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Literature Under This Category | ||||
परिहासिनी - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra | ||||
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की लघु हास्य-व्यंग्य से भरपूर - परिहासिनी। |
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भोला राम का जीव - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai | ||||
ऐसा कभी नहीं हुआ था। |
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अपनी-अपनी बीमारी - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai | ||||
हम उनके पास चंदा माँगने गए थे। चंदे के पुराने अभ्यासी का चेहरा बोलता है। वे हमें भाँप गए। हम भी उन्हें भाँप गए। चंदा माँगनेवाले और देनेवाले एक-दूसरे के शरीर की गंध बखूबी पहचानते हैं। लेनेवाला गंध से जान लेता है कि यह देगा या नहीं। देनेवाला भी माँगनेवाले के शरीर की गंध से समझ लेता है कि यह बिना लिए टल जाएगा या नहीं। हमें बैठते ही समझ में आ गया कि ये नहीं देंगे। वे भी शायद समझ गए कि ये टल जाएँगे। फिर भी हम दोनों पक्षों को अपना कर्तव्य तो निभाना ही था। हमने प्रार्थना की तो वे बोले-आपको चंदे की पड़ी है, हम तो टैक्सों के मारे मर रहे हैं। |
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ठिठुरता हुआ गणतंत्र - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai | ||||
चार बार मैं गणतंत्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र-समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूँदाबाँदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डॉलर, पौंड, रुपया, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा-कोष या भारत सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं। |
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जनता की सरकार - जगन्नाथ प्रसाद चौबे वनमाली | ||||
एक तिनका सड़क के किनारे पड़ा हुआ दो आदमियों की बातचीत सुन रहा था। |
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यहाँ क्षण मिलता है - मृदुला गर्ग | Mridula Garg | ||||
हम सताए, खीजे, उकताए, गड्ढों-खड्ढों, गंदे परनालों से बचते, दिल्ली की सड़क पर नीचे ज़्यादा, ऊपर कम देखते चले जा रहे थे, हर दिल्लीवासी की तरह, रह-रहकर सोचते कि हम इस नामुराद शहर में रहते क्यों हैं ? फिर करिश्मा ! एक नज़र सड़क से हट दाएँ क्या गई, ठगे रह गए। दाएँ रूख फलाँ-फलाँ राष्ट्रीय बैंक था। नाम के नीचे पट्ट पर लिखा था, यहाँ क्षण मिलता है। वाह ! बहिश्त उतर ज़मी पर आ लिया। यह कैसा बैंक है जो रोकड़ा लेने-देने के बदले क्षण यानी जीवन देता है? क्षण-क्षण करके दिन बनता है, दिन-दिन करके बरसों-बरस यानी ज़िंदगी। आह, किसी तरह एक क्षण और मिल जाए जीने को। |
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अगली सदी का शोधपत्र - सूर्यबाला | Suryabala | ||||
एक समय की बात है, हिन्दुस्तान में एक भाषा हुआ करे थी। उसका नाम था हिंदी। हिन्दुस्तान के लोग उस भाषा को दिलोजान से प्यार करते थे। बहुत सँभालकर रखते थे। कभी भूलकर भी उसका इस्तेमाल बोलचाल या लिखने-पढ़ने में नहीं करते थे। सिर्फ कुछ विशेष अवसरों पर ही वह लिखी-पढ़ी या बोली जाती थी। यहाँ तक कि साल में एक दिन, हफ्ता या पखवारा तय कर दिया जाता था। अपनी-अपनी फुरसत के हिसाब से और सबको खबर कर दी जाती थी कि इस दिन इतने बजकर इतने मिनट पर हिंदी पढ़ी-बोली और सुनी-समझी (?) जाएगी। निश्चित दिन, निश्चित समय पर बड़े सम्मान से हिंदी झाड़-पोंछकर तहखाने से निकाली जाती थी और सबको बोलकर सुनाई जाती थी। |
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नया साल - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai | ||||
