
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निर्धन जनता का शोषण है कह कर आप हँसे लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कह कर आप हँसे सबके सब हैं भ्रष्टाचारी कह कर आप हँसे चारों ओर बड़ी लाचारी कह कर आप हँसे कितने आप सुरक्षित होंगे मैं सोचने लगा सहसा मुझे अकेला पा कर फिर से आप हँसे
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मुक्तिबोध की हस्तलिपि में कविता
- गजानन माधव मुक्तिबोध | Gajanan Madhav Muktibodh
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दोहे और सोरठे
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra
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है इत लाल कपोल ब्रत कठिन प्रेम की चाल। मुख सों आह न भाखिहैं निज सुख करो हलाल॥
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राष्ट्रगीत में भला कौन वह
- रघुवीर सहाय | Raghuvir Sahay
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राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत-भाग्य विधाता है फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है। मख़मल टमटम बल्लम तुरही पगड़ी छत्र चंवर के साथ तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर जय-जय कौन कराता है। पूरब-पच्छिम से आते हैं नंगे-बूचे नरकंकाल सिंहासन पर बैठा, उनके तमगे कौन लगाता है। कौन-कौन है वह जन-गण-मन- अधिनायक वह महाबली डरा हुआ मन बेमन जिसका बाजा रोज बजाता है।
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तोड़ो
- रघुवीर सहाय | Raghuvir Sahay
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तोड़ो तोड़ो तोड़ो ये पत्थर ये चट्टानें ये झूठे बंधन टूटें तो धरती को हम जानें सुनते हैं मिट्टी में रस है जिससे उगती दूब है अपने मन के मैदानों पर व्यापी कैसी ऊब है आधे आधे गाने
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झील, समुंदर, दरिया, झरने उसके हैं | ग़ज़ल
- कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar
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झील, समुंदर, दरिया, झरने उसके हैं मेरे तश्नालब पर पहरे उसके हैं
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दोहावली
- तुलसीदास | Tulsidas
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तुलसीदास कृत 'दोहावली' मुक्तक रचना है। इसमें 573 छंद हैं जिनमें 23 सोरठे व शेष दोहे संगृहित हैं। |
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दोहावली - 1
- तुलसीदास | Tulsidas
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श्रीसीतारामाभ्यां नम:
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तमाम घर को .... | ग़ज़ल
- ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek
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तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था
बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं, मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था
वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों- इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था
न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा, कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था
हमेशा बात वो करता था घर बनाने की मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था
मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद, कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था
-ज्ञानप्रकाश विवेक
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गीत फ़रोश
- भवानी प्रसाद मिश्र | Bhawani Prasad Mishra
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जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ, मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ, मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत बेचता हूँ!
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हो गई है पीर पर्वत-सी | दुष्यंत कुमार
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
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राजगोपाल सिंह की ग़ज़लें
- राजगोपाल सिंह
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राजगोपाल सिंह की ग़ज़लें भी उनके गीतों व दोहों की तरह सराही गई हैं। यहाँ उनकी कुछ ग़ज़लें संकलित की जा रही हैं।
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इन चिराग़ों के | ग़ज़ल
- राजगोपाल सिंह
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इन चिराग़ों के उजालों पे न जाना, पीपल ये भी अब सीख गए आग लगाना, पीपल
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महावीर प्रसाद द्विवेदी की कविताएं
- महावीर प्रसाद द्विवेदी | Mahavir Prasad Dwivedi
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महावीर प्रसाद द्विवेदी की कविताएं |
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कभी कभी खुद से बात करो | कवि प्रदीप की कविता
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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कभी कभी खुद से बात करो, कभी खुद से बोलो । अपनी नज़र में तुम क्या हो? ये मन की तराजू पर तोलो । कभी कभी खुद से बात करो । कभी कभी खुद से बोलो ।
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सुख-दुख | कविता
- सुमित्रानंदन पंत | Sumitranandan Pant
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मैं नहीं चाहता चिर-सुख, मैं नहीं चाहता चिर-दुख, सुख दुख की खेल मिचौनी खोले जीवन अपना मुख ! सुख-दुख के मधुर मिलन से यह जीवन हो परिपूरन; फिर घन में ओझल हो शशि, फिर शशि से ओझल हो घन ! जग पीड़ित है अति-दुख से जग पीड़ित रे अति-सुख से, मानव-जग में बँट जाएँ दुख सुख से औ’ सुख दुख से ! अविरत दुख है उत्पीड़न, अविरत सुख भी उत्पीड़न; दुख-सुख की निशा-दिवा में, सोता-जगता जग-जीवन ! यह साँझ-उषा का आँगन, आलिंगन विरह-मिलन का; चिर हास-अश्रुमय आनन रे इस मानव-जीवन का !
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आराम करो | हास्य कविता
- गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas
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एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो? इस डेढ़ छटांक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो। क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो। संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।" हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो। इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
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भारत-भारती
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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यहाँ मैथिलीशरण गुप्त की भारत-भारती को संकलित करने का प्रयास आरंभ किया है। विश्वास है पाठकों को रोचक लगेगा।
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ठाकुर का कुआँ | कविता
- ओमप्रकाश वाल्मीकि | Om Prakash Valmiki
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चूल्हा मिट्टी का मिट्टी तालाब की तालाब ठाकुर का ।
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निकटता | कविता
- विष्णु प्रभाकर | Vishnu Prabhakar
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त्रास देता है जो वह हँसता है त्रसित है जो वह रोता है कितनी निकटता है रोने और हँसने में
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यह दिल क्या है देखा दिखाया हुआ है
- त्रिलोचन
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यह दिल क्या है देखा दिखाया हुआ है मगर दर्द कितना समाया हुआ है
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प्यारा वतन
- महावीर प्रसाद द्विवेदी | Mahavir Prasad Dwivedi
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( १)
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मंगलाचरण | उपक्रमणिका | भारत-भारती
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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मंगलाचरण
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मैं दिल्ली हूँ
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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'मैं दिल्ली हूँ' रामावतार त्यागी की काव्य रचना है जिसमें दिल्ली की काव्यात्मक कहानी है। |
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मैं दिल्ली हूँ | एक
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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मैं दिल्ली हूँ मैंने कितनी, रंगीन बहारें देखी हैं । अपने आँगन में सपनों की, हर ओर कितारें देखीं हैं ॥
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स्वप्न बंधन
- सुमित्रानंदन पंत | Sumitranandan Pant
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बाँध लिया तुमने प्राणों को फूलों के बंधन में एक मधुर जीवित आभा सी लिपट गई तुम मन में! बाँध लिया तुमने मुझको स्वप्नों के आलिंगन में! तन की सौ शोभाएँ सन्मुख चलती फिरती लगतीं सौ-सौ रंगों में, भावों में तुम्हें कल्पना रँगती, मानसि, तुम सौ बार एक ही क्षण में मन में जगती! तुम्हें स्मरण कर जी उठते यदि स्वप्न आँक उर में छवि, तो आश्चर्य प्राण बन जावें गान, हृदय प्रणयी कवि? तुम्हें देख कर स्निग्ध चाँदनी भी जो बरसावे रवि! तुम सौरभ-सी सहज मधुर बरबस बस जाती मन में, पतझर में लाती वसंत, रस-स्रोत विरस जीवन में, तुम प्राणों में प्रणय, गीत बन जाती उर कंपन में! तुम देही हो? दीपक लौ-सी दुबली कनक छबीली, मौन मधुरिमा भरी, लाज ही-सी साकार लजीली, तुम नारी हो? स्वप्न कल्पना सी सुकुमार सजीली ? तुम्हें देखने शोभा ही ज्यों लहरी सी उठ आई, तनिमा, अंग भंगिमा बन मृदु देही बीच समाई! कोमलता कोमल अंगों में पहिले तन घर पाई!
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बाँध दिए क्यों प्राण
- सुमित्रानंदन पंत | Sumitranandan Pant
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सुमित्रानंदन पंत की हस्तलिपि में उनकी कविता, 'बाँध दिए क्यों प्राण'
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दिविक रमेश की चार कविताएँ
- दिविक रमेश
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सुनहरी पृथ्वी
सूरज रातभर मांजता रहता है काली पृथ्वी को
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राखी | कविता
- सुभद्रा कुमारी
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भैया कृष्ण ! भेजती हूँ मैं राखी अपनी, यह लो आज । कई बार जिसको भेजा है सजा-सजाकर नूतन साज ।।
लो आओ, भुजदण्ड उठाओ इस राखी में बँध जाओ । भरत - भूमि की रजभूमि को एक बार फिर दिखलाओ ।।
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राखी की चुनौती | सुभद्रा कुमारी चौहान
- सुभद्रा कुमारी
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बहिन आज फूली समाती न मन में । तड़ित आज फूली समाती न घन में ।। घटा है न झूली समाती गगन में । लता आज फूली समाती न बन में ।।
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खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं
- वसीम बरेलवी | Waseem Barelvi
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खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं
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आशा का दीपक
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है; थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है। चिंगारी बन गयी लहू की बूंद गिरी जो पग से; चमक रहे पीछे मुड़ देखो चरण-चिह्न जगमग से। बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है; थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है। अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का; सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का। एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ; वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का। आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है; थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है। दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा; लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा। जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही; अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा। और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है; थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
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भाई दूज
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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प्रभु या दास?
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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बुलाता है किसे हरे हरे, वह प्रभु है अथवा दास? उसे आने का कष्ट न दे अरे, जा तू ही उसके पास ।
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मैं तो वही खिलौना लूँगा
- सियाराम शरण गुप्त | Siyaram Sharan Gupt
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'मैं तो वही खिलौना लूँगा'
मचल गया दीना का लाल -
'खेल रहा था जिसको लेकर
राजकुमार उछाल-उछाल ।'
व्यथित हो उठी माँ बेचारी -
'था सुवर्ण - निर्मित वह तो !
खेल इसी से लाल, - नहीं है
राजा के घर भी यह तो ! '
राजा के घर ! नहीं नहीं माँ
तू मुझको बहकाती है ,
इस मिट्टी से खेलेगा क्यों
राजपुत्र तू ही कह तो । '
फेंक दिया मिट्टी में उसने
मिट्टी का गुड्डा तत्काल ,
'मैं तो वही खिलौना लूँगा' -
मचल गया दीना का लाल ।
' मैं तो वही खिलौना लूँगा '
मचल गया शिशु राजकुमार , -
वह बालक पुचकार रहा था
पथ में जिसको बारबार |
' वह तो मिट्टी का ही होगा ,
खेलो तुम तो सोने से । '
दौड़ पड़े सब दास - दासियाँ
राजपुत्र के रोने से ।
' मिट्टी का हो या सोने का ,
इनमें वैसा एक नहीं ,
खेल रहा था उछल - उछल कर
वह तो उसी खिलौने से । '
राजहठी ने फेंक दिए सब
अपने रजत - हेम - उपहार ,
' लूँगा वही , वही लूँगा मैं ! '
मचल गया वह राजकुमार ।
- सियारामशरण गुप्त
[ साभार - जीवन सुधा ]
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मैं आपसे कहने को ही था | ग़ज़ल
- शमशेर बहादुर सिंह
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मैं आपसे कहने को ही था, फिर आया खयाल एकायक कुछ बातें समझना दिल की, होती हैं मोहाल एकायक
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याचना | कविता
- कन्हैयालाल नंदन (Kanhaiya Lal Nandan )
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मैंने पहाड़ से माँगा : अपनी स्थिरता का थोड़ा-सा अंश मुझे दे दो पहाड़ का मन न डोला ।
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कृष्ण की चेतावनी
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम, सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर। सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें, आगे क्या होता है।
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कर्त्तव्यनिष्ठ
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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एक ने फेसबुक पर लिखा - पिताजी बीमार हैं... फिर अस्पताल की उनकी फोटो अपलोड कर दी फेसबुकिया यारों ने भी 'लाइक' मार-मार कर अपनी 'ड्यूटी' पूरी कर दी।
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कबीर वाणी
- नरेंद्र शर्मा
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हिन्दुअन की हिन्दुआई देखी तुरकन की तुरकाई ! सदियों रहे साथ, पर दोनों पानी तेल सरीखे ; हम दोनों को एक दूसरे के दुर्गुन ही दीखे !
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एक भी आँसू न कर बेकार
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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एक भी आँसू न कर बेकार - जाने कब समंदर मांगने आ जाए! पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है, यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है, और जिस के पास देने को न कुछ भी एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है, कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार जाने देवता को कौनसा भा जाए!
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परशुराम की प्रतीक्षा
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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दो शब्द (प्रथम संस्करण)
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परशुराम की प्रतीक्षा | खण्ड 1
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ? शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?
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रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव है! उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।
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मैं और कुछ नहीं कर सकता था
- विष्णु नागर
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मैं क्या कर सकता था किसी का बेटा मर गया था सांत्वना के दो शब्द कह सकता था किसी ने कहा बाबू जी मेरा घर बाढ़ में बह गया तो उस पर यकीन करके उसे दस रुपये दे सकता था किसी अंधे को सड़क पार करा सकता था रिक्शावाले से भाव न करके उसे मुंहमांगा दाम दे सकता था अपनी कामवाली को दो महीने का एडवांस दे सकता था दफ्तर के चपरासी की ग़लती माफ़ कर सकता था अमेरिका के खिलाफ नारे लगा सकता था वामपंथ में अपना भरोसा फिर से ज़ाहिर कर सकता था वक्तव्य पर दस्तख़त कर सकता था और मैं क्या कर सकता था किसी का बेटा तो नहीं बन सकता था किसी का घर तो बना कर नहीं दे सकता था किसी की आँख तो नहीं बन सकता था रिक्शा चलाने से किसी के फेफड़ों को सड़ने से रोक तो नहीं सकता था
और मैं क्या कर सकता था- ऐसे सवाल उठा कर खुश हो सकता था मान सकता था कि अब तो सिद्ध है वाकई मैं एक कवि हूँ और वक़्त आ चुका है कि मेरी कविताओं के अनुवाद की किताब अब अंग्रेजी में लंदन से छप कर आ जाना चाहिए।
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वन्देमातरम्
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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'वन्देमातरम्' बंकिम चन्द्र चटर्जी द्वारा संस्कृत में रचा गया; यह स्वतंत्रता की लड़ाई में भारतीयों के लिए प्रेरणा का स्रोत था। इसका स्थान हमारे राष्ट्र गान, 'जन गण मन...' के बराबर है। इसे पहली बार 1896 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के सत्र में गाया गया था।
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मातृ-मन्दिर
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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भारतमाता का यह मन्दिर, समता का संवाद यहाँ, सबका शिव-कल्याण यहाँ है, पावें सभी प्रसाद यहाँ। नहीं चाहिये बुद्धि वैरकी, भला प्रेम-उन्माद यहाँ, कोटि-कोटि कण्ठों से मिलकर,उठे एक जयनाद यहाँ । जाति,धर्म या सम्प्रदाय का, नहीं भेद-व्यवधान यहाँ, सबका स्वागत सबका आदर, सबका सम-सम्मान यहाँ। राम-रहीम, बुद्ध-ईसा का, सुलभ एक सा ध्यान यहाँ, भिन्न-भिन्न भव-संस्कृतियों के गुण-गोख का ज्ञान यहाँ । सब तीर्थो का एकतीर्थ यह, हृदय पवित्र बना लें हम, आओ यहाँ अजातशत्रु बन, सबको मित्र बना लें हम। रेखाएं प्रस्तुत हैं अपने, मन के चित्र बना लें हम, सौ-सौ आदर्शों को लेकर, एक चरित्र बना लें हम। मिला सत्य का हमें पुजारी, सफल काम उस न्यायी का, मुक्तिलाभ कर्तव्य यहाँ है, एक-एक अनुयायी का । बैठो माता के आँगन में, नाता भाई-भाई का, समझे उसकी प्रसव वेदना, वही लाल है माई का।
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वन्देमातरम् | राष्ट्रीय गीत
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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वंदे मातरम्, वंदे मातरम्! सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम्, शस्यश्यामलाम्, मातरम्! वंदे मातरम्! शुभ्रज्योत्सनाम् पुलकितयामिनीम्, फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्, सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्, सुखदाम् वरदाम्, मातरम्! वंदे मातरम्, वंदे मातरम्॥
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फ़र्क़
- आलोक धन्वा
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देखना एक दिन मैं भी उसी तरह शाम में कुछ देर के लिए घूमने निकलूंगा और वापस नहीं आ पाऊँगा !
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माँ गाँव में है
- दिविक रमेश
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चाहता था आ बसे माँ भी यहाँ, इस शहर में।
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सोचेगी कभी भाषा
- दिविक रमेश
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जिसे रौंदा है जब चाहा तब जिसका किया है दुरूपयोग, सबसे ज़्यादा। जब चाहा तब निकाल फेंका जिसे बाहर। कितना तो जुतियाया है जिसे प्रकोप में, प्रलोभ में वह तुम्हीं हो न भाषा।
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माँ
- दिविक रमेश
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रोज़ सुबह, मुँह-अंधेरे दूध बिलोने से पहले माँ चक्की पीसती, और मैं घुमेड़े में आराम से सोता।
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राधा प्रेम
- सपना मांगलिक
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मोर मुकट पीताम्बर पहने,जबसे घनश्याम दिखा साँसों के मनके राधा ने, बस कान्हा नाम लिखा राधा से जब पूँछी सखियाँ, कान्हा क्यों न आता मैं उनमें वो मुझमे रहते, दूर कोई न जाता द्वेत कहाँ राधा मोहन में, यों ह्रदय में समाया जग क्या मैं खुद को भी भूली, तब ही उसको पाया।
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नाग की बाँबी खुली है आइए साहब
- ऋषभदेव शर्मा
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नाग की बाँबी खुली है आइए साहब भर कटोरा दूध का भी लाइए साहब
रोटियों की फ़िक्र क्या है? कुर्सियों से लो गोलियाँ बँटने लगी हैं खाइए साहब
टोपियों के हर महल के द्वार छोटे हैं और झुककर और झुककर जाइए साहब
मानते हैं उम्र सारी हो गई रोते गीत उनके ही करम के गाइए साहब
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धुंध है घर में उजाला लाइए
- ऋषभदेव शर्मा
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धुंध है घर में उजाला लाइए रोशनी का इक दुशाला लाइए
केचुओं की भीड़ आँगन में बढ़ी आदमी अब रीढ़ वाला लाइए
जम गया है मोम सारी देह में गर्म फौलादी निवाला लाइए
जूझने का जुल्म से संकल्प दे आज ऐसी पाठशाला लाइए
- डॉ.ऋषभदेव शर्मा (तरकश, 1996)
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हैं चुनाव नजदीक सुनो भइ साधो
- ऋषभदेव शर्मा
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हैं चुनाव नजदीक, सुनो भइ साधो नेता माँगें भीख, सुनो भइ साधो गंगाजल का पात्र, आज सिर धारें कल थूकेंगे पीक, सुनो भइ साधो
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गरमागरम थपेड़े लू के
- आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)
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गरमागरम थपेड़े लू के, पारा सौ के पार हुआ है, इतनी गरमी कभी न देखी, ऐसा पहली बार हुआ है। नींबू - पानी, ठंडा - बंडा, ठंडी बोतल डरी - डरी है। चारों ओर बबंडर उठते, आँधी चलती धूल भरी है। नहीं भाड़ में सीरा भैया, भट्ठी-सा संसार हुआ है, गरमागरम थपेड़े लू के, पारा सौ के पार हुआ है। आते - जाते आतंकी से, सब अपना मुँह ढ़ाँप रहे हैं। बिजली आती-जाती रहती, एसी, कूलर काँप रहे हैं। शिमला नैनीताल चलें अब,मन में यही विचार हुआ है, गरमागरम थपेड़े लू के, पारा सौ के पार हुआ है। अभी सुना भू-कम्प हुआ है, और सुनामी सागर तल पर। दूर-दूर तक दिखे न राहत, आफत की आहट है भू पर। बन्द द्वार कर घर में बैठो, जीना ही दुश्वार हुआ है, गरमागरम थपेड़े लू के, पारा सौ के पार हुआ है। बादल फटा, बहे घर द्वारे, नगर-नगर में पानी-पानी। सृष्टि-सन्तुलन अस्त व्यस्त है, ये सब कुछ अपनी नादानी। मानव-मन पागल है कितना,समझाना बेकार हुआ है, गरमागरम थपेड़े लू के, पारा सौ के पार हुआ है।
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छोटी कविताएं
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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इस पृष्ठ पर रोहित कुमार हैप्पी की छोटी कविताएं संकलित की गयी हैं।
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कवि
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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तुम्हारी कलम में वो 'पीर' नहीं। तुमने शब्द गढ़े, जीये नहीं। तुम कवि तो हुए कबीर नहीं!
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कुंती की याचना
- राजेश्वर वशिष्ठ
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मित्रता का बोझ किसी पहाड़-सा टिका था कर्ण के कंधों पर पर उसने स्वीकार कर लिया था उसे किसी भारी कवच की तरह हाँ, कवच ही तो, जिसने उसे बचाया था हस्तिनापुर की जनता की नज़रों के वार से जिसने शांत कर दिया था द्रौणाचार्य और पितामह भीष्म को उस दिन वह अर्जुन से युद्ध तो नहीं कर पाया पर सारथी पुत्र राजा बन गया था अंग देश का दुर्योधन की मित्रता चाहे जितनी भारी हो पर सम्मान का जीवन तो यहीं से शुरु होता है!
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अदम गोंडवी की ग़ज़लें
- अदम गोंडवी
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अदम गोंडवी को हिंदी ग़ज़ल में दुष्यन्त कुमार की परंपरा को आगे बढ़ाने वाला शायर माना जाता है। राजनीति, लोकतंत्र और व्यवस्था पर करारा प्रहार करती अदम गोंडवी की ग़ज़लें जनमानस की आवाज हैं। यहाँ उन्हीं की कुछ गज़लों का संकलन किया जा रहा है। |
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आँख पर पट्टी रहे | ग़ज़ल
- अदम गोंडवी
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आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे
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यह कवि अपराजेय निराला | कविता
- रामविलास शर्मा
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यह कवि अपराजेय निराला, जिसको मिला गरल का प्याला; ढहा और तन टूट चुका है, पर जिसका माथा न झुका है; शिथिल त्वचा ढल-ढल है छाती, लेकिन अभी संभाले थाती, और उठाए विजय पताका- यह कवि है अपनी जनता का!
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कबीर | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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एक दिन आप घर से बाहर निकलेंगे और सड़क किनारे फ़ुटपाथ पर चिथड़ों में लिपटा बैठा होगा कबीर 'भाईजान , आप इस युग में कैसे ' --- यदि आप उसे पहचान कर पूछेंगे उससे तो वह शायद मध्य-काल में पाई जाने वाली आज-कल खो गई उजली हँसी हँसेगा उसके हाथों में पड़ा होगा किसी फटे हुए अख़बार का टुकड़ा जिस में बची हुई होगी एक बासी रोटी जिसे निगलने के बाद वह अख़बार के उसी टुकड़े पर छपी दंगे-फ़सादों की दर्दनाक ख़बरें पढ़ेगा और बिलख-बिलख कर रो देगा
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गुरुदेव | कबीर की साखियां
- कबीरदास | Kabirdas
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सतगुरु सवाँ न को सगा, सोधी सईं न दाति । हरिजी सवाँ न को हितू, हरिजन सईं न जाति ।।१।।
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मिट्टी की महिमा
- शिवमंगल सिंह सुमन
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निर्मम कुम्हार की थापी से कितने रूपों में कुटी-पिटी, हर बार बिखेरी गई, किन्तु मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी।
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सत्य की महिमा - कबीर की वाणी
- कबीरदास | Kabirdas
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साँच बराबर तप नहीं, झूँठ बराबर पाप। जाके हिरदे साँच है, ताके हिरदे आप॥
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उदयभानु हंस की ग़ज़लें
- उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans
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उदयभानु हंस का ग़ज़ल संकलन |
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हमने अपने हाथों में
- उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans
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हमने अपने हाथों में जब धनुष सँभाला है, बाँध कर के सागर को रास्ता निकाला है।
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कलयुग में गर होते राम
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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अच्छे युग में हुए थे राम कलयुग में गर होते राम बहुत कठिन हो जाते काम! गर दशरथ बनवास सुनाते जाते राम, ना जाने जाते दशरथ वहीं ढेर हो जाते। कलयुग में गर होते राम, बहुत कठिन हो जाते काम!
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जीवन की आपाधापी में
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
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कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती नन्ही चींटीं जब दाना ले कर चढ़ती है चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है मन का विश्वास रगॊं मे साहस भरता है चढ़ कर गिरना, गिर कर चढ़ना न अखरता है मेहनत उसकी बेकार नहीं हर बार होती कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती डुबकियाँ सिंधु में गोताखोर लगाता है जा-जा कर खाली हाथ लौट कर आता है मिलते न सहज ही मोती गहरे पानी में बढ़ता दूना विश्वास इसी हैरानी में मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो क्या कमी रह गयी देखो और सुधार करो जब तक न सफल हो नींद-चैन को त्यागो तुम संघर्षों का मैदान छोड़ मत भागो तुम कुछ किए बिना ही जय-जयकार नहीं होती कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
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दिन अच्छे आने वाले हैं
- गयाप्रसाद शुक्ल सनेही
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जब दुख पर दुख हों झेल रहे, बैरी हों पापड़ बेल रहे, हों दिन ज्यों-त्यों कर ढेल रहे, बाकी न किसी से मेल रहे, तो अपने जी में यह समझो, दिन अच्छे आने वाले हैं ।
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हरिवंशराय बच्चन की नये वर्ष पर कविताएं
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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यहाँ हरिवंशराय बच्चन की नये वर्ष पर लिखी गई कुछ कविताएं संकलित की हैं। विश्वास है पाठकों को अच्छी लगेंगी। |
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साथी, नया वर्ष आया है!
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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साथी, नया वर्ष आया है! वर्ष पुराना, ले, अब जाता, कुछ प्रसन्न सा, कुछ पछताता, दे जी-भर आशीष, बहुत ही इससे तूने दुख पाया है! साथी, नया वर्ष आया है!
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नववर्ष
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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स्वागत! जीवन के नवल वर्ष आओ, नूतन-निर्माण लिये, इस महा जागरण के युग में जाग्रत जीवन अभिमान लिये;
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कुंअर बेचैन ग़ज़ल संग्रह
- कुँअर बेचैन
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कुंअर बेचैन ग़ज़ल संग्रह - यहाँ डॉ० कुँअर बेचैन की बेहतरीन ग़ज़लियात संकलित की गई हैं। विश्वास है आपको यह ग़ज़ल-संग्रह पठनीय लगेगा। |
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अपना जीवन.... | ग़ज़ल
- कुँअर बेचैन
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अपना जीवन निहाल कर लेते औरों का भी ख़याल कर लेते
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हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज, तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन, मैं हूँ केवल पतदल-आसन, तुम सहज बिराजे महाराज।
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निराला की ग़ज़लें
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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निराला का ग़ज़ल संग्रह - इन पृष्ठों में निराला की ग़ज़लें संकलित की जा रही हैं। निराला ने विभिन्न विधाओं में साहित्य-सृजन किया है। यहाँ उनके ग़ज़ल सृजन को पाठकों के समक्ष लाते हुए हमें बहुत प्रसन्नता हो रही है।
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प्रेम के कई चेहरे
- सुषम बेदी
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वाटिका की तापसी सीता का नकटी शूर्पणखा का चिर बिरहन गोपिका का जुए में हारी द्रौपदी का यम को ललकारती सावित्री का।
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नये बरस में
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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नये बरस में कोई बात नयी चल कर लें तुम ने प्रेम की लिखी है कथायें तो बहुत किसी बेबस के दिल की 'आह' जाके चल सुन लें तू अगर साथ चले जाके उसका ग़म हर लें नये बरस में कोई बात नयी चल कर लें.....
