यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।
कवि की बरसगाँठ (काव्य)    Print  
Author:गोपाल सिंह नेपाली | Gopal Singh Nepali
 

उन्तीस वसन्त जवानी के, बचपन की आँखों में बीते
झर रहे नयन के निर्झर, पर जीवन घट रीते के रीते


          बचपन में जिसको देखा था
          पहचाना उसे जवानी में
          दुनिया में थी वह बात कहाँ
          जो पहले सुनी कहानी में
          कितने अभियान चले मन के
          तिर-तिर नयनों के पानी में
          मैं राह खोजता चला सदा
          नादानी से नादानी में


मैं हारा, मुझसे जीवन में जिन-जिनने स्नेह किया, जीते
उन्तीस वसन्त जवानी के, बचपन की आँखों में बीते

 

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