साधो, बीता साल गुजर गया और नया साल शुरू हो गया। नए साल के शुरू में शुभकामना देने की परंपरा है। मैं तुम्हें शुभकामना देने में हिचकता हूँ। बात यह है साधो कि कोई शुभकामना अब कारगर नहीं होती। मान लो कि मैं कहूँ कि ईश्वर नया वर्ष तुम्हारे लिए सुखदायी करें तो तुम्हें दुख देनेवाले ईश्वर से ही लड़ने लगेंगे। ये कहेंगे, देखते हैं, तुम्हें ईश्वर कैसे सुख देता है। साधो, कुछ लोग ईश्वर से भी बड़े हो गए हैं। ईश्वर तुम्हें सुख देने की योजना बनाता है, तो ये लोग उसे काटकर दुख देने की योजना बना लेते हैं। |
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माई लार्ड - बालमुकुन्द गुप्त | ||||
माई लार्ड! लड़कपन में इस बूढ़े भंगड़ को बुलबुल का बड़ा चाव था। गांव में कितने ही शौकीन बुलबुलबाज थे। वह बुलबुलें पकड़ते थे, पालते थे और लड़ाते थे, बालक शिवशम्भु शर्मा बुलबुलें लड़ाने का चाव नहीं रखता था। केवल एक बुलबुल को हाथ पर बिठाकर ही प्रसन्न होना चाहता था। पर ब्राह्मणकुमार को बुलबुल कैसे मिले? पिता को यह भय कि बालक को बुलबुल दी तो वह मार देगा, हत्या होगी। अथवा उसके हाथ से बिल्ली छीन लेगी तो पाप होगा। बहुत अनुरोध से यदि पिता ने किसी मित्र की बुलबुल किसी दिन ला भी दी तो वह एक घण्टे से अधिक नहीं रहने पाती थी। वह भी पिता की निगरानी में। |
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निंदा रस - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai | ||||
‘क' कई महीने बाद आए थे। सुबह चाय पीकर अखबार देख रहा था कि वे तूफान की तरह कमरे में घुसे, साइक्लोन जैसा मुझे भुजाओं में जकड़ लिया। मुझे धृतराष्ट्र की भुजाओं में जकड़े भीम के पुतले की याद गई। जब धृतराष्ट्र की पकड़ में भीम का पुतला गया तो उन्होंने प्राणघाती स्नेह से उसे जकड़कर चूर कर डाला। |
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मुगलों ने सल्तनत बख्श दी - भगवतीचरण वर्मा | ||||
हीरोजी को आप नहीं जानते, और यह दुर्भाग्य की बात है। इसका यह अर्थ नहीं कि केवल आपका दुर्भाग्य है, दुर्भाग्य हीरोजी का भी है। कारण, वह बड़ा सीधा-सादा है। यदि आपका हीरोजी से परिचय हो जाए, तो आप निश्चय समझ लें कि आपका संसार के एक बहुत बड़े विद्वान से परिचय हो गया। हीरोजी को जाननेवालों में अधिकांश का मत है कि हीरोजी पहले जन्म में विक्रमादित्य के नव-रत्नों में एक अवश्य रहे होंगे और अपने किसी पाप के कारण उनको इस जन्म में हीरोजी की योनि प्राप्त हुई। अगर हीरोजी का आपसे परिचय हो जाए, तो आप यह समझ लीजिए कि उन्हें एक मनुष्य अधिक मिल गया, जो उन्हें अपने शौक में प्रसन्नतापूर्वक एक हिस्सा दे सके। |
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गऊचोरी - विद्यानिवास मिश्र | ||||
बाढ़ उतार पर थी और मैं नाव से गाँव जा रहा था। रास्ता लंबा था, कुआर की चढ़ती धूप, किसी तरह विषगर्भ दुपहरी काटनी थी, इसलिए माँझी से ही बातचीत का सिलसिला जमाया। शहर से लौटने पर गाँव का हाल-चाल पूछना जरुरी-सा हो जाता है, सो मैंने उसी से शुरू किया .... ' कह सहती, गाँव-गड़ा के हाल चाल कइसन बा।' सहती को भी डाँड़ खेते-खेते ऊब मालूम हो रही थी, बोलने के लिए मुँह खुल गया - 'बाबू का बताई, भदई फसिल गंगा भइया ले लिहली, रब्बी के बावग का होई, अबहिन खेत खाली होई तब्बे न, ओहू पर गोरू के हटवले के बड़ा जोर बा, केहू मारे डरन बहरा गोरू नाहीं बाँधत बा, हमार असाढ़ में खरीदल गोई कवनी छोरवा दिहलसि, ओही के तलास में तीनों लरिके बिना दाना पानी कइले पाँच दिन से निकसल बाटें।' इतना कह कर गरीब आदमी सुबकने लगा। कुछ सांत्वना देने की गरज से मैंने पूछा - 'कहीं कुछ सोरिपता नाहीं लगत बा। फलाने बाबा के गोड़ नाहीं पुजल?' जवाब में वह यकायक क्रोध में फनफना उठा - 'बाबू रउरहू अनजान बनि जाईलें। माँगत त बाटें तीन सैकड़ा, कहाँ से घर-दुआर बेंचि के एतना रुपया जुटाईं। सब इनही के माया हवे, एही के बजरिए बा'। तब सोचा हाँ, जो त्राता है वही तो भक्षक भी है। गऊ चुराने वाला गोभक्षक नहीं गोरक्षक ही तो है। हमारे गाँव में गऊचोरी से बड़ी शायद कोई समस्या न हो। |
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चाचा का ट्रक और हिंदी साहित्य - शरद जोशी | Sharad Joshi | ||||