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मातृ-मन्दिर में
- सुभद्रा कुमारी
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वीणा बज-सी उठी, खुल गये नेत्र और कुछ आया ध्यान। मुड़ने की थी देर, दिख पड़ा उत्सव का प्यारा सामान॥
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पथ से भटक गया था राम | भजन
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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पथ से भटक गया था राम नादानी में हुआ ये काम छोड़ गए सब संगी साथी संकट में प्रभु तुम लो थाम तू सबके दुःख हरने वाला बिगड़े संवारे सबके काम तेरा हर पल ध्यान धरुं मैं ऐसा पिला दे प्रेम का जाम
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मंजुल भटनागर की कविताएं
- मंजुल भटनागर
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इस पृष्ठ पर मंजुल भटनागर की कविताएं संकलित की जा रही हैं। नि:संदेह रचनाएं पठनीय हैं, विश्वास है आप इनका रस्वादन करेंगे।
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ओ उन्मुक्त गगन के पाखी
- मंजुल भटनागर
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ओ उन्मुक्त गगन के पाखी मेरे आंगन आ के देख
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कब लोगे अवतार हमारी धरती पर
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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फैला है अंधकार हमारी धरती पर हर जन है लाचार हमारी धरती पर हे देव! धरा है पूछ रही... कब लोगे अवतार हमारी धरती पर !
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प्राण रहते
- भवानी प्रसाद मिश्र | Bhawani Prasad Mishra
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प्राण रहते चाहता हूँ ओंठ पर नित गान रहते भाग्य का यह चक्र फिरता या न फिरता नभ बरसता फूल अथवा गाज गिरता जय-पराजय में अगर हम शीस उन्नत नष्ट शंका वज्र पुष्प समान सहते! प्राण रहते!!
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स्वामी विवेकानंद की कविताएं
- स्वामी विवेकानंद
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यहाँ स्वामी विवेकानंद की कविताएं संकलित की गई हैं।
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काली माता
- स्वामी विवेकानंद
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छिप गये तारे गगन के, बादलों पर चढ़े बादल, काँपकर गहरा अंधेरा, गरजते तूफान में, शत लक्ष पागल प्राण छूटे जल्द कारागार से--द्रुम जड़ समेत उखाड़कर, हर बला पथ की साफ़ करके ।
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खड़ा हिमालय बता रहा है
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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खड़ा हिमालय बता रहा है डरो न आंधी पानी में। खड़े रहो तुम अविचल हो कर सब संकट तूफानी में।
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भारतीय | फीज़ी पर कविता
- जोगिन्द्र सिंह कंवल | फीजी
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लम्बे सफर में हम भारतीयों को कभी पत्थर कभी मिले बबूल
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कभी गिरमिट की आई गुलामी
- जोगिन्द्र सिंह कंवल | फीजी
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उस समय फीज़ी में तख्तापलट का समय था। फीज़ी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार जोगिन्द्र सिंह कंवल फीज़ी की राजनैतिक दशा और फीज़ी के भविष्य को लेकर चिंतित थे, तभी तो उनकी कलम बोल उठी:
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सात सागर पार
- जोगिन्द्र सिंह कंवल | फीजी
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सात सागर पार करके भी ठिकाना न मिला सौ साल प्यार करके भी निभाना न मिला
कई जनमों से तो बिछड़े थे एक मां से हम दूसरी मां के आंचल में भी सिर छिपाना न मिला
पीढ़ियां खेली हैं ऐ देश तेरी गोद में फिर भी तेरी ममता का हमें नजराना न मिला
हम ने बंजर धरती में खिला दिए रंगीन फूल तेरी पूजा के लिये दो फूल चढ़ाना न मिला
खून पसीने से बनाया था जन्नत का चमन इस की किसी डाल पर भी आशियाना न मिला
हम तो पागल हो गये मंजिलों की खोज में इतनी भटकन के बाद भी कोई ठिकाना न मिला
हम ने क्या पाप किया समझ में आता नहीं वर्षों की लगन का हमें, कोई इवज़ाना न मिला
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गिरमिट के समय
- कमला प्रसाद मिश्र | फीजी | Kamla Prasad Mishra
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दीन दुखी मज़दूरों को लेकर था जिस वक्त जहाज सिधारा चीख पड़े नर नारी, लगी बहने नयनों से विदा-जल-धारा भारत देश रहा छूट अब मिलेगा इन्हें कहीं और सहारा फीजी में आये तो बोल उठे सब आज से है यह देश हमारा
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मुक्ता
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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ज़ंजीरों से चले बाँधने आज़ादी की चाह। घी से आग बुझाने की सोची है सीधी राह!
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ग्रामवासिनी
- शारदा मोंगा | न्यूजीलैंड
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भारत माता ग्रामवासिनी, शस्य श्यामला सुखद सुहासिनी,
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चाहता हूँ देश की....
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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मन समर्पित, तन समर्पित और यह जीवन समर्पित चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं
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पुरखों की पुण्य धरोहर
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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जो फूल चमन पर संकट देख रहा सोता मिट्टी उस को जीवन-भर क्षमा नहीं करती ।
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नहीं मांगता
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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नहीं मांगता, प्रभु, विपत्ति से, मुझे बचाओ, त्राण करो विपदा में निर्भीक रहूँ मैं, इतना, हे भगवान, करो।
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तुलसी बाबा
- त्रिलोचन
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तुलसी बाबा, भाषा मैंने तुमसे सीखी मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो । कह सकते थे तुम सब कड़वी, मीठी, तीखी ।
प्रखर काल की धारा पर तुम जमे हुए हो । और वृक्ष गिर गए, मगर तुम थमे हुए हो । कभी राम से अपना कुछ भी नहीं दुराया, देखा, तुम उन के चरणों पर नमे हुए हो । विश्व बदर था हाथ तुम्हारे उक्त फुराया, तेज तुम्हारा था कि अमंगल वृक्ष झुराया, मंगल का तरु उगा; देख कर उसकी छाया, विघ्न विपद् के घन सरके, मुँह कहीं चुराया । आठों पहर राम के रहे, राम गुन गाया ।
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आज तुम्हारा जन्मदिवस
- नामवर सिंह | Namvar Singh
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आज तुम्हारा जन्मदिवस, यूँ ही यह संध्या भी चली गई, किंतु अभागा मैं न जा सका समुख तुम्हारे और नदी तट भटका-भटका कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या।
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हम स्वेदश के प्राण
- गयाप्रसाद शुक्ल सनेही
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प्रिय स्वदेश है प्राण हमारा, हम स्वदेश के प्राण।
आँखों में प्रतिपल रहता है, ह्रदयों में अविचल रहता है यह है सबल, सबल हैं हम भी इसके बल से बल रहता है,
और सबल इसको करना है, करके नव निर्माण। हम स्वदेश के प्राण।
यहीं हमें जीना मरना है, हर दम इसका दम भरना है, सम्मुख अगर काल भी आये चार हाथ उससे करना है,
इसकी रक्षा धर्म हमारा, यही हमारा त्राण। हम स्वदेश के प्राण।
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सुभाषचन्द्र
- गयाप्रसाद शुक्ल सनेही
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तूफान जुल्मों जब्र का सर से गुज़र लिया कि शक्ति-भक्ति और अमरता का बर लिया । खादिम लिया न साथ कोई हमसफर लिया, परवा न की किसी की हथेली पर सर लिया । आया न फिर क़फ़स में चमन से निकल गया । दिल में वतन बसा के वतन से निकल गया ।।
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हौसला
- देवेन्द्र कुमार मिश्रा
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कागज की नाव बही और डूब गई बात डूबने की नहीं उसके हौसले की है और कौन मरा कितना जिया सवाल ये नहीं बात तो हौसले की है बात तो जीने की है कितना जिया ये बात बेमानी है किस तरह जिया कागज़ी नाव का हौसला देखिये डूबना नहीं।
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भगत सिंह को पसंद थी ये ग़ज़ल
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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उन्हें ये फिक्र है हर दम नई तर्ज़-ए-जफ़ा क्या है हमें ये शौक़ है देखें सितम की इंतिहा क्या है
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भगतसिंह पर लिखी कविताएं
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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इन पृष्ठों में भगतसिंह पर लिखी काव्य रचनाओं को संकलित करने का प्रयास किया जा रहा है। विश्वास है आपको सामग्री पठनीय लगेगी।
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रंग दे बसंती चोला गीत का इतिहास
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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'रंग दे बसंती चोला' अत्यंत लोकप्रिय देश-भक्ति गीत है। यह गीत किसने रचा? इसके बारे में बहुत से लोगों की जिज्ञासा है और वे समय-समय पर यह प्रश्न पूछते रहते हैं।
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ज्ञान का पाठ
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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डॉ० कलाम को समर्पित....
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वृन्द के नीति-दोहे
- वृन्द
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स्वारथ के सब ही सगे, बिन स्वारथ कोउ नाहिं । जैसे पंछी सरस तरु, निरस भये उड़ि जाहिं ।। १ ।।
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आनन्द विश्वास के हाइकु
- आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)
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1. मन की बात सोचो, समझो और मनन करो।
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हिंदी रूबाइयां
- उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans
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मंझधार से बचने के सहारे नहीं होते दुर्दिन में कभी चाँद सितारे नहीं होते हम पार भी जायें तो भला जायें किधर से इस प्रेम की सरिता के किनारे नहीं होते
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कलगी बाजरे की
- अज्ञेय | Ajneya
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हरी बिछली घास। दोलती कलगी छरहरी बाजरे की। अगर मैं तुमको ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता, या शरद् के भोर की नीहार न्हायी कुँई। टटकी कली चंपे की, वगैरह, तो नहीं, कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है या कि मेरा प्यार मैला है बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गए हैं। देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच। कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी : तुम्हारे रूप के, तुम हो, निकट हो, इसी जादू के निजी किस सहज गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूँ- अगर मैं यह कहूँ- बिछली घास हो तुम लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की? आज हम शहरातियों को पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फूल-से सृष्टि के विस्तार का, ऐश्वर्य का, औदार्य का कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक बिछली घास है या शरद् की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी अकेली बाजरे की। और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूँ यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट जाता है और मैं एकांत होता हूँ समर्पित। शब्द जादू हैं- मगर क्या यह समर्पण कुछ नहीं है?
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अकाल और उसके बाद
- नागार्जुन | Nagarjuna
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कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास‚ कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास कई दिनों तह लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त‚ कही दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
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चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती
- त्रिलोचन
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चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है उसे बड़ा अचरज होता है: इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर निकला करते हैं|
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हमारी हिंदी
- रघुवीर सहाय | Raghuvir Sahay
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हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीवी है बहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली
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पहचान
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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अपनी गली मोहल्ला अपना, अपनी बाणी खाना अपना, थी अपनी भी इक पहचान।
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कुछ झूठ बोलना सीखो कविता!
- जयप्रकाश मानस | Jaiprakash Manas
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कविते! कुछ फरेब करना सिखाओ कुछ चुप रहना वरना तुम्हारे कदमों पर चलनेवाला कवि मार दिया जाएगा खामखां महत्वपूर्ण यह भी नहीं कि तुम उसे जीवन देती हो
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एक अदद घर
- जयप्रकाश मानस | Jaiprakash Manas
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जब माँ नींव की तरह बिछ जाती है पिता तने रहते हैं हरदम छत बनकर भाई सभी उठा लेते हैं स्तम्भों की मानिंद बहन हवा और अंजोर बटोर लेती है जैसे झरोखा बहुएँ मौसमी आघात से बचाने तब्दील हो जाती हैं दीवाल में तब नई पीढ़ी के बच्चे खिलखिला उठते हैं आँगन-सा आँगन में खिले किसी बारहमासी फूल-सा तभी गमक-गमक उठता है एक अदद घर समूचे पड़ोस में सारी गलियों में सारे गाँव में पूरी पृथ्वी में
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जूठे पत्ते
- बालकृष्ण शर्मा नवीन | Balkrishan Sharma Navin
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क्या देखा है तुमने नर को, नर के आगे हाथ पसारे? क्या देखे हैं तुमने उसकी, आँखों में खारे फ़व्वारे? देखे हैं? फिर भी कहते हो कि तुम नहीं हो विप्लवकारी? तब तो तुम पत्थर हो, या महाभयंकर अत्याचारी।
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जनतंत्र का जन्म
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
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हिन्दी भाषा
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh
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छ्प्पै
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कुण्डली
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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बोलो इस संसार में, किसको किससे प्रेम। हर कोई अब खेलता, अपनी-अपनी 'गेम'।। अपनी-अपनी 'गेम', बने हैं सभी खिलाड़ी। निकलें पूरे बाप, दिखें जो बड़े अनाड़ी ।। नहीं देखता कोय, फिर क्यों पूरा तोलो ? आई अपने काम, कहाँ ये दुनिया बोलो ।।
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निदा फ़ाज़ली के दोहे
- निदा फ़ाज़ली
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बच्चा बोला देख कर मस्जिद आली-शान । अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान ।।
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माँ | ग़ज़ल
- निदा फ़ाज़ली
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बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी माँ याद आती है चौका, बासन, चिमटा, फूंकनी जैसी माँ
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अपना ग़म लेके | ग़ज़ल
- निदा फ़ाज़ली
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अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये
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घर से निकले ....
- निदा फ़ाज़ली
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घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे हर तरफ़ तेज़ हवाएँ हैं बिखर जाओगे
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परदे हटा के देखो
- अशोक चक्रधर | Ashok Chakradhar
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ये घर है दर्द का घर, परदे हटा के देखो, ग़म हैं हँसी के अंदर, परदे हटा के देखो।
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रामनरेश त्रिपाठी के नीति के दोहे
- रामनरेश त्रिपाठी
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विद्या, साहस, धैर्य, बल, पटुता और चरित्र। बुद्धिमान के ये छवौ, है स्वाभाविक मित्र ।।
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डिजिटल इंडिया | हास्य-व्यंग
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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वर्मा जी ने फेसबुक पर स्टेटस लिखा - 'Enjoying in Dubai with family!' साथ में...पूरे परिवार का फोटो अपलोड किया था!
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सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा हम भेड़-बकरी इसके यह ग्वारिया हमारा
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इच्छाएं
- शिवनारायण जौहरी विमल
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दुबले पतंगी कागज़ का उड़ता हुआ टुकड़ा नहीं प्रसूती मन की बलवती संतान हैं।
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मंदिर-दीप
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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मैं मंदिर का दीप तुम्हारा। जैसे चाहो, इसे जलाओ, जैसे चाहो, इसे बुझायो,
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मेरे देश की आँखें
- अज्ञेय | Ajneya
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नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं पुते गालों के ऊपर नकली भवों के नीचे छाया प्यार के छलावे बिछाती मुकुर से उठाई हुई मुस्कान मुस्कुराती ये आँखें - नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं... तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ - नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं... वन डालियों के बीच से चौंकी अनपहचानी कभी झाँकती हैं वे आँखें, मेरे देश की आँखें, खेतों के पार मेड़ की लीक धारे क्षिति-रेखा को खोजती सूनी कभी ताकती हैं वे आँखें... उसने झुकी कमर सीधी की माथे से पसीना पोछा डलिया हाथ से छोड़ी और उड़ी धूल के बादल के बीच में से झलमलाते जाड़ों की अमावस में से मैले चाँद-चेहरे सुकचाते में टँकी थकी पलकें उठायीं - और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं मेरे देश की आँखें...
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तुलसीदास | सोहनलाल द्विवेदी की कविता
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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अकबर का है कहाँ आज मरकत सिंहासन? भौम राज्य वह, उच्च भवन, चार, वंदीजन;
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प्यार !
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
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प्यार! कौन सी वस्तु प्यार है? मुझे बता दो। किस को करता कौन प्यार है ? यही दिखा दो।।
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जेल में क्या-क्या है
- पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'
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पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र' 1926-27 में जेल में बंद थे लेकिन जेल में होने पर भी उनके प्राण किसी प्रकार अप्रसन्न नहीं थे। देखिए, जेल में पड़े-पड़े उनको क्या सूझी कि जेल में क्या-क्या है, पर कविता रच डाली -
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रावण या राम
- जैनन प्रसाद | फीजी
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रामायण के पन्नों में रावण को देख कर, काँप उठा मेरा मन अपने अंतर में झाँक कर।
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भूले स्वाद बेर के
- नागार्जुन | Nagarjuna
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सीता हुई भूमिगत, सखी बनी सूपनखा वचन बिसर गए देर के सबेर के बन गया साहूकार लंकापति विभीषण पा गए अभयदान शावक कुबेर के जी उठा दसकंधर, स्तब्ध हुए मुनिगण हावी हुआ स्वर्णमरिग कंधों पर शेर के बुढ़भस की लीला है, काम के रहे न राम शबरी न याद रही, भूले स्वाद बेर के
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मुक़ाबला
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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दमदार ने पूरे दम से जान लड़ा दी मंज़िल पाने को,
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खेल का खेल
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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हार और जीत भोगते हैं तीनों ही - अनाड़ी, जुगाड़ी और खिलाड़ी। अनाड़ी को हारने पर आती है शर्म।
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पेट-महिमा
- बालमुकुन्द गुप्त
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साधो पेट बड़ा हम जाना। यह तो पागल किये जमाना॥ मात पिता दादा दादी घरवाली नानी नाना। सारे बने पैट की खातिर वाकी फकत बहाना॥ पेट हमारा हुण्डी पुर्जा पेटहि माल खजाना। जबसे जन्मे सिवा पेट के और न कुछ पहचाना॥ लड्डू पेड़ा पूरी बरफी रोटी साबूदाना। सबै जात है इसी पेट में हलवा तालमखाना॥ यही पेट चट कर गया होटल पी गया बोतलखाना। केला मूली आम सन्तरे सबका यही खजाना॥ पेट भरे लारड कर्जन ने लेक्चर देना जाना। जब जब देखा तब तब समझे जइँ खाना तहँ गाना॥ बाहर धर्म भवन शिवमन्दिर क्या ढूँढे दीवाना। ढूँढो इसी पेट में प्यारो तब कुछ मिले ठिकाना॥
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एकता का बल
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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कभी कभी यूं भी हमने
- निदा फ़ाज़ली
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कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है जिन बातों को खुद नहीं समझे औरों को समझाया है
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उपदेश : कबीर के दोहे
- कबीरदास | Kabirdas
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कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोय। आप ठगे सुख ऊपजै, और ठगे दुख होय॥
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चल मन | रैदास के पद
- रैदास | Ravidas
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चल मन! हरि चटसाल पढ़ाऊँ।। गुरु की साटी ग्यान का अच्छर, बिसरै तौ सहज समाधि लगाऊँ।। प्रेम की पाटी, सुरति की लेखनी, ररौ ममौ लिखि आँक लखाऊँ।। येहि बिधि मुक्त भये सनकादिक, ह्रदय बिचार प्रकास दिखाऊँ।। कागद कँवल मति मसि करि निर्मल, बिन रसना निसदिन गुन गाऊँ।। कहै रैदास राम भजु भाइ, संत राखि दे बहुरि न आऊँ।।
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कविता क्या है
- केदारनाथ सिंह
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कविता क्या है हाथ की तरफ उठा हुआ हाथ देह की तरफ झुकी हुई आत्मा मृत्यु की तरफ़ घूरती हुई आँखें क्या है कविता कोई हमला हमले के बाद पैरों को खोजते लहूलुहान जूते नायक की चुप्पी विदूषक की चीख़ बालों के गिरने पर नाई की चिन्ता एक पत्ता टूटने पर राष्ट्र का शोक आख़िर क्या है क्या है कविता ? मैंने जब भी सोचा मुझे रामचन्द्र शुक्ल की मूछें याद आयीं मूंछों में दबी बारीक-सी हँसी हँसी के पीछे कविता का राज़ कविता के राज पर हँसती हुई मूँछें !
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तुम्हारे जिस्म जब-जब | ग़ज़ल
- कुँअर बेचैन
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तुम्हारे जिस्म जब-जब धूप में काले पड़े होंगे हमारी भी ग़ज़ल के पाँव में छाले पड़े होंगे
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जय बोलो बेईमान की | हास्य-कविता
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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मन मैला तन ऊजरा भाषण लच्छेदार ऊपर सत्याचार है भीतर भ्रष्टाचार झूठों के घर पंडित बाँचें कथा सत्य भगवान की जय बोलो बेईमान की!
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हज़ल | हास्य ग़ज़ल
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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जा तू भी हँसता-बसता रह, अपनी कारगुज़ारी में बस मुझको भी खुश रहने दे अपनी चारदीवारी में
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शहीद पूछते हैं
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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भोग रहे जो आज आज़ादी किसने तुम्हें दिलाई थी? चूमे थे फाँसी के फंदे, किसने गोली खाई थी?
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जो बीत गई सो बात गई
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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जीवन में एक सितारा था माना वह बेहद प्यारा था वह डूब गया तो डूब गया अंबर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अंबर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई
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सहजो बाई के गुरु पर दोहे
- सहजो बाई
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'सहजो' कारज जगत के, गुरु बिन पूरे नाहिं । हरि तो गुरु बिन क्या मिलें, समझ देख मन माहि।।
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भागी हुई लड़कियां
- आलोक धन्वा
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(एक)
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मेरी भाषा
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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मेरी भाषा में तोते भी राम-राम जब कहते हैं, मेरे रोम-रोम से मानो सुधा-स्रोत तब बहते हैं। सब कुछ छूट जाए, मैं अपनी भाषा; कभी न छोडूँगा। वह मेरी माता है उससे नाता कैसे तोडूंगा।। कभी अकेला भी हूँगा मैं तो भी सोच न लाऊँगा, अपनी भाषा में अपनों के गीत वहां भी गाऊँगा। मुझे एक संगिनी वहाँ भी अनायास मिल जावेगी, मेरे साथ प्रतिध्वनि देगी कली-कली खिल जावेगी।। मेरा दुर्लभ देश आज यदि अवनति से आक्रान्त हुआ, अंधकार में मार्ग भूल कर भटक रहा है भ्रांत हुआ। तो भी भय की बात नहीं है भाषा पार लगावेगी, अपने मधुर स्निग्ध, नाद से उन्नत भाव जगावेगी।
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घाटी के दिल की धड़कन
- हरिओम पंवार
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काश्मीर जो खुद सूरज के बेटे की रजधानी था डमरू वाले शिव शंकर की जो घाटी कल्याणी था काश्मीर जो इस धरती का स्वर्ग बताया जाता था जिस मिट्टी को दुनिया भर में अर्ध्य चढ़ाया जाता था काश्मीर जो भारतमाता की आँखों का तारा था काश्मीर जो लालबहादुर को प्राणों से प्यारा था काश्मीर वो डूब गया है अंधी-गहरी खाई में फूलों की खुशबू रोती है मरघट की तन्हाई में
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ये गजरे तारों वाले
- डॉ रामकुमार वर्मा
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इस सोते संसार बीच, जग कर सज कर रजनी वाले ! कहाँ बेचने ले जाती हो, ये गजरे तारों वाले ?
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युगावतार गांधी
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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चल पड़े जिधर दो डग, मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर; गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि गड़ गए कोटि दृग उसी ओर,
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सुनाएँ ग़म की किसे कहानी
- अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ
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तुलसीदास के लोकप्रिय दोहे
- तुलसीदास | Tulsidas
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काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान। तौ लौं पण्डित मूरखौं, तुलसी एक समान।।
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प्रेम पर दोहे
- कबीरदास | Kabirdas
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प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय। राजा-परजा जेहि रुचै, सीस देइ लै जाय॥
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रंगीन पतंगें
- अब्बास रज़ा अल्वी | ऑस्ट्रेलिया
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अच्छी लगती थी वो सब रंगीन पतंगे काली नीली पीली भूरी लाल पतंगे
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देश की मिट्टी | कविता
- रेखा राजवंशी | ऑस्ट्रेलिया
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बेटी ने देश की मिट्टी उठाई एक बोतल में रख सील लगाई सूटकेस में रख साथ अपने लाई जमी रहें जड़ें अपनी जगह विदेश में रहें देश की तरह मिट्टी की खुशबू भर दे खुशहाली देश से जाएँ तो क्यों जाएँ ख़ाली शायद यह बात उसके मन में आई देश की मिट्टी वो साथ अपने लाई।
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अवसर नहीं मिला
- कमला प्रसाद मिश्र | फीजी | Kamla Prasad Mishra
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जो कुछ लिखना चाहा था वह लिख न कभी मैं पाया जो कुछ गाना चाहा था वह गीत न मैं गा पाया।
मुझको न मिला अवसर ही अपने पथ पर चलने का था दीप पड़ा झोली में अवसर न मिला जलने का।
जो दीप न जल पाता है वह क्या प्रकाश फैलाये जिसको न मिला अवसर ही वह गीत भला क्या गाये।
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चलो चलें उस पार
- अमरजीत कौर कंवल | फीजी
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चलों चलें उस पार झर झर करते झरने हों जहाँ बहती हो नदिया की धारा जीवन के चंद पल हों अपने कर लें हम प्रकृति से प्यार
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कुछ अनुभूतियाँ
- डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड | न्यूज़ीलैंड
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दूर दूर तक फैला मिला आकाश चारों ओर ऊँची पहाड़ियाँ शांत नीरव वातावरण दूर-दूर तक कोई कोलाहल न था। शांति केवल शांति।
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गुरुदक्षिणा
- जैनन प्रसाद | फीजी
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सायक बिकते हैं धनुः विद्या भी बिकती है पर बिकते नहीं हैं तो केवल द्रोणचार्य जैसे गुरु। लेकिन सौभाग्य से अगर मिल भी गए और कृपालु हों वे अर्जुन ही समझ लें तुम्हें तो किंकर्तव्यविमूढ़ की भांति तुम लक्ष्य अनुसंधान कर पाओगे? भेद पाओगे! क्या? वह आँख? अगर इस दुष्कर कार्य में सफलता मिल भी गई तो मांग बैठेगा तुमसे ! गुरुदक्षिणा ! जो तुम दे नहीं पाओगे क्योंकि तुम एकलव्य नहीं हो।
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पहाड़े
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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आपके और मेरे पहाड़े भिन्न हैं। आपके लिए-- दो दूनी चार।
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धूमिल की अंतिम कविता
- सुदामा पांडेय धूमिल
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"शब्द किस तरह कविता बनते हैं इसे देखो अक्षरों के बीच गिरे हुए आदमी को पढ़ो क्या तुमने सुना कि यह लोहे की आवाज है या मिट्टी में गिरे हुए खून का रंग।"
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सहेजे हैं शब्द
- प्रीता व्यास | न्यूज़ीलैंड
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शौकिया जैसे सहेजते हैं लोग रंगीन, सुंदर, मृत तितलियाँ सहेजे हैं वैसे ही मैंने भाव भीगे, प्रेम पगे शब्द। शब्द, जो कभी चंपा के फूल की तरह तुम्हारे होंठों से झरे थे। शब्द, जो कभी गुलाब की महक से तुम्हारे पत्रों में बसे थे। शब्द जो बगीचे में उडती तितलियों से थे कभी प्राणवंत सहेज रखे हैं मैंने वे सारे शब्द। क्या हुआ जो मर गया प्यार क्या हुआ जो मर गया रिश्ता क्या हुआ जो असंभव है पुनर्जीवन इनका मैंने सहेज रखे हैं शब्द पूरी भव्यता के साथ जैसे सहेजते हैं मिस्र के लोग 'ममी'।
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डॉ रामनिवास मानव की क्षणिकाएँ
- डॉ रामनिवास मानव | Dr Ramniwas Manav
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सीमा पार से निरन्तर घुसपैठ जारी है। 'वसुधैव कुटुम्बकम' नीति यही तो हमारी है।
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जीवन का अधिकार
- सुमित्रानंदन पंत | Sumitranandan Pant
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जो है समर्थ, जो शक्तिमान, जीवन का है अधिकार उसे। उसकी लाठी का बैल विश्व, पूजता सभ्य-संसार उसे!
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गाँव की धरती
- नरेंद्र शर्मा
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चमकीले पीले रंगों में अब डूब रही होगी धरती, खेतों खेतों फूली होगी सरसों, हँसती होगी धरती! पंचमी आज, ढलते जाड़ों की इस ढलती दोपहरी में जंगल में नहा, ओढ़नी पीली सुखा रही होगी धरती!
