अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
सात सागर पार (काव्य)    Print  
Author:जोगिन्द्र सिंह कंवल | फीजी
 

सात सागर पार करके भी ठिकाना न मिला
सौ साल प्यार करके भी निभाना न मिला

कई जनमों से तो बिछड़े थे एक मां से हम
दूसरी मां के आंचल में भी सिर छिपाना न मिला

पीढ़ियां खेली हैं ऐ देश तेरी गोद में
फिर भी तेरी ममता का हमें नजराना न मिला

हम ने बंजर धरती में खिला दिए रंगीन फूल
तेरी पूजा के लिये दो फूल चढ़ाना न मिला

खून पसीने से बनाया था जन्नत का चमन
इस की किसी डाल पर भी आशियाना न मिला

हम तो पागल हो गये मंजिलों की खोज में
इतनी भटकन के बाद भी कोई ठिकाना न मिला

हम ने क्या पाप किया समझ में आता नहीं
वर्षों की लगन का हमें, कोई इवज़ाना न मिला

- जोगिन्द्र सिंह कंवल, फीज़ी

 

सनद रहे: जोगिन्द्र सिंह कंवल फीज़ी के प्रतिष्ठित कवि हैं। उनकी यह कविता प्रवासी भारतीयों की व्यथा-कथा है। फीज़ी ने चार तख्ता पलट झेले है जिसमें भारतवंशियों को बहुत हानि उठानी पड़ी। अपनी मातृ-भूमि से बिछुड़ना और नयी धरती पर जड़े न जम पायें तो कलम का ऐसा क्रंदन स्वाभाविक है।  - संपादक

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