अभी-अभी एक ट्रक के नामकरण समारोह से लौटा हूं। मेरे एक रिश्तेदार ने जिनका हमारे घर पर काफी दबदबा है, कुछ दिन हुए एक ट्रक खरीदा है। उसका नाम रखने के लिए मुझे बुलाया था। एक लड़का, जो अपने आपको बहुत बड़ा आर्टिस्ट मानता था, जिसका पैंट छोटा था, मगर बाल काफी लंबे थे, रंग और ब्रश लिए पहले से वहां बैठा था कि जो नाम निकले वह ट्रक पर लिख दे। मैं समय पर पहुंच गया, इसके लिए रिश्तेदार, जिनको मैं चाचाजी कहता हूँ, प्रसन्न थे। उनका कहना था कि यदि नौ बजे बुलाया कलाकार बारह बजे पहुंचे तो उसे समय पर मानो। |
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हू केयर्स? - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड | ||||
अगस्त का महीना विदेश में बसे भारतीयों के लिए बड़ा व्यस्त समय होता है। कम से कम हमारे यहां तो ऐसा ही होता है। स्वतंत्रता दिवस की तैयारी पूरे जोरों पर रहती है। अनेक संस्थाएं स्वतंत्रता दिवस का आयोजन करती हैं। नहीं, मैं गलत लिख गया! दरअसल, स्वतंत्रता दिवस नहीं, ‘इंडिपेंडेंस डे'! 'स्वतंत्रता-दिवस' तो न कहीं सुनने को मिलता, न कहीं पढ़ने को। मुझे तलख़ी आई तो साथ वाले ने वेद-वाणी उवाची, ‘हू केयर्स?' यही तो कठिनाई है कि आप ‘केयर' ही तो नहीं करते! ...और करते भी हैं तो जब आप पर आन पड़े, तभी करते हैं! |
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दाँत - प्रतापनारायण मिश्र | ||||
इस दो अक्षर के शब्द तथा इन थोड़ी-सी छोटी-छोटी हड्डियों में भी उस चतुर कारीगर ने यह कौशल दिखलाया है कि किसके मुँह में दाँत हैं जो पूरा-पूरा वर्णन कर सके । मुख की सारी शोभा और यावत् भोज्य पदार्थो का स्वाद इन्हीं पर निर्भर है। कवियों ने अलक ( जुल्फ ), भ्रू ( भौं ) तथा बरुनी आदि की छवि लिखने में बहुत - बहुत रीति से बाल की खाल निकाली है, पर सच पूछिए तो इन्हों को शोभा से सबकी शोभा है । जब दाँतों के बिना पला-सा मुँह निकल आता है, और चिबुक ( ठोड़ी ) एवं नासिका एक में मिल जाती हैं उस समय सारी सुघराई मिट्टी में मिल जाती है। |
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अद्भुत संवाद - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra | ||||
"ए, जरा हमारा घोड़ा तो पकड़े रहो।" |
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कबीरा क्यों खड़ा बाजार - प्रेम जनमेजय | ||||
संपादक ने फोन पर कहा- कबीरा खड़ा बाजार में। |
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तीव्रगामी - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra | ||||
एक शख्स ने किसी से कहा कि अगर मैं झूठ बोलता हूँ तो मेरा झूठ कोई पकड़ क्यों नहीं लेता। |
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नए जमाने का एटीएम - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त | ||||
धनाधन बैंक के मैनेजर आज बड़े गुस्से में हैं। नामी-गिरामी लोगों की लोन फाइल बगल में पटकते हुए सेक्रेटरी से कहा, किसानों की फाइल ले आओ। देखते हैं, किसके पास से कितना आना है। सेक्रेटरी ने आश्चर्य से कहा, सर! कहीं ओस चाटने से प्यास बुझती है। बड़े लोगों की लोन वाली फाइलें छोड़ गरीब किसानों की फाइलों में आपको क्या मिलेगा। किसानों के सारे लोन एक तरफ, हाई-प्रोफाइल लोन एक तरफ। मैनेजर ने गुर्राते हुए कहा, तुम्हें क्या लगता है कि मैं बेवकूफ हूँ। यहाँ हर दिन झक मारने आता हूँ। हाई प्रोफाइल लोन वाली फाइन छूने का मतलब है बिन बुलाए मौत को दावत देना। हाई-प्रोफाइल वाले किसी से डरते नहीं हैं। इनकी पहुँच बहुत ऊपर तक होती है। मेरी गर्दन तक पहुँचना उनके लिए बच्चों का खेल है। गरीबों का क्या है, वे अपनी इज्जत बचाने के लिए कुछ भी करके लोन चुकायेंगे। वैसे भी गरीबों का सुनने वाला कौन है? देश में अस्सी करोड़ से अधिक गरीब हैं। वे केवल वोट के लिए पाले जाते हैं। ऐसे लोगों को गली का कुत्ता भी डरा जाता है। |
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एक यांत्रिक संतान - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त | ||||