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जो समर में हो गए अमर
- नरेंद्र शर्मा
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जो समर में हो गए अमर, मैं उनकी याद में गा रही हूँ आज श्रद्धा-गीत धन्यवाद में जो समर में हो गए अमर ...
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सूनापन रातों का | ग़ज़ल
- भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया
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सूनापन रातों का, और वो कसक पुरानी देता है टूटे सपने,बिखरे आँसू,कई निशानी देता है
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यूँ तो मिलना-जुलना
- प्रगीत कुँअर | ऑस्ट्रेलिया
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यूँ तो मिलना-जुलना चलता रहता है मिलकर उनका जाना खलता रहता है
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शस्य श्यामलां
- डॉ सुनीता शर्मा | न्यूज़ीलैंड
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एक पत्थर फेंका गया मेरे घर में फ़ेंकना चाहती थी मैं भी उसे किसी शीश महल में पर आ किसी ने हाथ रोक लिए मंदिर में सजा दिया उसे अब हो व्याकुल कहीं नमी देखते ही बो देना चाहती हूँ आस्था विश्वास के बीज लहलहा उठे फसलें हृदय हो उठे फिर शस्य श्यामलां
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इक अनजाने देश में
- विजय कुमार सिंह | ऑस्ट्रेलिया
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इक अनजाने देश में जब भी, मैं चुप हो रह जाता हूँ, अपना मन उल्लास से भरने, देश तुझे ही गाता हूँ| शुभ्र हिमालय सर हो मेरा, सीना बन जाता विंध्याचल| नीलगिरी घुटने बन जाते, पैर तले तब नीला सागर| दाएँ में कच्छ को भर लेता, बाएँ मिजो भर जाता हूँ, अपना मन उल्लास से भरने,देश तुझे ही गाता हूँ| श्वासों में तब तेरा समीरण, धमनी में तेरा ही नद्जल| आँखों में आकाश हो तेरा, कानों में गाती फिर कोयल| रोम मेरे पादप जाते, वन बन कर सज जाता हूँ, अपना मन उल्लास से भरने, देश तुझे ही गाता हूँ| स्मृति में मैं सब भर लेता, तेरी थाती महिमा गौरव| संत तपस्वी त्यागी ज्ञानी, जिनसे जग में तेरा सौरभ| मैं अपने मन श्रद्धा भरकर, हरपल शीश नवाता हूँ, अपना मन उल्लास से भरने,देश तुझे ही गाता हूँ|
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एक फूल की चाह
- सियाराम शरण गुप्त | Siyaram Sharan Gupt
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उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ, हृदय-चिताएँ धधकाकर, महा महामारी प्रचण्ड हो फैल रही थी इधर उधर।
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किसने बाँसुरी बजाई
- जानकी वल्लभ शास्त्री
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जनम-जनम की पहचानी वह तान कहाँ से आई ! किसने बाँसुरी बजाई
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आशापञ्चक
- बाबू गुलाबराय | Babu Gulabrai
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आशा वेलि सुहावनी. शीतल जाको छांहि । जिहि प्रिय सुमन सुफलन ते, मधराई अधिकाहिं
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पथ की बाधाओं के आगे | गीत
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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पथ की बाधाओं के आगे घुटने टेक दिए अभी तो आधा पथ चले! तुम्हें नाव से कहीं अधिक था बाहों पर विश्वास, क्यों जल के बुलबुले देखकर गति हो गई उदास, ज्वार मिलेंगे बड़े भंयकर कुछ आगे चलकर-- अभी तो तट के तले तले! सीमाओं से बाँध नहीं पाता कोई मन को, सभी दिशाओं में मुड़ना पड़ता है जीवन को, हो सकता है रेखाओं पर चलना तुम्हें पड़े अभी तो गलियों से निकले! शीश पटकने से कम दुख का भार नहीं होगा, आँसू से पीड़ा का उपसंहार नहीं होगा, संभव है यौवन ही पानी बनकर बह जाए अभी तो नयन-नयन पिघले!
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महानगर पर दोहे
- राजगोपाल सिंह
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अद्भुत है, अनमोल है, महानगर की भोर रोज़ जगाता है हमें, कान फोड़ता शोर
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चेहरे से दिल की बात | ग़ज़ल
- अंजुम रहबर
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चेहरे से दिल की बात छलकती ज़रूर है, चांदी हो चाहे बर्क चमकती ज़रूर है।
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तंत्र
- गोरख पाण्डेय
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राजा बोला रात है, रानी बोली रात है, मंत्री बोला रात है, संतरी बोला रात है, --यह सुबह-सुबह की बात है।
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नये सुभाषित
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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पत्रकार
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महामारी लगी थी
- गुलज़ार
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घरों को भाग लिए थे सभी मज़दूर, कारीगर मशीनें बंद होने लग गई थीं शहर की सारी उन्हीं से हाथ पाओं चलते रहते थे वगर्ना ज़िन्दगी तो गाँव ही में बो के आए थे।
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जननी जन्मभूमि
- रामप्रसाद बिस्मिल
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हाय! जननी जन्मभूमि छोड़कर जाते हैं हम, देखना है फिर यहाँ कब लौट कर आते हैं हम। स्वर्ग के सुख से भी ज्यादा सुख मिला हम को यहाँ, इसलिए तजते इसे, हर बार शर्माते हैं हम। ऐ नदी-नालो! दरख्तो! पक्षियो! मेरा कसूर, माफ करना, जोड़ कर तुम से फर्माते है हम। माँ! तुझे इस जन्म में कुछ सुख न दे पाए कभी, फिर जनम लेंगे यहीं, यह कौल कर जाते हैं हम।।
-राम प्रसाद बिस्मिल
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चंद्रशेखर आज़ाद | गीत
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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शत्रुओं के प्राण उन्हें देख सूख जाते थे ज़िस्म जाते काँप, मुँह पीले पड़ जाते थे देश था गुलाम पर 'आज़ाद' वे कहाते थे।
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राखी बांधत जसोदा मैया
- सूरदास | Surdas
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राखी बांधत जसोदा मैया। विविध सिंगार किये पटभूषण, पुनि पुनि लेत बलैया॥ हाथन लीये थार मुदित मन, कुमकुम अक्षत मांझ धरैया। तिलक करत आरती उतारत अति हरख हरख मन भैया॥ बदन चूमि चुचकारत अतिहि भरि भरि धरे पकवान मिठैया। नाना भांत भोग आगे धर, कहत लेहु दोउ मैया॥ नरनारी सब आय मिली तहां निरखत नंद ललैया। सूरदास गिरिधर चिर जीयो गोकुल बजत बधैया ॥
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झूठों ने झूठों से
- राहत इंदौरी
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झूठों ने झूठों से कहा है सच बोलो सरकारी ऐलान हुआ है सच बोलो
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छोटी सी बिगड़ी बात को
- अब्बास रज़ा अल्वी | ऑस्ट्रेलिया
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छोटी सी बिगड़ी बात को सुलझा रहे हैं लोग यह और बात है के यूँ उलझा रहे हैं लोग
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देखो, सोचो, समझो
- भगवतीचरण वर्मा
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देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो औ' जानो इसको, उसको, सम्भव हो निज को पहचानो लेकिन अपना चेहरा जैसा है रहने दो, जीवन की धारा में अपने को बहने दो
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मेरी अभिलाषा | कविता
- अनिता बरार | ऑस्ट्रेलिया
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चाहती हूँ आज देना, प्यार का उपहार जग को।।
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हैरान परेशान, ये हिन्दोस्तान है
- अनिल जोशी | Anil Joshi
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हैरान परेशान, ये हिन्दोस्तान है ये होंठ तो अपने हैं, पर किसकी जुबान है
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रिसती यादें
- श्रद्धांजलि हजगैबी-बिहारी | Shradhanjali Hajgaybee-Beeharry
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दोस्तों के साथ बिताए लम्हों की याद दिलाते कई चित्र आज भी पुरानी सी. डी. में धूल के नीचे मात खाकर दराज़ के किसी कोने में चुप-चाप सोये हुए हैं। दबी यादें हवा के झोंकों के साथ मस्तिष्क तक आकर रुक जातीं, कुछ यादें अभी भी ताज़ा हैं कुछ धूमिल हो गईं समय के साथ, दोस्त तो अब भी मिलते हैं पेज को लाइक करने वाले फोटो पर कमेंट करने वाले स्टेटस पर जोक करने वाले। नए दोस्त भी मिले तारीफ करने वाले, तारीफ भरे शब्दों के साथ स्माइलीज़ को मुंह पर चिपकाए घण्टों चैट पर ठहाके लगाने वाले। अब नहीं मिलते वे दोस्त लेकिन ... अब नहीं मिलते! नज़रें बार-बार उसी दराज़ तक जाकर रुक जातीं दोस्ती की उन यादों पर धूल अभी भी जमी है, परतें इतनी कि नहीं दिखते वे दोस्त अब वे दोस्त ... जिनके मन की बात को जानने के लिए स्माइलीज़ की ज़रूरत नहीं पड़ती अपनी दोस्ती की गहराई दिखाने के लिए लाइक कमेंट की ज़रूरत नहीं पड़ती एक सेकंड के लॉग इन के फासले पर बैठे दोस्त... अब नहीं मिलते वे दोस्त अब नहीं मिलते।
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शिव की भूख
- संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया
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एक बार शिव शम्भू को लगी ज़ोर की भूख भीषण तप से गया कंठ का हलाहल तक सूख !
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राम रतन धन पायो | मीराबाई के पद
- मीराबाई | Meerabai
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राम रतन धन पायो
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कबीर के दोहे | Kabir's Couplets
- कबीरदास | Kabirdas
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कबीर के दोहे सर्वाधिक प्रसिद्ध व लोकप्रिय हैं। हम कबीर के अधिक से अधिक दोहों को संकलित करने हेतु प्रयासरत हैं।
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फागुन के दिन चार
- मीराबाई | Meerabai
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फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥
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सामने गुलशन नज़र आया | ग़ज़ल
- डॉ सुधेश
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सामने गुलशन नज़र आया गीत भँवरे ने मधुर गाया ।
फूल के संग मिले काँटे भी ज़िन्दगी का यही सरमाया ।
उन की महफ़िल में क़दम मेरा मैं बडी गुस्ताखी कर आया ।
आँख में भर कर उसे देखा फिर रहा हूँ तब से भरमाया ।
चोट ऐसी वक्त ने मारी गीत होंठों ने मधुर गाया ।
धुंध ऐसी सुबह को छाई शाम का मन्जर नज़र आया ।
आँख टेढ़ी जब हुई उन की ज़िन्दगी ने बस क़हर ढाया ।
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कबीर वाणी
- कबीरदास | Kabirdas
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माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर कर का मनका छोड़ दे मन का मन का फेर मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला धरे चतुरभुज रूप मिला हरि मुरली वाला कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरी धर नरसिंह का रूप बचाया अपना चेरो
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कबीर की हिंदी ग़ज़ल
- कबीरदास | Kabirdas
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क्या कबीर हिंदी के पहले ग़ज़लकार थे? यदि कबीर की निम्न रचना को देखें तो कबीर ने निसंदेह ग़ज़ल कहीं है:
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कबीर भजन
- कबीरदास | Kabirdas
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उमरिया धोखे में खोये दियो रे। धोखे में खोये दियो रे। पांच बरस का भोला-भाला बीस में जवान भयो। तीस बरस में माया के कारण, देश विदेश गयो। उमर सब .... चालिस बरस अन्त अब लागे, बाढ़ै मोह गयो। धन धाम पुत्र के कारण, निस दिन सोच भयो।। बरस पचास कमर भई टेढ़ी, सोचत खाट परयो। लड़का बहुरी बोलन लागे, बूढ़ा मर न गयो।। बरस साठ-सत्तर के भीतर, केश सफेद भयो। वात पित कफ घेर लियो है, नैनन निर बहो। न हरि भक्ति न साधो की संगत, न शुभ कर्म कियो। कहै कबीर सुनो भाई साधो, चोला छुट गयो।। |
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युग-चेतना | कविता
- ओमप्रकाश वाल्मीकि | Om Prakash Valmiki
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मैंने दुख झेले सहे कष्ट पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतने फिर भी देख नहीं पाए तुम मेरे उत्पीड़न को इसलिए युग समूचा लगता है पाखंडी मुझको ।
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बिहारी के होली दोहे
- बिहारी | Bihari
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होली पर बिहारी के कुछ दोहे
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बहुत वासनाओं पर मन से | गीतांजलि
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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बहुत वासनाओं पर मन से हाय, रहा मर, तुमने बचा लिया मुझको उनसे वंचित कर । संचित यह करुणा कठोर मेरा जीवन भर।
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कबीर दोहे -3
- कबीरदास | Kabirdas
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(41) गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥
(42) गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि । बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥
(43) सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार। लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार॥
(44) गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं । भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि॥
(45) शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय। भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥
(46) बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार। जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।।
(47) कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और । हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
(48) जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय। सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥
(49) यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान। सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥
(50) गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव। दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥
गुरू महिमा पर कबीर दोहे (Kabir Dohe on Guru) |
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ताज़े-ताज़े ख़्वाब | ग़ज़ल
- कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar
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ताज़े-ताज़े ख़्वाब सजाये रखता है यानी इक उम्मीद जगाये रखता है
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किसी के दुख में .... | ग़ज़ल
- ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek
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किसी के दुख में रो उट्ठूं कुछ ऐसी तर्जुमानी दे मुझे सपने न दे बेशक, मेरी आंखों को पानी दे
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जाहिल मेरे बाने
- भवानी प्रसाद मिश्र | Bhawani Prasad Mishra
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मैं असभ्य हूँ क्योंकि खुले नंगे पाँवों चलता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि ढोल पर बहुत ज़ोर से गाता हूँ
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इस नदी की धार में | दुष्यंत कुमार
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
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मैं रहूँ या न रहूँ | ग़ज़ल
- राजगोपाल सिंह
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मैं रहूँ या न रहूँ, मेरा पता रह जाएगा शाख़ पर यदि एक भी पत्ता हरा रह जाएगा
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कड़वा सत्य | कविता
- विष्णु प्रभाकर | Vishnu Prabhakar
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एक लंबी मेज दूसरी लंबी मेज तीसरी लंबी मेज दीवारों से सटी पारदर्शी शीशेवाली अलमारियाँ मेजों के दोनों ओर बैठे हैं व्यक्ति पुरुष-स्त्रियाँ युवक-युवतियाँ बूढ़े-बूढ़ियाँ सब प्रसन्न हैं
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जै जै प्यारे भारत देश
- महावीर प्रसाद द्विवेदी | Mahavir Prasad Dwivedi
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जै जै प्यारे देश हमारे तीन लोक में सबसे न्यारे । हिमगिरी-मुकुट मनोहर धारे जै जै सुभग सुवेश ।। जै जै... ।।१।।
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मैं दिल्ली हूँ | दो
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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जब चाहा मैंने तूफ़ानों के, अभिमानों को कुचल दिया । हँसकर मुरझाई कलियों को, मैंने उपवन में बदल दिया ।।
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भारत वर्ष की श्रेष्ठता | भारत-भारती
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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भू-लोक का गौरव प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ ? फैला मनोहर गिरी हिमालय और गंगाजल जहाँ । सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है , उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन ? भारत वर्ष है ।।१५।।
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अँधेरे में
- गजानन माधव मुक्तिबोध | Gajanan Madhav Muktibodh
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जिंदगी के... कमरों में अँधेरे लगाता है चक्कर कोई एक लगातार; आवाज पैरों की देती है सुनाई बार-बार... बार-बार, वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता, किंतु वह रहा घूम तिलस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक, भीत-पार आती हुई पास से, गहन रहस्यमय अंधकार ध्वनि-सा अस्तित्व जनाता अनिवार कोई एक, और मेरे हृदय की धक्-धक् पूछती है - वह कौन सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई ! इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से फूले हुए पलस्तर, खिरती है चूने-भरी रेत खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह - खुद-ब-खुद कोई बड़ा चेहरा बन जाता है, स्वयमपि मुख बन जाता है दिवाल पर, नुकीली नाक और भव्य ललाट है, दृढ़ हनु कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति। कौन वह दिखाई जो देता, पर नहीं जाना जाता है ! कौन मनु ?
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कबीर की कुंडलियां - 1
- कबीरदास | Kabirdas
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गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागूं पांय बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो दिखाय गोविन्द दियो दिखाय ज्ञान का है भण्डारा सत मारग पर पांव अपन गुरु ही ने डारा गोबिन्द लियो बिठाय हिये खुद गुरु के चरनन माथा दीन्हा टेक कियो कुल जीवन अर्पन
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परशुराम की प्रतीक्षा | खण्ड 2
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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(खण्ड दो)
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माँ | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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इस धरती पर अपने शहर में मैं एक उपेक्षित उपन्यास के बीच में एक छोटे-से शब्द-सा आया था वह उपन्यास एक ऊँचा पहाड़ था मैं जिसकी तलहटी में बसा एक छोटा-सा गाँव था वह उपन्यास एक लंबी नदी था मैं जिसके बीच में स्थित एक सिमटा हुआ द्वीप था वह उपन्यास पूजा के समय बजता हुआ एक ओजस्वी शंख था मैं जिसकी ध्वनि-तरंग का हज़ारवाँ हिस्सा था हालाँकि वह उपन्यास विधाता की लेखनी से उपजी एक सशक्त रचना थी आलोचकों ने उसे कभी नहीं सराहा जीवन के इतिहास में उसका उल्लेख तक नहीं हुआ आख़िर क्या वजह है कि हम और आप जिन महान् उपन्यासों के शब्द बनकर इस धरती पर आए उन उपन्यासों को कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला ?
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स्पष्टीकरण
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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हाँ, मैंने कहा था-- अच्छे दिन आएँगे। कब कहा था, लेकिन -- तुम्हारे?
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हिन्दू या मुस्लिम के | ग़ज़ल
- अदम गोंडवी
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हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िए
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सीता का हरण होगा
- उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans
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कब तक यूं बहारों में पतझड़ का चलन होगा? कलियों की चिता होगी, फूलों का हवन होगा ।
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जानकी के लिए
- राजेश्वर वशिष्ठ
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मर चुका है रावण का शरीर स्तब्ध है सारी लंका सुनसान है किले का परकोटा कहीं कोई उत्साह नहीं किसी घर में नहीं जल रहा है दिया विभीषण के घर को छोड़ कर।
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नव वर्ष
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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नव वर्ष हर्ष नव जीवन उत्कर्ष नव।
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कोई फिर कैसे.... | ग़ज़ल
- कुँअर बेचैन
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कोई फिर कैसे किसी शख़्स की पहचान करे सूरतें सारी नकाबों में सफ़र करती हैं
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हे दयालु ईश मेरे दुख मेरे हर लीजिए | भजन
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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हे दयालु ईश मेरे दुख मेरे हर लीजिए दूं परीक्षा लंबी कितनी, कुछ तो करुणा कीजिए। हे दयालु ईश मेरे दुख मेरे हर लीजिए ।।
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सागर के वक्ष पर
- स्वामी विवेकानंद
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नील आकाश में बहते हैं मेघदल, श्वेत कृष्ण बहुरंग, तारतम्य उनमें तारल्य का दीखता, पीत भानु-मांगता है विदा, जलद रागछटा दिखलाते ।
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भूमण्डलीय तापक्रम वृद्धि
- शारदा मोंगा | न्यूजीलैंड
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प्रश्न चिन्ह? खतरा अत्यधिक, जलप्रदूषण के खतरों से, जीव जगत को बचावो, पानी व्यर्थ न बहावो, पानी है जीवनदाता, पानी की हर बूँद बचाओ.
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अरे भीरु
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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अरे भीरु, कुछ तेरे ऊपर, नहीं भुवन का भार इस नैया का और खिवैया, वही करेगा पार । आया है तूफ़ान अगर तो भला तुझे क्या आर चिन्ता का क्या काम चैन से देख तरंग-विहार । गहन रात आई, आने दे, होने दे अंधियार-- इस नैया का और खिवैया वही करेगा पार ।
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भई, भाषण दो ! भई, भाषण दो !!
- गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas
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यदि दर्द पेट में होता हो या नन्हा-मुन्ना रोता हो या आंखों की बीमारी हो अथवा चढ़ रही तिजारी हो तो नहीं डाक्टरों पर जाओ वैद्यों से अरे न टकराओ है सब रोगों की एक दवा-- भई, भाषण दो ! भई, भाषण दो !!
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रैदास के पद -2
- रैदास | Ravidas
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ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै । गरीब निवाजु गुसाईआ मेरा माथै छत्रु धरै ॥ जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै । नीचउ ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै ॥ नामदेव कबीरू तिलोचनु सधना सैनु तरै । कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै ॥
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बहरे या गहरे
- अशोक चक्रधर | Ashok Chakradhar
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अचानक तुम्हारे पीछे कोई कुत्ता भोंके, तो क्या तुम रह सकते हो बिना चोंके?
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चीरहरण
- जैनन प्रसाद | फीजी
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हँस रहे हैं आज कई दुशासन। द्रोपदी को निर्वस्त्र देख। और झुके हुए हैं गर्दन वीरों के। सोच रहें है-- इस आधुनिक जुग में कैसे वार करें तीरों के। चीखती हुई उस अबला की पुकार सभी को खल रहा है। आज कृष्ण की जगह लोगों में दुर्योधन पल रहा है ।
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भटकता हूँ दर-दर | ग़ज़ल
- त्रिलोचन
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भटकता हूँ दर-दर कहाँ अपना घर है इधर भी, सुना है कि उनकी नज़र है
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रोटी और संसद
- सुदामा पांडेय धूमिल
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एक आदमी रोटी बेलता है एक आदमी रोटी खाता है एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है मैं पूछता हूँ- 'यह तीसरा आदमी कौन है ?' मेरे देश की संसद मौन है।
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मातृभाषा
- केदारनाथ सिंह
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जैसे चींटियाँ लौटती हैं बिलों में कठफोड़वा लौटता है काठ के पास वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक लाल आसमान में डैने पसारे हुए हवाई-अड्डे की ओर
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गुरु महिमा | पद
- सहजो बाई
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राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ, गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ ।। हरि ने जन्म दियो जग माहीं। गुरु ने आवा गमन छुटाहीं ।। हरि ने पाँच चोर दिये साथा। गुरु ने लई छुटाय अनाथा ।। हरि ने रोग भोग उरझायो। गुरु जोगी करि सबै छुटायो ।। हरि ने कर्म मर्म भरमायो। गुरु ने आतम रूप लखायो ।। फिरि हरि वध मुक्ति गति लाये। गुरु ने सब ही भर्म मिटाये ।। चरन दास पर तन-मन वारूँ। गुरु न तजूँ हरि को तजि डारूँ ।।
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बापू की विदा
- डॉ रामकुमार वर्मा
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आज बापू की विदा है! अब तुम्हारी संगिनी यमुना, त्रिवेणी, नर्मदा है!
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कस ली है कमर अब तो
- अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ
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कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएँगे आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।
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अजनबी देश है यह
- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
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अजनबी देश है यह, जी यहाँ घबराता है कोई आता है यहाँ पर न कोई जाता है; जागिए तो यहाँ मिलती नहीं आहट कोई, नींद में जैसे कोई लौट-लौट जाता है; होश अपने का भी रहता नहीं मुझे जिस वक्त-- द्वार मेरा कोई उस वक्त खटखटाता है; शोर उठता है कहीं दूर क़ाफिलों का-सा, कोई सहमी हुई आवाज़ में बुलाता है-- देखिए तो वही बहकी हुई हवाएँ हैं, फिर वही रात है, फिर-फिर वही सन्नाटा है।
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ज़िम्मेदारी
- डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड | न्यूज़ीलैंड
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सामाजिक असंगति और सामाजिक परम्परा इनमें कोई सम्बन्ध है?
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दर्द के पैबंद | ग़ज़ल
- रेखा राजवंशी | ऑस्ट्रेलिया
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मखमली चादर के नीचे दर्द के पैबंद हैं आपसी रिश्तों के पीछे भी कई अनुबंध हैं।
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गिनती
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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आपको नहीं लगता कि गिनती अधूरी है? 'गिनती' में शून्य तो आप गिनते ही नहीं। वैसे 'शून्य' के बिना 'गिनती' गिनती नहीं।
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फिर नये मौसम की | ग़ज़ल
- भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया
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फिर नये मौसम की हम बातें करें साथ खुशियों, ग़म की हम बातें करें जगमगाते थे दिए भी साथ में फिर भला क्यूँ, तम की हम बातें करें
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दिन में जो भी प्यारा | ग़ज़ल
- प्रगीत कुँअर | ऑस्ट्रेलिया
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दिन में जो भी प्यारा मंज़र लगता है अंधियारे में देखो तो डर लगता है
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मुझे देखा ही नहीं
- प्रीता व्यास | न्यूज़ीलैंड
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देखतीं है आँखें बहुत कुछ ज़मीं, आसमान, सड़कें, पुल, मकान पेड़, पौधे, इंसान हाथ, पैर, मुहं, आँख, कान आँसू, मुस्कान मगर खुली आँखों भी अनदेखा रह जाता है बहुत कुछ पैरों तले की घंसती ज़मीन सर पर टूटता आसमान ढहता हुआ सेतु बढती दरम्यानी दूरियां घर का घर ही ना रहना ये कुछ भी नहीं देख पाती आँखें तुमने जो भर-भर नयन मुझे देखा है दरअसल मुझे देखा ही नहीं।
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सुजीवन
- सियाराम शरण गुप्त | Siyaram Sharan Gupt
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हे जीवन स्वामी तुम हमको जल सा उज्ज्वल जीवन दो! हमें सदा जल के समान ही स्वच्छ और निर्मल मन दो!
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एक वाक्य
- धर्मवीर भारती | Dhramvir Bharti
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चेक बुक हो पीली या लाल, दाम सिक्के हों या शोहरत -- कह दो उनसे जो ख़रीदने आये हों तुम्हें हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होता है!
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सच्चाई
- गोरख पाण्डेय
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मेहनत से मिलती है छिपाई जाती है स्वार्थ से फिर, मेहनत से मिलती है
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भूखे-प्यासे
- देवेन्द्र कुमार मिश्रा
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वे भूखे प्यासे, पपड़ाये होंठ सूखे गले, पिचके पेट, पैरों में छाले लिए पसीने से तरबतर, सिरपर बोझा उठाये सैकड़ो मील पैदल चलते पत्थर के नहीं बने पथरा गये चलते-चलते।
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मज़दूर
- गुलज़ार
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कुछ ऐसे कारवां देखे हैं सैंतालिस में भी मैने ये गांव भाग रहे हैं अपने वतन में हम अपने गांव से भागे थे, जब निकले थे वतन को हमें शरणार्थी कह के वतन ने रख लिया था शरण दी थी इन्हें इनकी रियासत की हदों पे रोक देते हैं शरण देने में ख़तरा है हमारे आगे-पीछे, तब भी एक क़ातिल अजल थी वो मजहब पूछती थी हमारे आगे-पीछे, अब भी एक क़ातिल अजल है ना मजहब, नाम, जात, कुछ पूछती है - मार देती है
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नेता
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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नेता ! नेता ! नेता !
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दूर गगन पर | गीत
- अनिता बरार | ऑस्ट्रेलिया
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दूर गगन पर सँध्या की लाली सतरंगी सपनों की चुनरी लहरायी आँचल में भरकर तुझे ओ चंदा चाँदनी बनकर मैं मुस्करायी दूर गगन पर----
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साबरमती के सन्त | कवि प्रदीप
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल आँधी में भी जलती रही गाँधी तेरी मशाल साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
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तेरी हैवानियत
- श्रद्धांजलि हजगैबी-बिहारी | Shradhanjali Hajgaybee-Beeharry
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हैवानियत तेरी भूखी थी इतनी एक ही दम में निगल ली हरेक अच्छाई मेरी मेरा स्नेह, मेरी ममता मेरी कोमलता, मेरे स्वप्न मेरा अक्स...