उसकी कोख में बच्ची थी। अब आप पूछेंगे कि मुझे कैसे पता? कहीं डॉक्टरों को खिला-पिलाकर मालूम तो नहीं करवा लिया! यदि मैं कहूँ कि उसकी कोख में बच्चा था, तब निश्चित ही आप इस तरह का सवाल नहीं करते। आसानी से मान लेते। हमारे देश में लिंग भेद केवल व्याकरण तक सीमित है। वैचारिक रूप से हम अब भी पुल्लिंगवादी हैं। खैर जो भी हो उसकी कोख में बच्चा था या बच्ची यह तो नौ महीने बाद ही मालूम होने वाला था। चूंकि पहली संतान होने वाली थी सो घर की बुजुर्ग पीढ़ी खानदान का नाम रौशन करने वाले चिराग की प्रतीक्षा कर रही थी। वह क्या है न कि कोख से जन्म लेने वाली संतान अपने साथ-साथ कुछ न दिखाई देने वाले टैग भी लाती हैं। मसलन लड़का हुआ तो घर का चिराग और लड़की हुई तो घर की लक्ष्मी। कोख का कारक पुल्लिंग वह इस बात से ही अत्यंत प्रसन्न रहता है कि उसके साथ पिता का टैग लग जाएगा, जबकि कोख की पीड़ा सहने वाली ‘वह’ माँ बाद में बनेगी, सहनशील पहले। |
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असल हकदार - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra | ||||
एक वकील ने बीमारी की हालत में अपना सब माल और असबाब पागल, दीवाने और सिड़ियों के नाम लिख दिया। लोगों ने पूछा, ‘यह क्या?' |
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कबिरा आप ठगाइए... - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai | ||||
मनुष्य का जीवन यों बहुत दुखमय है, पर इसमें कभी-कभी सुख के क्षण आते रहते हैं। एक क्षण सुख का वह होता है, जब हमारी खोटी चवन्नी चल जाती है या हम बगैर टिकट बाबू से बचकर निकल जाते हैं। एक सुख का क्षण वह होता है, जब मोहल्ले की लड़की किसी के साथ भाग जाती है और एक सुख का क्षण वह भी होता है, जब 'बॉस' के घर छठवीं लड़की होती है। |
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एक से दो - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra | ||||
"ए, जरा हमारा घोड़ा तो पकड़े रहो।" |
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हिन्दी की होली तो हो ली - गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas | ||||
(इस लेख का मज़मून मैंने होली के ऊपर इसलिए चुना कि 'होली' हिन्दी का नहीं, अंग्रेजी का शब्द है। लेकिन खेद है कि हिंदुस्तानियों ने इसकी पवित्रता को नष्ट करके एकदम गलीज़ कर दिया है। हिन्दी की होली तो हो ली, अब तो समूचे भारत में अंग्रेजी की होली ही हरेक चौराहे पर लहक रही है।) |
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सच्चा घोड़ा - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra | ||||
एक सौदागर किसी रईस के पास एक घोड़ा बेचने को लाया और बार-बार उसकी तारीफ में कहता, "हुजूर, यह जानवर गजब का सच्चा है।" |
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सत्ता का नया फार्मुला - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त | ||||
एक समय था जब सरकार जनता से बनती थी। चुनाव की गर्मी के समय एयर कंडीशनर और बारिश की फुहार जैसे वायदे करने वाले जब सरकार में आते हैं, तब इनके वायदों को न जाने कौन सा लकवा मार जाता है कि कुछ भी याद नहीं रहता। अब तो जनता को बेवकूफ बनाने का एक नया फार्मूला चलन में आ गया है। चुनाव के समय S+R=JP का फार्मूला धड़ल्ले से काम करता है। यहां S का मूल्य शराब और R का मूल्य रुपया और JP का मतलब जीत पक्की। यानी शराब और रुपए का संतुलित मिश्रण गधे तक के सिर ताज पहना सकता है। यदि चुनाव जीत चुके हैं और पाँच साल का कार्यकाल पूरा होने वाला है, तब जीत का फार्मूला बदल जाता है। वह फार्मूला है PPP । यहां पहले P का मतलब पेंशन। पेंशन यानी बेरोजगारी पेंशन, वृद्धा पेंशन, विधवा पेंशन, किसान पेंशन, आदि-आदि। दूसरे P का अर्थ है पैकेज। इस पैकेज के लाखों-करोड़ों रुपए पैकेज की घोषणा कर दे फिर देखिए जनता तो क्या उनका बाप भी वोट दे देगा। वैसे भी जनता को लाखों-करोड़ों में से कुछ मिले न मिले शून्य की भरमार जरूर मिलेगी। इसी फार्मूले के तीसरे P का अर्थ है पगलाहट। जनता को मनगढ़ंत और उटपटांग उल्टे-सीधे सभी वायदे कर दें, फिर देखिए जनता में जबरदस्त पगलाहट देखने को मिलेगी। |
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न्यायशास्त्र - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra | ||||
मोहिनी ने कहा, "न जाने हमारे पति से, जब हम दोनों की एक ही राय है तब, फिर क्यों लड़ाई होती है? ... क्योंकि वह चाहते हैं कि मैं उनसे दबूँ और यही मैं भी।" |
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तेरा न्यू ईयर तो मेरा नया साल - प्रो. राजेश कुमार | ||||
नया साल आ गया है और हमारे महाकवि इस तैयारी में है किस अभूतपूर्व और बेजोड़ तरीके से लोगों को नए साल की शुभकामनाएँ दी जाएँ कि वे बस अश-अश करते रह जाएँ। तभी उनके मन में संदेह का कीड़ा रेंगा, जिसके चलते वे हाल ही में उन्होंने लोगों को क्रिसमस दिवस मनाने को मानसिक गुलामी का प्रतीक घोषित करते हुए, तुलसी दिवस (तुलसीदास नहीं, तुलसी पौधा) की शुभकामनाएँ थी, और इसके चलते लोगों की नज़रों में हास्यास्पद बनकर रह गए थे। जाने कहाँ से किसी ने उनके पास तुलसी दिवस की जानकारी भेजी थी, जिसे राष्ट्र प्रेम के वशीभूत होकर उन्होंने इस बात को नज़रअंदाज़ करते हुए भी फ़ॉरवर्ड करने में बहुत गौरव महसूस नहीं अनुभव किया था कि उन्हें तुलसी दिवस तू याद क्रिसमस दिवस ने ही दिलाई थी, अन्यथा तुलसी भी पहले से मौजूद थी और क्रिसमस तो खैर पहले से था ही! |
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यंत्र, तंत्र, मंत्र | व्यंग्य - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त | ||||
एक यंत्र था। उसके लिए राजा-रंक एक समान थे। सो, मंत्री जी की कई गोपनीय बातें भजनखबरी को पता चल गयीं। मंत्री जी कुछ कहते उससे पहले ही भजनखबरी उनकी पोल खोल बैठा। पहले तो मंत्री जी को खूब गुस्सा आया। वह क्या है न कि कुर्सी पर बने रहने के लिए गुस्से को दूर रखना पड़ता है। इसलिए मंत्री जी ने भजनखबरी को नौकरी से बर्खास्त करने की जगह उसे उसके यंत्र के साथ अपने कार्यालय में नियुक्त कर दिया। |
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गुरु घंटाल - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra | ||||
बाबू प्रहलाददास से बाबू राधाकृष्ण ने स्कूल जाने के वक्त कहा, "क्यों जनाब, मेरा दुशाला अपनी गाड़ी पर लिए जाइएगा?" |
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हैलो सूरज! - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त | ||||
हो न हो चाचा मामा से बड़े गुस्सैले होते हैं, नहीं तो चंदा को मामा और सूरज को चाचा क्यों कहते। कभी-कभी तो उसका गुस्सा देख दादा भी कह उठते हैं। ब्रह्मांड में कई आकाशगंगा है। उनमें से एक आकाशगंगा का एक छोटा सा भाग है हमारा सौरमंडल और सौरमंडल के प्रधान हैं हमारे सूरज चाचा। सूरज चाचा एक ही स्थान पर टिके हैं। वे किसी के आगे-पीछे चिरौरी करने नहीं घूमते। बल्कि दुनिया के लोग उन्हें गर्मी की सेटिंग करने की सलाह दे डालते हैं। हाँ यह अलग बात है कि वे किसी की नहीं सुनते। उनमें 72% पेड़ों को काटने का हाइड्रोजन वाला गुस्सा, 26% बचे-खुचे पेड़ों को पानी न डालने वाला हिलियम गुस्सा, 2% पर्यावरण के नाम पर नौटंकी करने और मुँह काला करवाने वाला कार्बनी गुस्सा, और कभी-कभी किसी के पुण्य पर ऑक्सीजन बनकर प्रेम लुटाने का काम करते हैं। सूरज चाचा का रंग अभी भी सफ़ेद है, इसलिए कि वे किसी खादी की दुकान से कपड़ा नहीं लेते। |
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अचूक जवाब - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra | ||||
एक अमीर से किसी फकीर ने पैसा मांगा। उस अमीर ने फकीर से कहा, "तुम पैसों के बदले लोगों से लियाकत चाहते तो कैसे लायक आदमी हो गये होते।" |
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अंगहीन धनी - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra | ||||
एक धनिक के घर उसके बहुत-से प्रतिष्ठित मित्र बैठे थे। नौकर बुलाने को घंटी बजी। मोहना भीतर दौड़ा, पर हँसता हुआ लौटा। |