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क्या तुमने उसको देखा है
- अनिल जोशी | Anil Joshi
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वो भटक रहा था यहाँ - वहाँ ढूंढा ना जाने कहाँ - कहाँ जग चादर तान के सोता था पर उन आँखों में नींद कहाँ
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हरि बिन कछू न सुहावै | मीरा के पद
- मीराबाई | Meerabai
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हरि बिन कछू न सुहावै
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नर हो न निराश करो मन को
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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नर हो न निराश करो मन को कुछ काम करो कुछ काम करो जग में रहके निज नाम करो यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो कुछ तो उपयुक्त करो तन को नर हो न निराश करो मन को । संभलो कि सुयोग न जाए चला कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला समझो जग को न निरा सपना पथ आप प्रशस्त करो अपना अखिलेश्वर है अवलम्बन को नर हो न निराश करो मन को । जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो उठके अमरत्व विधान करो दवरूप रहो भव कानन को नर हो न निराश करो मन को । निज गौरव का नित ज्ञान रहे हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे सब जाय अभी पर मान रहे मरणोत्तर गुंजित गान रहे कुछ हो न तजो निज साधन को नर हो न निराश करो मन को ।
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मुक्तिबोध की कविता
- गजानन माधव मुक्तिबोध | Gajanan Madhav Muktibodh
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मैं बना उन्माद री सखि, तू तरल अवसाद प्रेम - पारावार पीड़ा, तू सुनहली याद तैल तू तो दीप मै हूँ, सजग मेरे प्राण। रजनि में जीवन-चिता औ' प्रात मे निर्वाण शुष्क तिनका तू बनी तो पास ही मैं धूल आम्र में यदि कोकिला तो पास ही मैं हूल फल-सा यदि मैं बनूं तो शूल-सी तू पास विँधुर जीवन के शयन को तू मधुर आवास सजल मेरे प्राण है री, सजग मेरे प्राण तू बनी प्राण! मै तो आलि चिर-म्रियमाण।
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मैं अपनी ज़िन्दगी से | ग़ज़ल
- कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar
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मैं अपनी ज़िन्दगी से रूबरू यूँ पेश आता हूँ ग़मों से गुफ़्तगू करता हूँ लेकिन मुस्कुराता हूँ
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ऋतु फागुन नियरानी हो
- कबीरदास | Kabirdas
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ऋतु फागुन नियरानी हो, कोई पिया से मिलावे । सोई सुदंर जाकों पिया को ध्यान है, सोई पिया की मनमानी, खेलत फाग अगं नहिं मोड़े, सतगुरु से लिपटानी । इक इक सखियाँ खेल घर पहुँची, इक इक कुल अरुझानी । इक इक नाम बिना बहकानी, हो रही ऐंचातानी ।।
पिय को रूप कहाँ लगि बरनौं, रूपहि माहिं समानी । जौ रँगे रँगे सकल छवि छाके, तन- मन सबहि भुलानी। यों मत जाने यहि रे फाग है, यह कछु अकथ- कहानी । कहैं कबीर सुनो भाई साधो, यह गति विरलै जानी ।।
- कबीर |
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मैं जिसे ओढ़ता -बिछाता हूँ | दुष्यंत कुमार
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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मैं जिसे ओढ़ता -बिछाता हूँ वो गज़ल आपको सुनाता हूँ।
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अजनबी नज़रों से | ग़ज़ल
- राजगोपाल सिंह
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अजनबी नज़रों से अपने आप को देखा न कर आइनों का दोष क्या है? आइने तोड़ा न कर
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चीन्हे किए अचीन्हे कितने | गीतांजलि
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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हुत वासनाओं पर मन से हाय, रहा मर, तुमने बचा लिया मुझको उनसे वंचित कर । संचित यह करुणा कठोर मेरा जीवन भर।
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शब्द और शब्द | कविता
- विष्णु प्रभाकर | Vishnu Prabhakar
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समा जाता है श्वास में श्वास शेष रहता है फिर कुछ नहीं इस अनंत आकाश में शब्द ब्रह्म ढूँढ़ता है पर-ब्रह्म को
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हमारा उद्भव | भारत-भारती
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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शुभ शान्तिमय शोभा जहाँ भव-बन्धनों को खोलती, हिल-मिल मृगों से खेल करती सिंहनी थी डोलती! स्वर्गीय भावों से भरे ऋषि होम करते थे जहाँ, उन ऋषिगणों से ही हमारा था हुआ उद्भव यहाँ ।। १८ ।।
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अंतर्द्वंद्व
- रीता कौशल | ऑस्ट्रेलिया
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ऐ मन! अंतर्द्वंद्व से परेशान क्यों है? जिंदगी तो जिंदगी है, इससे शिकायत क्यों है?
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मैं दिल्ली हूँ | तीन
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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गूंजी थी मेरी गलियों में, भोले बचपन की किलकारी । छूटी थी मेरी गलियों में, चंचल यौवन की पिचकारी ॥
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हाय, न बूढ़ा मुझे कहो तुम !
- गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas
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हाय, न बूढ़ा मुझे कहो तुम ! शब्दकोश में प्रिये, और भी बहुत गालियाँ मिल जाएँगी जो चाहे सो कहो, मगर तुम मरी उमर की डोर गहो तुम ! हाय, न बूढ़ा मुझे कहो तुम !
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माँ पर दोहे | मातृ-दिवस
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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जब तक माँ सिर पै रही बेटा रहा जवान। उठ साया जब तै गया, लगा बुढ़ापा आन॥
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परशुराम की प्रतीक्षा | खण्ड 3
- रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar
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(खण्ड तीन)
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प्राण वन्देमातरम्
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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हम भारतीयों का सदा है, प्राण वन्देमातरम्। हम भूल सकते है नही शुभ तान वन्देमातरम्॥
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काजू भुने पलेट में | ग़ज़ल
- अदम गोंडवी
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काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में उतरा है रामराज विधायक निवास में
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लौटना | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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बरसों बाद लौटा हूँ अपने बचपन के स्कूल में जहाँ बरसों पुराने किसी क्लास-रूम में से झाँक रहा है स्कूल-बैग उठाए एक जाना-पहचाना बच्चा
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सपने अगर नहीं होते | ग़ज़ल
- उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans
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मन में सपने अगर नहीं होते, हम कभी चाँद पर नहीं होते। सिर्फ जंगल में ढूँढ़ते क्यों हो? भेड़िए अब किधर नहीं होते। जिनके ऊँचे मकान होते हैं, दर-असल उनके घर नहीं होते।
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उठो धरा के अमर सपूतो
- द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी
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उठो धरा के अमर सपूतो पुनः नया निर्माण करो। जन-जन के जीवन में फिर से नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो।
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राम का नाम बड़ा सुखदाई | भजन
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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राम का नाम बड़ा सुखदाई तेरे प्रेम में हुआ शौदाई।
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मैं तटनी तरल तरंगा, मीठे जल की निर्मल गंगा
- शारदा मोंगा | न्यूजीलैंड
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मैं तटनी तरल तरंगा मीठे जल की निर्मल गंगा
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अनसुनी करके
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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अनसुनी करके तेरी बात न दे जो कोई तेरा साथ तो तुही कसकर अपनी कमर अकेला बढ़ चल आगे रे-- अरे ओ पथिक अभागे रे ।
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कवि
- भवानी प्रसाद मिश्र | Bhawani Prasad Mishra
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कलम अपनी साध और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध।
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भगत सिंह - गीत
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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फांसी का झूला झूल गया मर्दाना भगत सिंह । दुनियां को सबक दे गया मस्ताना भगत सिंह ।। फांसी का झूला......
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तुमने हाँ जिस्म तो... | ग़ज़ल
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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तुमने हाँ जिस्म तो आपस में बंटे देखे हैं क्या दरख्तों के कहीं हाथ कटे देखे हैं
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हम दीवानों की क्या हस्ती
- भगवतीचरण वर्मा
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हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले, मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले ।
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दो मिनट का मौन
- केदारनाथ सिंह
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भाइयो और बहनो यह दिन डूब रहा है इस डूबते हुए दिन पर दो मिनट का मौन
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उतने सूर्यास्त के उतने आसमान
- आलोक धन्वा
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उतने सूर्यास्त के उतने आसमान उनके उतने रंग लम्बी सड़कों पर शाम धीरे बहुत धीरे छा रही शाम होटलों के आसपास खिली हुई रोशनी लोगों की भीड़ दूर तक दिखाई देते उनके चेहरे उनके कंधे, जानी-पहचानी आवाज़ें कभी लिखेंगे कवि इसी देश में इन्हें भी घटनाओं की तरह।
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हिंदी
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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हिंदी उनकी राजनीति है हिंदी इनका हथियार है हिंदी कईयों का औज़ार है। हिंदी उनके लिए भाषण है हिंदी इनके लिए जलसा है हिंदी कईयों का नारा है। जरा गिनो तो अनगनित हिंदीवालों में से कितनों को हिंदी से प्यार है? जरा बताओ तो यह कैसा अनुराग है?
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फीजी कितना प्यारा है
- सुभाशनी लता कुमार | फीजी
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प्रशांत महासागर से घिरा चमचमाती सफ़ेद रेतों से भरा फीजी द्वीप हमारा देखो, कितना प्यारा है! सर्वत्र छाई हरयाली ही हरयाली फल-फूलों से भरी डाली-डाली फसलों से लहराते गन्ने के खेतों में गुणगुनाती मैना प्यारी है लोग यहाँ के कितने प्यारे कभी ‘बुला', कभी ‘राम-राम' कह स्वागत करते हिल-मिलकर एक दूजे का साथ निभाते हँसते-खेलते समय बिताते बहुभाषीय और बहुसांस्कृति का नारा लगाते सच में यह! स्वर्ग बड़ा निराला है जन्म हुआ इस भूमि पर अन्न यही का खाएं हम खेले इसकी गोद में हम अब वतन यही हमारा है फीजी द्वीप हमारा देखो, कितना प्यारा है।
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झरे हों फूल गर पहले | ग़ज़ल
- भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया
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झरे हों फूल गर पहले, तो फिर से झर नहीं सकते मुहब्बत डालियों से फिर, कभी वो कर नहीं सकते
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उपलब्धि
- धर्मवीर भारती | Dhramvir Bharti
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मैं क्या जिया ?
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जवाब
- डॉ सुनीता शर्मा | न्यूज़ीलैंड
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दोहराता रहेगा इतिहास भी युगों-युगों तक यह दुर्योधन - दुशासन की कुटिल राजनीति की बिसात पर खेली गयी द्रौपदी चीर-हरण जैसी प्रवासी मजदूरों की अनोखी कहानी, जब पूरी सभा रही मौन और मानवता - सिसकती व कराहती हुई दम तोड़ती रही थी... इन प्रश्नों का जवाब एक दिन ये पीढ़ी तुमसे अवश्य मांगेगी... मांगेगी अवश्य।
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कुछ न किसी से कहें जनाब | ग़ज़ल
- रेखा राजवंशी | ऑस्ट्रेलिया
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कुछ न किसी से कहें जनाब अच्छा है चुप रहें जनाब
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वे डरते हैं
- गोरख पाण्डेय
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किस चीज़ से डरते हैं वे तमाम धन-दौलत गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद? वे डरते हैं कि एक दिन निहत्थे और ग़रीब लोग उनसे डरना बंद कर देंगे ।
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तुम्हारे रक्त में बहूं मैं
- प्रीता व्यास | न्यूज़ीलैंड
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मेरी ख़ामोशी का ये अर्थ नहीं कि मै बस राख हूँ गौर से देखो राख की परतों तले सुलगती आग भी है अगर तुम्हें जलने का डर ना हो तो ये आग उठाकर अपने दिल में रख लो मै चाहती हूँ कि तुम्हारी नसों में बहते रक्त के साथ ऊर्जा बनकर मै जिंदगी भर बहती रहूँ।
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आ जा सुर में सुर मिला
- विजय कुमार सिंह | ऑस्ट्रेलिया
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आ जा सुर में सुर मिला ले, यह मेरा ही गीत है, एक मन एक प्राण बन जा, तू मेरा मनमीत है। सुर में सुर मिल जाए इतना, सुर अकेला न रहे, मैं भी मेरा न रहूँ और, तू भी तेरा न रहे, धड़कनों के साथ सजता, राग का संगीत है, एक मन एक प्राण बन जा, तू मेरा मनमीत है।
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कलयुग के ब्रह्म-ऋषि
- बालेश्वर अग्रवाल
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यह कविता अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग परिषद् के भूतपूर्व उपाध्यक्ष, 'बी एल गौड़' ने बालेश्वर जी के जन्मदिवस पर लिखी थी।
कलयुग के इस ब्रह्म-ऋषि को कोटि-कोटि हे नमन मेरा दशकों पहले जन्म हुआ, तो श्री बालेश्वर नाम धरा।
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भटका हुआ भविष्य
- अनिल जोशी | Anil Joshi
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उसने मुझे जब हिन्दी में बात करते हुए सुना, तो गौर से देखा और अपने मित्र से कहा-- 'माई लेट ग्रैंडपा यूज्ड टु स्पीक इन दिस लैंग्वेज' इस भाषा के साथ मैं उसके लिए संग्रहालय की वस्तु की तरह विचित्र था जैसे दीवार पर टंगा हुआ कोई चित्र था जिसे हार तो पहनाया जा सकता है पर गले नहीं लगाया जा सकता।
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आम आदमी तो हम भी हैं
- श्रद्धांजलि हजगैबी-बिहारी | Shradhanjali Hajgaybee-Beeharry
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नहीं आती हँसी अब हर बात पर लेकिन ये मत समझना कि मुझे कोई दर्द या ग़म है बस नहीं आती हँसी अब हर बात पर
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वही टूटा हुआ दर्पण
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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वही टूटा हुआ दर्पण बराबर याद आता है उदासी और आँसू का स्वयंवर याद आता है
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झूठी जगमग जोति | मीरा के पद
- मीराबाई | Meerabai
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झूठी जगमग जोति
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भरोसा इस क़दर मैंने | ग़ज़ल
- कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar
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भरोसा इस क़दर मैंने तुम्हारे प्यार पर रक्खा शरारों पर चला बेख़ौफ़, सर तलवार पर रक्खा
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मौज-मस्ती के पल भी आएंगे | ग़ज़ल
- राजगोपाल सिंह
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मौज-मस्ती के पल भी आएंगे पेड़ होंगे तो फल भी आएंगे
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विपदाओं से मुझे बचाओ, यह न प्रार्थना | गीतांजलि
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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हमारे पूर्वज | भारत-भारती
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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उन पूर्वजों की कीर्ति का वर्णन अतीव अपार है, गाते नहीं उनके हमीं गुण गा रहा संसार है । वे धर्म पर करते निछावर तृण-समान शरीर थे, उनसे वही गम्भीर थे, वरवीर थे, ध्रुव धीर थे ।। १९।।
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मैं दिल्ली हूँ | चार
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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क्यों नाम पड़ा मेरा 'दिल्ली', यह तो कुछ याद न आता है । पर बचपन से ही दिल्ली, कहकर मझे पुकारा जाता है ॥
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छीन सकती है नहीं सरकार वन्देमातरम्
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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छीन सकती है नहीं सरकार वन्देमातरम् । हम गरीबों के गले का हार वन्देमातरन् ॥१॥
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यथार्थ
- रीता कौशल | ऑस्ट्रेलिया
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आँखें बरबस भर आती हैं, जब मन भूत के गलियारों में विचरता है। सोच उलझ जाती है रिश्तों के ताने-बाने में, एक नासूर सा इस दिल में उतरता है।
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खोजिए
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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भीड़ है शब्द हैं, नगाड़े हैं। लेकिन, गुम है-- इंसान, ओज और ताल।
खोजिए, मिल जाएं शायद-- भीड़ में इंसान शब्दों में ओज और नगाड़ों में ताल।
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घर में ठंडे चूल्हे पर | ग़ज़ल
- अदम गोंडवी
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घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है
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एक ठहरी हुई उम्र | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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मैं था तब इक्कीस का और वह थी अठारह की
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जी रहे हैं लोग कैसे | ग़ज़ल
- उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans
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जी रहे हैं लोग कैसे आज के वातावरण में, नींद में दु:स्वप्न आते, भय सताता जागरण में।
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जग में अजब है तेरा नाम | भजन
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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जग में अजब है तेरा नाम बिगड़े संवारे तू सब काम। जग में अजब है तेरा नाम॥
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उर्मिला
- राजेश्वर वशिष्ठ
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टिमटिमाते दियों से जगमगा रही है अयोध्या सरयू में हो रहा है दीप-दान संगीत और नृत्य के सम्मोहन में हैं सारे नगरवासी हर तरफ जयघोष है ---- अयोध्या में लौट आए हैं राम! अंधेरे में डूबा है उर्मिला का कक्ष अंधेरा जो पिछले चौदह वर्षों से रच बस गया है उसकी आत्मा में जैसे मंदिर के गर्भ-गृह में जमता चला जाता है सुरमई धुँआ और धीमा होता जाता है प्रकाश! वह किसी मनस्विनी-सी उदास ताक रही हैं शून्य में सोचते हुए --- राम और सीता के साथ अवश्य ही लौट आए होंगे लक्ष्मण पर उनके लिए उर्मिला से अधिक महत्वपूर्ण है अपने भ्रातृधर्म का अनुशीलन उन्हें अब भी तो लगता होगा ---- हमारे समाज में स्त्रियाँ ही तो बनती हैं धर्मध्वज की यात्रा में अवांछित रुकावट --- सोच कर सिसक उठती है उर्मिला चुपके से काजल के साथ बह जाती है नींद जो अब तक उसके साथ रह रही थी सहचरी-सी! अतीत घूमता है किसी चलचित्र-सा गाल से होकर टपकते आँसुओं में बहने लगते हैं कितने ही बिम्ब!
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रात भर का वह गहरा अँधेरा
- शारदा मोंगा | न्यूजीलैंड
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रात भर का वह गहरा अँधेरा, गहन अवसाद था बहुतेरा,
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शहीद भगत सिंह
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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भारत के लिये तू हुआ बलिदान भगत सिंह । था तुझको मुल्को-कौम का अभिमान भगत सिंह ।।
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सरकार कहते हैं
- गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas
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बुढ़ापे में जो हो जाए उसे हम प्यार कहते हैं, जवानी की मुहब्बत को फ़कत व्यापार कहते हैं। जो सस्ती है, मिले हर ओर, उसका नाम महंगाई, न महंगाई मिटा पाए, उसे सरकार कहते हैं।
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फ़क़ीराना ठाठ | गीत
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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आ तुझको दिखाऊँ मैं अपने ठाठ फ़क़ीराना फाकों से पेट भरना और फिर भी मुसकुराना। आ तुझको दिखाऊँ मैं--------
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लीक पर वे चलें
- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
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लीक पर वे चलें जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं, हमें तो जो हमारी यात्रा से बने ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं।
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बीता मेरे साथ जो अब तक | ग़ज़ल
- भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया
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बीता मेरे साथ जो अब तक, वो बतलाने आई हूँ जीवन के इस उलझेपन को मैं सुलझाने आई हूँ
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आज ना जाने क्यों
- डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड | न्यूज़ीलैंड
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आज ना जाने क्यों फिर से याद आ गया नानी का वह प्यार और दुलार।
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ग्राम चित्र
- नरेंद्र शर्मा
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मक्का के पीले आटे-सी धूप ढल रही साँझ की! देवालय में शंख बज उठा, घंट-नाद ध्वनि झांझ की!
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उत्तर नहीं हूँ
- धर्मवीर भारती | Dhramvir Bharti
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उत्तर नहीं हूँ मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!
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मेरा दिल मोम सा | कविता
- डॉ सुनीता शर्मा | न्यूज़ीलैंड
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खिड़की दरवाजे लोहे के बना बोल्ट कर लिए हैं मैंने कोई कण धूल-सा आंखों में ना चुभ जाए कहींl मेरा दिल मोम सा पिघल न जाए कहींl बिस्तर पर भी चप्पल उतारने से कतराती हूँ मैं कोई फूल कांटा बनकर ना चुभ जाए कहींl मेरा दिल मोम सा पिघल ना जाए कहींl अंगुलियों में भी सुई लेकर कपड़े सिलने से घबराती हूँ मैं कोई याद जख्म बन ना छिल जाए कहींl मेरा दिल मोम सा पिघल ना जाए कहींl
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कौन है वो?
- प्रीता व्यास | न्यूज़ीलैंड
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कोई है जिसके पैरों कि आहट से चौंक उठते हैं कान कोई है जिसकी याद भुला देती है सारे काम कोई है जिसकी चाह कभी बनती है कमजोरी कभी बनती है शक्ति कोई है जो कंदील सा टिमटिमाता है मन के सूने गलियारों में कोई है जो प्रतिध्वनि सा गूंजता है ह्रदय कि प्राचीरों में कौन है वो? तुम हो, तुम हो, तुम्हीं तो हो।
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ऐ मातृभूमि
- रामप्रसाद बिस्मिल
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ऐ मातृभूमि! तेरी जय हो, सदा विजय हो। प्रत्येक भक्त तेरा, सुख-शांति-कातिमय हो॥
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सुहाना सहाना लगे | गीत
- अनिता बरार | ऑस्ट्रेलिया
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सुहाना सहाना लगे यह मौसम, यह रिमझिम यह सरगम, यह गुंजन यादों के बीच चले जब बचपन सुहाना सूहाना लगे यह मौसम यह रिमझिम
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घर
- अनिल जोशी | Anil Joshi
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शाम होते ही वो कौन-से रास्ते हैं, जिन पर मैं चल पड़ता हूँ वो किसके पैरों के निशान हैं, जिनका मैं पीछा करता हूँ इन रास्तों पर कौन सी मादा महक है किन बिल्लियों की चीख की कोलाहल की प्रतिध्वनियां गूंजती है कानों में लौटते हुए रास्ते में पहचाने हुए यात्री ना सुखी, ना दुखी, ना प्रसन्न, ना उदास सिर्फ एक होने भर का भाव वाहनों से उतर अपने-अपने रास्ते पकड़ लेते हैं, किसका पीछा करते हुए आ गया हूँ मैं घर के दरवाजे पर खड़ा दस्तक देता हूँ एक लैंडस्केप को अपने विशिष्ट आकार और रंग से भरने के लिए।
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नंगोना
- सुभाष मुनेश्वर | न्यूज़ीलैंड
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जहाँ नंगोने की थारी वहाँ जनता है उमड़ी भारी, सिकुड़ गई चेहरे की चमड़ी बिगड़ी है सूरत प्यारी, फिर भी कुटे और छने नंगोना चल रही प्याली पर प्याली।
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आरजू
- सुभाशनी लता कुमार | फीजी
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इंतजार की आरजू अब नहीं रही खामोशियों की आदत हो गई है, न कोई शिकवा है न शिकायत अजनबियों सी हालत हो गई है।
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सन्नाटा
- भवानी प्रसाद मिश्र | Bhawani Prasad Mishra
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तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको, फिर चुपके-चुपके धाम बता दूँ तुमको; तुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे-धीमे मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको।
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कबीर दोहे -4
- कबीरदास | Kabirdas
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अब तो मेरा राम | मीरा के पद
- मीराबाई | Meerabai
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अब तो मेरा राम
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संगीत पार्टी
- सुषम बेदी
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तबले पर कहरवा बज रहा था। सुनीता एक चुस्त-सा फिल्मी गीत गा रही थी। आवाज़ मधुर थी पर मँजाव नहीं था। सो बीच-बीच में कभी ताल की गलती हो जाती तो कभी सुर ठीक न लगता।
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समंदर की उम्र
- अशोक चक्रधर | Ashok Chakradhar
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लहर ने समंदर से उसकी उम्र पूछी, समंदर मुस्करा दिया।
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कबीर दोहे -4
- कबीरदास | Kabirdas
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समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय । मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥
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दिवाली के दिन | हास्य कविता
- गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas
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''तुम खील-बताशे ले आओ, हटरी, गुजरी, दीवट, दीपक। लक्ष्मी - गणेश लेते आना, झल्लीवाले के सर पर रख।
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पुराने ख़्वाब के फिर से | ग़ज़ल
- कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar
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पुराने ख़्वाब के फिर से नये साँचे बदलती है सियासत रोज़ अपने खेल में पाले बदलती है
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कोई नहीं होगा साक्षी
- प्रीता व्यास | न्यूज़ीलैंड
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पत्थर के नहीं हैं ये मेरे- तुम्हारे रिश्ते की चोट सह लें किरच-किरच हो जायेंगे देखो, कांच के रिश्ते हैं ये खुद को सम्हालो कहीं टूट जाये और कोई टुकड़ा पाँव तले आ गया तो फर्श लाल हो जायेगा और तुम्हारी इस तकलीफ का साक्षी कोई नहीं होगा।
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टूट गयी खटिया
- शैल चतुर्वेदी | Shail Chaturwedi
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हे वोटर महाराज, आप नहीं आये आखिर अपनी हरकत से बाज़
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विकसित करो हमारा अंतर | गीतांजलि
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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विकसित करो हमारा अंतर अंतरतर हे !
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आदर्श | भारत-भारती
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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आदर्श जन संसार में इतने कहाँ पर हैं हुए ? सत्कार्य्य-भूषण आर्य्यगण जितने यहाँ पर हैं हुए । हैं रह गये यद्यपि हमारे गीत आज रहे सहे । पर दूसरों के भी वचन साक्षी हमारे हो रहे ।। ३० ।।
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शब्द वन्देमातरम्
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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फ़ैला जहाँ में शोर मित्रो! शब्द वन्देमातरम्। हिंद हो या मुसलमान सब कहते वन्देमातरम्॥
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जिस्म क्या है | ग़ज़ल
- अदम गोंडवी
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जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये
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हर बार | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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हर बार अपनी तड़पती छाया को अकेला छोड़ कर लौट आता हूँ मैं जहाँ झूठ है , फ़रेब है , बेईमानी है , धोखा है -- हर बार अपने अस्तित्व को खींच कर ले आता हूँ दर्द के इस पार जैसे-तैसे एक नई शुरुआत करने कुछ नए पल चुरा कर फिर से जीने की कोशिश में हर बार ढहता हूँ , बिखरता हूँ किंतु हर हत्या के बाद वहीं से जी उठता हूँ जहाँ से मारा गया था जहाँ से तोड़ा गया था वहीं से घास की नई पत्ती-सा फिर से उग आता हूँ शिकार किए जाने के बाद भी हर बार एक नई चिड़िया बन जाता हूँ एक नया आकाश नापने के लिए ...
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काग़ज़ी कुछ कश्तियाँ | ग़ज़ल
- राजगोपाल सिंह
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काग़ज़ी कुछ कश्तियाँ नदियों में तैराते रहे जब तलक़ ज़िन्दा रहे बचपन को दुलराते रहे
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मैं दिल्ली हूँ | पाँच
- रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi
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प्राणों से हाथ पड़ा धोना, मेरे कितने ही लालों को । बच्चों के प्राणों को हरते, देखा शैतानी भालों को ।।
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कबीर की ज्ञान, भक्ति और नीति साखियाँ
- कबीरदास | Kabirdas
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यहाँ कबीर की ज्ञान, भक्ति और नीति के विषयों से सम्बद्ध साखियाँ संकलित हैं। इनमें आत्मा की अमरता, संसार की असारता, गुरु की महिमा तथा दया, सन्तोष और विनम्रता जैसे सद्गुणों पर बल दिया गया है।
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तुम मेरी बेघरी पे...
- ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek
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तुम मेरी बेघरी पे बड़ा काम कर गए कागज का शामियाना हथेली पर धर गए
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दिल पे मुश्किल है....