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यस सर - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai | ||||
एक काफी अच्छे लेखक थे। वे राजधानी गए। एक समारोह में उनकी मुख्यमंत्री से भेंट हो गई। मुख्यमंत्री से उनका परिचय पहले से था। मुख्यमंत्री ने उनसे कहा - आप मजे में तो हैं। कोई कष्ट तो नहीं है? लेखक ने कह दिया - कष्ट बहुत मामूली है। मकान का कष्ट। अच्छा सा मकान मिल जाए, तो कुछ ढंग से लिखना-पढ़ना हो। मुख्यमंत्री ने कहा - मैं चीफ सेक्रेटरी से कह देता हूँ। मकान आपका 'एलाट' हो जाएगा। |
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अपने-अपने युद्ध, अपनी-अपनी झंडाबरदारी - प्रो. राजेश कुमार | ||||
झंडा हमारा गौरव है, हमारी शान है, हमारी बान है, हमारी आन है, हमारी पहचान है। लहराते हुए झंडे को देखते ही महाकवि के शरीर में सिहरन दौड़ जाती है, वे देश-प्रेम की भावना में गोते खाने लगते हैं, मातृभूमि के लिए कुछ कर गुज़रने कि भावनाओं में बहने लगते हैं। |
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मैं नर्क से बोल रहा हूँ! - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai | ||||
हे पत्थर पूजने वालो! तुम्हें जिंदा आदमी की बात सुनने का अभ्यास नहीं, इसलिए मैं मरकर बोल रहा हूँ। जीवित अवस्था में तुम जिसकी ओर आंख उठाकर नहीं देखते, उसकी सड़ी लाश के पीछे जुलूस बनाकर चलते हो। जिंदगी-भर तुम जिससे नफरत करते रहे, उसकी कब्र पर चिराग जलाने जाते हो। मरते वक्त तक जिसे तुमने चुल्लू-भर पानी नहीं दिया, उसके हाड़ गंगाजी ले जाते हो। अरे, तुम जीवन का तिरस्कार और मरण सत्कार करते हो, इसलिए मैं मरकर बोल रहा हूँ। मैं नर्क से बोल रहा हूँ। |
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पत्रकार, आज़ादी और हमला - प्रो. राजेश कुमार | ||||
मास्टर अँगूठाटेक परेशानी की हालत में इधर से उधर फिर रहे थे, जैसे कोई बहुत ग़लत घटना हो गई हो, और वे उसे सुधारने के लिए भी कुछ न कर पा रहे हों। |
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और बुलडोज़र गिरफ़्तार हो गया - प्रो. राजेश कुमार | ||||
यह इतना आसान काम नहीं था, लेकिन आखिर पुलिस ने अपनी मुस्तैदी से बुलडोज़र को गिरफ़्तार कर ही लिया। बुलडोज़र के लिए हथकड़ी अभी तक नहीं बनी है, इसलिए पुलिस ने उसे रस्सों से बाँधकर ही अपने कब्जे में किया। चारों तरफ़ इस बात से हर्षोल्लास फैल गया, सरकार ने पुलिस की पीठ ठोंकी, और पुलिस ने कहा कि इस बड़ी सफलता के बाद चारों तरफ अमन-चैन, और क़ानून और व्यवस्था कायम हो गई है। |
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महाकवि और धारा 420 सीसी की छूट - प्रो. राजेश कुमार | ||||
महाकवि रोज़-रोज़ की बढ़ने वाली क़ीमतों, पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों में लगी हुई आग, और रोज़-रोज़ लगाए जाने वाले तरह-तरह के टैक्स से बहुत परेशान थे। वे अपनी वेतन पर्ची में देखते थे की उनकी तनख़्वाह तो दिनोदिन घटती जा रही है, जो टैक्स का कॉलम जो था, वह दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। उन्हें ऐसा लगने लगा था कि शायद वे अपने लिए नहीं, बल्कि सरकार के लिए ही कमाई कर रहे हैं। सरकार कर-पर-कर लगाए जा रही है, और यहाँ कर में कुछ नहीं बचता – ऐसी परेशानी में भी उन्हें कविता सूझने लगी थी। |
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शॉक | व्यंग्य - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai | ||||
नगर का नाम नहीं बताता। जिनकी चर्चा कर रहा हूँ, वे हिंदी के बड़े प्रसिद्ध लेखक और समालोचक। शरीर सम्पति काफी क्षीण। रूप कभी आकर्षक न रहा होगा। जब का जिक्र है, तब वे 40 पार कर चुके थे। बिन ब्याहे थे। |
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हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे - शरद जोशी | Sharad Joshi | ||||
देश के आर्थिक नन्दन कानन में कैसी क्यारियाँ पनपी-सँवरी हैं भ्रष्टाचार की, दिन-दूनी रात चौगुनी। कितनी डाल कितने पत्ते, कितने फूल और लुक छिपकर आती कैसी मदमाती सुगन्ध। यह मिट्टी बड़ी उर्वरा है, शस्य श्यामल, काले करमों के लिए। दफ्तर दफ्तर नर्सरियाँ हैं और बड़े बाग़ जिनके निगहबान बाबू, सुपरिनटेंडेड डायरेक्टर। सचिव, मन्त्री। जिम्मेदार पदों पर बैठे जिम्मेदार लोग क्या कहने, आई.ए.एस., एम.ए. विदेश रिटर्न आज़ादी के आन्दोलन में जेल जाने वाले, चरखे के कतैया, गाँधीजी के चेले, बयालीस के जुलूस वीर, मुल्क का झंडा अपने हाथ से ऊपर चढ़ाने वाले, जनता के अपने, भारत माँ के लाल, काल अंग्रेजन के, कैसा खा रहे हैं, रिश्वत गप-गप ! ठाठ हो गये सुसरी आज़ादी मिलने के बाद। खूब फूटा है पौधा सारे देश में, पनप रहा केसर क्यारियों से कन्याकुमारी तक, राजधानियों में, ज़िला दफ्तर, तहसील, बी.डी.ओ., पटवारी के घर तक, खूब मिलता है काले पैसे का कल्पवृक्ष पी.डब्ल्यू डी., आर टी. ओ. चुंगी नाके बीज़ गोदाम से मुंसीपाल्टी तक। सब जगह अपनी-अपनी किस्मत के टेंडर खुलते हैं, रुपया बँटता है ऊपर से नीचे, आजू बाजू। मनुष्य- मनुष्य के काम आ रहा है, खा रहे हैं तो काम भी तो बना रहे हैं। कैसा नियमित मिलन है, बिलैती खुलती है, कलैजी की प्लेट मँगवाई जाती है। साला कौन कहता है राष्ट्र में एकता नहीं, सभी जुटे हैं, खा रहे हैं, कुतर-कुतर पंचवर्षीय योजना, विदेश से उधार आया रुपया, प्रोजेक्टों के सूखे पाइपों पर ‘फाइव-फाइव-फाइव' पीते बैठे हँस रहे हैं ठेकेदार, इंजीनियर, मन्त्री के दौरे के लंच-डिनर का मेनू बना रहे विशेषज्ञ। स्वास्थ्य मन्त्री की बेटी के ब्याह में टेलिविजन बगल में दाब कर लाया है दवाई कम्पनी का अदना स्थानीय एजेंट। खूब मलाई कट रही है। हर सब-इन्स्पेक्टर ने प्लॉट कटवा लिया कॉलोनी में। टॉउन प्लानिंग वालों की मुट्ठी गर्म करने से कृषि की सस्ती ज़मीन डेवलपमेंट में चली जाती है। देश का विकास हो रहा है भाई। आदमी चाँद पर पहुँच रहा है। हम शनिवार की रात टॉप फाइव स्टार होटल में नहीं पहुँच सकते, लानत है ऐसे मुल्क पर ! |
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जिसके हम मामा हैं - शरद जोशी | Sharad Joshi | ||||
एक सज्जन बनारस पहुँचे। स्टेशन पर उतरे ही थे कि एक लड़का दौड़ता आता। |
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स्वर्ग में विचार-सभा का अधिवेशन - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra | ||||
स्वामी दयानन्द सरस्वती और बाबू केशवचन्द्रसेन के स्वर्ग में जाने से वहां एक बहुत बड़ा आंदोलन हो गया। स्वर्गवासी लोगों में बहुतेरे तो इनसे घृणा करके धिक्कार करने लगे और बहुतेरे इनको अच्छा कहने लगे। स्वर्ग में भी 'कंसरवेटिव' और 'लिबरल' दो दल हैं। जो पुराने जमाने के ऋषि-मुनि यज्ञ कर-करके या तपस्या करके अपने-अपने शरीर को सुखा-सुखाकर और पच-पचकर मरके स्वर्ग गए हैं उनकी आत्मा का दल 'कंसरवेटिव' है, और जो अपनी आत्मा ही की उन्नति से और किसी अन्य सार्वजनिक उच्च भाव संपादन करने से या परमेश्वर की भक्ति से स्वर्ग में गए हैं वे 'लिबरल' दलभक्त हैं। वैष्णव दोनों दल के क्या दोनों से खारिज थे, क्योंकि इनके स्थापकगण तो लिबरल दल के थे किंतु ये लोग 'रेडिकल्स' क्या महा-महा रेडिकल्स हो गए हैं। बिचारे बूढ़े व्यासदेव को दोनों दल के लोग पकड़-पकड़ कर ले जाते और अपनी-अपनी सभा का 'चेयरमैन' बनाते थे, और व्यास जी भी अपने प्राचीन अव्यवस्थित स्वभाव और शील के कारण जिसकी सभा में जाते थे वैसी ही वक्तृता कर देते थे। कंसरवेटिवों का दल प्रबल था; इसका मुख्य कारण यह था कि स्वर्ग के जमींदार इन्द्र, गणेश प्रभृति भी उनके साथ योग देते थे, क्योंकि बंगाल के जमींदारों की भांति उदार लोगों की बढ़ती से उन बेचारों को विविध सर्वोपरि बलि और मान न मिलने का डर था। |
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नारदजी को व्यासजी का नमस्कार! - गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas | ||||
वंदनीय, भक्तप्रवर, देवर्षि एवं आदिपत्रकार नारदजी महाराज, मेरे हार्दिक प्रणाम स्वीकार करें ! |
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अफसर कवि | व्यंग्य - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai | ||||