- कुँअर बेचैन
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दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना
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किसी के आँसुओं पर | ग़ज़ल
- भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया
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किसी के आँसुओं पर, ख़्वाब का घर बन नहीं सकता भरी बरसात में फिर, शामियाना तन नहीं सकता
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अविष्ट
- धर्मवीर भारती | Dhramvir Bharti
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दुख आया घुट-घुट कर मन-मन मैं खीज गया
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हे मातृभूमि
- रामप्रसाद बिस्मिल
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हे मातृभूमि ! तेरे चरणों में शिर नवाऊँ। मैं भक्ति भेंट अपनी, तेरी शरण में लाऊँ॥
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सुनीता शर्मा के हाइकु
- डॉ सुनीता शर्मा | न्यूज़ीलैंड
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भाव ही भाव आजकल आ-भा-व है कहीं कहां
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हिंदी देश की शान
- डॉ रमेश पोखरियाल निशंक
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एकता की सूचक हिदी भारत माँ की आन है, कोई माने या न माने हिदी देश की शान है। भारत माँ का प्राण है भारत-गौरव गान है। सैकड़ों हैं बोलियाँ पर हिदी सबकी जान है, सुंदर सरस लुभावनी ये कोमल कुसुम समान है। हृदय मिलाने वाली हिदी नित करती उत्थान है, कोई माने या न माने हिदी सत्य प्रमाण है। भारत माँ की प्राण है, भारत-गौरव गान है। सागर के सम भाव है इसमें रस तो अमृतपान है, मन को सदा लुभाती हिदी बहुरत्नों की खान है। भाषा हिदी देश की बिदी, घर ये हिदुस्तान है, कोई माने या न माने हिदी निज सम्मान है। भारत माँ की प्राण है, भारत-गौरव गान है।
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ज़िन्दगी इतनी भी आसान नहीं | ग़ज़ल
- रेखा राजवंशी | ऑस्ट्रेलिया
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ज़िन्दगी इतनी भी आसान नहीं कौन है जो कि परेशान नहीं
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रणनीति
- अनिल जोशी | Anil Joshi
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छुपा लेता हूँ अपने आक्रोश को नाखून में छुपा लेता हूँ अपने विरोध को दांतों में बदल देता हूँ अपमान को हँसी में आत्मसम्मान पर होने वाले हर प्रहार से सींचता हूँ जिजीविषा को नहीं! ना पोस्टर, ना नारे, ना इंकलाब मन के गहरे पोखर से ढूंढ कर लाता हूँ शब्द पकाता हूँ उसे भीतर की आंच पर बदलता हूँ कविता में लाकर रख देता हूँ मोर्चे पर
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दीवाली : हिंदी रुबाइयां
- उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans
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सब ओर ही दीपों का बसेरा देखा, घनघोर अमावस में सवेरा देखा। जब डाली अकस्मात नज़र नीचे को, हर दीप तले मैंने अँधेरा देखा।।
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म्हारे तो गिरधर गोपाल | मीरा के पद
- मीराबाई | Meerabai
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म्हारे तो गिरधर गोपाल
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कबीर दोहे -5
- कबीरदास | Kabirdas
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दया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय । सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥
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कवि फ़रोश | पैरोडी
- शैल चतुर्वेदी | Shail Chaturwedi
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जी हाँ, हुज़ूर, मैं कवि बेचता हूँ मैं तरह-तरह के कवि बेचता हूँ मैं किसिम-किसिम के कवि बेचता हूँ।
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आर्य-स्त्रियाँ
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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केवल पुरुष ही थे न वे जिनका जगत को गर्व था, गृह-देवियाँ भी थीं हमारी देवियाँ ही सर्वथा । था अत्रि-अनुसूया-सदृश गार्हस्थ्य दुर्लभ स्वर्ग में, दाम्पत्य में वह सौख्य था जो सौख्य था अपवर्ग में ।। ३९ ।।
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आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख | ग़ज़ल
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख घर अँधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख।
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होली व फाग के दोहे
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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भर दीजे गर हो सके, जीवन अंदर रंग। वरना तो बेकार है, होली का हुड़दंग॥
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जो डलहौज़ी न कर पाया | ग़ज़ल
- अदम गोंडवी
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जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
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छटपटाहट भरे कुछ नोट्स | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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( एक ) आज चारो ओर की बेचैनी से बेपरवाह जो लम्बी ताने सो रहे हैं वे सुखी हैं जो छटपटा कर जाग रहे हैं वे दुखी हैं ( दो ) आज हमारी बनाई इमारतें कितनी ऊँची हो गई हैं लेकिन हमारा अपना क़द कितना घट गया है ( तीन ) आज विश्व एक ग्लोबीय गाँव बन गया है हमने स्पेस-शटल बुलेट और शताब्दी रेलगाड़ियाँ बना ली हैं एक जगह से दूसरी जगह की दूरी कितनी कम हो गई है लेकिन आदमी और आदमी के बीच की दूरी कितनी बढ़ गई है ( चार ) आज दीयों के उजाले कितने धुँधले हो गए हैं आज क़तार में खड़ा आख़िरी आदमी कितना अकेला है ( पाँच ) आज लम्बी-चौड़ी गाड़ियों में घूम रहे हैं छोटे लोग बड़े-बड़े बंगलों में रह रहे हैं लघु-मानव बौने लोग डालने लगे हैं लम्बी परछाइयाँ
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बदलीं जो उनकी आँखें
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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बदलीं जो उनकी आँखें, इरादा बदल गया । गुल जैसे चमचमाया कि बुलबुल मसल गया ।
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जितने पूजाघर हैं | ग़ज़ल
- राजगोपाल सिंह
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जितने पूजाघर हैं सबको तोड़िये आदमी को आदमी से जोड़िये
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मक़सद
- राजगोपाल सिंह
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उनका मक़सद था आवाज़ को दबाना अग्नि को बुझाना सुगंध को क़ैद करना
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दो-चार बार... | ग़ज़ल
- कुँअर बेचैन
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दो-चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए
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लम्हा इक छोटा सा फिर | ग़ज़ल
- भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया
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लम्हा इक छोटा सा फिर उम्रे दराजाँ दे गया दिल गया धड़कन गयी और जाने क्या-क्या ले गया
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प्रगीत कुँअर के मुक्तक
- प्रगीत कुँअर | ऑस्ट्रेलिया
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वो समय कैसा कि जिसमें आज हो पर कल ना हो वो ही रह सकता है स्थिर हो जो पत्थर जल ना हो हाथ में लेकर भरा बर्तन ख़ुशी औ ग़म का जब चल रही हो ज़िंदगी कैसे कोई हलचल ना हो
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कबीर दोहे -6
- कबीरदास | Kabirdas
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तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर । तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥
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जीवन
- नरेंद्र शर्मा
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घडी-घड़ी गिन, घड़ी देखते काट रहा हूँ जीवन के दिन क्या सांसों को ढोते-ढोते ही बीतेंगे जीवन के दिन? सोते जगते, स्वप्न देखते रातें तो कट भी जाती हैं, पर यों कैसे, कब तक, पूरे होंगे मेरे जीवन के दिन?
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ज़िंदगी तुझे सलाम
- डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड | न्यूज़ीलैंड
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सोचा था अभी तो बहुत कुछ करना बाक़ी है अभी तो घर भी नहीं बसाया ना ही अभी किसी को अपना बनाया।
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आदिम स्वप्न
- रीता कौशल | ऑस्ट्रेलिया
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तुम मन में, तुम धड़कन में जीवन के इक इक पल में मोहपाश में बँधे तुम्हारे हमें थाम कर बनो हमारे।
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हममे फ़र्क़ है
- प्रीता व्यास | न्यूज़ीलैंड
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तुम्हारा नजरिया भले ही समान हो मेरे और अख़बार के प्रति, मगर हममे फ़र्क़ है सामयिक सूचनाओं से भरा पहला पेज नहीं हूँ मै जो समय के साथ रद्दी हो जायेगा मै तो वो विशिष्ट परिशिष्ट हूँ जो समय के साथ संग्रहणीय होता जायेगा सरसरी नज़र डाल कर भले ही रद्दी वाले को थमा दो ध्यान दे लोगे तो हिफाज़त से रखने की फ़िक्र करोगे।
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मातृ-वंदना
- डॉ रमेश पोखरियाल निशंक
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कंठ तेरे हैं अनेकों, स्वर तुम्हारा एक है, स्वर तुम्हारे पूज्यपादों में भी मेरा एक है। कंठ सारे एक होकर, गान तेरा ही करें, भू-जगत् की पूज्यमाता, कष्ट-दुख सब ही हरें। माँ तुम्हारे शीश अगणित, एक सिर मेरा भी है, चरण-कमलों में तेरे माँ, एक यह चेहरा भी है। सैकड़ों मस्तक चढ़े माँ, मैं भी उनमें एकहूँ, चाहता हूँ वंद्य माँ मैं, क्षण व कण प्रत्येक दूँ। एक लय में गीत तेरे, सब पुकारें माँ तुम्हें, सुरभि अमृतरस सभी, बाँट दो माता हमें। हाथ अनगिन कर रहे हैं, वंदना माँ की अभी हाथ हैं उनमें भी मेरे, पुत्र तेरे जो सभी। कोटि चरणों से सुशोभित, पूत तेरे बढ़ रहे, वत्सले! मन के हमारे, दीप सारे चढ़ रहे। पुत्र मैं हूँ माँ तुम्हारा, तुम मुझे स्वीकार लो, पूर्ण अर्पित बाल तेरा, माँ मुझे अब तार दो।
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बेटी को उसके अठाहरवें जन्मदिन पर पत्र
- अनिल जोशी | Anil Joshi
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आशा है तुम सकुशल होगी शुभकामनाएं और तुम्हारी भावी यात्रा के बारे में कुछ राय
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प्रार्थना
- सुभाष मुनेश्वर | न्यूज़ीलैंड
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हे मेरे ईश्वर, दे दे त्राण दे कर मुझ की आत्म-ज्ञान जीवन-मरण के इस चक्कर से छूटें मेरे प्राण हे भगवन, सुन मेरा आहवान्।
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रंग भरी राग | मीरा के पद
- मीराबाई | Meerabai
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रंग भरी राग भरी रागसूं भरी री। होली खेल्यां स्याम संग रंग सूं भरी, री।। उडत गुलाल लाल बादला रो रंग लाल। पिचकाँ उडावां रंग रंग री झरी, री।। चोवा चन्दण अरगजा म्हा, केसर णो गागर भरी री। मीरां दासी गिरधर नागर, चेरी चरण धरी री।।
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मेरो दरद न जाणै कोय
- मीराबाई | Meerabai
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हे री मैं तो प्रेम-दिवानी मेरो दरद न जाणै कोय। घायल की गति घायल जाणै जो कोई घायल होय। जौहरि की गति जौहरी जाणै की जिन जौहर होय। सूली ऊपर सेज हमारी सोवण किस बिध होय। गगन मंडल पर सेज पिया की किस बिध मिलणा होय। दरद की मारी बन-बन डोलूं बैद मिल्या नहिं कोय। मीरा की प्रभु पीर मिटेगी जद बैद सांवरिया होय।
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हमारी सभ्यता
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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शैशव-दशा में देश प्राय: जिस समय सब व्याप्त थे, निःशेष विषयों में तभी हम प्रौढ़ता को प्राप्त थे । संसार को पहले हमीं ने ज्ञान-भिक्षा दान की, आचार की, व्यवहार की, व्यापार की, विज्ञान की ।। ४५ ।।
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कबीर की कुंडलियां
- कबीरदास | Kabirdas
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कबीर ने कुंडलियां भी कही हों इसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता लेकिन कबीर की कुंडलियां भी प्रचलित हैं। ये कुंडलियां शायद उनके प्रशंसकों या उनके शिष्यों ने कबीर की साखियों को आधार बना लिखी हों। यदि आपके पास इसकी और जानकारी हो या आपने इसपर शोध किया हो तो कृपया जानकारी साझा करें। |
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कोई और | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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एक सुबह उठता हूँ और हर कोण से ख़ुद को पाता हूँ अजनबी आँखों में पाता हूँ एक अजीब परायापन अपनी मुस्कान लगती है न जाने किसकी बाल हैं कि पहचाने नहीं जाते अपनी हथेलियों में किसी और की रेखाएँ पाता हूँ मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि ऐसा भी होता है हम जी रहे होते हैं किसी और का जीवन हमारे भीतर कोई और जी रहा होता है
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किनारा वह हमसे
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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किनारा वह हमसे किये जा रहे हैं। दिखाने को दर्शन दिये जा रहे हैं।
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लूटकर ले जाएंगे | ग़ज़ल
- राजगोपाल सिंह
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लूटकर ले जाएंगे सब देखते रह जाओगे पत्थरों की वन्दना करने से तुम क्या पाओगे
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कुछ दोहे
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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आँखों से रूकता नहीं बहता उनके नीर । अपनी-अपनी है पड़ी, कौन बँधाये धीर ।।
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आज के दोहे
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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हमने चुप्पी तान ली, नहीं करेंगे जंग । फिर भी दुनिया ना हटे, करती रहती तंग ।।
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सत्ता
- गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas
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सत्ता अंधी है लाठी के सहारे चलती है। सत्ता बहरी है सिर्फ धमाके सुनती है। सत्ता गूंगी है सिर्फ माइक पर हाथ नचाती है। कागज छूती नहीं आगे सरकाती है। सत्ता के पैर भारी हैं कुर्सी पर बैठे रहने की बीमारी है। पकड़कर बिठा दो मारुति में चढ़ जाती है। वैसे लंगड़ी है बैसाखियों के बल चलती है। सत्ता अकड़ू है माला पहनती नहीं, पकड़ू है। कोई काम करती नहीं अपने हाथ से, चल रही है चमचों के साथ से।
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जीवन और संसार पर दोहे
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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आँखों से बहने लगी, गंगा-जमुना साथ । माँ ने पूछा हाल जो, सर पर रख कर हाथ ।।
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करो हम को न शर्मिंदा..
- कुँअर बेचैन
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करो हम को न शर्मिंदा बढ़ो आगे कहीं बाबा हमारे पास आँसू के सिवा कुछ भी नहीं बाबा
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तुम' से 'आप'
- अशोक चक्रधर | Ashok Chakradhar
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तुम भी जल थे हम भी जल थे इतने घुले-मिले थे कि एक-दूसरे से जलते न थे। न तुम खल थे न हम खल थे इतने खुले-खिले थे कि एक-दूसरे को खलते न थे। अचानक तुम हमसे जलने लगे तो हम तुम्हें खलने लगे। तुम जल से भाप हो गए, और 'तुम' से 'आप' हो गए।
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चलो मन गंगा-जमना-तीर
- मीराबाई | Meerabai
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गंगा-जमना निरमळ पाणी सीतल होत सरीर । बंसी बजावत गावत कान्हो संग लियाँ बळ बीर ।।
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कभी तुम दूर जाते हो | ग़ज़ल
- भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया
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कभी तुम दूर जाते हो, कभी तुम पास आते हो कभी हमको हँसाते हो, कभी हमको रुलाते हो
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तुझ बिन कोई हमारा
- रामप्रसाद बिस्मिल
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तुझ बिन कोई हमारा, रक्षक नही यहाँ पर; ढूँढा जहान सारा, तुम सा नही रखैया॥
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अर्थहीन
- रीता कौशल | ऑस्ट्रेलिया
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कटु वचनों से आहत कर पींग प्रेम की अर्थहीन है। प्रेम समर्पण का नाम दूजा है हक समझ पाना अर्थहीन है।
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सफाई
- डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड | न्यूज़ीलैंड
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पूछा हमसे किसी ने तुम्हें अपनी सफाई में कुछ कहना है? हमने भी इस प्रश्न पर कुछ गहराई से विचार किया। नतीजा यही निकला कि जब सफाई देने की ही नौबत आ गई तो फिर कहने या ना कहने से भी क्या फर्क पड़ता है?
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देश पीड़ित कब तक रहेगा
- डॉ रमेश पोखरियाल निशंक
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अगर देश आँसू बहाता रहा तो, ये संसार सोचो हमें क्या कहेगा? नहीं स्वार्थ को हमने त्यागा कहीं तो निर्दोष ये रक्त बहता रहेगा, ये शोषक हैं सारे नहीं लाल मेरे चमन तुमको हर वक़्त कहता रहेगा। अगर इस धरा पर लहू फिर बहा तो ये निश्चित तुम्हारा लहू ही बहेगा, अगर देश आँसू बहाता रहा तो, ये संसार सोचो हमें क्या कहेगा? अगर देश को हमसे मिल कुछ न पाया तो बेकार है फिर ये जीवन हमारा, पशु की तरह हम जिए तो जिए क्या थूकेगा हम पर तो संसार सारा। जतन कुछ तो कर लो, सँभालो स्वयं को भला देश पीड़ा यों कब तक सहेगा, अगर देश आँसू बहाता रहा तो, ये संसार सोचो हमें क्या कहेगा? यौवन तो वो है खिले फूल-सा जो चमन पर रहे, कंटकों में महकता, शूलों से ताड़ित रहे जो सदा ही समर्पित चमन पर रहे जो चमकता। अँधेरा धरा पर कहीं भी रहे तो ये जल-जल स्वयं ही सवेरा करेगा, अगर देश आँसू बहाता रहा तो, ये संसार सोचो हमें क्या कहेगा? आँसू बहाए चमन, तुम हँसे तो ये समझो कि जीवन में रोते रहोगे, बलिदान देकर जो पाया वतन है उसे भी सतत यों ही खोते रहोगे। अगर ज्योति बनकर नहीं झिलमिलाए तो धरती में जन-जन सिसकता रहेगा, अगर देश आँसू बहाता रहा तो, ये संसार सोचो हमें क्या कहेगा?
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विडम्बना | अब्बास रज़ा अल्वी की कविता
- अब्बास रज़ा अल्वी | ऑस्ट्रेलिया
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आज मैं पीटी नहीं मार डाली गयी हूँ मैं पीटी गयी तुम देखते रहे ख़बरों की सुर्ख़ियों में पढ़ते रहे कम्प्युटर पर ईमेल में भेजते रहे टीवी के स्क्रीन पर सुनते रहे मैं बार बार पीटी गयी तुम बार-बार देखते रहे और सुन-सुन के सहते रहे तरस तो आया तुम्हें मैं तुम्हारे देश की हूँ दिल में आया तुम्हारे कि मैं तुम्हारी बेटी जैसी हूँ मगर रोज़मर्रा की ज़िंदगी ने हमारे बीच के फ़ासलों ने इस मारधाड़ की दौड़ ने सब पर छा जाने की होड़ ने तुमने मुझे भुला दिया सपनोँ ही में सुला दिया आज मैं पीटी नहीं मारी गयी हूँ आज मैं थी, कल तुम्हारी बेटी भी हो सकती है शायद तुम कुछ करो और इसे रोको आज मैं पीटी नहीं मार डाली गयी हूँ हाँ , आज मैं पीटी नहीं मार डाली गयी हूँ
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फागुन के दिन चार | मीरा के पद
- मीराबाई | Meerabai
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फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥
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श्याम पिया मोरी रंग दे चुनरिया
- मीराबाई | Meerabai
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श्याम पिया मोरी रंग दे चुनरिया ।। टेर ।।
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सीखा पशुओं से | व्यंग्य कविता
- गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas
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कुत्ते से सीखी चापलूसी मलाई चट करना बता गई पूसी बकरे से अहं ब्रह्मास्मि-मैं-मैं कहां तक जानवरों को धन्यवाद दें ! बैलों से सीखा खटना, दुम्बे से चोट मारने के लिए पीछे हटना, भेड़िए से अपने लिए खुद कानून बनाना, भेंड़ों से आंख मूंदकर पीछे-पीछे आना, लोमड़ी ने सिखलाई चालाकी बताओ, अब और क्या रह गया बाकी ?
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मन्त्र वन्देमातरम्
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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हर घड़ी हर बार हो हर ठाम वन्द्देमातरम्। हर दम हमेशा बोलिये प्रिय मन्त्र वन्देमातरम्॥
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जब दुख मेरे पास बैठा होता है | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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जब दुख मेरे पास बैठा होता है मैं सब कुछ भूल जाता हूँ पता नहीं सूरज और चाँद कब आते हैं और कब ओझल हो जाते हैं बादल आते भी हैं या नहीं क्या मालूम हवा गुनगुना रही होती है या शोक-गीत गा रही होती है न जाने दिशाएँ सूखे बीज-सी बज रही होती हैं या चुप होती हैं विसर्जित कर अपना सारा शोर-शराबा जब दुख मेरे पास बैठा होता है मुझे अपनी परछाईं भी नज़र नहीं आती केवल एक सलेटी अहसास होता है शिराओंं में इस्पात के भर जाने का केवल एक पीली गंध होती है भीतर कुछ सड़ जाने की और पुतलियाँ भारी हो जाती हैं न जाने किन दृश्यों के बोझ से
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कबीर की साखियां | संकलन
- कबीरदास | Kabirdas
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कबीर की साखियां बहुत लोकप्रिय हैं। यह पृष्ठ कबीर का साखी संग्रह है।
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बग़ैर बात कोई | ग़ज़ल
- राजगोपाल सिंह
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बग़ैर बात कोई किसका दुख बँटाता है वो जानता है मुझे इसलिए रुलाता है
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होली - मैथिलीशरण गुप्त
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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जो कुछ होनी थी, सब होली! धूल उड़ी या रंग उड़ा है, हाथ रही अब कोरी झोली। आँखों में सरसों फूली है, सजी टेसुओं की है टोली। पीली पड़ी अपत, भारत-भू, फिर भी नहीं तनिक तू डोली !
- मैथिलीशरण गुप्त
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ये सारा जिस्म झुककर
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा मैं सज़दे में नहीं था आप को धोखा हुआ होगा
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यूँ जीना आसान नहीं है | ग़ज़ल
- भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया
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यूँ जीना आसान नहीं है,इस दुनिया के इस मेले में ईश के दर पे रख दे सर को, क्यूँ तू पड़े झमेले में
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यदि देश के हित मरना पड़े
- रामप्रसाद बिस्मिल
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यदि देश के हित मरना पड़े, मुझको सहस्त्रों बार भी, तो भी न मैं इस कष्ट को, निज ध्यान में लाऊं कभी। हे ईश! भारतवर्ष में, शत बार मेरा जन्म हो, कारण सदा ही मृत्यु का, देशोपकारक कर्म हो॥
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ये देश है विपदा में
- डॉ रमेश पोखरियाल निशंक
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देश हमारा है विपदा में, साथी तुम उठ जाओ। सब कुछ न्यौछावर कर दो, देशभक्ति मन में भर दो, तूफ़ानों के इस रस्ते में, साथी गीत विजय के गाओ, देश हमारा है विपदा में, साथी तुम उठ जाओ।
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अपनों की बातें
- प्रीता व्यास | न्यूज़ीलैंड
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बातें उन बातों की हैं जिनमें अनगिन घातें थीं, बातें सब अपनों की थीं।
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क्षणिकाएँ
- डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड | न्यूज़ीलैंड
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कहा-सुनी
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आजकल हम लोग ... | ग़ज़ल
- राजगोपाल सिंह
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आजकल हम लोग बच्चों की तरह लड़ने लगे चाबियों वाले खिलौनों की तरह लड़ने लगे
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होरी खेलत हैं गिरधारी
- मीराबाई | Meerabai
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होरी खेलत हैं गिरधारी। मुरली चंग बजत डफ न्यारो। संग जुबती ब्रजनारी॥
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संजय भारद्वाज की दो कविताएं
- संजय भारद्वाज
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जाता साल
(संवाद 2018 से)
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गुजरात : 2002 | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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जला दिए गए मकान में मैं नमाज़ पढ़ रहा हूँ उस मकान में जो अब नहीं है जिसे दंगाइयों ने जला दिया था वहाँ जहाँ कभी मेरे अपनों की चहल-पहल थी उस मकान में अब कोई नहीं है दरअसल वह मकान भी अब नहीं है जला दिए गए उसी नहीं मौजूद मकान में मैं नमाज़ पढ़ रहा हूँ यह सर्दियों का एक बिन चिड़ियों वाला दिन है जब सूरज जली हुई रोटी-सा लग रहा है और शहर से संगीत नदारद है उस जला दिए गए मकान में एक टूटा हुआ आइना है मैं जिसके सामने खड़ा हूँ लेकिन जिसमें अब मेरा अक्स नहीं है आप समझ रहे हैं न ? जला दिए गए उसी नहीं मौजूद मकान में मैं लौटता हूँ बार-बार वह मैं जो दरअसल अब नहीं हूँ क्योंकि उस मकान में अपनों के साथ मैं भी जला दिया गया था
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पांच कविताएं | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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विडम्बना कितनी रोशनी है फिर भी कितना अँधेरा है कितनी नदियाँ हैं फिर भी कितनी प्यास है कितनी अदालतें हैं फिर भी कितना अन्याय है कितने ईश्वर हैं फिर भी कितना अधर्म है कितनी आज़ादी है फिर भी कितने खूँटों से बँधे हैं हम
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खेलो रंग अबीर उडावो - होली कविता
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh
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खेलो रंग अबीर उड़ावो लाल गुलाल लगावो । पर अति सुरंग लाल चादर को मत बदरंग बनाओ । न अपना रग गँवाओ ।
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स्वप्न सब राख की...
- उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans
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स्वप्न सब राख की ढेरियाँ हो गए, कुछ जले, कुछ बुझे, फिर धुआँ हो गए।
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ओम ह्रीं श्री लक्ष्म्यै नमः
- राजेश्वर वशिष्ठ
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हमारे घर में पुस्तकें ही पुस्तकें थीं चर्चा होती थी वेदों, पुराणों और शास्त्रों की राम चरित मानस के साथ पढ़ी जाती थी चरक संहिता और लघु पाराशरी हम उन ग्रंथों को सम्भालने में ही लगे रहते थे! घर में अक्सर खाली रहता था अनाज का भंडार पिता की जेबों में शायद ही कभी दिखते थे हरे हरे नोट पर हमें भूखा नहीं रहना पड़ा कभी जब भी माँ शिकायत करती कुछ न होने की कोई न कोई निवासी मुहुर्त या लग्न पूछने के बहाने दे ही जाता सेर भर अनाज, गुड़ और सवा रुपया और पिता जी उन रुपयों को संभाल कर रख देते मंदिर के लाल कपड़े के नीचे, लक्ष्मी के चरणों में!