एक कवि थे। वे राज्य सरकार के अफसर भी थे। अफसर जब छुट्टी पर चला जाता, तब वे कवि हो जाते और जब कवि छुट्टी पर चला जाता, तब वे अफसर हो जाते। |
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कचरा लेखन | व्यंग्य - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त | ||||
“लेखक महोदय! आपके अनुभव और पहुँच के चलते इस बार विश्व पुस्तक मेले में आपकी बड़ी धूम रही। जितनी बार साँसें नहीं लीं उतनी बार तो आपने पुस्तकों का लोकार्पण कर दिया। जहाँ देखिए वहाँ आप ही आप छाए हुए थे। मधुमक्खी के छत्ते की तरह फोटों खिंचवाने की लेखकों में बड़ी चुल मची थी। पता ही नहीं चल रहा था कि लेखक कौन है और उसके रिश्तेदार कौन हैं? एक सप्ताह-दस दिन गुजर जाने के बाद लेखक खुद को उन फोटो में ढूँढ़ने में गच्चा खा जाएगा। यह सब छोड़िए। यह बताइए इतनी सारी पुस्तकें घर ले आए हैं, इनका क्या करेंगे?” – मैंने पूछा। |
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नेतृत्व की ताक़त | व्यंग्य - शरद जोशी | Sharad Joshi | ||||
नेता 'शब्द दो अक्षरों से बना है। 'ने' और 'ता'। इनमें एक भी अक्षर कम हो, तो कोई नेता नहीं बन सकता। मगर हमारे शहर के एक नेता के साथ अजीब ट्रेजेडी हुई। वह बड़ी भागदौड़ में रहते थे। दिन गेस्टहाउस में गुज़ारते, रातें डाक बंगलों में। लंच अफ़सरों के साथ लेते, डिनर सेठों के साथ! इस बीच जो वक़्त मिलता, उसमें भाषण देते। कार्यकर्ताओं को संबोधित करते। कभी-कभी खुद सम्बोधित हो जाते। मतलब यह कि बड़े व्यस्त। 'ने' और 'ता' दो अक्षरों से तो मिलकर बने थे। एक दिन यह हुआ कि उनका 'ता' खो गया। सिर्फ़ 'ने' रह गया। |
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मजबूरी और कमजोरी - नरेन्द्र कोहली | ||||
मैं रामलुभाया के घर पहुँचा तो देख कर चकित रह गया कि वह बोतल खोल कर बैठा हुआ था। |
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देशभक्त - नरेन्द्र कोहली | ||||
रामलुभाया बहुत जल्दी में था। मैं उसे पुकारता रहा और वह मुझ से भागता रहा। अंततः मैंने दौड़ कर उस को पकड़ ही लिया। |
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भेजो - नरेन्द्र कोहली | ||||
"हुजूर! ख़बर आई है कि हमारे लोगों ने भारतीय कश्मीर में पच्चीस हिंदू तो मार ही दिए हैं। ज़्यादा हों तो भी कुछ कहा नहीं जा सकता। उन्होंने दो-दो साल के बच्चे भी मार गिराए हैं।” |
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चौथा बंदर - शरद जोशी - शरद जोशी | Sharad Joshi | ||||
एक बार कुछ पत्रकार और फोटोग्राफर गांधी जी के आश्रम में पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि गांधी जी के तीन बंदर हैं। एक आंख बंद किए है, दूसरा कान बंद किए है, तीसरा मुंह बंद किए है। एक बुराई नहीं देखता, दूसरा बुराई नहीं सुनता और तीसरा बुराई नहीं बोलता। पत्रकारों को स्टोरी मिली, फोटोग्राफरों ने तस्वीरें लीं और आश्रम से चले गए। |
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1968-69 के वे दिन - शरद जोशी | Sharad Joshi | ||||
(यह लेख सौ वर्ष बाद छपने के लिए है) |
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सरकार का जादू : जादू की सरकार - शरद जोशी | Sharad Joshi | ||||
जादूगर मंच पर आकर खड़ा हो गया। वह एयर इंडिया के राजा की तरह झुका और बोला, ''देवियो और सज्जनो, हम जो प्रोग्राम आपके सामने पेश करने जा रहे हैं, वह इस मुलुक का, इस देश का प्रोग्राम है जो बरसों से चल रहा है और मशहूर है। आप इसे देखिए और हमें अपना आशीर्वाद दीजिए।" इतना कहकर जादूगर ने झटके से सिर उठाया और जोरदार पाश्र्व संगीत बजने लगा। |
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अतिथि! तुम कब जाओगे - शरद जोशी | Sharad Joshi | ||||
तुम्हारे आने के चौथे दिन, बार-बार यह प्रश्न मेरे मन में उमड़ रहा है, तुम कब जाओगे अतिथि! तुम कब घर से निकलोगे मेरे मेहमान! |
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