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किसी की आँख में आँसू | ग़ज़ल
- भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया
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किसी की आँख में आँसू, किसी की आँख में सपने पराए हैं कहीं घर के, कहीं अनजान भी अपने
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हम दुनिया की शान
- डॉ रमेश पोखरियाल निशंक
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हिदुभूमि के निवासी, हम दुनिया की शान हैं। रंग-रूप सब भिन्न-भिन्न पर राष्ट्र मन सब एक हैं, भाव सभी के एक सरीखे भाषा चाहे अनेक हैं। हम परहित न्यौछावर होकर जीवन देते दान हैं हिदुभूमि के निवासी हम दुनिया की शान हैं।
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कवि हूँ प्रयोगशील
- गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas
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गलत न समझो, मैं कवि हूँ प्रयोगशील, खादी में रेशम की गांठ जोड़ता हूं मैं। कल्पना कड़ी-से-कड़ी, उपमा सड़ी से सड़ी, मिल जाए पड़ी, उसे नहीं छोड़ता हूँ मैं। स्वर को सिकोड़ता, मरोड़ता हूँ मीटर को बचना जी, रचना की गति मोड़ता हूं मैं। करने को क्रिया-कर्म कविता अभागिनी का, पेन तोड़ता हूं मैं, दवात फोड़ता हूँ मैं ॥
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तुझे पाती हूं तो जी जाती हूं
- प्रीता व्यास | न्यूज़ीलैंड
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बादल ही क्यों ना फट जाएँ तेरे पीछे मे रोती भी नहीं मेरे आंसुओं को भी तेरी ही उँगलियों से पुंछने की आदत है। तुझे पाकर ही छलकता है भरा मन तुझे पाकर ही टूटता है बाँध तुझे पाकर ही लौटती है होंठों पर गुनगुनाहट तुझे पाकर ही खिलती है उजली धूप से मुस्कान। तुझसे ही प्राण पाती हैं मेरी संवेदनाएं तुझसे ही जागती है मेरी चेतना तुझे पा लेती हूँ तो जी जाती हूँ।
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मेरे देश का एक बूढ़ा कवि
- अब्बास रज़ा अल्वी | ऑस्ट्रेलिया
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फटे हुए लिबास में क़तार में खड़ा हुआ उम्र के झुकाओ में आस से जुड़ा हुआ किताब हाथ में लिये भीड़ से भिड़ा हुआ कोई सुने या न सुने आन पे अड़ा हुआ
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कर्मवीर
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh
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देख कर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं रह भरोसे भाग्य के दुःख भोग पछताते नहीं काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले । आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही मानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कही जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं । जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं आज कल करते हुए जो दिन गँवाते हैं नहीं यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिए वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए । व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों पहर गर्जते जल-राशि की उठती हुई ऊँची लहर आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं ।
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आज का आदमी | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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मैं ढाई हाथ का आदमी हूँ मेरा ढाई मील का ' ईगो ' है मेरा ढाई इंच का दिल है दिल पर ढाई मन का बोझ है
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तू इतना कमज़ोर न हो
- राजगोपाल सिंह
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तू इतना कमज़ोर न हो तेरे मन में चोर न हो
जग तुझको पत्थर समझे इतना अधिक कठोर न हो
बस्ती हो या हो फिर वन पैदा आदमखोर न हो
सब अपने हैं सब दुश्मन बात न फैले, शोर न हो
सूरज तम से धुँधलाए ऐसी कोई भोर न हो
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अब अँधेरों से लिपटकर | ग़ज़ल
- भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया
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अब अँधेरों से लिपटकर यूँ ना रोया कीजिए हो घड़ी भर के लिए पर, कुछ तो सोया कीजिए
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तेरे नाम | गीत
- रेखा राजवंशी | ऑस्ट्रेलिया
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जाने कितनी बातें लिख दीं तेरे नाम इश्क में डूबीं रातें लिख दीं तेरे नाम
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देश की ख़ातिर
- रामप्रसाद बिस्मिल
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देश की ख़ातिर मेरी दुनिया में यह ताबीर हो। हाथ में हो हथकड़ी, पैरों पड़ी जंज़ीर हो॥
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व्यंग्य कोई कांटा नहीं
- गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas
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हास्य केले का छिलका नहीं- सड़क पर फेंक दो और आदमी फिसल जाए, व्यंग्य बदतमीजों के मुंह का फिकरा नहीं- कस दो और संवेदना छिल जाए। हास्य किसी फूहड़ के जूड़े में रखा हुआ टमाटर नहीं, वह तो बिहारी की नायिका की नाक का हीरा है। मगर वे इसे क्या समझेंगे जो साहित्य का खोमचा लगाते हैं और हास्य जिनके लिए जलजीरा है !
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बैठे हों जब वो पास
- उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans
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बैठे हों जब वो पास, ख़ुदा ख़ैर करे फिर भी हो दिल उदास, ख़ुदा ख़ैर करे
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एक बूँद
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh
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ज्यों निकल कर बादलों की गोद से थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी। सोचने फिर-फिर यही जी में लगी, आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?
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अहसास | सुशांत सुप्रिय की कविता
- सुशांत सुप्रिय
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जब से मेरी गली की कुतिया झबरी चल बसी थी गली का कुत्ता कालू सुस्त और उदास रहने लगा था कभी वह मुझे किसी दुखी दार्शनिक-सा लगता कभी किसी हताश भविष्यवेत्ता-सा कभी वह मुझे कोई उदास कहानीकार लगता कभी किसी पीड़ित संत-सा वह मुझे और न जाने क्या-क्या लगता कि एक दिन अचानक गली में आ गई एक और कुतिया गली के बच्चों ने जिसका नाम रख दिया चमेली मैंने पाया कि चमेली को देखते ही ख़ुशी से उछलते-कूदते हुए रातोंरात बदल गया हमारा कालू कितना आदमी-सा लगने लगा था वह जानवर भी अपनी प्रसन्नता में
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सूर के पद | Sur Ke Pad
- सूरदास | Surdas
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सूरदास के पदों का संकलन - इस पृष्ठ के अंतर्गत सूर के पदों का संकलन यहाँ उपलब्ध करवाया जा रहा है। यदि आपके पास सूरदास से संबंधित सामग्री हैं तो कृपया 'भारत-दर्शन' के साथ साझा करें।
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प्रार्थना
- रामप्रसाद बिस्मिल
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दुख दूर कर हमारे, संसार के रचैया! जल्दी से दे सहारा, मंझदार में है नैया॥
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मन न भए दस-बीस - सूरदास के पद
- सूरदास | Surdas
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मन न भए दस-बीस
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चना जोर गरम
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra
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चना जोर गरम। चना बनावैं घासी राम। जिनकी झोली में दूकान॥
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वो मेरे घर नहीं आता
- वसीम बरेलवी | Waseem Barelvi
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वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता मगर इन एहतियातों से तअ'ल्लुक़ मर नहीं जाता
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यहीं धरा रह जाए सब | भजन
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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प्राण पंछी उड़ जाए जब, यहीं धरा रह जाए सब यही सिकंदर मिला धूल में और बुद्ध को निर्वाण मिला। प्राण पंछी उड़ जाए जब, यहीं धरा रह जाए सब।।
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हरि संग खेलति हैं सब फाग - सूरदास के पद
- सूरदास | Surdas
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हरि संग खेलति हैं सब फाग। इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग।। सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन। बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढी, सुनि माधो के बैन।। डफ, बांसुरी, रुंज अरु महुआरि, बाजत ताल मृदंग। अति आनन्द मनोहर बानि गावत उठति तरंग।। एक कोध गोविन्द ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि। छांडि सकुच सब देतिं परस्पर, अपनी भाई गारि।। मिली दस पांच अली चली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाई। भरि अरगजा अबीर कनक घट, देतिं सीस तैं नाईं।। छिरकतिं सखि कुमकुम केसरि, भुरकतिं बंदन धूरि। सोभित हैं तनु सांझ समै घन, आये हैं मनु पूरि।। दसहूं दिसा भयो परिपूरन, सूर सुरंग प्रमोद। सुर बिमान कौतुहल भूले, निरखत स्याम बिनोद।।
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हिन्दी-भक्त
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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सुनो एक कविगोष्ठी का, अद्भुत सम्वाद । कलाकार द्वय भिडे गए, चलने लगा विवाद ।। चलने लगी विवाद, एक थे कविवर 'घायल' । दूजे श्री 'तलवार', नई कविता के कायल ।। कह 'काका' कवि, पर्त काव्य के खोल रहे थे। कविता और अकविता को, वे तोल रहे थे ।।
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भलि भारत भूमि
- तुलसीदास | Tulsidas
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भलि भारत भूमि भले कुल जन्मु समाजु सरीरु भलो लहि कै। करषा तजि कै परुषा बरषा हिम मारुत धाम सदा सहि कै॥ जो भजै भगवानु सयान सोई तुलसी हठ चातकु ज्यों ज्यौं गहि कै। न तु और सबै बिषबीज बए हर हाटक कामदुहा नहि कै॥
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बेटी-युग
- आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)
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सतयुग, त्रेता, द्वापर बीता, बीता कलयुग कब का, बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका। बेटी-युग में खुशी-खुशी है, पर मेहनत के साथ बसी है। शुद्ध-कर्म निष्ठा का संगम, सबके मन में दिव्य हँसी है। नई सोच है, नई चेतना, बदला जीवन सबका, बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका। इस युग में ना परदा बुरका, ना तलाक, ना गर्भ-परिक्षण। बेटा बेटी, सब जन्मेंगे, सबका होगा पूरा रक्षण। बेटी की किलकारी सुनने, लालायित मन सबका। बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका। बेटी भार नहीं इस युग में, बेटी है आधी आबादी। बेटा है कुल का दीपक, तो, बेटी है दो कुल की थाती। बेटी तो शक्ति-स्वरूपा है, दिव्य-रूप है रब का। बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका। चौके चूल्हे वाली बेटी, बेटी-युग में कहीं न होगी। चाँद सितारों से आगे जा, मंगल पर मंगलमय होगी। प्रगति-पंथ पर दौड़ रहा है, प्राणी हर मज़हब का। बेटी-युग के नए दौर में, हर्षाया हर तबका।
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सबके अपने-अपने ग़म
- रेखा राजवंशी | ऑस्ट्रेलिया
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सबके अपने-अपने ग़म कुछ के ज़्यादा, कुछ के कम
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क्या मैं परदेसी हूँ ?
- कमला प्रसाद मिश्र | फीजी | Kamla Prasad Mishra
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धवल सिन्ध-तट पर मैं बैठा अपना मानस बहलाता फीजी में पैदा हो कर भी मैं परदेसी कहलाता
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गति का कुसूर
- अशोक चक्रधर | Ashok Chakradhar
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क्या होता है कार में पास की चीज़ें पीछे दौड़ जाती हैं तेज़ रफ़्तार में!
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तू, मत फिर मारा मारा
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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निविड़ निशा के अन्धकार में जलता है ध्रुव तारा अरे मूर्ख मन दिशा भूल कर मत फिर मारा मारा-- तू, मत फिर मारा मारा।
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बापू
- डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड | न्यूज़ीलैंड
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विश्व को हिंसा से मुक्त कराने का बीड़ा उठाया था तुमने। विश्व तो क्या यहां तो घर में भी शांति निवास के लाले पड़ गए हैं। अब तो घरेलू हिंसा दिन ब दिन बढ़ने लगी है।
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झाँसी की रानी
- सुभद्रा कुमारी
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सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
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सुखी आदमी
- केदारनाथ सिंह | Kedarnath Singh
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आज वह रोया यह सोचते हुए कि रोना कितना हास्यास्पद है वह रोया
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मुरझाया फूल | कविता
- सुभद्रा कुमारी
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यह मुरझाया हुआ फूल है, इसका हृदय दुखाना मत । स्वयं बिखरने वाली इसकी, पंखुड़ियाँ बिखराना मत ॥ जीवन की अन्तिम घड़ियों में, देखो, इसे रुलाना मत ॥
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हिंदी की दुर्दशा | हिंदी की दुर्दशा | कुंडलियाँ
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य। सुना? रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्य।। है हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा- बनने वालों के मुँह पर क्या पड़ा तमाचा।। कहँ ‘काका', जो ऐश कर रहे रजधानी में। नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में।।
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अकबर और तुलसीदास
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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अकबर और तुलसीदास, दोनों ही प्रकट हुए एक समय, एक देश, कहता है इतिहास;
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गज़ब यह सूवा शहर मेरी रानी
- कमला प्रसाद मिश्र | फीजी | Kamla Prasad Mishra
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गली-गली में घूमे नसेड़ी दुनिया यहाँ मस्तानी गज़ब यह सूवा शहर मेरी रानी।
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डॉ॰ सुधेश के मुक्तक
- डॉ सुधेश
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प्राण का पंछी सवेरे क्यों चहकता है शबनम बूँद से नया बिरवा लहकता है हड्डियों के पसीने से इसे सींचा है फूल मेरे चमन का ज़्यादा महकता है ।
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खौफ़
- जयप्रकाश मानस | Jaiprakash Manas
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जाने-पहचाने पेड़ से फल के बजाय टपक पड़ता है बम काक-भगोड़ा राक्षस से कहीं ज्यादा खतरनाक
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यह चिंता है | ग़ज़ल
- त्रिलोचन
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यह चिंता है वह चिंता है जी को चैन कहाँ मिलता है
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तुलसी की चौपाइयां
- तुलसीदास | Tulsidas
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किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनूरूप।। जथा अनेक वेष धरि नृत्य करइ नट कोइ । सोइ सोइ भाव दिखावअइ आपनु होइ न सोइ ।।
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ठुकरा दो या प्यार करो | सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता
- सुभद्रा कुमारी
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देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं । सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं ॥ धूमधाम से साजबाज से मंदिर में वे आते हैं । मुक्तामणि बहुमूल्य वस्तुएँ लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं ॥ मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी । फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी ॥ धूप दीप नैवेद्य नहीं है झांकी का शृंगार नहीं । हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं ॥ मैं कैसे स्तुति करूँ तुम्हारी ? है स्वर में माधुर्य नहीं । मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं ॥ नहीं दान है, नहीं दक्षिणा ख़ाली हाथ चली आयी ॥ पूजा की विधि नहीं जानती फिर भी नाथ! चली आयी ॥ पूजा और पुजापा प्रभुवर ! इसी पुजारिन को समझो । दान दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो ॥ मैं उन्मत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ । जो कुछ है, बस यही पास है इसे चढ़ाने आयी हूँ ॥ चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो । यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो ॥
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जगमग जगमग
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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हर घर, हर दर, बाहर, भीतर, नीचे ऊपर, हर जगह सुघर, कैसी उजियाली है पग-पग? जगमग जगमग जगमग जगमग!
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अंततः
- जयप्रकाश मानस | Jaiprakash Manas
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बाहर से लहूलुहान आया घर मार डाला गया अंततः
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काँटों की गोदी में
- डॉ रमेश पोखरियाल निशंक
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काँटों की शैया में जिसने कोमलता को छोड़ा ना, चुभन पल-पल होने पर भी साहस जिसने तोड़ा ना।
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स्वतंत्रता का दीपक
- गोपाल सिंह नेपाली | Gopal Singh Nepali
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वंदना के इन स्वरों में
- सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi
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वंदना के इन स्वरों में, एक स्वर मेरा मिला लो। वंदिनी माँ को न भूलो, राग में जब मत्त झूलो, अर्चना के रत्नकण में, एक कण मेरा मिला लो। जब हृदय का तार बोले, शृंखला के बंद खोले, हों जहाँ बलि शीश अगणित, एक शिर मेरा मिला लो।
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पीर
- डॉ सुधेश
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हड्डियों में बस गई है पीर । पाँव में काँटा लगा जैसे जो बढ़ते क़दम को रोके मगर इस का क्या करूँ जो गई मेरी हड्डियों को चीर ।
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साथ लिए जा
- डॉ रमेश पोखरियाल निशंक
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दुर्गम और भीषण बड़ी चट्टानें पार कर, उसको भी तू साथ लिए जा जो बैठा है हारकर।
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कवि की बरसगाँठ
- गोपाल सिंह नेपाली | Gopal Singh Nepali
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उन्तीस वसन्त जवानी के, बचपन की आँखों में बीते झर रहे नयन के निर्झर, पर जीवन घट रीते के रीते
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मेरा नया बचपन
- सुभद्रा कुमारी
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बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी। गया, ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी।।
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कसौटी
- डॉ रमेश पोखरियाल निशंक
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जो चटटानों से न टकराए वो कब झरना बनता है, उलझते टकराते इन राहों में ये झरना हरपल छनता है।
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मेरा धन है स्वाधीन कलम
- गोपाल सिंह नेपाली | Gopal Singh Nepali
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राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम जिसने तलवार शिवा को दी रोशनी उधार दिवा को दी पतवार थमा दी लहरों को ख़ंजर की धार हवा को दी अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम रस-गंगा लहरा देती है मस्ती-ध्वज फहरा देती है चालीस करोड़ों की भोली किस्मत पर पहरा देती है संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम कोई जनता को क्या लूटे कोई दुखियों पर क्या टूटे कोई भी लाख प्रचार करे सच्चा बनकर झूठे-झूठे अनमोल सत्य का रत्नहार, लाती चोरों से छीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम बस मेरे पास हृदय-भर है यह भी जग को न्योछावर है लिखता हूँ तो मेरे आगे सारा ब्रह्मांड विषय-भर है रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम लिखता हूँ अपनी मरज़ी से बचता हूँ क़ैंची-दर्ज़ी से आदत न रही कुछ लिखने की निंदा-वंदन ख़ुदग़र्ज़ी से कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम तुझ-सा लहरों में बह लेता तो मैं भी सत्ता गह लेता ईमान बेचता चलता तो मैं भी महलों में रह लेता हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम |
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विजयादशमी
- सुभद्रा कुमारी
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विजये ! तूने तो देखा है, वह विजयी श्री राम सखी ! धर्म-भीरु सात्विक निश्छ्ल मन वह करुणा का धाम सखी !!
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मुकाम
- डॉ रमेश पोखरियाल निशंक
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हमेशा छोटी-छोटी गलतियों से बचना अच्छा होता है, छोटी-छोटी गलतियों से ही इनसान ऊँचाइयों को खोता है, इनसान को देखो तो वह पहाड़ से नहीं पत्थरों से ठोकर खाता है। जो ठोकर खाकर सँभल जाए वही अपना मुकाम पाता है।
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गोपालदास नीरज के गीत | जलाओ दीये | Neeraj Ke Geet
- गोपालदास ‘नीरज’
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जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए ।
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बरस-बरस पर आती होली
- गोपाल सिंह नेपाली | Gopal Singh Nepali
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बरस-बरस पर आती होली, रंगों का त्यौहार अनूठा चुनरी इधर, उधर पिचकारी, गाल-भाल पर कुमकुम फूटा लाल-लाल बन जाते काले, गोरी सूरत पीली-नीली, मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु रंग-रगीली, नीले नभ पर बादल काले, हरियाली में सरसों पीली !
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अपनी छत को | ग़ज़ल
- विजय कुमार सिंघल
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अपनी छत को उनके महलों की मीनारें निगल गयीं धूप हमारे हिस्से की ऊँची दीवारें निगल गयीं
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जीवन और मौसम
- डॉ रमेश पोखरियाल निशंक
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छँटने लगे हैं बादल धुंध होने लगी कम, नई सुबह की है आहट बदलने लगा मौसम। दिखने लगा रास्ता मिटने लगा है भ्रम, जीवन की घोर बाधाएँ दृढ़ता के सामने पड़ने लगी हैं कम। प्रकृति के साथ-साथ जीवन का भी बदलने लगा जीवन।
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अब तो मजहब कोई | नीरज के गीत
- गोपालदास ‘नीरज’
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अब तो मजहब कोई, ऐसा भी चलाया जाए जिसमें इनसान को, इनसान बनाया जाए
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झेप अपनी मिटाने निकले हैं
- विजय कुमार सिंघल
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झेप अपनी मिटाने निकले हैं फिर किसी को चिढ़ाने निकले हैं
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जितना कम सामान रहेगा | नीरज का गीत
- गोपालदास ‘नीरज’
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जितना कम सामान रहेगा उतना सफ़र आसान रहेगा
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तुम दीवाली बनकर
- गोपालदास ‘नीरज’
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तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो, मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊँगा!
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कौरव कौन, कौन पांडव
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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कौरव कौन कौन पांडव, टेढ़ा सवाल है।
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गोपालदास नीरज के दोहे
- गोपालदास ‘नीरज’
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(1) कवियों की और चोर की गति है एक समान दिल की चोरी कवि करे लूटे चोर मकान
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धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ
- गोपालदास ‘नीरज’
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दिए से मिटेगा न मन का अँधेरा, धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ !
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झुक नहीं सकते | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते। सत्य का संघर्ष सत्ता से, न्याय लड़ता निरंकुशता से, अंधेरे ने दी चुनौती है, किरण अंतिम अस्त होती है।
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मुझे न करना याद, तुम्हारा आँगन गीला हो जायेगा
- गोपालदास ‘नीरज’
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मुझे न करना याद, तुम्हारा आँगन गीला हो जायेगा!
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वो कभी दर्द का...
- ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek
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वो कभी दर्द का चर्चा नहीं होने देता अपने जख्मों का वो जलसा नहीं होने देता
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तुम्हारे पाँव के नीचे----
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
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बिस्तरा है न चारपाई है
- त्रिलोचन
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बिस्तरा है न चारपाई है जिंदगी ख़ूब हम ने पाई है
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दुख में नीर बहा देते थे
- निदा फ़ाज़ली
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दुख में नीर बहा देते थे सुख में हँसने लगते थे सीधे-सादे लोग थे लेकिन कितने अच्छे लगते थे
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कवि आज सुना वह गान रे
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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कवि आज सुना वह गान रे, जिससे खुल जाएँ अलस पलक। नस-नस में जीवन झंकृत हो, हो अंग-अंग में जोश झलक।
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रैदास के पद
- रैदास | Ravidas
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अब कैसे छूटे राम रट लागी। प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी॥ प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा॥ प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती॥ प्रभु जी, तुम मोती, हम धागा जैसे सोनहिं मिलत सोहागा॥ प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै 'रैदासा'॥ |
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सोऽहम् | कविता
- चंद्रधर शर्मा गुलेरी | Chandradhar Sharma Guleri
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करके हम भी बी० ए० पास हैं अब जिलाधीश के दास । पाते हैं दो बार पचास बढ़ने की रखते हैं आस ॥१॥
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खिड़की बन्द कर दो
- गोपालदास ‘नीरज’
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खिड़की बन्द कर दो अब सही जाती नहीं यह निर्दयी बरसात-खिड़की बन्द कर दो।
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सुनीति | कविता
- चंद्रधर शर्मा गुलेरी | Chandradhar Sharma Guleri
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निज गौरव को जान आत्मआदर का करना निजता की की पहिचान, आत्मसंयम पर चलना ये ही तीनो उच्च शक्ति, वैभव दिलवाते, जीवन किन्तु न डाल शक्ति वैभव के खाते । (आ जाते ये सदा आप ही बिना बुलाए ।) चतुराई की परख यहाँ-परिणाम न गिनकर, जीवन को नि:शक चलाना सत्य धर्म पर, जो जीवन का मन्त्र उसी हर निर्भय चलना, उचित उचित है यही मान कर समुचित ही करना, यो ही परमानंद भले लोगों ने पाए ।।
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अब के सावन में
- गोपालदास ‘नीरज’
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अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई
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सफ़र में धूप तो होगी | ग़ज़ल
- निदा फ़ाज़ली
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सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
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गले मुझको लगा लो | ग़ज़ल
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra
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गले मुझको लगा लो ए दिलदार होली में बुझे दिल की लगी भी तो ए यार होली में।
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रैदास के दोहे
- रैदास | Ravidas
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जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात। रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
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रैदास की साखियाँ
- रैदास | Ravidas
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हरि सा हीरा छाड़ि कै, करै आन की आस । ते नर जमपुर जाहिँगे, सत भाषै रैदास ।। १ ।।
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लेन-देन
- शैल चतुर्वेदी | Shail Chaturwedi
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एक महानुभाव हमारे घर आए उनका हाल पूछा तो आँसू भर लाए, बोले-- "रिश्वत लेते पकड़े गए हैं बहुत मनाया, नहीं माने भ्रष्टाचार समिति वाले अकड़ गए हैं। सच कहता हूँ मैनें नहीं माँगी थी देने वाला ख़ुद दे रहा था और पकड़ने वाले समझे मैं ले रहा था। अब आप ही बताइए घर आई लक्ष्मी को कौन ठुकराता है क्या लेन-देन भी रिश्वत कहलाता है? मैनें भी उसका एक काम किया था एक सरकारी ठेका उसके नाम किया था उसका और हमारा लेन-देन बरसों से है और ये भ्रष्टाचार समिति तो परसों से है।"
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हिंदी है भारत की बोली
- गोपाल सिंह नेपाली | Gopal Singh Nepali
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दो वर्तमान का सत्य सरल, सुंदर भविष्य के सपने दो हिंदी है भारत की बोली तो अपने आप पनपने दो
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निज भाषा उन्नति अहै
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra
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निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।। अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन। पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
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मीरा के पद - Meera Ke Pad
- मीराबाई | Meerabai
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दरद न जाण्यां कोय
हेरी म्हां दरदे दिवाणी म्हारां दरद न जाण्यां कोय। घायल री गत घाइल जाण्यां, हिवडो अगण संजोय। जौहर की गत जौहरी जाणै, क्या जाण्यां जिण खोय। दरद की मार्यां दर दर डोल्यां बैद मिल्या नहिं कोय। मीरा री प्रभु पीर मिटांगां जब बैद सांवरो होय॥
- मीरा
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मीरा के पद - Meera Ke Pad
- मीराबाई | Meerabai
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अब तो हरि नाम लौ लागी
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मीरा के होली पद
- मीराबाई | Meerabai
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फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥
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भारतेन्दु की मुकरियां
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra
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सब गुरुजन को बुरो बतावै । अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।। भीतर तत्व न झूठी तेजी । क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी ।।
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मीरा के भजन
- मीराबाई | Meerabai
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मीरा के भजनों का संग्रह। |
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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ग़ज़ल
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra
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आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया । ऐ फ़लक क्या क्या हमारे दिल में अरमाँ रह गया ॥
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कोरोना पर दोहे
- डॉ रामनिवास मानव | Dr Ramniwas Manav
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गली-मुहल्ले चुप सभी, घर-दरवाजे बन्द। कोरोना का भूत ही, घुम रहा स्वच्छन्द॥
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दोहे | रसखान के दोहे
- रसखान | Raskhan
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प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ। जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥
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रसखान की पदावलियाँ | Raskhan Padawali
- रसखान | Raskhan
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मानुस हौं तो वही रसखान बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन। जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥ पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन। जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥ या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं। आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥ रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं। कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥ सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै। जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥ नारद से सुक व्यास रहे, पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं। ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥ |
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रसखान के फाग सवैय्ये
- रसखान | Raskhan
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मिली खेलत फाग बढयो अनुराग सुराग सनी सुख की रमकै। कर कुंकुम लै करि कंजमुखि प्रिय के दृग लावन को धमकैं।। रसखानि गुलाल की धुंधर में ब्रजबालन की दुति यौं दमकै। मनौ सावन सांझ ललाई के मांझ चहुं दिस तें चपला चमकै।।
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संदेश
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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मुझे याद है वह संदेश - 'बुरा न सुनो, बुरा न कहो, बुरा न देखो!'
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ज़िंदगी
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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लाचारी है, बीमारी है, ...फिर भी ज़िंदगी सभी को प्यारी है!
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जन्म-दिन
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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यूँ तो जन्म-दिन मैं यूँ भी नहीं मनाता पर इस बार... जन्म-दिन बहुत रुलाएगा जन्म-दिन पर 'माँ' बहुत याद आएगी चूँकि... इस बार... 'जन्म-दिन मुबारक' वाली चिरपरिचित आवाज नहीं सुन पाएगी... पर...जन्म-दिन के आस-पास या शायद उसी रात... वो ज़रूर सपने में आएगी... फिर... 'जन्म-दिन मुबारिक' कह जाएगी इस बार मैं हँसता हुआ न बोल पाऊंगा... आँख खुल जाएगी... 'क्या हुआ?' बीवी पूछेगी और... उत्तर में मेरी आँख भर जाएगी। [16 जून 2013 को माँ छोड़ कर जो चल दी]
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रिश्ते
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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कुछ खून से बने हुए कुछ आप हैं चुने हुए और कुछ... हमने बचाए हुए हैं टूटने-बिखरने को हैं.. बस यूं समझो.. दीवार पर टंगें कैलंडर की तरह, सजाए हुए हैं।
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रोहित कुमार 'हैप्पी' के दोहे
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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रोहित कुमार 'हैप्पी' के दोहों का संकलन।
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होली
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh
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मान अपना बचावो, सम्हलकर पाँव उठावो । गाबो भाव भरे गीतों को, बाजे उमग बजावो ॥ तानें ले ले रस बरसावो, पर ताने ना सहावो । भूल अपने को न जावो ।।१।।
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तुम वाकई गधे हो
- शैल चतुर्वेदी | Shail Chaturwedi
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एक गधा दूसरे गधे से मिला तो बोला- "कहो यार कैसे हो?" दूसरा बोला- "तुम वाकई गधे हो एक साल होने को आया एक ही जगह बंधे हो डाक्टरों ने दल बदले मगर तुमने खूंटा तक नहीं बदला।" तभी बोल उठा पहला- "सामने वाले बंगले में दो नेता रहते हैं रोज आपस में लड़ते हैं एक कहता है तुमसे गधा अच्छा दूसरा कहता है गधे का बच्चा और मैं यह जानना चाहता हूं कि वो कौन-सा नेता नेता है जो मेरा बेटा है।"
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एक प्रार्थना
- सुभाष मुनेश्वर | न्यूज़ीलैंड
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हे मेरे ईश्वर, दे दे त्राण दे कर मुझ की आत्म-ज्ञान जीवन-मरण के इस चक्कर से छूटें मेरे प्राण हे भगवन, सुन मेरा आहवान्।
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मायने रखता है ज़िंदगी में
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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किसी का आना किसी का चले जाना मायने रखता है ज़िंदगी में।
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एक ऐसी भी घड़ी आती है | ग़ज़ल
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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एक ऐसी भी घड़ी आती है जिस्म से रूह बिछुड़ जाती है
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दुख में भी परिचित मुखों को
- त्रिलोचन
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दुख में भी परिचित मुखों को तुम ने पहचाना है क्या अपना ही सा उन का मन है यह कभी माना है क्या
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कबीर के कालजयी दोहे
- कबीरदास | Kabirdas
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दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय जो सुख में सुमिरन करें, दुख काहे को होय
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कबीर के पद
- कबीरदास | Kabirdas
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हम तौ एक एक करि जांनां। दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां ।। एकै पवन एक ही पानीं एकै जोति समांनां। एकै खाक गढ़े सब भांडै़ एकै कोंहरा सांनां।। जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई। सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई।। माया देखि के जगत लुभांनां काहे रे नर गरबांनां। निरभै भया कछू नहिं ब्यापै कहै कबीर दिवांनां।।
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मुझको याद किया जाएगा
- गोपालदास ‘नीरज’
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आँसू जब सम्मानित होंगे मुझको याद किया जाएगा जहाँ प्रेम का चर्चा होगा मेरा नाम लिया जाएगा।
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कुछ उलटी सीधी बातें
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh
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जला सब तेल दीया बुझ गया है अब जलेगा क्या । बना जब पेड़ उकठा काठ तब फूले फलेगा क्या ॥1॥
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पीपल के पत्तों पर | गीत
- नागार्जुन | Nagarjuna
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पीपल के पत्तों पर फिसल रही चाँदनी नालियों के भीगे हुए पेट पर, पास ही जम रही, घुल रही, पिघल रही चाँदनी पिछवाड़े, बोतल के टुकड़ों पर--- चमक रही, दमक रही, मचल रही चाँदनी दूर उधर, बुर्ज़ी पर उछल रही चाँदनी।
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मधुर-मधुर मेरे दीपक जल
- महादेवी वर्मा | Mahadevi Verma
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मधुर-मधुर मेरे दीपक जल! युग-युग, प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल प्रियतम का पथ आलोकित कर।
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हिन्दी–दिवस नहीं, हिन्दी डे
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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हिन्दी दिवस पर एक नेता जी बतिया रहे थे, 'मेरी पब्लिक से ये रिक्वेस्ट है कि वे हिन्दी अपनाएं इसे नेशनवाइड पापुलर लेंगुएज बनाएं और हिन्दी को नेशनल लेंगुएज बनाने की अपनी डयूटी निभाएं।'
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हमने कलम उठा नहीं रखी, गीत किसी के गाने को
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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हमने कलम उठा नहीं रखी, गीत किसी के गाने को॥
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मुट्ठी भर रंग अम्बर में
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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मुट्ठी भर रंग अम्बर में किसने है दे मारा आज तिरंगा दीखता है अम्बर मोहे सारा
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बिहारी के दोहे | Bihari's Couplets
- बिहारी | Bihari
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रीति काल के कवियों में बिहारी सर्वोपरि माने जाते हैं। सतसई बिहारी की प्रमुख रचना हैं। इसमें 713 दोहे हैं। बिहारी के दोहों के संबंध में किसी ने कहा हैः सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर।।
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हंसों के वंशज | गीत
- राजगोपाल सिंह
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हंसों के वंशज हैं लेकिन कव्वों की कर रहे ग़ुलामी यूँ अनमोल लम्हों की प्रतिदिन होती देख रहे नीलामी दर्पण जैसे निर्मल मन को क्यों पत्थर के नाम कर दिया
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नीरज के हाइकु
- गोपालदास ‘नीरज’
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जन्म मरण समय की गति के हैं दो चरण
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उसे यह फ़िक्र है हरदम
- भगत सिंह
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आओ होली खेलें संग
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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कही गुब्बारे सिर पर फूटे पिचकारी से रंग है छूटे हवा में उड़ते रंग कहीं पर घोट रहे सब भंग!
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श्रमिक हाइकु
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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ये मज़दूर कितने मजबूर घर से दूर!
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कौन-सी बात कहाँ, कैसे कही जाती है
- वसीम बरेलवी | Waseem Barelvi
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कौन-सी बात कहाँ, कैसे कही जाती है ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है
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दादू दयाल की वाणी
- संत दादू दयाल | Sant Dadu Dayal
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इसक अलाह की जाति है, इसक अलाह का अंग। इसक अलाह औजूद है, इसक अलाह का रंग।।
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झुकी कमान
- चंद्रधर शर्मा गुलेरी | Chandradhar Sharma Guleri
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आए प्रचंड रिपु, शब्द सुना उन्हीं का, भेजी सभी जगह एक झुकी कमान। ज्यों युद्ध चिह्न समझे सब लोग धाये, त्यों साथ थी कह रही यह व्योम वाणी॥ "सुना नहीं क्या रणशंखनाद ? चलो पके खेत किसान! छोड़ो। पक्षी उन्हें खांय, तुम्हें पड़ा क्या? भाले भिड़ाओ, अब खड्ग खोलो। हवा इन्हें साफ़ किया करैगी,- लो शस्त्र, हो लाल न देश-छाती॥"
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सदुपदेश | दोहे
- गयाप्रसाद शुक्ल सनेही
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बात सँभारे बोलिए, समुझि सुठाँव-कुठाँव । वातै हाथी पाइए, वातै हाथा-पाँव ॥१॥
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हिन्दी
- गयाप्रसाद शुक्ल सनेही
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अच्छी हिन्दी ! प्यारी हिन्दी ! हम तुझ पर बलिहारी ! हिन्दी !!
सुन्दर स्वच्छ सँवारी हिन्दी । सरल सुबोध सुधारी हिन्दी । हिन्दी की हितकारी हिन्दी । जीवन-ज्योति हमारी हिन्दी । अच्छी हिन्दी ! प्यारी हिन्दी ! हम तुझ पर बलिहारी हिन्दी !!
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हैं खाने को कौन
- गयाप्रसाद शुक्ल सनेही
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कुछ को मोहन भोग बैठ कर हो खाने को कुछ सोयें अधपेट तरस दाने-दाने को कुछ तो लें अवतार स्वर्ग का सुख पाने को कुछ आयें बस नरक भोग कर मर जाने को श्रम किसका है, मगर कौन हैं मौज उड़ाते हैं खाने को कौन, कौन उपजा कर लाते?
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ये जो शहतीर है | ग़ज़ल
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो अब कोई ऐसा तरीक़ा भी निकालो यारो
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कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
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कहाँ तो तय था चराग़ाँ
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये
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सीते! मम् श्वास-सरित सीते
- राजगोपाल सिंह
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सीते! मम् श्वास-सरित सीते रीता जीवन कैसे बीते
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कलयुग | मुक्तक
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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कलयुग में पाई है बस यही शिक्षा हर बात पर मांगें हैं अग्नि-परीक्षा बुद्ध भी अगर आज उतरें धरा पर मांगे ना देगा उन्हें कोई भिक्षा।
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आज जो ऊँचाई पर है...
- कुँअर बेचैन
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आज जो ऊँचाई पर है क्या पता कल गिर पड़े इतना कह के ऊँची शाख़ों से कई फल गिर पड़े
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फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम! जन्मे और पले योरुप में पर तुमको प्रिय भारत धाम फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!
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दिव्य दोहे
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh
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अपने अपने काम से है सब ही को काम। मन में रमता क्यों नहीं मेरा रमता राम ॥
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तर्ज़ बदलिए
- कृष्णा सोबती
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गुमशुदा घोड़े पर सवार हमारी सरकारें नागरिकों की तानाशाही से लामबंदी क्यूं करती हैं और दौलतमंदों की सलामबंदी क्यूं करती हैं सरकारें क्यूं भूल जाती हैं कि हमारा राष्ट्र एक लोकतंत्र है और यहां का नागरिक गुलाम दास नहीं वो लोकतांत्रिक राष्ट्र भारत महादेश का स्वाभिमानी नागरिक है सियासत की यह तर्ज़ बदलिए।
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हिंदी पर दोहे
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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बाहर से तो पीटते, सब हिंदी का ढोल। अंतस में रखते नहीं, इसका कोई मोल ।।
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काका हाथरस्सी का हास्य काव्य
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार
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हिंदी-प्रेम
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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हिंदी-हिंदू-हिंद का, जिनकी रग में रक्त सत्ता पाकर हो गए, अँगरेज़ी के भक्त अँगरेज़ी के भक्त, कहाँ तक करें बड़ाई मुँह पर हिंदी-प्रेम, ह्रदय में अँगरेज़ी छाई शुभ चिंतक श्रीमान, राष्ट्रभाषा के सच्चे ‘कानवेण्ट' में दाख़िल करा दिए हैं बच्चे
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काका हाथरसी की कुंडलियाँ
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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पत्रकार दादा बने, देखो उनके ठाठ। कागज़ का कोटा झपट, करें एक के आठ।। करें एक के आठ, चल रही आपाधापी । दस हज़ार बताएं, छपें ढाई सौ कापी ।। विज्ञापन दे दो तो, जय-जयकार कराएं। मना करो तो उल्टी-सीधी न्यूज़ छपाएं ।।
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महंगाई
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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जन-गण मन के देवता, अब तो आंखें खोल महंगाई से हो गया, जीवन डांवाडोल जीवन डाँवाडोल, ख़बर लो शीघ्र कृपालू कलाकंद के भाव बिक रहे बैंगन-आलू कहं 'काका' कवि, दूध-दही को तरसे बच्चे आठ रुपये के किलो टमाटर, वह भी कच्चे
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राष्ट्रीय एकता
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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कितना भी हल्ला करे, उग्रवाद उदंड, खंड-खंड होगा नहीं, मेरा देश अखंड। मेरा देश अखंड, भारती भाई-भाई, हिंदू-मुस्लिम-सिक्ख-पारसी या ईसाई। दो-दो आँखें मिलीं प्रकृति माता से सबको, तीन आँख वाला कोई दिखलादो हमको।
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डॉ. रामनिवास मानव के दोहे
- डॉ रामनिवास मानव | Dr Ramniwas Manav
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डॉ. 'मानव' दोहा, बालकाव्य तथा लघुकथा विधाओं के सुपरिचित राष्ट्रीय हस्ताक्षर हैं तथा विभिन्न विधाओं में लेखन करते हैं। उनके कुछ दोहे यहां दिए जा रहे हैं:
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डॉ रामनिवास मानव के हाइकु
- डॉ रामनिवास मानव | Dr Ramniwas Manav
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डॉ. 'मानव' हाइकु, दोहा, बालकाव्य तथा लघुकथा विधाओं के सुपरिचित राष्ट्रीय हस्ताक्षर हैं तथा विभिन्न विधाओं में लेखन करते हैं। उनके कुछ हाइकु यहाँ दिए जा रहे हैं:
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पत्रकारिता : तब और अब | डॉ रामनिवास मानव के दोहे
- डॉ रामनिवास मानव | Dr Ramniwas Manav
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पत्रकारिता थी कभी, सचमुच मिशन पुनीत। त्याग तपस्या से भरा, इसका सकल अतीत।।
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गांव पर हाइकु
- डॉ रामनिवास मानव | Dr Ramniwas Manav
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डॉ. 'मानव' हाइकु, दोहा, बालकाव्य तथा लघुकथा विधाओं के सुपरिचित राष्ट्रीय हस्ताक्षर हैं तथा विभिन्न विधाओं में लेखन करते हैं। गांव पर लिखे उनके कुछ हाइकु यहाँ दिए जा रहे हैं:
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कृष्ण सुकुमार की ग़ज़लें
- कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar
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कृष्ण सुकुमार की ग़ज़लें |
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गीतांजलि
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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यहाँ हम रवीन्द्रनाथ टैगोर (रवीन्द्रनाथ ठाकुर) की सुप्रसिद्ध रचना 'गीतांजलि'' को श्रृँखला के रूप में प्रकाशित करने जा रहे हैं। 'गीतांजलि' गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861-1941) की सर्वाधिक प्रशंसित रचना है। 'गीतांजलि' पर उन्हें 1910 में नोबेल पुरस्कार भी मिला था। |
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दिन अँधेरा-मेघ झरते | रवीन्द्रनाथ ठाकुर
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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यहाँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचना "मेघदूत' के आठवें पद का हिंदी भावानुवाद (अनुवादक केदारनाथ अग्रवाल) दे रहे हैं। देखने में आया है कि कुछ लोगो ने इसे केदारनाथ अग्रवाल की रचना के रूप में प्रकाशित किया है लेकिन केदारनाथ अग्रवाल जी ने स्वयं अपनी पुस्तक 'देश-देश की कविताएँ' के पृष्ठ 215 पर नीचे इस विषय में टिप्पणी दी है।
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चल तू अकेला! | रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो तू चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला, चल तू अकेला! तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो चल तू अकेला, जब सबके मुंह पे पाश.. ओरे ओरे ओ अभागी! सबके मुंह पे पाश, हर कोई मुंह मोड़के बैठे, हर कोई डर जाय! तब भी तू दिल खोलके, अरे! जोश में आकर, मनका गाना गूंज तू अकेला! जब हर कोई वापस जाय.. ओरे ओरे ओ अभागी! हर कोई बापस जाय.. कानन-कूचकी बेला पर सब कोने में छिप जाय...
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रबीन्द्रनाथ टैगोर की कविताएं
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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रबीन्द्रनाथ टैगोर की कविताएं - गुरूदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं का संकलन। |
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नारी के उद्गार
- सुदर्शन | Sudershan
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'माँ' जय मुझको कहा पुरुष ने, तु्च्छ हो गये देव सभी । इतना आदर, इतनी महिमा, इतनी श्रद्धा कहाँ कमी? उमड़ा स्नेह-सिन्धु अन्तर में, डूब गयी आसक्ति अपार । देह, गेह, अपमान, क्लेश, छि:! विजयी मेरा शाश्वत प्यार ।।
'बहिन !' पुरुष ने मुझे पुकारा, कितनी ममता ! कितना नेह ! 'मेरा भैया' पुलकित अन्तर, एक प्राण हम, हों दो देह । कमलनयन अंगार उगलते हैं, यदि लक्षित हो अपमान । दीर्ध भुजाओं में भाई की है रक्षित मेरा सम्मान ।।
'बेटी' कहकर मुझे पुरुष ने दिया स्नेह, अन्तर-सर्वस्व । मेरा सुख, मेरी सुविधा की चिन्ता-उसके सब सुख ह्रस्व ।। अपने को भी विक्रय करके मुझे देख पायें निर्बाध । मेरे पूज्य पिताकी होती एकमात्र यह जीवन-साध ।।
'प्रिये !' पुरुष अर्धांग दे चुका, लेकर के हाथों में हाथ । यहीं नहीं-उस सर्वेश्वर के निकट हमारा शाश्वत साथ ।। तन-मन-जीवन एक हो गये, मेरा घर-उसका संसार । दोनों ही उत्सर्ग परस्पर, दोनों पर दोनों का मार ।।
'पण्या!' आज दस्यु कहता है ! पुरुष हो गया हाय पिशाच ! मैं अरक्षिता, दलिता, तप्ता, नंगा पाशवता का नाच !! धर्म और लज्जा लुटती है ! मैं अबला हूँ कातर, दीन ! पुत्र ! पिता ! भाई ! स्वामी ! सब तुम क्या इसने पौरुषहीन?
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प्यार भरी बोली | होली हास्य कविता
- जैमिनी हरियाणवी | Jaimini Hariyanavi
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होली पर हास्य-कवि जैमिनी हरियाणवी की कविता
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वो था सुभाष, वो था सुभाष
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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वो भी तो ख़ुश रह सकता था महलों और चौबारों में। उसको लेकिन क्या लेना था, तख्तों-ताज-मीनारों से! वो था सुभाष, वो था सुभाष!
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कार-चमत्कार | कुंडलियाँ
- काका हाथरसी | Kaka Hathrasi
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[इसमें 64 कार हैं, सरकार]
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उदयभानु ‘हंस' के हाइकु
- उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans
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युवक जागो! अपना देश छोड़ यूँ मत भागो!
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कोई नहीं पराया
- गोपालदास ‘नीरज’
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कोई नहीं पराया, मेरा घर संसार है।
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बीज
- संजय भारद्वाज
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जलती सूखी जमीन ठूँठ-से खड़े पेड़ अंतिम संस्कार की प्रतीक्षा करती पीली घास, लू के गर्म शरारे दरकती माटी की दरारें इन दरारों के बीच पड़ा वो बीज..., मैं निराश नहीं हूँ ये बीज मेरी आशा का केन्द्र है। ये, जो अपने भीतर समाये है असीम संभावनाएँ- वृक्ष होने की छाया देने की बरसात देने की फल देने की और हाँ; फिर एक नया बीज देने की, मैं निराश नहीं हूँ ये बीज मेरी आशा का केन्द्र है।
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विडम्बना
- संजय भारद्वाज
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ऐसा लबालब क्यों भर दिया तूने, बोलता हूँ तो चर्चा होती है, चुप रहता हूँ तो और भी अधिक चर्चा होती है!
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दे, मैं करूँ वरण
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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दे, मैं करूँ वरण जननि, दुःखहरण पद-राग-रंजित मरण ।
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दर्द की सारी लकीरों.... | ग़ज़ल
- विजय कुमार सिंघल
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दर्द की सारी लकीरों को छुपाया जाएगा उनकी ख़ातिर आज हर चेहरा सजाया जाएगा
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इसको ख़ुदा बनाकर | ग़ज़ल
- विजय कुमार सिंघल
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इसको ख़ुदा बनाकर उसको खुदा बनाकर क्यों लोग चल रहे हैं बैसाखियां लगाकर
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पुष्प की अभिलाषा | कविता
- माखनलाल चतुर्वेदी
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चाह नहीं मैं सुरबाला के, गहनों में गूँथा जाऊँ,
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मेंहदी से तस्वीर खींच ली
- माखनलाल चतुर्वेदी
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मेंहदी से तस्वीर खींच ली किसकी मधुर! हथेली पर ।
प्राणों की लाली-सी है यह, मिट मत जाय हाथों में रसदान किये यह, छुट मत जाय यह बिगड़ी पहचान कहीं कुछ बन मत जाय रूठन फिसलन से मन चाही मन मत जाय!
बेच न दो विश्वास-साँस को, उस मुस्कान अधेली पर! मेंहदी से तस्वीर खींच ली किसकी मधुर! हथेली पर ।
हाथों पर लिख रक्खा है क्या सौदा आँख-मिचौनी का? आँखों में भर लायी हो क्या रस? आहत अनहोनी का? क्या बाजी पर चढ़ा दिये ये विमल गोद के धन आली? क्या कहलाने लगा जगत में हर माली ही वनमाली?
तुम्हें याद कर रहा प्राणधन उस झिड़कन अलबेली पर । मेंहदी से तस्वीर खींच ली किसकी मधुर! हथेली पर ।
-माखनलाल चतुर्वेदी |
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दीप से दीप जले
- माखनलाल चतुर्वेदी
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सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें, कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।
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मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता?
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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मौन रात इस भांति कि जैसे, कोई गत वीणा पर बज कर, अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर सिर धर और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं, कान तुम्हारे तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?
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दिन जल्दी-जल्दी ढलता है
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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हो जाय न पथ में रात कहीं, मंज़िल भी तो है दूर नहीं - यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है! दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
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एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए, कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए, इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े, और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए! किंतु शहीदों की आहों से शापित लोहा, कच्चा धागा। एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
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मरण काले
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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निराला के देहांत के पश्चात् उनके मृत शरीर का चित्र देखने पर हरिवंशराय बच्चन की लिखी कविता - मरा मैंने गरुड़ देखा, गगन का अभिमान, धराशायी,धूलि धूसर, म्लान! मरा मैंने सिंह देखा, दिग्दिगंत दहाड़ जिसकी गूँजती थी, एक झाड़ी में पड़ा चिर-मूक, दाढ़ी-दाढ़-चिपका थूक। मरा मैंने सर्प देखा, स्फूर्ति का प्रतिरूप लहरिल, पड़ा भू पर बना सीधी और निश्चल रेख। मरे मानव-सा कभी मैं दीन, हीन, मलीन, अस्तंगमितमहिमा, कहीं, कुछ भी नहीं पाया देख। क्या नहीं है मरण जीवन पर अवार प्रहार? - कुछ नहीं प्रतिकार। क्या नहीं है मरण जीवन का महा अपमान?- सहन में ही त्राण। क्या नहीं है मरण ऐसा शत्रु जिसके साथ, कितना ही सम कर, निबल निज को मान, सबको, सदा, करनी पड़ी उसकी शरण अंगीकार?- क्या इसी के लिए मैंने नित्य गाए गीत, अंतर में सँजोए प्रीति के अंगार, दी दुर्नीति को डटकर चुनौती, ग़लत जीती बाज़ियों से मैं बराबर हार ही करता गया स्वीकार, एक श्रद्धा के भरोसे न्याय, करुणा, प्रेम - सबके लिए निर्भर एक ही अज्ञात पर मैं रहा सहता बुद्धि व्यंग्य प्रहार? इस तरह रह अगर जीवन का जिया कुछ अर्थ, मरण में मैं मत लगूँ असमर्थ!
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साथी, घर-घर आज दिवाली!
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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साथी, घर-घर आज दिवाली!
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दो बजनिए | कविता
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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"हमारी तो कभी शादी ही न हुई, न कभी बारात सजी, न कभी दूल्हन आई, न घर पर बधाई बजी, हम तो इस जीवन में क्वांरे ही रह गए।"
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आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
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स्वतंत्रता दिवस
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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आज से आजाद अपना देश फिर से!
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नव वर्ष
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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नव वर्ष हर्ष नव जीवन उत्कर्ष नव
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दीपक जलाना कब मना है
- हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan
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स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों, को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।
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बाकी बच गया अंडा | कविता
- नागार्जुन | Nagarjuna
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पाँच पूत भारत माता के, दुश्मन था खूंखार गोली खाकर एक मर गया, बाक़ी रह गये चार चार पूत भारत माता के, चारों चतुर-प्रवीन देश-निकाला मिला एक को, बाकी रह गये तीन तीन पूत भारत माता के, लड़ने लग गए वो अलग हो गया उधर एक, अब बाकी बच बच गए दो दो बेटे भारत माता के, छोड़ पुरानी टेक चिपक गया है एक गद्दी से, बाकी बच गया है एक एक पूत भारत माता का, कंधे पर है झंडा पुलिस पकड़ के जेल ले गई, बाक़ी बच गया अंडा
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लोगे मोल? | कविता
- नागार्जुन | Nagarjuna
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लोगे मोल? लोगे मोल? यहाँ नहीं लज्जा का योग भीख माँगने का है रोग पेट बेचते हैं हम लोग लोगे मोल? लोगे मोल?
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तीनों बंदर बापू के | कविता
- नागार्जुन | Nagarjuna
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बापू के भी ताऊ निकले तीनों बंदर बापू के सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बंदर बापू के सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बंदर बापू के ज्ञानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बंदर बापू के जल-थल-गगन-बिहारी निकले तीनों बंदर बापू के लीला के गिरधारी निकले तीनों बंदर बापू के!
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कालिदास! सच-सच बतलाना ! | कविता
- नागार्जुन | Nagarjuna
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कालिदास! सच-सच बतलाना ! इंदुमती के मृत्यु शोक से अज रोया या तुम रोये थे ? कालिदास! सच-सच बतलाना ?
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बापू महान | कविता
- नागार्जुन | Nagarjuna
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बापू महान, बापू महान! ओ परम तपस्वी परम वीर ओ सुकृति शिरोमणि, ओ सुधीर कुर्बान हुए तुम, सुलभ हुआ सारी दुनिया को ज्ञान बापू महान, बापू महान!!
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तेरे दरबार में क्या चलता है ? | कविता
- नागार्जुन | Nagarjuna
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तेरे दरबार में क्या चलता है ? मराठी-हिन्दी गुजराती-कन्नड़ ? ताता गोदरेजवाली पारसी सेठों की बोली ? उर्दू—गोआनीज़ ? अरबी-फारसी.... यहूदियों वाली वो क्या तो कहलाती है, सो, तू वो भी भली भाँति समझ लेती तेरे दरबार में क्या नहीं समझा जाता है ! मोरी मइया, नादान मैं तो क्या जानूँ हूँ ! सेठों के लहजे में कहूँ तो—‘‘भूल-चूक लेणी-देणी.....’’ तेरे खास पुजारी गलत-सलत ही सही संस्कृत भाषा वाली विशुद्ध ‘देववाणी’ चलाते होंगे.... मगर मैया तू तो अंग्रेजी-फ्रेंच-पुर्तगीज चाइनीज और जापानी सब कुछ समझ लेती ही है नेल्सन मंडेला के यहाँ से लोग-बाग आते ही रहते हैं.... अरे वाह ! देखो मनहर, अम्बा ने सिर हिला दिया ! जै हो अम्बे ! नौ बरस की लम्बी सजा दे दी.... चलो, ये भी ठीक रहा !! देख मनहर भइया मुस्करा रही है ना ! चल मनहर मइया ने सिर हिला दिया, देख रे ! अब तो बार-बार भागा आऊँगा मनहर !
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घिन तो नहीं आती है ? | कविता
- नागार्जुन | Nagarjuna
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पूरी स्पीड में है ट्राम खाती है दचके पे दचके सटता है बदन से बदन- पसीने से लथपथ छूती है निगाहों को कत्थई दाँतों की मोटी मुस्कान बेतरतीब मूँछों की थिरकन सच-सच बतलाओ घिन तो नहीं आती है? जी तो नहीं कढता है?
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मंत्र
- नागार्जुन | Nagarjuna
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ॐ शब्द ही ब्रह्म है.. ॐ शब्द्, और शब्द, और शब्द, और शब्द ॐ प्रणव, ॐ नाद, ॐ मुद्रायें ॐ वक्तव्य, ॐ उदगार्, ॐ घोषणाएं ॐ भाषण... ॐ प्रवचन... ॐ हुंकार, ॐ फटकार्, ॐ शीत्कार ॐ फुसफुस, ॐ फुत्कार, ॐ चीत्कार, ॐ आस्फालन, ॐ इंगित, ॐ इशारे ॐ नारे, और नारे, और नारे, और नारे
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भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं
- भवानी प्रसाद मिश्र | Bhawani Prasad Mishra
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यहाँ भवानी प्रसाद मिश्र के समृद्ध कृतित्व में से कुछ ऐसी कविताएं चयनित की गई हैं जो समकालीन समाज ओर विचारधारा का समग्र चित्र प्रस्तुत करने में सक्षम होंगी। |
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बड़ी नाज़ुक है डोरी | ग़ज़ल
- डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'
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बड़ी नाज़ुक है डोरी साँस की यह कहीं टूटी तो बाकी क्या रहेगा
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स्वयं से
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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आजकल तुम धीमा बोलने लगी या मुझे सुनाई देने लगा कम?
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प्रेम देश का... | ग़ज़ल
- डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'
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प्रेम देश का ढूंढ रहे हो गद्दारों के बीच फूल खिलाना चाह रहे हो अंगारों के बीच
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दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें - इस पृष्ठ पर दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें संकलित की गई हैं। हमारा प्रयास है कि दुष्यंत कुमार की सभी उपलब्ध ग़ज़लें यहाँ सम्मिलित हों।
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एक आशीर्वाद | कविता
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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जा तेरे स्वप्न बड़े हों। भावना की गोद से उतर कर जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें। चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये रूठना मचलना सीखें। हँसें मुस्कुराऐं गाऐं। हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें उँगली जलायें। अपने पाँव पर खड़े हों। जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
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काश! मैं भगवान होता
- दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar
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काश! मैं भगवान होता तब न पैसे के लिए यों हाथ फैलाता भिखारी तब न लेकर कोर मुख से श्वान के खाता भिखारी तब न यों परिवीत चिथड़ों में शिशिर से कंपकंपाता तब न मानव दीनता औ' याचना पर थूक जाता तब न धन के गर्व में यों सूझती मस्ती किसी को तब ना अस्मत निर्धनों की सूझती सस्ती किसी को तब न अस्मत निर्धनों की सूझती सस्ती किसी को तब न भाई भाइयों पर इस तरह खंजर उठाता तब न भाई भगनियों का खींचता परिधान होता काश! मैं भगवान होता।
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मैं सूने में मन बहलाता
- शिवमंगल सिंह सुमन
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मेरे उर में जो निहित व्यथा कविता तो उसकी एक कथा छंदों में रो-गाकर ही मैं, क्षण-भर को कुछ सुख पा जाता मैं सूने में मन बहलाता।
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चलना हमारा काम है
- शिवमंगल सिंह सुमन
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गति प्रबल पैरों में भरी फिर क्यों रहूँ दर-दर खडा जब आज मेरे सामने है रास्ता इतना पड़ा जब तक न मंज़िल पा सकूँ, तब तक मुझे न विराम है, चलना हमारा काम है।
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चुप्पियाँ | लघु कविता संग्रह
- संजय भारद्वाज
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1) वे निरंतर कोंच रहे हैं मुझे- ......लिखो! मैं चुप हो गया हूँ.., उनकी सुविधा में ढालकर मेरे लेखन की शक्ल देकर अब बाज़ार में चस्पा की जा रही है मेरी चुप्पी.., बाज़ार में मची धूम पर क्या कहूँ दोस्तो, मैं सचमुच चुप हो गया हूँ।
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विष्णु प्रभाकर की कविताएं
- विष्णु प्रभाकर | Vishnu Prabhakar
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कहानी, कथा, उपन्यास, यात्रा-संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, रूपक, फीचर, नाटक, एकांकी, समीक्षा, पत्राचार आदि गद्य की सभी संभव विधाओं के लिए प्रसिद्ध विष्णुजी ने कविताएं भी लिखी हैं।
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सुशांत सुप्रिय की कविताएं
- सुशांत सुप्रिय
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सुशांत सुप्रिय की कविताएं का संकलन। |
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फेसबुक बनाम फेकबुक
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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'फेसबुक' में 'बुक' तो ठीक है, पर... 'फेस'- 'फेक' है, क्योंकि-- होता कुछ है, बताते कुछ हैं करते कुछ हैं, दिखाते कुछ हैं।
यहाँ, हर कोई खुशहाल दीखता है।
वास्तव में, ऐसा होता नहीं है-- जिसकी अम्मा और बीवी हररोज लड़ती हैं, इसपर उनकी फोटो भी, लगी है-- हँसती-मुसकुराती जैसे, सच को चिढ़ाती।
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सुशांत सुप्रिय की तीन कविताएं
- सुशांत सुप्रिय
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पड़ोसी
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भिक्षुक | कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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वह आता -- दो टूक कलेजे के करता-- पछताता पथ पर आता।
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प्राप्ति | कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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तुम्हें खोजता था मैं, पा नहीं सका, हवा बन बहीं तुम, जब मैं थका, रुका । मुझे भर लिया तुमने गोद में, कितने चुम्बन दिये, मेरे मानव-मनोविनोद में नैसर्गिकता लिये; सूखे श्रम-सीकर वे छबि के निर्झर झरे नयनों से, शक्त शिराएँ हुईं रक्त-वाह ले, मिलीं - तुम मिलीं, अन्तर कह उठा जब थका, रुका । |
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तोड़ती पत्थर | कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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वसन्त आया
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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सखि, वसन्त आया । भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया। किसलय-वसना नव-वय-लतिका मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका, मधुप-वृन्द बन्दी- पिक-स्वर नभ सरसाया। लता-मुकुल-हार-गन्ध-भार भर बही पवन बन्द मन्द मन्दतर, जागी नयनों में वन- यौवन की माया। आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे, केशर के केश कली के छुटे, स्वर्ण-शस्य-अञ्चल पृथ्वी का लहराया।
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ख़ून की होली जो खेली
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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रँग गये जैसे पलाश; कुसुम किंशुक के, सुहाए, कोकनद के पाए प्राण, ख़ून की होली जो खेली ।
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बापू, तुम मुर्गी खाते यदि | कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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बापू, तुम मुर्गी खाते यदि तो क्या भजते होते तुमको ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे - ? सर के बल खड़े हुए होते हिंदी के इतने लेखक-कवि?
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बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु! पूछेगा सारा गाँव, बंधु!
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स्नेह-निर्झर बह गया है | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'
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स्नेह-निर्झर बह गया है रेत ज्यों तन रह गया है।
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ओमप्रकाश बाल्मीकि की कविताएं
- ओमप्रकाश वाल्मीकि | Om Prakash Valmiki
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ओमप्रकाश वाल्मीकि उन शीर्ष साहित्यकारों में से एक हैं जिन्होंने अपने सृजन से साहित्य में सम्मान व स्थान पाया है। आप बहुमुखी प्रतिभा के धनी है। आपने कविता, कहानी, आ्त्मकथा व आलोचनात्मक लेखन भी किया है।
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भारत माता
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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(राष्ट्रीय गीत)
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कंकड चुनचुन
- कबीरदास | Kabirdas
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कंकड चुनचुन महल उठाया लोग कहें घर मेरा। ना घर मेरा ना घर तेरा चिड़िया रैन बसेरा है॥
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जल, रे दीपक, जल तू
- मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
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जल, रे दीपक, जल तू। जिनके आगे अँधियारा है, उनके लिए उजल तू॥
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भारत की जय | कविता
- चंद्रधर शर्मा गुलेरी | Chandradhar Sharma Guleri
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हिंदू, जैन, सिख, बौद्ध, क्रिस्ती, मुसलमान पारसीक, यहूदी और ब्राह्मन भारत के सब पुत्र, परस्पर रहो मित्र रखो चित्ते गणना सामान मिलो सब भारत संतान एक तन एक प्राण गाओ भारत का यशोगान
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सपना
- स्वरांगी साने
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खुली आँखों से सपना देखती सपने को टूटता देखती खुद को अकेला देखती
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पीहर
- स्वरांगी साने
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कविता में जाना मेरे लिए पीहर जाने जैसा है।
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प्याज़
- स्वरांगी साने
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बहुत सारा प्याज़ काटने बैठ जाती थी माँ। कहती थी मसाला भूनना है।
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कछुआ
- स्वरांगी साने
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बचपन में कछुए को देखती तो सोचती थी क्या देखता होगा इस तरह हाथ-पैर बाहर निकाल कर खुले आकाश को या उस दौड़ को जिसमें जीता था कभी उसका पुरखा।
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प्रतीक्षा
- स्वरांगी साने
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बेटी आने वाली है यह सोच कर उसकी आँखें सुपर बाजार हो जाती हैं और वो सुपर वुमन। पूरे मोहल्ले को खबर कर देती है कहती है- दिन ही कितने बचे हैं, कितने काम हैं
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कागज़
- स्वरांगी साने
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उन पीले ज़र्द कागज़ों के पास कहने को बहुत कुछ था। उन कोरे नए कागज़ों के पास भीनी महक के अलावा कुछ न था। पीले पड़ चुके कागज़ों की स्याही भी धुँधला गई थी कोनों से होने लगे थे रेशा-रेशा पर कितने अनकहे अनुभवों-अनुभूतियों को लिये थे वे।
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बीस साल बाद
- सुदामा पांडेय धूमिल
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मेरे चेहरे में वे आँखें लौट आयी हैं जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है : हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं।
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बाजार का ये हाल है | हास्य व्यंग्य संग्रह
- शैल चतुर्वेदी | Shail Chaturwedi
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बाज़ार का ये हाल है - हास्य-व्यंग्य-संग्रह
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सौदागर ईमान के
- शैल चतुर्वेदी | Shail Chaturwedi
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आँख बंद कर सोये चद्दर तान के, हम ही हैं वो सेवक हिन्दुस्तान के ।
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फूल और काँटा | Phool Aur Kanta
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh
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हैं जनम लेते जगह में एक ही, एक ही पौधा उन्हें है पालता। रात में उन पर चमकता चांद भी, एक ही सी चांदनी है डालता।।
मेह उन पर है बरसता एक-सा, एक-सी उन पर हवाएं हैं बहीं। पर सदा ही यह दिखाता है हमें, ढंग उनके एक-से होते नहीं।।
छेद कर कांटा किसी की उंगलियां, फाड़ देता है किसी का वर वसन। प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर, भौंरें का है बेध देता श्याम तन।।
फूल लेकर तितलियों को गोद में, भौंरें को अपना अनूठा रस पिला। निज सुगंधों औ निराले रंग से, है सदा देता कली जी की खिला।। |
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खूनी पर्चा
- वंशीधर शुक्ल
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अमर भूमि से प्रकट हुआ हूं, मर-मर अमर कहाऊंगा, जब तक तुझको मिटा न लूंगा, चैन न किंचित पाऊंगा। तुम हो जालिम दगाबाज, मक्कार, सितमगर, अय्यारे, डाकू, चोर, गिरहकट, रहजन, जाहिल, कौमी गद्दारे, खूंगर तोते चश्म, हरामी, नाबकार और बदकारे, दोजख के कुत्ते खुदगर्जी, नीच जालिमों हत्यारे, अब तेरी फरेबबाजी से रंच न दहशत खाऊंगा, जब तक तुझको...।
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ओ शासक नेहरु सावधान
- वंशीधर शुक्ल
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ओ शासक नेहरु सावधान, पलटो नौकरशाही विधान। अन्यथा पलट देगा तुमको, मजदूर, वीर योद्धा, किसान।
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ओ शासक नेहरु सावधान
- वंशीधर शुक्ल
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ओ शासक नेहरु सावधान, पलटो नौकरशाही विधान। अन्यथा पलट देगा तुमको, मजदूर, वीर योद्धा, किसान।
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उठो सोने वालों
- वंशीधर शुक्ल
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उठो सोने वालों सबेरा हुआ है। वतन के फ़क़ीरों का फेरा हुआ है॥
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उठ जाग मुसाफिर भोर भई
- वंशीधर शुक्ल
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उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो तू सोवत है जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है वो खोवत है
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जिस तरफ़ देखिए अँधेरा है | ग़ज़ल
- डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'
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जिस तरफ़ देखिए अँधेरा है यह सवेरा भी क्या सवेरा है
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प्रतिपल घूंट लहू के पीना | ग़ज़ल
- डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'
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प्रतिपल घूँट लहू के पीना, ऐसा जीवन भी क्या जीना ।
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बात हम मस्ती में ऐसी कह गए | ग़ज़ल
- डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'
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बात हम मस्ती में ऐसी कह गए, होश वाले भी ठगे से रह गए।
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सामने आईने के जाओगे
- डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'
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सामने आईने के जाओगे? इतनी हिम्मत कहां से लाओगे?
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बचकर रहना इस दुनिया के लोगों की परछाई से
- विजय कुमार सिंघल
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बचकर रहना इस दुनिया के लोगों की परछाई से इस दुनिया के लोग बना लेते हैं परबत राई से।
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जंगल-जंगल ढूँढ रहा है | ग़ज़ल
- विजय कुमार सिंघल
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जंगल-जंगल ढूँढ रहा है मृग अपनी कस्तूरी को कितना मुश्किल है तय करना खुद से खुद की दूरी को
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कवि प्रदीप की कविताएं
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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कवि प्रदीप का जीवन-परिचय व कविताएं
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साँप!
- अज्ञेय | Ajneya
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साँप!
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जो पुल बनाएँगें
- अज्ञेय | Ajneya
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जो पुल बनाएँगें वे अनिवार्यत: पीछे रह जाएँगे सेनाएँ हो जाएगी पार मारे जाएँगे रावण जयी होंगें राम , जो निर्माता रहे इतिहास में बंदर कहलाएँगे
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योगफल
- अज्ञेय | Ajneya
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सुख मिला : उसे हम कह न सके। दुख हुआ : उसे हम सह न सके। संस्पर्श बृहत् का उतरा सुरसरि-सा : हम बह न सके । यों बीत गया सब : हम मरे नहीं, पर हाय कदाचित् जीवित भी हम रह न सके।
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लक्षण
- अज्ञेय | Ajneya
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आँसू से भरने पर आँखें और चमकने लगती हैं। सुरभित हो उठता समीर जब कलियाँ झरने लगती हैं।
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यह दीप अकेला
- अज्ञेय | Ajneya
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यह दीप अकेला स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
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सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ
- अज्ञेय | Ajneya
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सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान!
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रोते-रोते रात सो गई
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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झुकी न अलकें झपी न पलकें सुधियों की बारात खो गई
दर्द पुराना मीत न जाना बातों ही में प्रातः हो गई
घुमड़ी बदली बूँद न निकली बिछुड़न ऐसी व्यथा बो गई रोते-रोते रात सो गई
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आओ फिर से दीया जलाएं | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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आओ फिर से दिया जलाएं भरी दूपहरी में अधियारा सूरज परछाई से हारा अंतरतम का नेह निचोड़े बुझी हुई बाती सुलगाएं आओ कि से दीया जलाएं।
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एक बरस बीत गया | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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एक बरस बीत गया झुलसाता जेठ मास शरद चाँदनी उदास सिसकी भरते सावन का अंतर्घट रीत गया एक बरस बीत गया
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यक्ष प्रश्न - अटल बिहारी वाजपेयी की कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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जो कल थे, वे आज नहीं हैं। जो आज हैं, वे कल नहीं होंगे। होने, न होने का क्रम, इसी तरह चलता रहेगा, हम हैं, हम रहेंगे, यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।
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पंद्रह अगस्त की पुकार
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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पंद्रह अगस्त का दिन कहता - आज़ादी अभी अधूरी है। सपने सच होने बाकी है, रावी की शपथ न पूरी है।।
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कैदी कविराय की कुंडलिया
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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गूंजी हिन्दी विश्व में स्वप्न हुआ साकार, राष्ट्रसंघ के मंच से हिन्दी का जैकार। हिन्दी का जैकार हिन्द हिन्दी में बोला, देख स्वभाषा-प्रेम विश्व अचरज में डोला। कह कैदी कविराय मेम की माया टूटी, भारतमाता धन्य स्नेह की सरिता फूटी।।
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गीत नहीं गाता हूँ | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं, टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूँ । गीत नही गाता हूँ ।
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ऊँचाई | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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ऊँचे पहाड़ पर, पेड़ नहीं लगते, पौधे नहीं उगते, न घास ही जमती है।
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दूध में दरार पड़ गई | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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खून क्यों सफेद हो गया?
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कदम मिलाकर चलना होगा | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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बाधाएं आती हैं आएं घिरें प्रलय की घोर घटाएं, पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं, निज हाथों में हंसते-हंसते, आग लगाकर जलना होगा। कदम मिलाकर चलना होगा।
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पहचान | कविता
- अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
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पेड़ के ऊपर चढ़ा आदमी ऊंचा दिखाई देता है। जड़ में खड़ा आदमी नीचा दिखाई देता है।
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ज़िन्दगी
- अभिषेक गुप्ता
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अधूरे ख़त अधूरा प्रेम अधूरे रिश्ते अधूरी कविता अधूरे ख्वाब अधूरा इंसान पूरी ज़िन्दगी
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डूब जाता हूँ मैं जिंदगी के
- अभिषेक गुप्ता
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डूब जाता हूँ मैं ज़िंदगी के उन तमाम अनुभावों में जब खोलता हूँ अपने जहन की एल्बम पन्ना दर पन्ना और जब झांकता हूँ उन यादों में
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मेरे देश की माटी सोना | गीत
- आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)
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मेरे देश की माटी सोना, सोने का कोई काम ना, जागो भैया भारतवासी, मेरी है ये कामना। दिन तो दिन है रातों को भी थोड़ा-थोड़ा जागना, माता के आँचल पर भैया, आने पावे आँच ना।
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विप्लव-गान | बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’
- बालकृष्ण शर्मा नवीन | Balkrishan Sharma Navin
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कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये, एक हिलोर इधर से आये, एक हिलोर उधर से आये, प्राणों के लाले पड़ जायें त्राहि-त्राहि स्वर नभ में छाये, नाश और सत्यानाशों का धुआँधार जग में छा जाये, बरसे आग, जलद जल जाये, भस्मसात् भूधर हो जाये, पाप-पुण्य सद्-सद् भावों की धूल उड़ उठे दायें-बायें, नभ का वक्षस्थल फट जाये, तारे टूक-टूक हो जायें, कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये!
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खूनी हस्ताक्षर
- गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas
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वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं ? वह खून कहो किस मतलब का, आ सके देश के काम नहीं ?
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नेताजी का तुलादान
- गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas
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देखा पूरब में आज सुबह, एक नई रोशनी फूटी थी। एक नई किरन, ले नया संदेशा, अग्निबान-सी छूटी थी॥
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आज मेरे आँसुओं में, याद किस की मुसकराई? | गीत
- उपेन्द्रनाथ अश्क | Upendranath Ashk
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आज मेरे आँसुओं में, याद किस की मुसकराई?
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उसने मेरा हाथ देखा | कविता
- उपेन्द्रनाथ अश्क | Upendranath Ashk
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उसने मेरा हाथ देखा और सिर हिला दिया, "इतनी भाव प्रवीणता दुनिया में कैसे रहोगे! इसपर अधिकार पाओ, वरना लगातार दुख दोगे निरंतर दुख सहोगे!"
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रो उठोगे मीत मेरे
- आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)
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दर्द की उपमा बना मैं जा रहा हूँ, पीर की प्रतिमा बना मैं जा रहा हूँ।
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मुक्तिबोध की कविताएं
- गजानन माधव मुक्तिबोध | Gajanan Madhav Muktibodh
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यहाँ मुक्तिबोध के कुछ कवितांश प्रकाशित किए गए हैं। हमें विश्वास है पाठकों को रूचिकर व पठनीय लगेंगे।
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सजनवा के गाँव चले
- आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)
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सूरज उगे या शाम ढले, मेरे पाँव सजनवा के गाँव चले।
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मैंने जाने गीत बिरह के
- आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)
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मैंने जाने गीत बिरह के, मधुमासों की आस नहीं है, कदम-कदम पर मिली विवशता, साँसों में विश्वास नहीं है। छल से छला गया है जीवन, आजीवन का था समझौता। लहरों ने पतवार छीन ली, नैया जाती खाती गोता। किस सागर जा करूँ याचना, अब अधरों पर प्यास नहीं है, मैंने जाने गीत बिरह के, मधुमासों की आस नहीं है।
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नानी वाली कथा-कहानी
- आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)
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नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुई पुरानी। बेटी-युग के नए दौर की, आओ लिख लें नई कहानी। बेटी-युग में बेटा-बेटी, सभी पढ़ेंगे, सभी बढ़ेंगे। फौलादी ले नेक इरादे, खुद अपना इतिहास गढ़ेंगे। देश पढ़ेगा, देश बढ़ेगा, दौड़ेगी अब, तरुण जवानी। नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुईं पुरानी। बेटा शिक्षित, आधी शिक्षा, दोनों शिक्षित पूरी शिक्षा। हमने सोचा,मनन करो तुम, सोचो समझो करो समीक्षा। सारा जग शिक्षामय करना,हमने सोचा मन में ठानी। नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुईं पुरानी। अब कोई ना अनपढ़ होगा, सबके हाथों पुस्तक होगी। ज्ञान-गंग की पावन धारा, सबके आँगन तक पहुँचेगी। पुस्तक और कलम की शक्ति,जग जाहिर जानी पहचानी। नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुईं पुरानी। बेटी-युग सम्मान-पर्व है, पुर्ण्य-पर्व है, ज्ञान-पर्व है। सब सबका सम्मान करे तो, जन-जन का उत्थान-पर्व है। सोने की चिड़िया तब बोले,बेटी-युग की हवा सुहानी। नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुई पुरानी। बेटी-युग के नए दौर की, आओ लिख लें नई कहानी।
- आनन्द विश्वास |
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आया मधुऋतु का त्योहार
- आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)
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खेत-खेत में सरसों झूमे, सर-सर बहे बयार, मस्त पवन के संग-संग आया मधुऋतु का त्योहार।
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कुछ हाइकु
- आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)
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1) मन की बात सोचो, समझो और मनन करो।
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होली की रात | Jaishankar Prasad Holi Night Poetry
- जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad
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बरसते हो तारों के फूल छिपे तुम नील पटी में कौन? उड़ रही है सौरभ की धूल कोकिला कैसे रहती मीन।
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आँसू के कन
- जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad
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वसुधा के अंचल पर
यह क्या कन-कन सा गया बिखर ! जल शिशु की चंचल क्रीड़ा-सा जैसे सरसिज दल पर ।
लालसा निराशा में दलमल वेदना और सुख में विह्वल यह क्या है रे मानव जीवन! कितना था रहा निखर।
मिलने चलते अब दो कन आकर्षण -मय चुम्बन बन दल की नस-नस में बह जाती लघु-मघु धारा सुन्दर।
हिलता-डुलता चंचल दल, ये सब कितने हैं रहे मचल कन-कन अनन्त अम्बुधि बनते कब रूकती लीला निष्ठुर ।
तब क्यों रे, फिर यह सब क्यों यह रोष भरी लीला क्यों ? गिरने दे नयनों से उज्ज्वल आँसू के कन मनहर वसुधा के अंचल पर ।
- जयशंकर प्रसाद
[ हंस, जनवरी १९३३] |
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महाकवि रवीन्द्रनाथ के प्रति
- केदारनाथ अग्रवाल | Kedarnath Agarwal
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महाकवि रवीन्द्रनाथ के प्रति
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क्योंकि सपना है अभी भी
- धर्मवीर भारती | Dhramvir Bharti
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...क्योंकि सपना है अभी भी इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल कोहरे डूबी दिशाएं कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
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उत्तर नहीं हूँ
- धर्मवीर भारती | Dhramvir Bharti
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उत्तर नहीं हूँ मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!
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पूजा गीत
- धर्मवीर भारती | Dhramvir Bharti
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जिस दिन अपनी हर आस्था तिनके-सी टूटे जिस दिन अपने अन्तरतम के विश्वास सभी निकले झूठे ! उस दिन होंगे वे कौन चरण जिनमें इस लक्ष्यभ्रष्ट मन को मिल पायेगी अन्त में शरण ?
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डॉ सुधेश की ग़ज़लें
- डॉ सुधेश
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डॉ सुधेश दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिन्दी के प्रोफ़ेसर पद से सेवानिवृत्त हैं। आप हिंदी में विभिन्न विधाओ में सृजन करते हैं। यहाँ आपकी ग़ज़लेंसंकलित की गई हैं। |
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आज भी खड़ी वो...
- सपना सिंह ( सोनश्री )
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निराला की कविता, 'तोड़ती पत्थर' को सपना सिंह (सोनश्री) आज के परिवेश में कुछ इस तरह से देखती हैं:
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छवि नहीं बनती
- सपना सिंह ( सोनश्री )
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निराला पर सपना सिंह (सोनश्री) की कविता
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लोग क्या से क्या न जाने हो गए | ग़ज़ल
- डॉ शम्भुनाथ तिवारी
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लोग क्या से क्या न जाने हो गए आजकल अपने बेगाने हो गए
बेसबब ही रहगुज़र में छोड़ना दोस्ती के आज माने हो गए
आदमी टुकडों में इतने बँट चुका सोचिए कितने घराने हो गए
वक्त ने की किसकदर तब्दीलियाँ जो हकीकत थे फसाने हो गए
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बिला वजह आँखों के कोर भिगोना क्या | ग़ज़ल
- डॉ शम्भुनाथ तिवारी
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बिला वजह आँखों के कोर भिगोना क्या अपनी नाकामी का रोना रोना क्या
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नहीं कुछ भी बताना चाहता है | ग़ज़ल
- डॉ शम्भुनाथ तिवारी
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नहीं कुछ भी बताना चाहता है भला वह क्या छुपाना चाहता है तिज़ारत की है जिसने आँसुओं की वही ख़ुद मुस्कुराना चाहता है
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परिंदे की बेज़ुबानी
- डॉ शम्भुनाथ तिवारी
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बड़ी ग़मनाक दिल छूती परिंदे की कहानी है!
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नहीं है आदमी की अब | हज़ल
- डॉ शम्भुनाथ तिवारी
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नहीं है आदमी की अब कोई पहचान दिल्ली में मिली है धूल में कितनों की ऊँची शान दिल्ली में
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हौसले मिटते नहीं
- डॉ शम्भुनाथ तिवारी
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हौसले मिटते नहीं अरमाँ बिखर जाने के बाद मंजिलें मिलती है कब तूफां से डर जाने के बाद
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कौन यहाँ खुशहाल बिरादर
- डॉ शम्भुनाथ तिवारी
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कौन यहाँ खुशहाल बिरादर बद-से-बदतर हाल बिरादर
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उलझे धागों को सुलझाना
- डॉ शम्भुनाथ तिवारी
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उलझे धागों को सुलझाना मुश्किल है नफरतवाली आग बुझाना मुश्किल है
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माँ की ममता जग से न्यारी !
- डॉ शम्भुनाथ तिवारी
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माँ की ममता जग से न्यारी !
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माँ की याद बहुत आती है !
- डॉ शम्भुनाथ तिवारी
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माँ की याद बहुत आती है !
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कलम गहो हाथों में साथी
- हरिहर झा | ऑस्ट्रेलिया | Harihar Jha
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कलम गहो हाथों में साथी शस्त्र हजारों छोड़
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लिखना बाकी है
- हरिहर झा | ऑस्ट्रेलिया | Harihar Jha
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शब्दों के नर्तन से शापित अंतर्मन शिथिलाया लिखने को तो बहुत लिखा पर कुछ लिखना बाकी है
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मण्डी बनाया विश्व को
- हरिहर झा | ऑस्ट्रेलिया | Harihar Jha
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लुढ़कता पत्थर शिखर से, क्यों हमें लुढ़का न देगा ।
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मदिरा ढलने पर | कविता
- हरिहर झा | ऑस्ट्रेलिया | Harihar Jha
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दीवाली का सामान
- भारत-दर्शन संकलन | Collections
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हर इक मकां में जला फिर दिया दिवाली का हर इक तरफ को उजाला हुआ दिवाली का सभी के दिन में समां भा गया दिवाली का किसी के दिल को मजा खुश लगा दिवाली का अजब बहार का है दिन बना दिवाली का।
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ज्ञानप्रकाश विवेक की ग़ज़लें
- ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek
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प्रस्तुत हैं ज्ञानप्रकाश विवेक की ग़ज़लें ! |
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हम भी काट रहे बनवास
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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हम भी काट रहे बनवास जावेंगे अयोध्या नहीं आस
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बाबा | हास्य कविता
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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दूर बस्ती से बाहर बैठा था एक फ़क़ीर पेट से भूखा था तन कांटे सा सूखा था।
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उसे कुछ मिला, नहीं !
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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कूड़े के ढेर से कुछ चुनते हुए बच्चे को देख एक चित्रकार ने करूणामय चित्र बना डाला।
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भिखारी| हास्य कविता
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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एक भिखारी दुखियारा भूखा, प्यासा भीख मांगता फिरता मारा-मारा!
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संवाद | कविता
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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"अब तो भाजपा की सरकार आ गई ।" मैंने उस गुमसुम रिक्शा वाले से संवाद स्थापित किया ।
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रोहित कुमार हैप्पी के भजन
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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रोहित कुमार हैप्पी का भजन संग्रह। |
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दो क्षणिकाएं
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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कवि
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आज़ादी
- रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
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भोग रहे हम आज आज़ादी, किसने हमें दिलाई थी! चूमे थे फाँसी के फंदे, किसने गोली खाई थी?
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बहुत वासनाओं पर मन से - गीतांजलि
- रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
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बहुत वासनाओं पर मन से हाय, रहा मर, तुमने बचा लिया मुझको उनसे वंचित कर । संचित यह करुणा कठोर मेरा जीवन भर।
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